इंद्रधनुष सतरंगा
(18)
संपादक से नोक-झोंक
मोबले शाम तक अस्पताल में रहे। उन्हें देखने कोई नहीं आया, अलावा आतिश जी के। उन्हें आधे घंटे बाद ही ख़बर हो गई थी। फौरन भागे आए। हालाँकि उन्हें अख़बार के लिए एक ज़रूरी रिपोर्ट तैयार करनी थी। समय भी कम था। लेकिन सुना तो रहा न गया। अपने सहायक को काम पकड़ाकर दौड़े आए। सोचा था मुहल्ले से कोई न कोई आ ही जाएगा। उसके आते ही वह लौट आएँगे। पर इसी प्रतीक्षा में दिन बीत गया और कोई न पहुँचा।
शाम को मोबले को पहुँचाकर आतिश जी घर पहुँचे ही थे कि अचानक किसी ने दरवाजे़ पर दस्तक दी। वह खीझ उठे। दिन भर अस्पताल में रहने के कारण काफी थक गए थे। सोचा था जमकर सोएँगे। लेकिन उनकी किस्मत में चैन कहाँ था? नौकरी ऐसी थी कि वक़्त-बेवक़्त दौड़ना पड़ता था। दिन-दिन भर घर से बाहर रहना पड़ता था। संयोगवश कभी घर पर रह जाते तो मिलने-जुलने वालों का ताँता लग जाता। शहर के प्रतिष्ठित लोगों में उनका उठना-बैठना था। थाना-पुलिस में भी अच्छी जान-पहचान थी। इसीलिए लोग अपनी समस्याएँ लेकर दरवाजे़ डटे रहते। कई लोग ऐसे भी होते जिनका कोई काम तो नहीं होता था, पर जो सोचते थे कि मेल-जोल बनाए रखना ज़रूरी है। क्या पता कब ज़रुरत पड़ जाए। आतिश जी खीझते तो ख़ूब थे, फिर भी मिलने से मना किसी को नहीं करते थे।
उन्होंने बेमन से उठकर दरवाज़ा खोला। सामने ऑफिस का चपरासी खड़ा था। उन्हें हैरत हुई। पूछा, ‘‘अरे बद्री तुम? कैसे आना हुआ? घर कैसे पता चला?’’
चपरासी मसखरा था। कहने लगा, ‘‘साहब, आपने एक साथ कई सवाल पूछ लिए। समझ में नहीं आता पहले किसका जवाब दूँ?’’
आतिश जी का मूड हल्का हो गया। बद्री की बात पर मुस्करा उठे, बोले, ‘‘आओ, अंदर आ जाओ। पहले चाय बनाकर लाता हूँ। फिर आराम से बातें होती हैं।’’
‘‘राम-राम! आप चाय बनाएँ और मैं पियूँ। ऐसा पाप मुझसे न होगा।’’ बद्री दोनों कान पकड़कर बोला।
आतिश जी समझ गए कि बद्री चापलूसी कर रहा है। पर उन्हें अच्छा लगा। उसका कंधा पकड़कर सटाते हुए बोले, ‘‘अरे यार, चपरासी तुम ऑफिस में होगे। यहाँ तो तुम मेरे मेहमान हो।’’
‘‘मेहमान नहीं छोटा भाई। अगर आप समझें।’’
‘‘हाँ-हाँ, छोटा भाई,’’ आतिश जी हँसकर बोले, ‘‘अच्छा, अब अंदर आओ और बैठो।’’
‘‘नहीं साहब, फिर कभी। बड़े साहब ने फौरन लौटने को कहा है।’’
‘‘अरे हाँ, मैं तो पूछना भूल ही गया था। काम क्या था?’’ आतिश जी माथे पर बल डालते हुए बोले।
‘‘बडे़ साहब ने फौरन बुलवाया है।
‘‘क्यों? कोई ख़ास काम था?’’
‘‘काम का तो पता नहीं, पर थे बड़े ग़ुस्से में। बड़ा उल्टा-सीधा बक रहे थे। दो-चार लोगों को केबिन में बुलाकर फटकारा भी। मैं तो उनके सामने ही नहीं पड़ा। अफसर की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी दोनों से बचना चाहिए।’’
‘‘अच्छा---ऐसी कौन-सी बात हो गई,’’ आतिश जी के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं।
‘‘सुना है मैनेजर साहब ने उनको बंगले पर बुलाकर फटकारा है। वही खिसियाहट हम लोगों पर उतार रहे हैं।’’
आतिश जी ने चश्मा उतारकर हाथ में ले लिया। समझ गए कि मामला गंभीर है।
‘‘साहब मैं चलूँ। वर्ना मेरी तो छुट्टी हो जाएगी।’’
अपनी खटारा सायकिल लेकर बद्री भाग लिया। आतिश जी समझ गए कि उसे ऑफिस से निकले काफी देर हो गई होगी। पहले उसने बाज़ार जाकर अपने काम निपटाए होंगे, दुकान पर चाय पी होगी, गप्पें मारी होंगी, फिर इधर आया होगा। जवाब-तलब होगा तो कह देगा घर ढूँढने में देर हो गई।
आतिश जी अंदर गए। एक मन हुआ कि ऑफिस न जाएँ। खा-पीकर चैन से सोएँ। फिर जो होगा देखा जाएगा। लेकिन सोच-विचार में मन इतना उलझ गया कि जाना ही बेहतर समझा। कपड़े बदले, थैला लटकाया और बाहर आ गए। स्कूटर स्टार्ट करने ही जा रहे थे कि सड़क पर पंडित जी सरपट जाते हुए दिखाई दिए।
‘‘अरे पंडित जी, कहाँ भागे जा रहे हैं? सब ठीक तो है न?’’ उन्होंने चिल्लाकर पूछा।
‘‘दिल्ली जा रहा हूँ। भैया की तबीयत अचानक फिर बिगड़ गई है। चिकित्सालय में भर्ती हैं।’’ उन्होंने बताया।
‘‘---फिर हार्ट-अटैक।’’
‘‘हाँ। एक प्रार्थना है, आपसे,’’ पंडित जी दोनों हाथ जोड़कर कहने लगे, ‘‘यदि स्कूटर से स्टेशन छोड़ दें तो संध्या वाली टेªन मिल सकती है।’’
‘‘अरे-अरे, आप तो शर्मिंदा करते हैं, पंडित जी। प्रार्थना कैसी आप तो आदेश दीजिए।’’
आतिश जी ने फौरन स्कूटर स्टार्ट किया और पंडित जी को बिठाकर चल पड़े।
स्टेशन रोड पर बड़ी भीड़ होती थी। आने-जाने वाले मुसाफिर, रिक्शा, मोटर-गाडि़याँ, सब मिलकर ऐसा जाम लगाते कि पंद्रह मिनट का सफर घंटे भर में पूरा होता। ऊपर से दूकानदारों ने दूकानें इतनी बढ़ा-बढ़ाकर लगा रखी थीं कि चौड़ी सड़क भी सँकरी गली जैसी लगती थी।
आतिश जी समझ गए कि अब तो एक-डेढ़ घंटा गया। उनका ऑफिस और रेलवे पड़ते भी एक-दूसरे के विपरीत थे। वह मन ही मन प्रार्थना करने लगे कि काश बद्री अभी ढाबे पर बैठा चाय पी रहा हो और ऑफिस एक घंटा लेट पहुँचे।
पंडित जी को स्टेशन छोड़कर आतिश जी भागे-भागे पहुँचे तो पूरे डेढ़ घंटे लेट हो चुके थे। धड़कते दिल से उन्होंने संपादक के कमरे में प्रवेश किया।
संपादक अधेड़ उम्र, साँवले शरीर और घुँघराले बालोंवाले एक स्थूल काय व्यक्ति थे। भरी-भरी मूछें और भूरी आँखें उनके चेहरे को और रोबीला बना देती थीं। उस समय वह फाइल खोले किसी रिपोर्ट के अवलोकन में व्यस्त थे। आतिश जी को देखते ही बोले, ‘‘आइए-आइए, पत्रकार महोदय।’’
संपादक का लहजा देखकर आतिश जी समझ गए कि मामला गड़बड़ है।
‘‘बद्री को आए डेढ़ घंटे से ऊपर हो चुके हैं।’’ वह घड़ी की ओर नज़र डालते हुए बोले।
‘‘जी दरअसल मेरे पड़ोसी के बड़े भाई---’’
‘‘देखिए मिस्टर,’’ संपादक उनकी बात काटकर बोले, ‘‘आप पत्रकार हैं, पत्रकार ही बने रहिए। समाज-सेवा का काम दूसरों पर छोड़ दीजिए। सारा काम आप अपने सिर ले लेंगे तो और लोग बेचारे क्या करेंगे? आप क्यों उन्हें बेरोज़गार बनाने पर तुले हैं?’’
संपादक की बातों का व्यंग्य आतिश जी को भीतर तक बेध गया।
‘‘पिछले कुछ दिनों से देखता हूँ आपका मन काम में नहीं लगता। सुबह जो रिपोर्ट आपको तत्काल पूरी करने के लिए दी गई थी, उसकी क्या प्रगति है?’’
‘‘जी-----वह---वह तो--’’ आतिश जी कोई जवाब न दे सके।
‘‘देखिए मिस्टर, समाचार-पत्र में रोज़ का समाचार रोज़ छापा जाता है, हफ्रते भर बाद नहीं। आपकी वजह से हमारे समाचार-पत्र को कितना नुकसान उठाना पड़ रहा है, आपको पता है? पत्रकारिता कोई हँसी-खेल नहीं है। यह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होती है----’’
पंद्रह मिनट तक संपादक का भाषण चलता रहा। आतिश जी पस्त होकर वापस लौटने लगे तो पीछे से संपादक ने टोका, ‘‘अगर नौकरी को नौकरी की तरह कर सकते हों तो करिए। वर्ना समय मत बर्बाद करिए--अपना भी और हमारा भी।’’
आतिश जी केबिन से निकलकर तत्काल बाहर आ गए। स्कूटर स्टार्ट किया और घर की ओर चल पड़े।
***