Aprtim Chahat in Hindi Motivational Stories by Rajesh Maheshwari books and stories PDF | अप्रतिम चाहत

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अप्रतिम चाहत

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यशवंतपुर नाम के एक नगर में प्रेमवती नाम की एक संभ्रांत महिला रहती थी। उसे बचपन से ही चित्रकला का बहुत शौक था। वह दिन भर केनवास पर रंग बिरंगे रंगों से चित्र बनाती रहती थी। धीरे धीरे उसकी चित्रकला की प्रसिद्धि बढ़ती गयी। उसकी एक एकल चित्रकला प्रदर्षनी का आयोजन किया गया था जिसे देखकर दर्शक भावविभोर होकर उसकी कला की प्रशंसा कर रहे थे। हेमंत नाम का एक व्यक्ति भी वह प्रदर्शनी देखने के लिए आया हुआ था। उसने सभी चित्रों को देखकर प्रेमवती से कहा कि आपकी इतनी अच्छी पेंटिंग्स के लिए आपको बधाई देता हूँ परंतु इनकी बनावट से महसूस होता है कि आपके दिल में एक बहुत बडा दर्द छिपा हुआ है। आपके ना चाहते हुए भी मानवीय संवेदनाओं का चित्रण कहीं ना कहीं नजर आ जाता है।

प्रेमवती चौकी और पूछ बैठी कि आप यह कैसे कह सकते है। वह बोला मै भी एक अच्छा चित्रकार था परंतु अब चित्रकारी नही करता हूँ परंतु इसका ज्ञान तो रखता ही हूँ। वार्तालाप के दौरान दोनो के बीच अच्छी पहचान बन गयी और एक दिन निकट के काफी हाऊस में काफी पीने बैठ गये।

इस दौरान हेमंत ने बताया कि वह एक उद्योगपति परिवार से है और चित्रकला उसका शौक है। उसका विवाह हो चुका था परंतु दुर्भाग्य से उसकी पत्नी ब्लड कैंसर के कारण अस्पताल में अपने अंतिम समय का इंतजार कर रही थी। मैं उसको बहुत चाहता था, मुझे फोन पर सूचना मिली कि उसकी स्थिति काफी गंभीर है और वह मुझे याद कर रही है। मैं अपनी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी में कुछ महत्वपूर्ण मंत्रियों, राजनैतिक प्रतिनिधियों के बीच घिरा हुआ था इसलिये मुझे उनसे विदा लेने में कुछ समय लग गया और जब अस्पताल पहुँचा तो मुझे यह जानकर गहरा सदमा पहुँचा कि वह अंतिम समय तक मुझे याद करती हुयी मुझसे बिना मिले ही हमेशा के लिए बिछुड गयी। इस घटना से मुझे इतना गहरा सदमा पहुँचा कि मैंने पेंटिंग्स करना बंद कर दिया। यह सुनकर प्रेमवती स्तब्ध रह गयी और उसने सहानूभूति व्यक्त करते हुए उसे सांत्वना दी।

हेमंत के द्वारा उसके बारे में पूछने पर प्रेमवती ने भी अपने बारे में उसे बताया कि वह विवाहित थी एवं उसका पति अमेरिका में रहता था तथा पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति में इतना घुल मिल गया था कि मेरी उसकी पटरी नही बैठ पाई और हम लोग अलग हो गये। इसका दुख तो मुझे बहुत हुआ कि मैं अपने माता पिता की अकेली संतान हूँ परंतु मैंने अपने को संभाल कर पेंटिग के षेत्र में ही अपने आप के समर्पित कर दिया है और इसकी बिक्री से जो भी रकम प्राप्त होती है उसे गरीब बच्चों की पढाई में खर्च कर देती हूँ।

इस प्रकार दोनो की मित्रता बढती गयी और यह भावनात्मक संबंधों में बदल गयी। मानव सोचता कुछ है परंतु जीवन में कभी कभी कुछ और हो जाता है। कुछ ऐसा ही इन दोनो के जीवन में भी हुआ। एक दिन हेमंत अपने आफिस में बैठा था तभी उसे अचानक ही सूचना प्राप्त हुई कि प्रेमवती का किसी कार से एक्सीडेंट हो गया है और वह गंभीर अवस्था में अस्पताल में है। हेमंत तुरंत अस्पताल पहुँचता है जहाँ उसे पता चलता है कि एक्सीडेंट के कारण प्रेमवती का दाहिना हाथ बेकार हो गया है।

प्रेमवती के होश में आने के बाद जब उसे इसकी जानकारी मिलती है तो वह फफक फफक कर रोने लगती है। यह देखकर हेमंत आगे बढकर उसे समझाते हुए कहता है कि देखो मेरे ये दोनो हाथ भी तो तुम्हारे ही है। मैं आज भी तुम्हारे लिए उतना ही समर्पित हूँ जितना कल था। कुछ समय बाद अस्पताल से प्रेमवती की छुट्टी हो जाती है और हेमंत उसे लेकर उसके घर पहुँचता है तो वह देखती है कि उसके द्वारा छोडी हुयी अधूरी पेंटिग पूरी बन चुकी थी और उसे पता होता है कि इसे हेमंत ने पूरा किया है।

ये देखकर प्रेमवती की आँखें सजल हो जाती है। कुछ माह उपरांत एक दिन हेमंत प्रेमवती के सामने शादी का प्रस्ताव रखता है परंतु प्रेमवती यह कहते हुए मना कर देती है वह अपंग हो चुकी और जीवन भर उस पर बोझ नही बनना चाहती है। यह सुनकर हेमंत कहता है कि विवाह दो दिलों के भावानात्क संबंधों के मिलन की परिणिति होती है। हेमंत के बहुत अनुरोध करने के बाद भी प्रेमवती विवाह करने से इंकार कर देती है। वह कहती है कि उसका स्वभाव पुराने विचारों का है इसी कारण अमेरिका में उसकी पटरी नही बैठ पाई। हेमंत यह सुनने के बाद इतना ही कहता है कि जिसमें में तुम खुश हो वही मेरे जीवन की खुशी है। अब वह अपना समय प्रेमवती के अधूरे सपनों को पेंटिग्स के माध्यम से पूरा करने लगाता है और यही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है।

ऐसा कहा जाता है कि वक्त किसी भी पीडा के घाव को समय के साथ बदल देता है। प्रेमवती के साथ भी ऐसा ही हुआ, वह साहसी, निडर एवं कर्तव्यनिष्ठ महिला थी। उसने अपना दाहिना हाथ खराब हो जाने का दुख मन से निकाल कर कुछ माह के उपरांत अपने बायें हाथ से पेंटिंग बनाने का अभ्यास शुरू किया और फिर उसे धीरे धीरे अपने इस प्रयास में सफलता मिलने लगी। वह एक वर्ष में इतनी पारंगत हो गई कि पहले के समान ही पेंटिंग बनाने लगी। अब हेमंत और प्रेमवती दोनो अपनी पेंटिंग्स को बेचकर उससे प्राप्त होने वाली आय को सद्कार्यों में खर्च करने लगे। प्रेमवती ने अपने आत्मविष्वास और दृढ़ निष्चय से यह साबित कर दिया था कि जीवन में किसी भी कठिन परिस्थिति से बाहर निकला जा सकता है।