माँ से ही मायका होता है
कब्रें विच्चों बोल नी माए
दुःख सुःख धी नाल फोल नी माए
आंवा तां मैं आमा माए
आमा केहरे चावा नाल
माँ मैं मुड़ नहीं पैके औणा
पेके हुंदे माँवा नाल।
सुरजीत बिंदरखिया का यह गीत हस्पताल के जनरल वार्ड से स्पेशल रूम की खिड़की से होता हुआ सुखवंत के कानो में भी पड़ रहा था। शायद किसी की मोबाईल फोन की रिंग टोन थी। दवाइयों के नशे से ज्यादा हिल तो नहीं पा रही थी लेकिन चेतना तो पूर्ण रूप से थी।
" माँ !! "
" पैके हुंदे माँ वा नाल। "
हृदय से हूक उठी जो जबान पर आह बन कर निकली। माँ -बापू तो साल पहले ही दुनिया छोड़ चले हैं। एक बस दुर्घटना में उन चारों भाई बहनो बिलखता छोड़ गए। बेशक सभी अपने घरों सुखी थे। लेकिन बेटियों को माँ -बाप हर उम्र में चाहिए। वो किसे अपने मन की कहे। कौन प्यार से सर पर हाथ रखे।
भाई अपनी दुनियाँ में मगन हो जाते हैं। और हो भी क्यों ना हो उनका अपना परिवार, जिम्मेदारी भी तो होती है। दोनों बहने जब भी मायके आती, माँ-बापू कितना चाव करते थे। छोटे भाई के साथ रहते थे। बड़े का घर सामने था। छोटे की शादी होते ही कुछ दिनों बाद बड़ा भाई अलग हो गया। अलग क्या हुआ, जैसे वैर ही बांध लिया छोटे से। छोटा भी कम नहीं था वह भी अड़ जाता। खेतों में पानी की बारी हो या बाड़ लगाना हो। हर जगह बड़ा भाई चौधरी बन कर खड़ा हो जाता। खुद के करोड़ पति होने का दम्भ भरता।
छोटे भाई का रोना शुरू हो जाता कि उसको क्या मिला सारा धन तो बड़ा हड़प गया। उसके सर पर माँ-बापू का बोझ भी तो है। रोज़ बीमारी पर खर्चा होता है। बहने भी साल में कई चक्कर लगा जाती है, उनको भी कोई खाली थोड़ी भेजा जाता है। ऊपर से दो बेटियां भी तो हैं। बड़े भाई के तो ऐश है। कोई जिम्मेदारी नहीं, ऊपर से रौब भी सहन करो उनका। किस्मत तो मेरी फूटी है जो मरा हुआ सांप गले पड़ गया।
" ओये कुलजीते !! ये मेरे बेटे नहीं है ! राहु -केतु हैं ! उनकी तरह ही कभी एक साथ नहीं रहते। आमने सामने अड़े रहते हैं और चलते भी वक्री गति से हैं। कोई बदला है पिछले जन्म का, या मेरी परवरिश ही ऐसी है !"
माँ क्या कहती बापू को। वे सही तो बोलते थे।
" परवरिश तो बुरी नहीं की जी हमने !! "
बेटियां मायके आती तो भाभी बाजार से कपड़े कहाँ लाने देती थी। पहले ही शोर मचा कर अपनी कमियों का रोना शुरू कर देती। माँ अपने पास जो रूपये रखे होती थी उन्ही में से कुछ दे देती।
हालाँकि बापू के हिस्से की जमीन छोटा ही देखता था।पर फसल का तीसरा हिस्सा भी रो -रो कर देता। छोटी भाभी जितनी रूपवती थी उतनी ही कर्कशा। माँ -बापू को जब तक दिन में एक बार रुला ना दे, चैन नहीं मिलता। इसी स्वभाव के कारण बच्चों में ननिहाल आना ही छोड़ दिया था। बेटियां ही आती कुछ दिन रह कर अपने घर वापस आ जाती।
बड़ी भाभी मीठी छुरी जैसी, भाई के खेतों की तरफ या शहर चले जाने के बाद माँ के पास आकर मीठी बातों से टोह लेती कि कितनी फसल हुई। माँ के पास कितना माल है। कई बार तो दोनों बहुओं में तकरार भी हो जाती। छोटी को ऐतराज़ था कि बड़ी को अगर इतना ही मोह प्यार है तो इनको साथ क्यों नहीं रखती। इस तकरार को देखते हुए बेटियों ने अपने साथ ले जाने की भी सोची।
सुखवंत ने, उसकी छोटी बहन ने भी कई बार कहा भी कि वे उसके साथ चलें। कम से कम चैन की साँस तो मिलेगी।
" ना पुत्त ना !! बेटी के घर जायेंगे तो लोग क्या कहेंगे। अब यही रहेंगे हम। तू तेरे घर सुख से रह। "
" सुख !! "
फिर आह निकल गई सुखवंत के मुहं से। क्या सुख था उनको बेटों का। कितनी मन्नते मांगने पर बेटे मिलते हैं और अगर बेटे ऐसे निकल जाये तो !
" सरदार जी ! जब तक हम हैं , बेटियों को कुछ न कुछ देते रहते हैं। जब ना रहेंगे तो ये बेटे -बहू तो उनको घर में भी क्या मालूम आने दे या ना आने दे। मेरी इच्छा है कि थोड़ी जमीन या शहर की कुछ जायदाद बेटियों के नाम लगा दें। ये भी तो इसी घर का हिस्सा हैं, इन्होने भी तो यहाँ जन्म लिया है। मेरे लिए तो सभी एक जैसे हैं। "
" हाँ कुलजीते ! तेरी बात सही है। मैं भी यही विचार कर रहा हूँ। "
संयोग से यह बातचीत छोटी बहू के कानो में पड़ गई । फिर तो उस रात ना वह सोई ना ही घर में किसी को सोने दिया। वह हंगामा खड़ा किया कि पड़ोसी भी जाग गए। बात मरने -मारने तक पहुँच गई। अगले दिन बेटियों को भी बुलवा लिया।
" बेटियों को मायके की सुख शांति के अलावा कुछ नहीं चाहिए। हम दोनों बहनों को जायदाद का थोड़ा सा भी हिस्सा नहीं चाहिए। रब जी के वास्ते तुम माँ -बापू पर जुल्म करना छोड़ दो। पता नहीं कितने साल और जीयेंगे। चैन से मर सकें इतना तो जी लेने दो इनको !! " सुखवंत को बहुत गुस्सा आया। दोनों बहने बिना खाए पिए ही घर से जाना चाह रही थी। माँ के बारे में सोच कर कुछ निवाले गले में सरका लिये।
बड़े भाई को पता चला। वह भी जायदाद पर दावा करने पहुँच गया। उसे लगा, बापू खुद के हिस्से की जमीन भी कहीं छोटे के नाम ना कर दे। उसने कहा कि जमीन चाहे बापू के मरने के बाद मिले, नाम अभी लगा दे। क्या मालूम छोटा कब्ज़ा कर ले दे ही ना। छोटा कहाँ चुप रहने वाला था। वह भी बोला कि सेवा तो वह करता है। इनके मरने के बाद खर्चा भी उसे ही उठाना है। जमीन भी वही रखेगा।
सुन कर दिल कट कर रह गया। लालच और स्वार्थ कितना गिरा देता है इंसान को।
माँ मुहं ढांप के रो पड़ी। " अरे कसाइयों ! क्या तुमको इस दिन के लिए जन्मा था। कुछ तो शर्म करो, लिहाज करो हमारी उम्र का। इस उम्र में हमें प्यार के दो बोल चाहिए। इज़्ज़त -मान चाहिए। दौलत -जायदाद यहीं धरी जाएगी। साथ नहीं जाएगी। मुहं से बद्दुआ नहीं दे सकती ! माँ हूँ ! लेकिन तड़पता दिल दुआ तो नहीं दे सकता ! "
सुखवंत और जसवंत दोनों बहने अपने घर चली गई। भारी मन से। मायके का दुःख ससुराल में कैसे कहती। मायके की इज़्ज़त का सवाल भी तो था। अंदर ही अंदर रो लेती बाहर मुस्कुरा लेती। बस वही आखिरी मुलाकात थी, माँ -बापू से से। रिश्तेदारी में जा रहे थे। बस दुर्घटना ने दोनों को छीन लिया। कहर टूट पड़ा जैसे।
कुछ दिन मायके रह वापस आ गई। भाभियाँ मन ही नहीं जोड़ थी ननदों से। असल में मायका तो भाई -भतीजों से ही तो होता है। माँ -बाप हमेशा तो नहीं रहते !भाई -भाभियों बेरुखी से बहनो ने समझ लिया था कि उनका मायका, मायका नहीं रहा। एक कसक भरी याद बन गया है। अपने -अपने घरों खुश थी।
जीवन तो चलता ही है। चल पड़ा। सुखवंत के बेटे की शादी की तारीख नज़दीक आ रही थी। शादी की तैयारी में व्यस्त सुखवंत अपना दुःख कुछ भूलने थी। बीच -बीच में यह भी बात उठती कि ननिहाल से भी तो कुछ आएगा ही। दो मामा है। अपना फ़र्ज़ अच्छा ही निभाएंगे। सुखवंत के पति को सब पता था। वह कह देता कि क्यों मेरे पास क्या कमी है जो ससुराल से आस रखूं। सुखवंत क्या बोलती।
शादी का निमंत्रण देने बेटे साथ मायके गई। कुछ नहीं बदला था। वही आँगन, दीवारें ! भाई -भाभियों की बेरुखी भी वही। आँगन में बैठी माँ -बापू खोज रही थी। कि इधर से माँ भागी आती आती थी उसे गले लगाने। बापू भी तो सुन कर दौड़े आते थे। कितना प्यार -दुलार कि वह खुद को बच्ची ही समझ बैठती। हृदय में हूक उठी। काश आज माँ सामने होती, एक बार गले लग कर रो लेती।लेकिन माँ नहीं थी।
और अब ! दोनों भाभियाँ !! हां, हैरानी तो उसे भी थी। पहले तो इतनी एकता नहीं थी उनमें। माँ -बापू के मरते ही भाई एक हो गए। जायदाद बाँट ली। यानी कि माँ-बापू का खून ही मीठा था जो ये जोंक की तरह पीते रहे। मन वितृष्णा से भर गया उसका । भाभियों ने मन तो न मिलाया। पकवान बहुत बनाये। जब मन ही मर गया हो तो मन मार के ही खाना गले से उतरा।निमंत्रण दे कर भरे मन से लौट आई सुखवंत।
शादी की धूमधाम थी घर में। मेहमानों से घर भर गया। भाइयों की उडीक ( इंतज़ार ) थी। भाई सपरिवार तो आये पर पर महज औपचारिकता सी निभाने। सास भड़क गई।
" ऐ की सुखवंत !! तेरे भाई यूँ ही आ गए हाथ हिलाते। तेरे बापू के बाद यही तो पहला काम था। शर्म तो नहीं आयी। खुद के साथ हमारी भी नाक कटवा दी। "
करतार सिंह ने बात संभाली, " जान दे बेबे ! क्या कमी है मेरे पास। "
सास का मुहं फूला ही रहा। सुखवंत के पास कहने को कुछ नहीं था। दिल रो रहा था। मुस्करा कर रस्में निभाए जा रही थी। बेटा दूल्हा बना बहुत प्यारा लग रहा था। हर माँ का अरमान बेटे को दूल्हा बने देखने का, उसके संसार को बसते देखने का होता है। ढेर सारी दुआएं दे डाली। सहसा माँ याद आ गई। अगर माँ होती तो कितना खुश होती।
शाम को दुल्हन आ गयी की गूंज से घर गुंजायमान हो गया। द्वार पर मंगलाचार करते हुए सुखवंत की आँखों के आगे जैसे अँधेरा छा गया और बेहोश गई। दिल ही तो था। इतना सारा गम भरा था, ख़ुशी झेल नहीं पाया। हृदय घात बताया डॉक्टर ने। होश आया तो अस्पताल में थी। कुछ दिन आई सी यू में रखने के बाद पिछली रात ही कमरे में शिफ्ट किया गया था। छत को निर्विकार देखती सुखवंत माँ को याद किये जा रही थी। उसे लगा जैसे माँ सर सहला रही है। आँखे मुंद गई।
" सुखवंते ! सो रही है ? " करतार सिंह की आवाज़ सुन कर सुखवंत ने आँख खोली। करतार का हाथ ही उसके सर पर था। सर घुमाया तो बेटा - बहू और परिवार के सभी सदस्य थे चिंता और ख़ुशी के भाव लिए। सहसा उसकी नज़र कमरे के दरवाज़े पर जा कर रुक गई।
" सुखवंते, तैन्नू हुण वी किस्से दी उडीक है ? " करतार ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए पूछा।
" नहीं सरदार जी, हुण मैन्नू किस्स्से दी वी उडीक नहीं है। पैके हुंदे माँवा नाल (माँ से ही मायका होता है )! " कह कर आँखे मूंद ली सुखवंत ने। दो बून्द आँसू ढलक पड़े आँखों के किनारों से।
उपासना सियाग
upasnasiag@gmail.com
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