Dorr - Rishto ka Bandhan - 7 in Hindi Love Stories by Ankita Bhargava books and stories PDF | डोर – रिश्तों का बंधन - 7

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डोर – रिश्तों का बंधन - 7

डोर – रिश्तों का बंधन

(7)

दो साल होने आए थे नयना को विवेक का घर छोड़े, अब तो वह कानूनी रूप से भी विवेक से अलग हो चुकी है। कभी कभी वह सोचने लगती क्या मिला उसे इस शादी से। पांच साल का वैवाहिक जीवन जिसमें खुशी कम और समझौते ज्यादा आए उसके हिस्से और बिना किसी कसूर तलाकशुदा का तमगा। उसका परिवार जरूर इस मुश्किल वक्त में उसके साथ खड़ा रहा पर समाज में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं थी जो उसे ही कसूरवार मानते थे। कुछ तो ऐसे भी थे जो सहानुभूति दिखाने की आड़ में उसका दुख कुरेद कर चल देते थे। इस तलाक की कीमत तो विवेक ने भी काफी बड़ी चुकाई थी, उसने ना सिर्फ प्रकाश खारीवालजी का वरद हस्त खोया था, बल्कि नयना की वकील ने नयना के लिए ऐलीमनी के रूप में जिस रकम की मांग की उसे चुकाने में उसकी सारी जमा पूंजी खर्च हो गई।

वकील तो विवेक पर घरेलू हिंसा का केस भी करना चाहती थी पर झूठा केस करने से नयना ने मना कर दिया। कोई शारीरिक चोट तो विवेक ने उसे कभी दी ही नहीं बस मन को एक कभी ना मिटने वाला जख्म दे दिया और अपने मन का यह जख्म नयना किसे दिखाती। सच तो यह था कि नयना को बस थोड़े से सुकून की तलाश थी प्रतिशोध की नहीं, और जब मुकदमे का फैसला होने में सालों लग जाते हैं तो उन हालात में कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ना तो भी कौन चाहे इसीलिए उन लोगों ने आपसी सहमति से तलाक का रास्ता चुना। नयना तो ऐलीमनी भी नहीं लेना चाहती थी आखिर उसके पांच साल की कीमत कागज के चंद टुकड़े कैसे हो सकते हैं पर यह सोच कर रुक गई की अपनी करनी का कुछ फल तो विवेक को भी मिलना ही चाहिए।

नयना आंखों में आंसू आ गए, उसे भुलाए नहीं भूलता वह पल जब वह शादी के बाद विदा होती मीनू को गले लगाने आगे बढ़ी थी पर मीनू उसे अपनी ओर आते देख हिकारत से पीछे हट गई थी। उस घर में कभी कोई उसका नहीं हो सका, वो देवर ननद भी नहीं जिन्हें उसने छोटे भाई बहन की तरह प्यार दिया था। क्या नहीं किया उन दोनों के लिए, उनकी मुश्किलें दूर करने में हमेशा दोस्त बन कर साथ दिया। जब पापाजी और विवेक ने रोहित की इंजीनियरिंग की फीस भरने में हाथ खड़े कर दिए थे तो वह नयना ही थी जिसने अपनी जमां पूंजी उसके हाथ पर धर दी थी।

मीनू का पढ़ाई में ध्यान कुछ खास नहीं लगता था पर सजने संवरने का शौक बहुत था उसे, नयना ने उसके इसी शौक को देखते हुए ही उसे ब्यूटिशियन के रूप में कैरीयर बनाने की सलाह दी थी। बल्कि सच कहे तो जबरन उसे ब्यूटिशियन का कोर्स करवाया और साथ ही उसका पार्लर भी खुलवाया था। क्योंकि वह मानती थी कि लड़कियों का आत्मनिर्भर होना उनके आत्मसम्मान के लिए बेहद आवश्यक है। चाहे पति या फिर पिता किसी भी स्त्री को कितना भी चाहे पर उसकी मेहनत की कमाई वह पुख्ता नींव होती है जिस पर स्त्री अपने आत्मसम्मान की इमारत खड़ी कर सकती है। कुछ हद तक उसके मामले में तो उसकी यह सोच सही भी साबित हुई थी, वह कमाती थी तभी विवेक का घर छोड़ने की हिम्मत कर पाई अन्यथा तो इतना बड़ा कदम उठाने से पहले उसे दो बार सोचना पड़ता।

"सारा दिन किस सोच में खोई रहती है।" विन्नी दीदी ने नयना को खोई खोई सी बैठे देखा तो कह उठीं।

"क्या हालत बना रखी है अपनी, कभी आईना भी देख लिया कर। मैं जानती हूं अतीत की कड़वी यादों को भुलाना आसान नहीं है पर कोशिश तो कर, खुदके लिए ना सही हमारे लिए ही सही। चल तैयार हो जा हम घूमने जा रहे हैं तू भी हमारे साथ चल।" रिन्नी दीदी ने जबरदस्ती नयना को तैयार होने भेज दिया, क्योंकि वह जानती थी अगर इस समय नयना की सोच की दिशा ना बदली गई तो वह धीरे धीरे अवसाद में डूबती ही जाएगी।

तैयार होते हुए नयना की नज़र आईने की ओर चली गई, सच में उसका चेहरा पीला पड़ गया था। उसे लगा आईना भी उससे शिकायत कर रहा है, जैसे कह रहा हो 'हम तो दोस्त थे ना नयना? कितनी बातें किया करती थी मुझसे, अपने मन की हर बात कह देती थी। फिर ऐसे क्यों मुंह मोड़ लिया मुझसे? मुझसे कैसी नाराज़गी? याद है एक बार मीनू ने आईने के सामने बैठे देख कर तुम्हारा मज़ाक उड़ाया था, तब तुमने क्या कहा था, मुझे याद है। तुमने कहा था-

आईना मुझसे बात करता है

खुद कुछ कहे ना कहे पर

मेरी हर कही अनकही सुनता है

दोस्त है मेरा

मेरे हर आंसू, हर हंसी का

हिसाब रखता है

आईना मुझसे बात करता है

एक सच्चे हमराज़ की तरह

हर राज़ को मेरे

भीतर अपने कहीं गहरे

दबा के रखता है

हां! आईना मुझसे बात करता है

नयना की आंखों में आंसू आ गए, वह एक आखिरी बार जी भर रोई और फिर मुस्कुरा दी। उसने निश्चय किया अपने अतीत की कड़वी यादों से बाहर निकल कर एक बार फिर से नई शुरुआत करने का, पहले की तरह छोटी छोटी खुशियां ढूंढने का। जानती थी थोड़ा मुश्किल है पर फिर भी कोशिश करने का। उसने नल चलाया और देर तक मुंह पर ठंडे पानी के छींटे मारती रही जैसे मुंह के साथ साथ अपने जीवन से अवसाद को भी धो डालना चाहती हो। जब वॉशरूम से बाहर निकली तो घरवालों को उसमें फिर एक बार पुरानी नयना की झलक दिखाई दी। सबने उसमें आए इस बदलाव को देख राहत की सांस ली क्योंकि वे समझ गए थे कि अब नयना खुद अपने दुख से बाहर आना चाहती है।

नयना ने पुरानी बातें भूलने के लिए खुद को काम में डुबो दिया। शीघ्र ही अपनी मेहनत का प्रतिफल भी उसे प्रमोशन के रूप में प्राप्त हो गया और उसने अपने शहर की बड़ी ब्रांच में असिस्टेंट मैनेजर का पद संभाल लिया। धीरे धीरे नयना अपने पेशे में उच्च से उच्चतर सोपान की ओर बढ़ रही थी, परिवारजनों का समर्थन और सहयोग भी उसे हर पल प्राप्त था फिर भी उसके मन के भीतर कहीं गहरे एक ख़ालीपन था और यही ख़ालीपन उसे दिन रात अपने ही जैसी परिस्थितियों से गुज़रने वाली महिलाओं के लिए और वंचित, शोषित लड़कियों के लिए कुछ करने को प्रेरित कर रहा था। वह सोचती कि वह तो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थी घरवालों का पूरा साथ भी उसे मिला तब भी वह अपने आत्मसम्मान से समझौता कर अपनी ससुराल में रहने की बजाय ससुराल छोड़ने का फैसला इतनी मुश्किल से ले पाई। किंतु अगर परिस्थितियां विपरीत होतीं तब भी क्या वह इतना बड़ा निर्णय लेने की हिम्मत कर सकती थी। बहुत सी महिलाएं तो सिर्फ़ इन्हीं कारणों से ही अपमानजनक हालातों के बावजूद ससुराल में रहने को मजबूर हो जाती हैं। इन महिलाओं के लिए कुछ करने की इस ललक ने नयना को एक सामाजसेवी संस्था से जोड़ दिया।

अब वह पहले की अपेक्षा थोड़ी ज्यादा व्यस्त रहने लगी थी पर साथ ही अब वह खुश भी थी और संतुष्ट भी। उसकी ज़िन्दगी अब पहले की तरह ठहरी हुई नहीं थी, बल्कि वक्त के साथ कदम से कदम मिलाने की कोशिश करने लगी थी। पर बीच बीच में जब बुआ या मोसी, मामी जैसा कोई रिश्तेदार आ कर उसकी शादी की बात छेड़ देता या फिर उसके लिए रिश्ता सुझाने लगता तब उसकी झील सी शांत ज़िन्दगी में जैसे कंकर सा पड़ जाता। उसे ऐसी बातों से चिढ़ सी होती थी। वह समझ नहीं पाती कि एक महिला के जीवन की पूर्णता विवाह ही क्यों है? क्यों लोग लड़़की के सुख दुख को विवाह से जोड़ देते हैं? जो विवाहित है, ससुराल में रहती है वह सुखी, फिर चाहे घर के कोनों में छिप कर आंसू बहाने को मजबूर ही क्यों ना हो। और तलाकशुदा या फिर पति को खो चुकी महिला अगर खुश होना भी चाहे तो यह समाज उसे खुश होते देख ही नहीं सकता।

एक दिन तो वह इस मुद्दे पर झगड़ ही पड़ी थी मां से, "मां अगर आपको मेरा यहां रहना पसंद नहीं तो आप मुझे साफ साफ कह दो। मैं कहीं और रह लूंगी, पर ये शादी-शादी का ड्रामा मुझसे दोबारा नहीं खेला जाएगा। एक बार में ही भरपाई मैं, अब फिर मुझे इस मुसीबत में धकेलने की सोचना भी नहीं।"

"ऐसा क्यों कह रही है नन्नी, क्या हो गया मेरी बच्ची?" मां ने प्यार से पूछा।

"जिसे देखो वो ही चला आता है मुंह उठाए मेरे लिए रिश्ता ले कर। बोझ हो गई हूं क्या मैं आपके लिए?"

"खबरदार! कुछ भी बोलती है लड़की। किसने कहा तू बोझ है हम पर। लाडली बेटी है हमारी, ग़ुरूर है तू हमारा। अब ऐसी बात की तो चपत खाएगी मुझसे।" चाची ने डांट दिया था उसे।

"बिटिया लोग तो वैसी ही बात कहेंगे ना जैसी उनकी सोच होगी, अगर हम लोगों की सोचने लगे तो जी भी नहीं पाएंगे। तू निश्चिंत रह, चाहे कोई कुछ भी कहे हम वही करेंगे जो तू चाहेगी।" मां ने उसे सीने से लगा कर शांत किया।

"नन्नी! ओ नन्नी!"

"आई चाची! हां बोलो।"

"रिन्नी ने कटहल का अचार मंगाया था। कई दिन हो गए तेरे चाचा को कहते दे आओ, दे आओ, पर उनका उस तरफ जाना ही नहीं हो रहा। रिन्नी की सास के पांव में जब से फ्रेक्चर हुआ है वो भी नहीं आ पाई। तू दे आएगी गुड़िया।" चाची ने नयना की चिरौरी की।

"हां दे आऊंगी चाची, इसमें इतनी मिन्नते निकालने जैसी क्या बात है, मेरा ऑफिस रिन्नी दीदी के घर की तरफ ही तो है।" नयना ने कहा।

"मेरी रानी गुड़िया," चाची ने लाड़ दिखाते हुए अचार की बरनी नयना के हाथ में थमा दी और मां की ओर देख कर मुस्कुरा दी, मां भी मुस्कुरा पड़ी। उन दोनों की मुस्कान सामान्य नहीं लगी। यह मुस्कान जैसे कह रही थी आखिर काम हो ही गया, नयना का मन भी कुछ शरारत करने का हो रहा था पर उसके पास तब बिल्कुल समय नहीं था, वह पहले ही लेट हो रही थी इसलिए अपने मन को जरा काबू में कर, हाथ में कटहल के अचार की बरनी थामे वह अपनी स्कूटी की ओर बढ़ गई।

रिन्नी दीदी के घर पहुंचते ही राहुल जीजाजी ने उसका ज़ोरदार स्वागत किया, "ओहो धन्य भाग हमारे, आज हमारा गरीबखाना आपकी चरण रज से पवित्र हुआ। देखो तो घर का कोना, कोना कैसा प्रफुल्लित हो रहा है।"

"क्या जीजाजी कुछ भी। आप तो एक भी मौका नहीं छोड़ते मेरी टांग खींचने का।"

"क्या करें आपके दर्शन लाभ होते ही कहां हैं?"

"ठीक ही तो कह रहे है, एक ही शहर में रह कर भी ईद का चांद हुई रहती हो तुम। और तो और मेरे घर से कुछ ही दूरी पर ऑफिस है, हर रोज़ घर के सामने से निकलती हो फिर भी बहन की याद कभी नहीं आती।" रिन्नी दीदी का स्वागत का अंदाज़ भी जीजाजी से बहुत अलग नहीं था।

"सॉरी दीदी, आपकी शिकायत बिल्कुल जायज़ है, पर क्या करूं मुझे फुरसत ही नहीं मिलती।"

"हां सो तो है! अब 'द सोशल एक्टीविस्ट नयना रमेश' जैसी इतनी महान व्यक्तित्व को हमारे जैसे छोटे मोटे लोगों के लिए फुरसत भी कहां होगी।" राहुल के प्रवचन चालू थे।

"मैं चलती हूं दीदी वरना जीजाजी यूं ही मेरी खिंचाई करते रहेंगे। ये पकड़ो आपके कटहल के अचार की बरनी, चाची ने भेजी है।"

"अंदर रख दे ना गुड़िया मैं कैसे पकड़ूं।" रिन्नी दीदी ने कहा तो नयना ने ध्यान दिया उनकी गोद में एक छोटा सा बच्चा था। वह बच्चा देखते ही चिल्ला पड़ी। "हाय राम! ये क्या है!"

"राहुल के मामेरे भाई आए हैं, यह उन्हीं की बिटिया है।" रिन्नी दीदी ने अपलक देखती बच्ची का परिचय दिया जो पहली नज़र में बिल्कुल डॉल जैसी लग रही थी।

"ओह! शुक्र है। मैं तो समझी थी आपका गुड़िया से खेलने का शौक अभी तक नहीं छूटा।"

"क्या! क्या कहा, किसका शौक नहीं छूटा।" राहुल ने बात पकड़ने की कोशिश की।

"मारूंगी ज्यादा चोंच चलाई है तो।" रिन्नी दीदी ने नयना को मारने का उपक्रम भी किया पर गोद से बच्ची के गिर जाने के भय से मार नहीं पाई।

"दीदी मैंने अचार की बरनी टेबल पर रख दी है और पास में ही छुटकू के लिए चॉकलेट भी रखी हैं उसे दे देना। मैं चलती हूं।" नयना ने बच्ची को प्यार से सहला दिया, जो उसे ही टुकुर टुकुर देख रही थी।

"अरे भई अपनी बात तो पूरी करके जाओ।" राहुल ने हंसते हुए रिन्नी को देखा।

"बाद में जीजाजी, अभी लेट हो रही हूं। दीदी आंटी से बोलना मैं उनसे मिलने कल आती हूं।" नयना ने लगभग दौड़ते हुए कहा।

"नन्नी रिन्नी के यहां अचार दे आई बिटिया।"

"हां चाची दे आई, उनके यहां कोई मेहमान आए हुए हैं।" नयना ने लैपटॉप में आंखें गड़ाए गड़ाए जवाब दिया।

"हां बता रही थी रिन्नी राहुल के मामा का लड़का दीपक रहने आ गया है उनके यहां अपनी बेटी के साथ, रहता तो पहले भी इसी शहर में ही था पर अब अकेला लड़का इतनी छोटी बच्ची को कैसे संभाले, उनके साथ रहेगा तो बच्ची संभल जाएगी यही सोच कर रिन्नी की सास ने उसे अपने घर ही रहने बुला लिया है। भाभी याद है ना रिन्नी की शादी में कैसे खुशी खुशी भाई का सरबाला बना घूम रहा था और अब रिन्नी बता रही थी मुस्कुराना तक भूल गया है। ना किसी से बात करना ना कहीं आना जाना, बस पूरा दिन बच्ची को ही कलेजे से लगाए रहता है, अगर कॉलेज जाने की मजबूरी ना हो तो वहां भी ना जाए।"

"बेचारी बच्ची जाने क्या लिखवा के लाई है अपनी किस्मत में।" मां का स्वर द्रवित सा हो गया था।

"क्या हुआ बच्ची को?" नयना के कान खड़े हो गए, अब उसे भी रिन्नी दीदी के देवर दीपक की सूरत याद आ गई थी

"सब ऊपरवाले के करम हैं बेटा, जिस हाल में रखे रहना पड़ता है। नन्ही सी बच्ची ने जिस दिन दुनिया में आंख खोली उसी दिन मां को खो दिया। दुनिया में आते ही इतना बड़ा दुख देख लिया, आगे जाने क्या क्या देखना पड़ेगा उस बेचारी को।"

"मां! बच्ची को तो उसके पिता संभाल ही लेंगे जैसे तैसे, बस ये दुनिया उन्हें चैन से जीने दे। जो हुआ उस पर तो किसी का बस नहीं पर असल बुरा तो लोग अब करेंगे बच्ची के साथ, उसे बेचारी बना कर।" नयना का स्वर में कुछ तल्खी उतर आई तो मां सकपका गई।

रात को नयना थक कर अपने बिस्तर पर लेटी थी। सोना चाहती थी पर नींद नहीं आ रही थी, रह रह कर आंखों के सामने उस बच्ची का भोला सा चेहरा आ जाता और नयना का दिल उसके प्रति करूणा से भर उठता। उसने अपना ध्यान हटाने के लिए फोन उठा लिया और अपना सोशल मीडिया एकाउंट चैक करने लगी। एक नई फ्रेंड रिक्वेस्ट आई थी। नाम कुछ जाना पहचाना सा था पर तस्वीर नहीं थी इसलिए थोड़ा भ्रम था पर जब उसने क्लिक किया तो हर भ्रम मिट गया। आश्चर्य हो रहा था नयना को कि एक बार यह इंसान उसे धोखा देकर लगभग सड़क पर ला चुका था अब उसे नयना से क्या चाहिए।

विवेक की प्रोफाइल पर सरसरी नज़र दौड़ाते हुए नयना का मन कसैला हो गया। कभी यह इंसान उसका सब कुछ था पर आज नयना उसके साथ नफरत का रिश्ता भी नहीं रखना चाहती थी, फिर भी यह घूम घूम कर उसकी तरफ आ रहा था। जया मोसी ने बताया था अब विवेक भारत वापस आ गया है क्योंकि उसकी नौकरी छूट गई और वर्किंग वीज़ा की अवधि खत्म हो जाने के कारण वह कनाडा में रूक कर दूसरी नौकरी ढूंढ़ने की स्थिति में भी नहीं था। विवेक हमेशा से लापरवाह था फिर चाहे घर हो या काम की जगह, कभी किसी बात को गंभीरता से लेना उसने सीखा ही नहीं था, और अपने इसी लापरवाह स्वभाव की उसने कीमत भी चुकाई। छोटी मोटी गलतियां तो वह पहले भी करता था पर तब उसे प्रकाश मोसाजी का सहारा था, वे संभाल लेते थे। बेशक उसे डांट भी देते थे पर उसकी नौकरी पर आंच नहीं आने देते थे। पर नयना से तलाक होने के बाद प्रकाश मोसाजी ने उससे मुंह मोड़ लिया और इस बार अपनी लापरवाही की कीमत विवेक को अपनी नौकरी खोकर चुकानी पड़ी।

इधर ऐमिली से भी उसके संबंध ज्यादा दिनों तक मधुर नहीं रह सके, दोनों ने प्रेम बेशक एक दूसरे से टूट कर किया हो पर रिश्ता निभाने के लिए जिस आपसी समझ और सामंजस्य की जरूरत होती है उसका दोनों में ही अभाव रहा। ऐमिली पाश्चात्य संस्कृति में पली-पढ़ी खुले विचारों की लड़की थी, ना तो विवेक का भारतीय मर्दाना अहम उसके इस खुलेपन को बर्दाश्त कर पाया और ना ही ऐमिली विवेक का रौब अधिक दिनों तक झेल पाई। नतीजा उनकी राहें जुदा हो गई और उनका वह खूबसूरत रिश्ता जिसे उन्होंने सबसे लड़ कर बनाया था संवरने से पहले ही टूट गया। हर तरफ से निराश और बेरोजगार विवेक वापस भारत आ गया और अब उसे नयना की कमी खल रही थी इसीलिए उससे संपर्क करने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा था। कुछ दिन पहले उसकी मां का फोन भी आया था। नयना एक मीटिंग में व्यस्त थी इसलिए उस समय उनका फोन नहीं उठा पाई और बाद में कॉल बैक करने का उसका मन ही नहीं किया।

ठीक ही कहा था विवेक की मां ने ना तो विवेक ज्यादा दिन अपनों के बिना रह पाएगा और ना ही ऐमिली उसे खुद से बांध कर रख पाएगी। वही हो रहा था जो उन्होंने कहा था पर वो लोग शायद यह बात भूल रहे थे कि इन ढाई सालों में ज़िन्दगी की नदी में वक्त का काफी पानी बह चुका है और नदी हमेशा आगे की ओर चलती है, पीछे छूटे पड़ावों की और नहीं झांकती। विवेक भी तो नयना की ज़िंदगी का एक छूटा हुआ पड़ाव ही था फिर नयना अपनी ज़िन्दगी में विवेक के लिए दोबारा जगह कहां से और कैसे बनाती। उसने विवेक की फ्रेंड रिक्वैस्ट डिलीट कर दी। डिलीट के बटन पर क्लिक करते हुए उसे काफी समय पहले एक पत्रिका में पढ़ी ये पंक्तियाँ याद आ गई–

रिश्ता तेरा मेरा बस

तू-तू, मैं-मैं का रहा

रिश्ता तेरा मेरा बस

तू-तू, मैं-मैं का रहा

मैं तू-तू करती रही

और तू मैं-मैं करता रहा

कैसा अजीब संयोग है कि इन पिछले कुछ दिनों में ही दो बार नयना के अतीत ने नयना के दरवाज़े पर दस्तक दी थी। कुछ दिन पहले शोभित भी तो आया था, बैंक में अपना कोई लोन पास करवाने। बड़े ही अधिकार से उसके कैबिन में भी चला आया था, "हैलो नयना कैसी हो?"

"आइए!" फाइल में घुसी नयना उसकी आवाज सुन एक बार तो चौंक ही गई थी फिर संभल कर उसने उसका स्वागत किया। एक अरसे बाद शोभित को इतने करीब से देख रही थी नयना। इतने सालों में भी उसमें कोई खास बदलाव नहीं आया था ना तो उसके व्यक्तित्व में और न ही उसके व्यवहार में। हां थोड़ा मोटा जरूर हो गया था बाकी वैसा का वैसा ही था। नयना के साथ उसी अपनेपन से बात भी कर रहा था, जितने अपनेपन से बरसों पहले बात किया करता था। पर क्यों? अब क्यों? क्या रिश्ता है उन दोनों के बीच कि इस आत्मीयता की आवश्यकता पड़े। सिवाय इसके कि तमन्ना आज भी नयना की उतनी ही अच्छी मित्र है और उन दोनों की आपस में बात भी होती रहती है यदा कदा।

"काफी दिनों से मिलना चाहता था तुमसे पर वक्त नहीं निकाल पा रहा था। इत्तफाक से आज बैंक में एक काम निकल आया तो सोचा आज तुमसे मिले बिना नहीं जाऊंगा।" शोभित बेतकल्लुफी से बात कर रहा था और नयना को समझ नहीं आ रहा था वह क्या कहे।

"घर में सब कैसे हैं? अंकल-आंटी, भैया-भाभी और ईशान लावन्या क्या कर रहे हैं आजकल? और शिवांगी! शावांगी कैसी है?"

"बाप रे तुमने तो एकदम से सवालों की तोप ही चला दी मुझ पर।" शोभित ने कहा तो नयना भी उसके साथ ही हंस पड़ी।

"मम्मी-पापा की तो अब उम्र हो गई है, पापा घर पर ही रहते हैं आजकल। भैया भाभी भी ठीक हैं अब हम एक साथ नहीं रहते। भैया भाभी मम्मी पापा के साथ पुराने घर पर ही रहते हैं और मैं शिवांगी और अपने बेटे के साथ दूसरे घर में रहता हूं। लावन्या और ईशान अब बड़े हो गए हैं और बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते हैं। शिवांगी ठीक है, अपनी दुनिया में मस्त है। ना मैं उसकी ज़िंदगी में दखल देता हूं और ना वो मेरी ज़िंदगी में। सच कहूं तो तुममें और मुझमें सिर्फ इतना सा फर्क है कि तुम विवेक से अलग हो चुकी हो और हम अभी भी साथ ही हैं। मजबूरी मेरी ही है मैं अपने बेटे शुभ को अकेला नहीं कर सकता। कभी कभी ज़िंदगी में कुछ ऐसी गलतियां हो जाती है जिनका कोई सुधार भी संभव नहीं होता।"

नयना को शोभित की बातें सुन कर झटका सा लगा, खासकर उसने शिवांगी के बारे में जो कहा उसे सुन कर। अभी कुछ दिन पहले जब वह चाची के साथ पैराडाइज़ शॉपिंग मॉल में शॉपिंग करने गई थी, वहां उसने शोभित को भी अपनी पत्नी और बेटे के साथ देखा था, तब तो नयना को उन्हें देख कर ऐसा नहीं लगा कि उनके बीच कोई मनमुटाव है या दूरी है। बच्चे के लिए ही सही पर कोई कितनी देर तक दिखावा कर सकता है। तमन्ना ने भी कभी ऐसा कुछ नहीं बताया, उससे जब भी बात होती है वह तो अपनी भाभी की तारीफ ही करती है। नयना कुछ कहती उससे पहले ही क्लर्क वर्माजी शोभित के लोन की फाइल लेकर आ गए। नयना उस फाइल को पढ़ने लगी। फाइल में कुछ पेपर्स कम थे, नयना ने वर्माजी की ओर देखा, उन्होंने साइन करने के लिए पैन नयना की ओर बढ़ा दिया। नयना ने जब उन कागज़ों के बारे में कहा तो वर्माजी बोले, "मैम शोभितजी तो आपके मित्र हैं फिर अभी तो मैनेजर साहब भी छुट्टी पर हैं तो आप इनकी इतनी मदद तो कर ही सकती हैं।"

ओह तो यह बात है, ईमानदार मैनेजर साहब से गलत काम करवाना संभव नहीं इसलिए शोभित उसके साथ भावनात्मक दांव खेल कर अपना स्वार्थ साद्ध करना चाह रहा था। नयना को वर्माजी पर बहुत गुस्सा आया उसका मन किया वह उन्हें एक ज़ोरदार डांट पिला दे पर वह अपने गुस्से को नियंत्रित करते हुए बोली, "वर्माजी चाहे शोभितजी मेरे दोस्त हैं तो भी काम तो नियमानुसार ही होंने चाहिए ना। आज मैनेजर साहब छुट्टी पर हैं तो मनमानी तो नहीं की जा सकती। बल्कि आज तो हमारा फर्ज बनता है कि हम थोड़ी अतिरिक्त सावधानी बरतें और ध्यान रखें कि मैनेजर साहब की अनुपस्थिति में कोई गलत काम ना हो पाए। शोभितजी आप एक काम कीजिए अपने कागज़ पूरे करके कल आ जाइए तब तक मैनेजर साहब भी आ जाएंगे तो वही आपका लोन एप्रूव कर देंगे अन्यथा उनसे सलाह ले कर मैं साइन कर दूंगी।"

वर्माजी जानते थे नयना भी उसूलों की पक्की है उस पर दबाव डालने का मतलब है एक जोरदार डांट खाना, वह फाइल उठा कर कैबिन से बाहर हो गए। शोभित जाने किस आस में कुछ देर बैठा इंतज़ार करता रहा पर उसके बाद नयना ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया और दोबारा अपने काम में लग गई। थोड़ी देर बाद शोभित भी उठ कर चला गया। नयना को घिन सी आई यह सोच कर कि कैसी होती है इन पुरूषों की प्रवृत्ति अपना काम निकालने के लिए ये लोग खुद बेचारे बन कर अपनी पत्नी को बुराई दिलाने से भी बाज़ नहीं आते।

पर वह यह नहीं जानता कि अब नयना पहले वाली नयना नहीं रही जिसे वह आसानी से बेवकूफ बना लेता था, वक्त के थपेड़ों ने नयना को बहुत कुछ सिखा दिया था। यह प्रवृत्ति केवल पुरूषों में हो ऐसा भी नहीं है महिलाएं भी इस रोग से ग्रस्त होती हैं। सामाजिक संस्थाओं से जुड़कर नयना ने जाना कि घरेलू हिंसा से कानून द्वारा प्रदत्त सुरक्षा का दुरूपयोग तो महिलाएं भी करती हैं। कभी कभी अपने ससुरालवालों को कुछ महिलाएं झूठे केस में फंसा देती हैं। अक्सर तो उन महिलाओं को जिन्हें असल में जरूरत होती है कानूनी सहायता मिल ही नहीं पाती। किसी और का क्या कहे कोई समाजसेवी संस्थाएं भी उन मामलों को ज्यादा तवज्जो देती हैं जिनसे उन्हें फायदा होता है।

***