पगडंडी
हंस में प्रकाशित
स्कूटर की चाबी पकड़ाते समय उसकी अंगुलिओं के बढ़े हुए सुडोल नाखून उसकी हथेली पर छू गए थे. झटका सा लगा जैसे. सारा बदन झनझना उठा. भीतर तक काँप गया. नीचे झुके उसके चेहरे को देख रहा था.... गोरा रंग, घुंघराले चमकते ताज़ा शैम्पू किये महकते बाल, माथे के आस-पास की हल्की पतली लटें चेहरे और आँखों पर झूल झूल जातीं. कानों में नए फैशन की बालियाँ. गले में इमीटेशन गर्नेट्स..... यहीं तक देखा था कि उसकी अँगुलियों के नाखून उसकी हथेली पर छू गए और वो झनझना उठा था.
"उमंग भैया ... देखिये तो क्या हो गया है? कल शाम को स्कूटर स्टार्ट ही नहीं हुआ. अभी कॉलेज जाना है..... " नाम के साथ लगा भैया शब्द समझा गया कि आस-पास है. अकेले में नीतू उसे सिर्फ उमंग कहती है और शायद इसी बहाने बहुत कुछ कहना-सुनना हो जाता है. लेकिन फर्स्ट इयर के नीतू और एम्. कॉम. फाइनल के उमंग के बीच ऐसी-वैसी कोई बात नहीं है.
स्कूटर ठीक करवा देना, रात-बेरात सहेली के घर तक ले जाना, वापिस घर ले आना, या फिर कभी कभार कटोरिओं में दोनों घरों में पकने वाली अलग-अलग डिशेस का आदान-प्रदान.... हालाँकि मन है कि बहाने ढूंढता रहता है.... दोनों घर अगल-बगल में ही हैं... सो बहाने मिल भी जाते हैं.
पिछले महीने मानसून ऐसा बरसा कि पूछिए मत. नीतू के यहाँ छोले भठूरे बने तो उमंग के मम्मी पापा और बहन ने मज़े ले कर खाए. उमंग तो भरी प्लेट ले कर आयी नीतू को देख कर ही अघा गया. कितने स्मार्ट लग रही थी नीतू! ब्लू जीन्स, लाल सफ़ेद धारीओं वाल टीशर्ट, कानों और गले में सस्ते इमिटेशन के गहने...... पर सच.... नीतू पहनती है तो कितने कीमती हो जाते हैं. कई फिल्मों के गाने याद आ जाते हैं.
तब वह ऊपर छत के अपने कमरे में चला जाता है. यूँ ही इसे अपना कमरा मानता है., जब कि घर भर का सारा सामान यहाँ बिखरा पड़ा रहता है. चार चारपाईयां, एक बड़ा सा संदूक, जिसमें सर्दिओं के बिस्तर रजाईयां रखे हैं, गेहूं के दो बड़े ड्रम, लकडियो के टुकड़े, खाली बोरिया, टूटी केन की कुर्सिया, एक पुराना मेज़ और भी जाने क्या-क्या...... मम्मी बहुत सफाई पसंद हैं, नीचे घर में हर चीज़ चकाचक मिलेगी, कोई भी चीज़ बेज़रूरत हुयी, मैली-पुरानी हुयी कि घर से बाहर कबाड़ी के पास या फिर यहाँ इस ऊपर वाले कमरे में.
यहीं इस पुरानी मेज़ पर अपने टू इन वन लगा कर फ़िल्मी गाने सुनता वह छत पर टहलने लगता है. दोनों छतों के बीच सिर्फ एक पैसेज है. गाने बजते हैं तो नीतू फ़ौरन समझ जाती है. किसी न किसी बहाने ऊपर आ ही जाती है... कभी हाथ में किताब होती है, कभी नेल पोलिश की शीशी और साथ में छोटी बहन.
उमंग को लगता है नीतू सरीखी लड़किओं का जन्म सिर्फ अपने नाखून, होंठ और बाल सजाने और नित नए कपडे पहनने के लिए ही हुआ है... नीतू के हाथ में किताबें अच्छी लगती हैं... पर नीतू उन्हें पढ़ती भी होगी ऐसा कि दृश्य आँखों के सामने कभी किसी डे-ड्रीम में आज तक नहीं आया....
दोस्तों में कई बार डींगें हांक चुका है. कई बार अपने सपने सुना चुका है. हाथों में हाथ लिए बैठे हैं. आँखों में बातें हुयी हैं. एक बार अकेले में मुलाक़ात भी हुयी. फिर........ दोस्तों के झुण्ड की आँखों में भरी अश्लील उत्सुकता को झेल नहीं पाता. ढिठाई से न शर्माने का ढोंग करता, "कुछ नहीं या...र.... वो कोई ऐसी वैसी लडकी थोड़े ही है.... " अर्थ यही कि मैं कोई ऐसा-वैसा लड़का थोड़े ही हूँ. फिर भी मर्दानगी का इज़हार कैसे हो? घूम-फिर कर बात फिर किसी दोस्त के दुस्साहस की चर्चा सुन कर इधर ही मुड जाती है.
कुल मिला कर अपने छोटे से ग्रुप का हीरो जैसा कुछ बन गया है. कस्बे के उच्च-मध्यम वर्गीय इंजीनियर की बेटी उसकी गर्लफ्रेंड मान ली गयी है. अब दोस्तों में उसको लेकर अश्लील फिकरे नहीं कसे जा सकते. न उसकी नित नयी पोशाकों की चर्चा ही की जा सकती है. ग्रुप की अनुपस्थित माननीया सदस्य बन गयी है.
पिछले दिनों दिवाली पर क्लब में डिनर था. नीतू की तरह उसके पिता भी इंजिनियर हैं... सो दोनों ही परिवार वहां थे. नीतू तो ग़ज़ब ढा रही थी. खुली बाँहों की बेहद तंग कुर्ती और घुटने से थोड़ी ही नीची घेरदार स्कर्ट... जितनी बार भी लड़किओं के झुण्ड में नाचती-कूदती फिरकी की तरह गोल-गोल घूमती दिखी.... जड़ सा हो गया वह. अब मन करता है कि किसी दिन हाथ पकड़ ले, बांह पकड़ ले... और फिर... तुरंत ही खुद पर झल्ला उठा. वो कोई ऐसी-वैसी लडकी थोड़े ही है.
"उमंग... जा बेटा बाज़ार से जा कर सब्जी फल ले आ... उर्मी को भी साथ ले जाना..." मम्मी की आवाज़ से सोच का सिलसिला टूट गया. फ़ौरन नीचे उतरा और उर्मी को ले कर स्कूटर पर रवाना हो गया.
उससे पांच साल छोटी उर्मी इस बार दसवीं का इम्तिहान देगी. पापा की बहद लाडली .... पूरे समय चपर-चपर करती रहती है. "भैया आज नीतू ने नीला सूट पहना था. वो सरिता है न मेरी क्लास में....... उसके भैया का मेडिकल कॉलेज में एडमिशन हो गया है.... उसके पापा ने दो लाख रुपये डोनेशन दे कर करवाया है.... भैया पता है... हमारी कॉलोनी में सब बड़े बड़े लोग रहते हैं.... डॉक्टर... इंजिनियर..... अफसर.... "
दूसरे दिन सो कर उठा तो उर्मी ने समाचार सुनाया कि पड़ोसी परिवार यानि नीतू और उसके मम्मी-पापा आदि रात को एक महीने की छुटिया मनाने जयपुर चले गए हैं.... सुनते ही झटका लगा उसे.... सन्न रह गया वह... नीतू उससे बिना मिले ही चली गयी..... उर्मी और भी बहुत कुछ बोल रही थी. लेकिन वह तो जैसे कहीं और ही था... सोचे जा रहा था अब वह महीना भर...... दिल डूबने लगा .....
"चुप कर उर्मी . क्या हर वक़्त चपर-चपर करती रहती है." भीतर का गुबार हमेशा की तरह आज भी छोटी बहन पर ही निकला. झल्ला गया था वह और उसी धुन में उर्मी को डांट दिया... उसी उर्मि को जिसे वह बहुत स्नेह करता है.
मम्मी सुन कर चौंक गयी.... अब उसे डांट पड़नी ही थी. "अरे, क्यूँ डांट रहा है इसे?.. चल बाज़ार जा और सब्जी ले कर आ.... और सुन उर्मि को भी साथ ले कर जा.. सुबह सुबह रुला दिया बेचारी को.."मम्मी की बात सुन कर वह चुप रह गया.
दिमाग में चल रही सोच की रफ़्तार से भी तेज़ चल रहा स्कूटर सब्जी मंडी आते ही रुक गया. उर्मि को स्कूटर के पास ही खड़ा छोड़ गया. जब सब्जिओं से भरा थैला उठाये लौट रहा था तो हैरान रह गया... उर्मि अचानक कितनी बड़ी हो गयी है. फ्रॉक पहनने वाली, बात-बात पर ठुनकने वाली, आइस क्रीम और समोसों की लगातार फरमाईश करने वाली उसकी छोटी सी प्यारी सी बहन उर्मि... टाइट टीशर्ट में उसके उभार अब चुलबुली किशोरी को परिभाषित करने लगे थे. उर्मि और नीतू अचानक गड्ड-मड्ड सी हो गयी.
और तभी उसे दिखाई दी आस-पास गुज़रते लोगों की आँखों से भेदती निर्लज्जता और उस ओर से लापरवाह बचपन की खूबसूरत भूल-भुलैया में भटकती उर्मि. जो आकर्षण उसे नीतू की ओर खींचता था वही इस वक़्त नागवार लगने लगा.
कुछ और सामान भी खरीदना था. पर बाज़ार में अब रुके रहना भारी लग रहा था. चारों ओर जैसे लोग इन दोनों को ही घेरे खड़े थे. हर आँख अंगुली उठाये जैसे उर्मि के खूबसूरत चेहरे और जवान होते जिस्म को भेदती दिखाई देने लगी. उर्मि का हर वाक्य हथोडा बना बराबर सर पीटता सा लगा.
घर आया तो सीधा मम्मी पर बरस पड़ा. "ये कैसे पकडे पहन रखे हैं इसने.... ज़रा भी शऊर नहीं है..... और मम्मी आप भी... कुछ तो ध्यान दिया कीजिये.... "
भौंचक्की उर्मि और मुस्कुराती मम्मी को वहीं छोड़, हाथ का थैला डाइनिंग टेबल पर पटक कर छत पर पहुंचा तो मन और भी उचाट हो गया. साथ की छत खाली थी. .... रोज़ सूखने वाले कपडे.... छत पर पडी रहने वाली एकाध कुर्सी... कुछ भी नहीं था वहां. उधर का बियाबान भूत की तरह उमंग पर हावी होने लगा. मन किया जोर से चिल्ला पड़े... कुछ भी अनाप-शनाप बोलता चला जाये.... मन का विद्रोह भीतर ही भीतर समेटे उसी तरह दनदनाता हुआ नीचे उतर आया.
सहमी सी उर्मि तख़्त पर टाँगे सिकोड़े बैठी हुयी थी. एक पल को तो उसके पास रुका फिर वैसे ही तीर की तरह बाहर निकल गया. स्कूटर निकाला...स्टार्ट किया और बाहर निकला भी... पर कहीं जाने का मन नहीं किया. भीतर का खालीपन भरने का कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा. नीतू का ख्याल दिमाग को झिंझोड़ रहा था. पार्क का एक चक्कर लगा कर फिर घर लौट आया.
दिमाग ऐंठा जा रहा था. मानो किसी ने तार -तार कर के आपस में उलझा दिया हो. उर्मि की ओर बिना देखे सीधा अपने कमरे में घुस गया. जूते उतारे, कमरे के दोनों कोनों में एक एक उछाला और कुर्सी पर बैठ गया. सारा जिस्म झनझना रहा था. क्या उर्मि बड़ी हो गयी है... इतने भर ने उसे अन्दर तक हिला दिया है? सोचा तो नीतू की कमनीय देह आँखों में कौंध गयी.
उफ्फ... फिर नीतू... क्यूँ चली गयी वह बिना मिले..... लेकिन मिल कर जाती भी क्यूँ? क्या रिश्ता है उसका? इस वक़्त सामने होती तो....... उमंग घबरा उठा. अपना आप अनजाना लगा उसे... खड़ा हुआ... बाथरूम में जा कर कपडे उतारने लगा तो नज़र सामने लगे आईने पर जा पडी. सिलवटों से भरा माथा, तानी भृकुटी, लाल आँखें, फुंकारते से होंठ... एक ही दिन में मानो दस साल बड़ा हो गया था वह.
नहा कर बहार निकला तो कुछ हल्का सा लगा. खाने की मेज़ पर पापा और उर्मी की चुहल हमेशा की तरह जारी थी.मम्मी ज़रूर उसके मूड को लेकर शंकित सी लगी. पर उनकी सवालिया नज़रों को खूबसूरती से बचा कर निकल भागा. रात को पलकें मूंदी तो नीतू थी और सुबह उठते ही हमेशा की तरह छत पर भागा तो नीतू नहीं थी. नीचे आया तो चाय पकडाती मम्मी ने अनायास ही उलटे हाथ से उसका माथा छू लिया और बिना कुछ बोले रसोई में चली गयी.
"उमंग... तेरे पापा तो साईट पर जा रहे हैं... नहा धो कर तैयार हो जा.. आज तेरे साथ मंदिर चलूंगी." मम्मी सूती साड़ी पहने किसी देवी प्रतिमा जैसी लग रही थी.
गर्भगृह में सिर झुकाए, आँखें मूंदे, अचानक ईश्वर से कुछ मांगने की इच्छा हुयी. अगरबत्ती के धुंए की खुशबु, पूजा में चढ़ाए गए फूलों की खुशबु के साथ मिल कर उसके वजूद पर उतर आयी. शुद्ध घी के बने पकवानों का भोग भी शायद तभी लगाया गया था. स्निग्ध वातावरण में मन का बिखराव जुडा गया. पुजारी की पुष्ट देह, सोलह श्रृगार किये भगवान की प्रतिमा और तुलसी दल को बाएं हाथ पर दाहिना हाथ रख कर स्वीकारता हुआ वह फिर अपने आप में स्थापित हो गया.
क्या मांगना चाहता है वह? सवाल मन की दीवारों से टकरा कर बिखर गया. सुख, समृधि या कुछ और..... मन का चोर उथले पानी में बार-बार सर उठा रहा था. नीतू को मांग ले..... पर क्यूँ? क्या होगा उसको पा कर? चोर ने फिर ऊपर झांकना चाहा. लेकिन उसे दबा कर प्रसाद गृहण कर हाथ जोड़ वहां से हट गया.
"प्रेम शाश्वत है जीवन की तरह. वह प्रेम जो इश्वर इंसान से करता है... अपनी ही बनाई सृष्टि से करता है.. मूल मंत्र तो वही है. शेष सब मिथ्या है. हम सांसारिक जीव मोह को प्रेम समझ लेते हैं और वही प्रेम हमारे लिए घोर पीड़ा का कारण बनता है. हम आत्मा से प्रेम करना सीखें..."
स्वामी जी का प्रवचन जारी था. उमंग बाहर आ कर मंदिर की सीढ़ीयों के कोने पर बने चबूतरे पर बैठ गया.
तभी एक छोटा सा दो-अढाई साल का बच्चा दौड़ता हुआ आया और उसे हलके से छू कर खिलखिलाता हुआ भाग गया. चौंक कर उमंग ने देखा. कुछ दूर जा कर वह खड़ा हो गया था. मुड कर उसे देखने लगा तो आँखें चार हुयी. मन की गाँठ पर चढ़ी उदासी की परतें ढह सी पडी. उसकी मुस्कराहट मुखर हुयी तो बच्चा फिर दौड़ कर आया और जितनी दूर से हो सकता था उसे छू कर फिर भाग गया. वहीं जा कर जोर-ओर से खिलखिलाता हुआ उसे देखने लगा. खिलखिलाते समय उसके गले की हर हरकत के साथ उसके पूरा शरीर हिलक उठता. एक नन्हा सा जीवन भरपूर आनंद समेटे सामने खड़ा था. अभी-अभी सुना वह शब्द याद आ गया... शाश्वत.
उसे लगा यह बच्चा हमेशा ऐसा ही रहेगा. यूँ ही खिलखिलाता, अजनबियों से रिश्ते बनाता, इसी मंदिर की सीढ़ियों के नीचे की खाली जगह पर आने-जाने वाले लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करता. उसका मन किया इस आनंद को अपने भीतर समेट ले. हाथ के इशारे से उसे बुलाया. प्रत्युतर में वह और भी जोर से खिलखिला उठा और चार क़दम और पीछे जा कर उसकी ओर शरारत से देखता हुआ मुस्कुराने लगा. उड़ने को आतुर पैर, कमर से ऊपर का हिस्सा आगे को झुका हुआ, उसकी आँखों में, उसकी हर भंगिमाँ में चुनौती थी---"आओ, पकड़ लो मुझे."
तभी अचानक बच्चा पुलक कर बाँहें फैलाता हुआ उसकी तरफ लपका. उमंग जब तक हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ता .... "मम्मी, मम्मी" चिल्लाता वह उसकी बगल से फुर्ती से सरक गया. पीछे मुड कर देखा तो वह अपनी मम्मी की गोद में था. उसके गले में दोनों बाहें डाले, होठों से उसके गाल चूमता और शरारत भरी आँखों से उसे देखता हुआ....
उमंग अचानक शरमा गया. माँ-बेटे के नितांत निजी क्षणों में उसे अपना दखल नागवार लगा. फिर भी हटाते-हटाते नज़र पडी तो आँखों में पहचान उतर आयी.
अरे... यह तो सुनंदा है. कॉलेज में जब गया ही था तो सुनंदा फाइनल में थी और तभी उसी साल उसकी शादी भी हो गयी थी. सलवार-कमीज़ पहनने वाली किशोरी सुनंदा और इस समय गुलाबी साड़ी में लिपटी बेटे को गोद में उठाये खडी माँ सुनंदा...
सुनंदा का तृप्त संतुष्ट अस्तित्व धीरे से भीतर बैठ गया. मातृत्व की गरिमा या पत्नीत्व का अभिमान या फिर दोनों ही.... कितनी बड़ी, कितनी भरपूर, कितनी स्थाई उपस्थिति थी उसकी. बुद्धू बना न जाने कितनी देर देखता रहा उसे, सुनंदा ने ही उसे टोका ---"हेलो, उमंग कैसे हो? इस बार तो फाइनल में होगे. कॉलेज का क्या हाल है?"
उसके चुलबुला बेटा अब भी बाई बाजू पर कूल्हे टिकाये उसके गाल से गाल सटाए देखते हुए मुस्कुरा रहा था. वह सुनंदा से बातों में तल्लीन हो गया. चेहरे का तनाव घुलने लगा तो मुस्कराहट खिलखिलाने लगी. जब तक माँ प्रवचन सुन कर बाहर आयी... उमंग अजनबी से मामा बन चुका था.
वापसी में पीछे बैठी मम्मी की साड़ी का आँचल बार-बार उड़ कर आगे आ रहा था. अपने कंधे को छूता कलफ लगा लील पीले फूल समेटे वह सूती कपडा उसे पीछे खींच ले गया. जब इसी तरह आँचल खींच खींच कर लगातार माँ से जुड़े रहना चाहता था.. जब माँ का किसी और से बात करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था.
शाम फिर नीतू का ख्याल ले आयी थी. लेकिन आज वैसी कसक नहीं थी. न बैचनी ही अधिक थी. उसका चेहरा भी धुंधला सा था और पोलिश किये नाखूनों की हथेली पर टीस भरी चुभन भी धीमी थी. और उसकी अगली शाम वह चुभन बिलकुल नामालूम सी थी.
जाने कितनी ही शामें गुज़र गयी. नीतू अब भी याद आ जाती थी. उसका चेहरा बेहद धुंधला हो गया था. कपड़ों की चुस्त फिटिंग और चटख रंग भी धूमिल पड गए थे. उसके बालों के साथ उडती शैम्पू की मदहोश कर देने वाली खुशबु अब उर्मी की लगातार चपर-चपर में घुल-मिल सी गयी थी. आजकल उर्मी को स्कूटर चलाना सिखा रहा था. और नीतू के पोलिश किये हुए नाखूनों की टीस भरी चुभन तो बिलकुल भूल ही गया था.
आज जब कॉलेज से घर पहुंचा तो भीतर से आती खिलखिलाहट जानी पहचानी लगी. कभी जो दिल उछल पड़ता था आज वैसा ही अपनी रौ में धड़कता शांत वहीं बना रहा. चाल में तेज़ी भी नहीं आयी. कभी पैरों की रफ़्तार चाह कर भी कम नहीं कर पाता था आज उसे चाह कर भी तेज़ नहीं कर पाया.
उर्मी के कमरे के दरवाजे पर चौखट से कोहनी टिकाये खिलखिलाती नीतू की आँखों में आयी चमक का प्रत्युत्तर वैसी ही ललक से नहीं दे सका. जाने क्यूँ आज उमंग नहीं देख सका कि गहरे नीले रंग की स्कर्ट और सफ़ेद कढाई किये कालर की शर्ट पहने नीतू कितनी स्मार्ट लग रही थी. उसकी ताज़ा वैक्स की हुयी गोरी सुडौल टांगें कितनी आकर्षक थी. प्लेटफार्म हील के नए सैण्डिल में उसका फिगर कितना सैक्सी लग रहा था. ... उसके नए स्टाइल में कटे बालों की एक लट कैसी खूबसूरती से चेहरे पर गिर रही थी.
उसकी ओर स्निग्ध मुस्कराहट भरी हेलो उछाल कर अपने कमरे की तरफ चला गया. लाउन्ज में तखत पर बैठी नयी साड़ी पर फॉल लगाती माँ ने उसे जाते देखा था. स्थिर कदमों से उनकी ओर पीठ किये चलते बेटे के पैरों में डगमगाहट नहीं थी.
देख रही थी पगडंडी पर चलते, छोटे-मोटे कंकडों की पीड़ा झेलते पांवों से उठती टीस पर उसकी आँखों में उतरते दर्द के भाव. पर आज आश्वस्त हो आयी थी, आज बेटा एक छोटा लड़का नहीं लग रहा था, जिसे माँ के आँचल की ज़रुरत हो. आज एक पुरुष माँ की बगल से गुज़र कर आगे बढ़ गया था. उसकी भंगिमा शांत थी. हर क़दम सधा हुआ था. नज़रें स्थिर और दिमाग पूरे वजूद को स्थिरता के आभास में लपेटता सा.
पगडंडी के आरंभिक छोर पर खडी घने छायादार पेड़ सरीखी माँ ने देखा था डगमगाते पैरों की चाल से स्थाई कदमों का फासला तय करते पगडंडी पर चलते जाते उस इन्सान की ऑंखें दोनों ओर का भरपूर जायजा लेतीं भविष्य को टटोल रही थीं. पगडंडी के किनारों पर खडी थीं, कहीं छोटी-बड़ी फूलों से लदी तो कहीं कांटेदार झाड़ियाँ... नीतू... उर्मी ..सुनंदा....
प्रितपाल कौर
पूर्व प्रकाशित 'हंस' जून २०००.