Aadha sukh-aadha chand in Hindi Moral Stories by Rajesh Bhatnagar books and stories PDF | आधा सुख-आधा चांद

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आधा सुख-आधा चांद

15 - आधा सुख-आधा चांद

घड़ी ने रात के बाहर बजा दिये । घड़ी का अलारम टन...टन....टन... करता हुआ बारह बार बोलकर खामोष हो गया और इसी खामोषी के साथ रात का भयावह पहर शुरू हो गया । बैडरूम के बीचों-बीच पड़े डबल बैड पर पड़ी मखमली चादर लैम्प के मद्धिम प्रकाष में निखर उठी थी । वह कमरे में कदम नापती रही । इस कोने से उस कोने तक । फिर थककर डबल बैड के नरम बिस्तरों पर अधलेटी-सी बैठ गई । ऊपर छत को घूरती रही । आज उसकी आंखों से नींद कोसों दूर भाग गई थी । दूर-दूर तक नींद की छाया भी नहीं थी । आज उसके ज़हन में ज्वालामुखी फूटा पड़ रहा था । उसने उठकर कांच की खिड़की से बाहर झांक कर देखा । रात काली भयावह थी । आसमान पर काले घने बादल छाने लगे थे । उस पर धीरे-धीरे बूंदा-बांदी शुरू हो गई थी । बरसात का मौसम था, बादलों की गर्जना के साथ कभी अचानक ही आसमान पर बिजली कौंध जाती और बादलों से लुका-छिपी खेलता चांद कभी पूरा ना दिख पाता । हवेली के चारों ओर दूर-दूर तक पेड़ों की काली छाया....और बरसाती गढ्ढों से मैढकों के टर्रटराने की आवाज़ ने वातावरण को डरावना बना दिया था । अचानक ही ज़ोरों की बिजली कड़की, उसे लगा जैसे बिजली उसी पर गिरी हो और वह जल्दी से खिड़की में पर्दा लगाकर बैड पर आ गई । सोने का असफल प्रयास करने लगी, किन्तु नींद .....नींद डर के कारण उससे अब भी कोसों दूर थी ।

ना जाने यह एक इत्तफ़ाक था या जीवन की विडम्बना जो वह झौंपड़ों से उठकर महलों में चली आई थी लाजो से लाजवन्ती बनकर । फिर भी सेठ जी उसे प्यार से लाजो ही पुकारा करते है। किन्तु शायद ही उसे कभी अच्छा लगा है सेठ जी के मुंह से उसे लाजो कहकर पुकारना । अच्छा लगता भी कैसे....? उसकी बरसाती नदिया-सी उफनती जवानी.....उसका प्यार....उसके अरमान .....उसके सपने सभी कुछ तो बर्बाद कर दिये सेठ ने । सब कुछ दफ़न हो गया है महलों की नींव में.....इस घने जंगल की हवेली में......।

जब पहली रात सेठ जी ने उसका घूंघट उठाया था तो मानो उसका ख़ून जम गया था । एक बार तो उसकी आत्मा बिलख पड़ी थी अपनी किस्मत पर....। उसकी मां होती तो...। मगर सब कुछ सहना पड़ा था उसे रात के अंधेरे में । सभी कड़वे घूंटों को उसने गले से जबरन उतार लिया था । और तब से अब तक दबकर रह गई है सोने-चांदी से लदकर । फिर भी ऐसा महसूस होता है जैसे सब कुछ पाकर भी वह कंगाल है । कभी-कभी तो जी में आता है कि सब कुछ छोड़कर भाग जाये केषव के पास । मगर.....घना जंगल.....अनजाने रास्ते.....और हवेली में उस पर लगा पहरा...। फिर केषव...केषव का अब उसे कुछ पता भी तो नहीं......।

उसे हर पल अन्दर ही अन्दर कुछ कचोटता । शायद उसी की आत्मा । एक खालीपन उसे काटता । ऐसा लगता जैसे उसके सारे जिस्म में आग लगी जा रही है जो सेठ के तमाम नषे करने के बाद भी ठंडी नहीं कर पाता वह । वह लाख प्रयत्न करने के बावजूद भी उस आग को कम नहीं कर पाती । शायद अब समझ पाई है कि जीवन में धन-दौलत सब कुछ फीका है ....। मगर उसके ना चाहते हुये भी ऐसा जीवन जीना उसकी नियति बन गई है ।

उसे खूब याद है, सेठ जी के सभी दोस्तों तक ने मुंह पर ही उनकी खिल्ली उड़ाई थी । एक-दूसरे के कान मेें फुसफुसाकर कहा था, “ऐसी जवान नव-यौवना कहां से पकड़ लाया लक्ष्मीचन्द...? बेचारी का जीवन ही नरक बन जायेगा उसके बुढ़ापे को झेलते-झेलते...।” दोस्तों की बात कुछ और थी मगर सेठ जी के स्वयं के इकलौते बेटे प्रकाष ने लाजो से परिचय कराने पर दो टूक कह दिया था, “मेरी कोई मां-वां नहीं है ये । मेरी मां थी जो मर गई । मेरे हम उम्र की लड़की भी कभी मेरी मां...?” और निकल गया था भन्नाता पार्टी से ....। उस रात पार्टी में ना जाने कितनी प्यासी आंखों ने उसके जिस्म को कई-कई बार नापा था । कितनों ने लम्बी ठण्डी आहें भरीं थीं ।

वास्तव में तब उसने जाना था कि कुछ रिष्ते ऐसे होते हैं जो एक-दूसरे पर थोपे नहीं जा सकते । उसने जाना था कि वास्तव में रिष्तों की नाज़ुक डोर आत्मा से बंधी होती है जैसे वह बंधी हुई थी केषव के प्यार की डोर से । एक अस्वाभाविक परिस्थिति थी उसके सामने जिसके आगे वह अपने आपको असहाय महसूस करने लगी थी । उसमें स्वयं में भी इतना साहस नहीं था कि वह प्रकाष की मां होने का बोझ खुद पर लाद सकती । उसमें तो खुद ही उससे नज़र मिलाने तक का साहस नहीं था । एक महान् रिष्ता भी कभी इस रूप में उस पर बोझ बन जायेगा इसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी । और फिर उसका मन तो वैसे ही सेठ के प्रति ईर्ष्या और घृणा से भरा था तो कैसे समझा पाती अपने मन को ...?

अनायास ही वह घड़ी के अलारम की आवाज़ से चौंक उठी । उसने घड़ी की ओर नज़रें उठाई, दो बज चुके थे । यानि पांच घंटे बीत चुके थे सेठ जी को घर से निकले । बड़ी मुष्किलों से अपनी लाजवन्ती को छोड़ पाये थे बेचारे । उनकी जरा भी इच्छा नहीं थी जाने की । और यदि दिल्ली में उनके साझेदारों की ज़रूरी कॉन्फ्रेंस ना होती तो वे कभी ना जाते । आज इतनी बड़ी हवेली में अकेले उसे डर लग रहा था । रोज़ तो उसका नौकर रामू यहीं सोता था, लेकिन उसके काफी गिड़गिड़ाने पर उसे गांव जाने की छुट्टी दे दी थी सेठ जी ने । अब सिर्फ दो ही बचे थे हवेली में, वह खुद और प्रकाष...।

वह उठ खड़ी हुई । बाहर बारिष तेज़ हो गई थी सो उसने फिर से पर्दा हटाकर बाहर झांका, बाहर मूसलाधार बारिष हो रही थी । ऐसा लगता था जैसे सारा बादल आज ही चू पड़ेगा और बहाकर ले जायेगा सेठ जी की हवेली को । कहीं दूर कोई पक्षी बोला और साथ ही बहुत तेज़ बादल गरजने के साथ ही बिजली कड़की । वह सिर से पांवों तक कांप गई ै हवेली की ऊंची छत....बीचों-बीच लटका फ़ानूस और दीवारों पर टंगी शेर और चीते की खालें जैसे सजीव हो उठीं थीं । वह डरकर नज़र भी ऊपर नहीं उठा पा रही थी कि तभी लाईट चली गई । वह अंधेरे में खो गई । जान-सी निकल गई लाईट जाते ही उसकी । कानों में हवेली की छतों से गिरता पानी और बादलों की गर्जना....। उसे उसके दिल की धड़कन तक सुनाई देने लगी । कनपटियेां की नसों की तपकन डर से उसके सिर पर हथौड़े-सी महसूस होने लगी । वह पसीने में भीग गई । ऊपर से नीचे तक...।

कुछ ही देर में लाईट वापस आ गई । उसने डरकर फौरन खिड़की पर पर्दा डाल दिया । घबराहट कम करने और नींद बुलाने के उद्देष्य से उसने अपने पर्स से इकट्ठी तीन नींद की गोलियां निकाल कर पानी से गुटक लीं । वह जल्दी से जल्दी सो जाना चाहती थी । मगर जब तक गोलियांे का असर उस पर हो अनायास ही उसकी नजर प्रकाष के कमरे पर पड़ गई । उसके कमरे से बल्ब की मद्धिम रौषनी छनकर बैडरूम तक आ रही थी । वह प्रकाष के कमरे तक बढ़ी, दरवाज़े से झांककर देखा । प्रकाष सीने पर कोई किताब लिए बेसुध सो रहा था । उसका जी हुआ वह जाकर प्रकाष को जगा दे, कह दे कि उसे आज बहुत डर लग रहा है । फिर कुछ इसी उद्देष्य से वह प्रकाष के कमरे में प्रविष्ट हो गई किन्तु उसे जगाते-जगाते अनायास ही वह रूक गई । निकट की मेज़ पर रखे लैम्प को देखती रही । लैम्प की मद्धिम रौषनी में प्रकाष के दमकते तांबे जैसे सुडौल उघाड़े जिस्म को और अधिक निखार दिया था । केषव के अलावा किसी जवां मर्द को उसने पहली बार इतनी निकट से देखा था । शायद केषव को भी नहीं....। वह चुपचाप प्रकाष के पलंग पर लेट गई, यह सोचकर कि भोर का उजाला फूटते ही वह उठकर चुपचाप चली जायेगी । लेटे-लेटे ऊपर छत को निहारती रही । अब उसे नींद की गोलियों का असर महसूस होने लगा साथ ही डर भी कम होने लगा । आंखें बोझिल होने लगीं थीं । जिस प्रकार केषव के पास उसे डर नहीं लगता था वेैसे ही अब प्रकाष के पास वह चैन महसूस करने लगी । बस डर था तो प्रकाष के जाग जाने का । कहीं प्रकाष जाग न जाये अगर जाग गया तो वह क्या सोचेगा....? इसी डर से उसने धीरे से लैम्प बुझा दिया । कमरे में अंधेरा छा गया । धीरे-धीरे अंधेरे में उसे केषव का चेहरा उभरता महसूस होने लगा....गोलियों ने भी शायद अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था सो उसने आंखें मूंद लीं ।

प्रकाष जो अब तक अकेला ही सोया था शायद उफनते जवान जिस्म की गरमी पाकर कुछ चेतन्न हुआ । उसने अलसाकर आंखें खोलीं तो उसे लगा जैसे उसके सीने पर कोई फूल सी कोमल बाहें रखे है । वह हड़बड़ा उठा । हाथ से टटोलते हुये उसने लैम्प ऑन कर दिया । सारे कमरे में रौषनी बिखर गई । उस रौषनी में उसने लाजो के गंेहुए गुदारे जिस्म को देखा जो यौवन के कारण कस्तूरी-सा महक रहा था । उसकी नाक में जैसे वह गंध समाती चली गई । वह एकटक उसे निहारता रहा और लाजो बेसुध अपने अस्त-व्यस्त वस्त्रों मंे निर्वस्त्र-सी पड़ी सोती रही । लाजो का यौवन जैसे पूर्णिमा की रात का तूफ़ान बन खड़ा हुआ । हवस का एक ज्वार-भाटा प्रकाष के ज़हन में उठ खड़ा हुआ । उसके ज़हन में मदहोषी के अंकुर फूट पड़े । उसने फिर से लैम्प बुझा दिया । उसके मन में वासना का तूफ़ान हिलोरें भरने लगा जिसे वह रोक ना सका । वह भूल गया कि लाजो कौन है, क्या है... उसका उससे सम्बन्ध क्या है......? वह तो उसके इस तरह उसके पास आकर लेट जाने को उसकी मज़बूरी समझ बैठा था । फिर हवस की आग ने उसे यह सब सोचने का मौका भी कहां दिया । सो अनायास ही उसके हाथ लाजो के जवां गदराये जिस्म पर रेंगने लगे । उसकी सांसें अनियंत्रित होने लगीं । लाजो की चिकनी गदराई जांघों से लेकर सुडौल वक्षों तक आकर उसके हाथ जाम हो गये...।

लाजो नींद में यह सब होते हुये बड़बड़ाने लगी, “ओ केषव ! छोड़ ना, तुझे सरम नहीं मेरे क्वांरे बदन को छूते....?” यह सब सुनकर प्रकाष एक बार को तो चौंका, मगर मदहोषी में उसने सुना-अनसुना कर दिया ।

“ना....। ये बदन तेरा थोड़े ही है....। ये तो भगवान ने मेरे लिये बनाया है । देख ना, अमावस की रात में कैसा चांदी-सा चमक रहा है और कस्तूरी-सा महक रहा है ।” कहते हुये केषव ने उसकी पिंडली से लहंगा घुटनों तक सरका दिया ।

“छोड़ ना, मुझे सरम आती है । दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है और ना जाने कैसा मीठा-मीठा दर्द सारे बदन में भरने लगता है । मुझसे ब्याह रचायेगा न तब.....।” लाजो ने पुनः अपनी पिंडलियों को ढंक दिया ।

“तेरा बूढ़ा बाप तेरा ब्याह मुझसे होने देगा ?”

“क्यों...?” लाजो ने आंखें तरेरीं ।

“उसे दारू और कबाब खिलाने वाला दामाद चाहिये, मेरे जैसा फक्कड़ नहीं ।”

“मगर मुझे तो तेरे जैसा फक्कड़ ही चाहिये । बोल न, क्या तू मुझसे सच् में प्यार करता है....?” कहते हुये अंधेरे में एक कंकड़ उठाकर लाजो ने तालाब में फेैंक दिया । शांत-क्लांत तालाब का पानी कंकड़ गिरने से हिल उठा । तभी एक बड़ी मछली घबराकर किनारे से भाग खड़ी हुई और केषव ने लाजो को अपनी बाहों के घेरे में लेकर कस लिया, “हां लाजो ! इस अमावस की रात की कसम ...मैं तुझे अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करता हूं । तुझे मुझसे कोई अलग नहीं कर सकता...।” और फिर लाजो केषव के चौड़े सीने में समाती चली गई । उसकी सांसों में पास ही खिले रात-रानी के फूलों की भीनी-भीनी गंध समाती चली गई । सांसें उखड़-उखड़कर कुछ देर बाद झील के समान शांत हो गईं । और जब होष में आई तो खुद को प्रकाष की बाहों में पाकर हतप्रभ रह गई । मन ही मन कह उठी, “हे भगवान ! ये क्या हो गया...? सपने में केषव को देखते-देखते उससे यह कैसा अनर्थ हो गया...।”

एक अजीब-सी स्थिति में उसने प्रकाष को घूरकर देखा, फिर अपने निर्वस्त्र अंगों को शर्म और क्षोभ से अनायास ही झपटकर अपने आपको चादर से ढंक लिया । प्रकाष उसकी इस प्रतिक्रिया को ना समझ सका और करवट लेकर लेट गया । मगर लाजो पत्थर की मूरत बनी ना जाने कहां खो गई । सपने में केषव को देखते-देखते उससे ये अनर्थ कैसे हो गया....सोच में डूबी कुछ देर यूं ही बैठी रही । सेठ जी से विवाहोपरान्त कच्चे धागे से जुड़ी मां-बेटे की बेमेल मर्यादा एक ही झटके में टूट चुकी थी । लाजो का मन रात की बेचैनी से अधिक बेचैन हो उठा । वह सब कुछ पाकर भी जैसे सब कुछ खो बैठी थी । उसे लगा वह भारतीय संस्कृति के मर्यादित रिष्ते को कलंकित करने वाली एक गिरी हुई नारी है । एक अजीब अपराध बोध से कलुषित हो उसकी आत्मा तड़पने लगी । बेचैनी शायद प्रकाष के हृदय में भी कुलबुला रही थी लेकिन उसके बाप की वजह से लाजो और उसमें जो रिष्ता जुड़ गया था वह इतना सबल नहीं था कि प्रकाष की आत्मा को झकझोर पाता । प्रकाष इस सबको एक इत्तफ़ाक मान बैठा था और बिना किसी ग्लानि के चैन से ना जाने कब सो गया था ।

लाजो बेजान पत्थर की प्रतिमा बनी बहुत देर तक प्रकाष के पलंग पर बैठी रही । अनजाने में जो पाप उससे हो गया था वह उसे अंदर ही अंदर झुलसाने लगा । वह तो सिर्फ भय से वषीभूत होकर ही प्रकाष के पास चली आई थी । उसने उसे जगाया भी इसलिये नहीं था कि कहीं प्रकाष सेठ जी की अनुपस्थ्तिि में उसके इस तरह आधी रात को उसके कमरे में जाकर जगा देने का कहीं ग़लत ना समझ बैठे । मगर हाय......नींद की गोलियों की वजह से ही ये पाप उससे.....।वह अपने घुटनों में सिर दिये बहुत देर तक सिसक-सिसक कर सोचती रही -कहीं सुबह के उजाले में प्रकाष रात की बात की पुनरावृत्ति । अब वह भगवान को कैसे मुंह दिखायेगी...? वह कहां जाये, क्या करे उसके कुछ समझ में नहीं आया । फिर मन ही मन कुछ प्रण कर उसने अनायास ही अपने हाथों से सेठ जी के दिये कीमती गहनों को उतार कर फेंक दिया । शायद उसके मन का बोझ ही इतना अधिक था कि वह इन पाप से सराबोर जेवरों का वजन बर्दाष्त नहीं कर पा रही थी ।

उसने खिड़की का पर्दा हटाकर बाहर झाांका, बादल तेज़ी से आसमान में उड़े जा रहे थे । मौसम ठण्डा होने के बावजूद उसकी आत्म-ग्लानि की सीलन जैसे हवेली में समा गई थी । हवा बंद थी, वह अपनी सांसें खुद सुन सकती थी जो हवेली की दीवारेां से टकरा कर उसके कानों में कराह-कराह कर लौट रहीं थी । वह बहुत देर तक खिड़की से बादलों को उड़़ते हुये देखती रही । एक बड़े बादल ने चांद को ढक लिया था । चांद बादल से बाहर आने को छटपटाता महसूस हुआ, ठीक उसी की तरह जैसे उसमें हवेली की घुटन से दूर निकल जाने की छटपटाहट भरने लगी थी । वह बहुत देर तक बादलों में छुपे आधे चांद को घूरती रही । बहुत देर तक बादलों के हटने की प्रतीक्षा में खड़ी चांद को निहारती रही । चांद के बादलों से निकलने से पहले ही कोई दूसरा बादल का टुकड़ा उसे अपनी गिरफ्त मंे ले लेता । वह अपने आपको चांद में छअपटाते देखती रही । हवेली की छत से बारिष का पानी अभी भी रिस रहा था, ठीक उसके हृदय के नासूर की तरह...। दिल में रह-रहकर जोर-जोर से रोने की हूक-सी उठ रही थी । उसका जीना अब व्यर्थ है...। इतना बड़ा बोझ अपने मन पर लेकर वह कहां कैसे रहेगी....। मगर जाये भी तो कहां.....? क्या शराबी बापू के पास....जो उसे किसी दूसरे सेठ को...?

उसे लगा जैसे वह इस दुनिया में पुरूषों के मन बहलाने की गुड़िया के सिवाय और कुछ नहीं....। शराबी बाप और ग़रीब हालातों ने उसे न पढ़ने दिया और ना ही जीवन के सही अर्थो को जानने दिया । जैसे ही चौदह बरस की हुई उसके झोैंपड़े में उसके शराबी बाप को दारू पिलाने वालों की लाईन लगने लगी जिनकी आंखों से सिर्फ़ वासना को टपकते देखा उसने । गांव के साहूकार से लेकर स्कूल के चौकीदार तक.....सब उसकी गरीबी, लाचारी और शराबी बाप का फायदा उठाकर उससे खेलने को आतुर....।

वह बिना सोचे, बिना कुछ तय किये हवेली से बाहर निकल पड़ी । कुछ देर में उसने हवेली के मेन गेट को पार कर लिया । उसका मन बोझिल था, मगर पैरों में जैसे बिजली-सी गति थी । वह जल्दी ही हवेली से दूर.....बहुत दूर भाग जाना चाहती थी सो चलती गई....चलती गई । दिषाहीन....बिना मंज़िल का सफ़र तय करती...। हालांकि अभी तक सवेरा नहीं हुआ था मगर कहीं दूर क्षितिज में पूरब के द्वार पर अंधेरा फटकर धंुधलाने लगा था । मगर काले बादलों और घने पेड़ों की वजह से अब भी रात-सा अंधेरा छाया था ।

वह चलती रही....उसे यह पता न था कि वह कहां, किस दिषा में जा रही है । उसे तो बस हवेली और प्रकाष से दूर भाग जाना था । चलते-चलते शायद वह थक गई । तन-बदन की टूटन ने उसेकहीं बैठ जाने को मज़बूर कर दिया । वह थककर घने आम के वृक्ष की जड़ में बैठ गई । पसीने से लथपथ...। वह पेड़ के तने से टिककर आंखें मूंद अपनी सांसों पर नियंत्रण पाने की कोषिष करने लगी । मन मस्तिष्क रात की घटना में उलझ गया ।

केषव..! आखिर केषव रात उसके सपने में क्यों आया...? क्या केषव आज भी उसे याद करता होगा...? कहां होगा..? सेठ के आदमियों ने उसे कहीं । उसका दिल कांप गया । नहीं......। वो ज़िन्दा है । जब तक मैं ज़िन्दा हूं उसे भी ज़िन्दा रहना है । आखिर वो सपने में क्यों मेरे बदन से खेला...आधा सुख देकर पूरा चैन क्यों छीन गया....क्यों..? क्या अब कभी वो उससे मिल पायेगी...। आंखें मूंदे वह केषव की कल्पना में डूबती चली गई और ना जाने कब अतीत की खाईयों में खो गई ।

केषव.....जिसे पहली-पहली बार ही देखकर यूं लगा था जैसे जन्मों का छूटा कोई साथी उसे इन जन्म में मिल गया हो । सीधा-सादा, भोला-भाला....हष्ट-पुष्ट...शांत...। उस दिन वह ना होता तो मेट बाबू उसकी इज्ज़त को तार-तार कर डालता । वह तो केषव ने आकर मेट बाबू का कॉलर पकड कर चार-छः हाथ कसकर जमा दिये थे । तमाम भीड़ जमा हो गई थी और उसकी षिकायत पर मेट बाबू बदल दिया गया था । बस उसी दिन से न जाने क्येां नया-नया काम पर लगा केषव उसे बेहद अच्छा लगने लगा था ।

गांव में चल रहे राहत कार्य में वह उसका काम भी स्वयं ही कर डालता । खाने की छुट्टी में अपनी पोटली से रोटी-प्याज़ निकालकर उसके सामने रख देता, “ले खा न लाजो, इसमें से खा ले । भूखी मत रहना ।” वह उसकी ओर देखती और बस देखती रह जाती । वह उठकर हैण्ड-पम्प से पानी का लोटा भर लाता । उसे पानी पिलाता और अपना अंगोछा बिछा देता पेड़ की छांव में, “ले आराम कर ले । अरे मैं तो कहता हूं ये गैंती-फावड़ा चलाना कोई औरतों का काम है क्या...?”

“ना चलाऊं तो खाऊं क्या...? तू जानता नहीं बापू को ? शराब के पैसे भी तो चाहिये उसे रोज़ । काम पर ना आऊं तो वो....वो दारू के लिये मुझे बूढ़े खूसट साहूकार के दरवाज़े रात को ही धकेल...।”

केशव का मुंह पीला पड़ जाता । बस झल्लाकर रह जाता जैसे बहुत कुछ कहना चाहता हो मगर कह नहीं पाता । तब वो ही उसे कुरेदती-

“क्येां बोल न, चुप क्यों हो गया ?”

“क्या बोलूं, तेरा बाप है वरना सिर फोड़ दूं ऐसा करने वाले का ।”

“सच् ...?”

“हां सच् ।” वह दृढ़ता से कह देता ।

“मैं तेरी कौन लगती हूं रे ?” एक दिन पेड़ की छांव में बैठे केषव से पूछ लिया था । केषव ने निगाहें चुरा लीं थीं और आकाष को घूरने लगा था खामोष...।

“बोल न, मैं तेरी कौन लगती हूं....? क्यों मेरे लिये इतना कुछ करता है ? कभी बापू ने दारू की खातिर किसी सेठ के पल्ले बांध दिया तो....?”

“क्या तू भी यही चाहती है ?”

“और नहीं तो क्या तेरे पल्ले बंधूगीं....? सेठ मुझे गाड़ी में घुमायेगा, अच्छा-अच्छा खिलायेगा और गहनों से लाद देगा मुझे.....।” लाजो ने केषव की प्रतिक्रया जानने के लिए आसानी से कह दिया था और केषव को ताका था जिसकी आंखें नम हो गई थीं फिर वह बिना कुछ कहे चुपचाप उठकर काम पर लग गया था ।

मगर फिर तीन-चार दिन लगातार काम पर नहीं आया था । उसके ना होने से लाजो के मन में न जाने कैसी उदासी छा गई थी । यंत्रवत दिन-भर उसी के ख्यालों में खोई काम करती रही थी और जब मन ना माना था तो केषव का पता पूछ शाम को झोंपड़ी पर पहुंच गई थी । वहसिर के नीचे दोनों हथेलियां दबाये खमोषी से आकाष को ताक रहा था । लाजो ने जाकर उसके चेहरे पर अपना दुपट्टा लहरा दिया था, “ओ केषव, क्या सोच रहा है ? काम पर क्यों नहीं आया ?”

वह फिर भी बिना कुछ जवाब दिये आकाष को घूरता रहा था । लाजो ने फिर उससे कहा था, “सुनता नहीं, तीन--चार दिन से काम पर क्यों नहीं आया ? क्या तबियत खराब है...?” कहते हुये उसने उसके माथे पर अपनी हथेली रख दी थी और चौंकते हुये मुंह से अनायास ही निकल गया था, “अरे बाप रे, तुझे तो तेज़ बुखार है । किसी से कहलवाया क्यों नहीं ? मैं आ जाती । डाक्टर को...?”

वह आकाष को घूरता-सा बोला था, “तू क्यों मेरी चिन्ता करती है ? मरूं या जिऊं...तुझे क्या ? तू मेरी कौन है जो...।” बाकी शब्द वह अंदर ही अंदर पी गया था और तब लाजो ने आस-पास देख उसके सुलगते होठों पर अपने रस भरे होंठ रख दिये थे, “तेरी जोरू ......।”

उसे लगा था जैसे उसकी झौंपड़ी में भूचाल आ गया हो । वह सर से पांव तक कांप गया था लाजो के स्पर्ष से ।

“दूर हट । तुझे शरम नहीं आती ...?”

“क्यों आये सरम ? तूने जिस दिन से मेट बाबू को ठोक कर मेरी लाज बचाई, बस उसी दिन से तुझे अपने दिल मंे बसा लिया मैंने । तुझे अपना घरवाला मान लिया है मैंने...।” कहते हुये बोली थी, “ला तेरे लिये गोली ला दूं और कुछ पका कर तुझे खिला दूं ।”

“नहीं तू जा, रात हो रही है बापू चिंता करेगा । फालतू में झमेला खड़ा हो जायेगा...। मैं सब कर लूंगा अपने आप ।”

मगर वह टस से मस नहीं हुई थी । “बापू ! बापू दारू पीकर औंधा पड़ा होगा । रही झमेले की बात सो मैं किसी से नहीं डरती । क्या तू डरा था उस दिन मेरी लाज बचाते...? और भी तो कई मर्द थे । क्या तू मेरे लिये प्याज़-रोटी नहीं लाता...? क्या तू मेरा ध्यान नहीं रखता....? बता तू क्यों करता है वो सब...?”

केशव चुप रह गया था । निरूत्तर हो झौंपड़े में भर आये अंधेरे को ताकने लगा था । उसके बिल्कुल निकट बैठी लाजो ने उसका प्यार से माथा सहला दिया था बोली थी, “कभी सुख नहीं मिला मुझे । तेरे पास अंधेरे में भी मुझे डर नहीं लगता । अपने आपको तेरी छाया में पाकर बड़ा सुख मिलता है । बता देगा ना मुझे सुख...?” कहते हुये केषव के ऊपर झुक गई थी और अनायास ही केषव के होंठों पर अपने धधकते होंठ रख दिये थे लाजो ने ।

झौंपड़ी अंधेरे में डूबी थी । सांसें गर्म थीं, गर्म सांसों की गर्म हवाएं झौपड़ी की दीवारों में आग भरने लगीं थीं । लाजो ने केषव को अपनी बाहों में कस लिया था । बाहर अंधेरा सृष्टि को अपनी बाहों में समेटे था और सारी सृष्टि अंधकार में खो गई थी । कुछ देर लाजो यूं ही केषव के सीने से लिपटी रही थी फिर केषव ने अचानक लाजो को एक ओर धकेल दिया था, “ये आधा सुख हेै लाजो, मैं तेरी मांग मेें सिंदूर भर कर पूरा सुख दूंगा...।” लाजो ना चाहते हुये भी एक लम्बी आह भरकर उठ बैठी थी । अपने जिस्म के तूफ़ान को थाम स्टोव सुलगाकर दूध गरम करने बैठ गई थी और केषव स्टोव की लौ में अपने आपको जलते देखने लगा था ।

दूसरे दिन केषव काम पर लौट आया था । राहत में जो सड़क बनाई जा रही थी उसे बरसात शुरू होने से पहले पूरा करना था, सो बार-बार ठेकेदार के आदमी काम का मुआयना करने आ रहे थे । मज़दूरों की संख्या और बढ़ा दी गई थी । चिलचिलाती जेठ की दोपहरी और पथरीली ज़मीन से लड़ते कई हाथ...। लाजो हर रोज़ केषव के साथ ही साथ पूरे दिन रहती । उस दिन अनायास ही एक बड़ा पत्थर निकालते हुये केषव की गैंती दस्ते से निकलकर लाजो के पैर पर जा पड़ी थी और एक चीख के साथ ही लाजो पैर पकड़कर बैठ गई थी । तमाम मज़दूर इकट्ठे हो गये थे । केषव ने तुरन्त अपना अंगोछा लाजो के पैर पर बांध दिया था । तभी एक कार वहां आकर रूक गई थी । कार से धोती-कुर्ता पहने काला चष्मा लगाये कोई सेठ उतरा था । पीछे-पीछे उसका नौकर उस पर छाता ताने बढ़ रहा था । सेठ भीड़ की तरफ बढ़ता हुआ ठीक लाजो के सामने आकर खड़ा हो गया था । लाजो इस सबसे बेखबर अपनी टांग सहलाती दर्द से कराह रही थी और सेठ को देख मेट ने मज़दूरों को हांक लगाकर उनके काम पर लगा दिया था । मगर केषव वहीं लाजो के पास बैठा रहा था । सेठ ने चष्मा उतार कर लाजो की अधखुली गोरी चिकनी पिंडली पर अपनी नज़रें जमा दीं थीं और अपने ड्राईवर को आदेष दिया था, “इसे फौरन कार में ले लो और पास की किसी प्राईवेट डिस्पेंसरी चलो ।” फिर लाजो को तुरन्त कार में बैठकार डिस्पेंसरी और वहां से उसके झौंपड़े तक खुद सेठ जी छोड़ने गये थे । सेठ जी ने लाजो को बहाने से अपनी बाहों का सहारा देकर बैठा दिया था टूटी खाट पर और स्वयं भी बड़ी आत्मीयता से उसके पास बैठ गये थे । शराबी बाप लड़खड़ाती ज़ुबान में सेठ के कदमों में गिर पड़ा था, “मालिक आपने क्यों कष्ट किया ये तो छोटी-सी चोट है ।”

“अरे बाबा छोटी कहां है ? देखो ना, कितना गहरा घाव.....ं” कहते हुये सेठ ने लाजो की पिंडलियों को फिर बहाने से सहला दिया था । लाजो ने झट अपनी टांग खींच ली थी और अंदर झौपड़ी के एक ओर जाकर बैठ गई थी ।

लाजो के कंचन बदन ने सेठ का रोम-रोम जगा दिया था । उसकी चिकनी पिंडलियों के स्पर्ष मा़त्र से ही वह रोमांचित हो उठा था । हवेली पहुंच कर बार-बार उसने अपनी हथेलियों को चूमा था । उसकी हथेली में जैसे लाजो की कंचन काया की सुगन्ध महसूस हुई थी उसे । ऐसा सुडौल, सुन्दर और गदराया बदन आज तक सेठ को ना मिला था ।सेठ की अपार दौलत को देख उसके अर्दली रोज़ एक-ना-एक औरत उसकी हवेली में छोड़ आते, मगर उन सबसे बिल्कुल अलग लाजो सेठ के मन-मस्तिष्क में छा गई थी । आज से पन्द्रह बरस पहले विधुर हुये सेठ की पत्नी भी सेठ की अय्याषीके कारण तिल-तिलकर, घुट-घुटकर स्वर्ग सिधार गई थी । उसकी मृत्यु के पष्चात् तो सेठ और भी आज़ादी से नारी-भोग मंे मषगूल हो गया था । मगर अब उम्र ढलान में थी तो सेठ ज़िन्दगी का एक बड़ा फैेसला मन ही मन कर बैठा था लाजो से ब्याह का...।

स्ेाठ लाजो को देखने के बहाने आता रहा था । उसकी नज़रेां से टपकती वासना को लाजो ने अच्छी तरह पढ़ लिया था । सेठ बापू के लिये ना केवल महंगी शराब लाता बल्कि मुर्ग-मुसल्लम का भी स्वयं पैसे देकर इंतज़ाम करवाता । लाजो सेठ को अच्छी तरह समझने लगी थी । उसे सेठ का आना जितना अख़रता उतना ही उसका बापू सेठ की राह ताकता । शाम उसके झौंपड़े में उतरती और उसे सेठ के आने का इंतज़ार होने लगता । वह सेठ की शान में लाजो से ना जाने क्या-क्या कहता । उसका कण्ठ सेठ जी...सेठ जी कर सूख जाता । अंग्रेज़ी शराब का स्वाद उसकी जीभ पर आने लगता और ष्षाही कबाब का ख्याल आते ही उसके मुंह में पानी भर आता । सेठ अंधेरा होते ही इत्र लगे सफ़ेद धोती-कुर्ते में कार से उतर कर सीधा झोैंपड़े में घुस आता । आते ही एक ज़हरीली मुस्कान लाजो पर डालता और बापू को मंहगी शराब की बोतल थमा देता ।

और एक दिन वह लाजो के लिये भी मंहगा लहंगा-चुनरी और हीरों का जड़ा हार ले आया था, “बाबा, ये लाजो के लिये । बेचारी फटे-चीथड़ों में कोई अच्छी लगती है ? इस दुनिया में सभी को जीने का हक़ है । फिर मेरे तो आगे-पीछे कोई है नहीं, एक बेटा है जवान । बीवी....।” कहते-कहते अपनी आवाज़ में दर्द भर लाया था, “बीवी करीब पन्द्रह बरस पहले मुझे इस संसार में अकेला छोकड़र चल बसी । जैसे-तैसे करके मैंने लड़के को पाला-पोसा...। आज मेरे पास दुनिया की अपार दौलत है मगर सुख नहीं....।” औरआंखों मेें आंसू भर वह लाजो के बापू के पैरों में झुक गया था । बापू अंग्रेज़ी शराब के नषे में लड़खड़ती ज़ुबान से हड़बड़ाकर बोल पड़ा था, “सरकार...! अनर्थ करते हो...? मुझ ग़रीब के पैर....? आप हुकुम करो मैं क्या कर सकता हूं आपके लिये..? अपनी जान भी...।”

“नहीं...नहीं...। ऐसा ना कहो बाबा । बस मुझे आपकी बेटी का सहारा चाहिये ...। ऐसी सुन्दर गुणवान स्त्री पाकर मेरा जीवन आराम से कट जायेगा...। मैं धन्य हो जाऊंगा....। रानी बनाकर रखंूगा लाजवन्ती को....। राज करेगी राज....।” कहते हुये सेठ एक बार फिर लाजो के बापू के कदमों में झुक गया था ।

लाजो यह सब सुनकर सन्न रह गई थी । सेठ की नियत में खोट है ये तो उसे पता था, मगर इस हद तक गिरेगा यह पता ना था ...। वह तो उसकी बेटी की उम्र की थी उससे विवाह....। अंदर तक कांप गई थी लाजो । मन ही मन सोच बैठी थी केषव के बारे में । केषव को जब मालूम पड़ेगा तो क्या सोचेगा... ? यही ना कि मैं जायदाद, एषो-आराम पर मर गई .....। उसकी चाहत, उसके निष्छल प्रेम का क्या होगा..? फिर अनायास ही सेठ के सामने सीना तानकर चीख पड़ी थी, “सरम नहीं आती सेठ ? मैं तेरी बेटी की उम्र की हूं तू मुझसे ब्याह रचायेगा....? मेरी गरीबी, शराबी बाप का फायदा उठा कर अपनी हवस की आग बुझाने का ख्वाब छोड़ दे । मैं केषव से प्यार करती हूं और उसी की होकर रहूंगी, उसके सिवा कोई और मेरे बदन को हाथ भी नहीं लगा सकता...।”

तब अनायास ही उसके गाल पर बापू ने नषे में भरपूर तमाचा दे मारा था, “क्या बकती है ... केषव....? वो मज़दूर लाचार...! तू उससे ब्याह रचायेगी.....? तेरी ये हिम्मत...?” फिर आवेष में कह उठा था, “सेठ जी, मुझे मंजू़र है, आप कल ही बारात ले आईये ।”

सेठ ज़हरीली मुस्कान चेहरे पर ले आया था, “कैसी बातें करती हो लाजो...? उम्र क्या देखती हो ? दिल देखो....दौलत देखो...। तुम्हें महलोें की रानी बना दूंगा ।”

“ऐसे महलों पर थूकती हूं । ” और पैर पटकते निकल पड़ी थी बाहर । जाते-जाते कह गई थी, “बापू पी ले अंग्रेज़ी शराब और बेटी को बैठा दे कोठे पे ...। मगर सुन ले, तेरी ये बेटी अपनी जान दे देगी मगर केषव के सिवा किसी और की कभी नहीं.....।”

स्ेाठ चुपचाप उठकर अपनी गाड़ी में जा बैठा था । बापू झौंपड़ी में लालटेन की मद्धिम रौषनी में प्लेट से कबाब ढूंढने के लिये एक हाथ में गिलास पकड़े, दूसरे हाथ को प्लेट में घुमा रहा था । मगर प्लेट के सारे कबाब उसके पेट में जा चुके थे और जा चुकी थी सेठ की कार...।

लाजो दौड़ती-सी केषव की झौंपड़ी में घुस गई थी और शांत लेटे केषव के सीने पर अपना सिर रख कर फफक-फफक कर रो पड़ी थी । केषव हतप्रभ-सा उसे रोते देख बेचैन हो उठ बैठा था, “क्या हुआ लाजो....बोल ना, क्या हुआ...?”

“मुझे ले चल केषव यहां से दूर..बहुत दूर..। जहां सेठ की मुझ पर छाया भी ना पड़े । तुझसे कहती थी ना, सेठ की नीयत में खोट है । उसने बापू को शराब पिला-पिलाकर अपने वष में कर लिया है और बापू को अंधा बना दिया है । वो मेरी शादी सेठ से कल ही करने का वादा कर बैठा है । मुझे बचा ले केषव..। अगर आज की रात तूने मुझसे ब्याह नहीं किया तो बूढ़ा सेठ मुूझे ले जायेगा ब्याह कर। केषव मैं मर जाऊंगी तेरे बिना...। मैं तेरे सिवा किसी और की सपने में भी नहीं..।” कहते हुये केषव के सीने से लिपटी लाजो रगड़ती हुई उसके कदमों में अपना सिर रखकर फूट पड़ी थी ।

केषव की झौंपड़ी की गोबर से लिपी बौनी दीवारें लाजो के आंसुओं से भीगने लगीं थीं । अन्दर की सारी हवा लाजो की गर्म सांसों से भारी हो चलीं थीं । धधकती देह से निकलती एक-एक सिसकी जैसे केषव को पिघला कर मोम बनाने लगी थी । मगर केषव का दिल इतने से भी नहीं पिघला था । वह बेचैन हो उठा था मगर फिर भी निष्ठुर सागर के किनारे-सा जड़वत वहीं स्थिर रहा, “नहीं लाजो । नहीं । तुझे कोई नहीं छीन सकता मुझसे। मगर जरा सोच ऐसे अचानक शादी...। लोग क्या कहेंगे ? फिर अभी मेरे पास तो तुझे ओढ़ाने लायक लाल जोड़ा तक नहीं ...। सब ठीक हो जायेगा, तू सब्र कर मैं कल तेरे बापू को समझाऊंगा । अभी तेरा यहां ठहराना भी ठीक नहीं....ै तू जा घर...। सब ठीक हो जायेगा ...मैं जो हूं । मेरे होते हुये तुझे कोई नहीं ले जा सकता ।”

लाजो ये सब सुनकर केषव से रगड़ती हुई उठी थी । आंखें लाल....सिर का दुपट्टा बदहवासी में ज़मीन से जा लगा था और घने काले लम्बे बाल माथे पर आकर पसीने से चिपक गये थे । छोटी चोली में बड़ी मुष्किल से समाये सुडौल, सुगठित वक्ष के उभार आधे से अधिक चोली के बाहर दिखाई पड़ रहे थे जो उसकी तेज़ चलती सांसों और सिसकियों से और अधिक फूल जाते । पतली कमर पर नाभि से नीचे बंधा, घिसा छलनी हुआ लहंगा जिसके आर-पार केषव को दरवाज़े की रौषनी के कारण लाजो की सुडौल गठी हुई जांघों और कूल्हों का स्पष्ट उभार दिखाई दे रहा था । वह ना जाने किस भाव से लाजो को इस रूप में देखता रहा कि तभी अनायास ही लाजो को ना जाने क्या हुआ कि उसने केषव की फटी कमीज़ का कॉलर पकड़कर उसे अपनी ओर खींच लिया था, “मैं जानती थी रे तू कायर है...बुज़दिल ....नपंुसक....। निरा नपंुसक...। ये जोबन ना जाने किस-किससे बचाकर तेरे लिये संभाल रखा था । देख....। क्या देख रहा है निखट्टुओं की तरह...?” कहते हुये उसने अपनी चोली के दो हुक खोल डाले थे । हुकों के खुलते ही उसका कठोर सेव जैसा सुडौल वक्ष चोली के बाहर निकल पड़ा था । वो केषव के सीने से सट गई थी, “ले देख ले...। आज तक किसी को नहीं दिखाये...। किसी को नहीं छूने दिये । इनके पीछे ही धड़कता है दिल जो सिवाय तेरे किसी और का नहीं हो सकता । अगर तूने अपनी मर्दानगी दिखार्इ्र होती तो आज सेठ की लालची निगाहें मुझ पर ना पड़ीं होतीं । मगर तू....तू मर्द नहीं ....। यह सब देखकर भी तुझे उफ़ान नहीं आता...। कम से कम आज तो अपनी मर्दानगी दिखा....।”

तभी एक करारा तमाचा उसके गाल पर पड़ा था । एक पल को आंखों के आगे अंधेरा छा गया था । उसे लगा था गोबर की दीवारों पर टिकी घास-फूस की छत हिल उठी हो । जैसे झौंपड़ी में सर्द हवाओं का तूफ़ान घुस आया हो । भरभरा कर झौंपड़ी कहीं ढह ना जाये केषव के गुस्से से ...।

केशव ने खामेषी से ज़मीन में पड़े लाजो की ओढ़नी के दुपट्टे से उसे अच्छी तरह ढंक दिया था । फिर आंखों में अंगारे लिये गुस्से से सुलग पड़ा था, “मर्द वो होते हैं जो औरत की लाज लूटते नहीं, बचाते हैं । यूं नंगी होकर मुझे क्या बताना चाहती है तू ? मैंने तुझे दिल से चाहा, तेरे शरीर को आज तक छुूआ नहीं इसका मतलब मेैं नपुंसक...? मेरी शराफ़त, मेरी इंसानियत को मेरी नामर्दानगी का नाम दिया तूने....?” केषव थप्पड़ मार कर हांफने लगा था गुस्से से । और लाजो अपने गाल पर हाथ रखे केषव को घूर कर रह गई थी । मगर उसी क्षण केषव क सिर में किसी ने पीछे से लाठी का वार कर दिया था और लाजो को कुछ लोगों ने पकड़कर करारे हाथ जमा दिये थे और जबरन धकेल कर कार में बैठा दिया था । केषव लाठी के प्रहार से वहीं लहुलुहान हो गिर पड़ा था और जब होष आया था तो ना जाने कहां कौन-से शहर में नदी के किनारे पड़ा पाया था अपने आपको । और दूसरे दिन ही सेठ ने लाजो के बापू को मालामाल कर ब्याह कर लिया था लाजो से । लाजो बेबस....लाचार-सी डोली में चली गई थी आंसू बहाती ।

अनायास ही लाजो को किसी की पदचाप सुनाई पड़ी । उसने पुनः अपनी सारी शक्ति बटोर कर पीछे मुड़कर देखा तो मानो उसका दम ही निकल गया । उससे कुछ ही दूरी पर प्रकाष हाथ में बंदूक लिये उसे ढूंढता चला आ रहा था । उसे तो केषव की यादों में अपनी सुद-बुध भी नहीं रही थी कि वह कहां और क्यों बैठी थी । वह सतर्क हो उठ बैठी और अनजानी दिषा मंे भागने लगी । शायद वह हवेली से भागती-भागती शहर के करीब आ चुकी थी । अंधेरा छंट चुका था और भोर की किरण पूरब से फूटने को ही थी । पेड़ों के पीछे छिपते-छिपाते उसे अनायास ही एक झोैपड़ी दिखाई दी । घास-फूस की, गोबर से लिपी । वह बिना कुछ सोचे-समझे, डरी सहमी-सी झौपड़ी में घुस गई । झौंपड़ी में खाट पड़ी थी जिस पर कोई चादर तान कर सोया हुआ था । वह चुपचाप बिना आहट किये खाट के नीचे घुस कर दुबक गई । प्रकाष उसे ढूंढता वहां भी पहुंच गया । बाहर से दरवाज़ा खटखटाया । खाट पर सोया आदमी उठा और बिना सोचे-समझे दरवाज़ा खोल दिया । लाजो ने डर के मारे आंखें भी मूंद लीं । प्रकाष ने उस आदमी से पूछा, “यहां किसी औरत को तो नहीं देखा ?”

“कमाल है, मैं सो रहा हूं । दरवाज़ा बन्द था मैं किसी औरत को कैसे देख सकता हूं ? ” उसका जवाब सुन प्रकाष संतुष्ट हो वहां से चला गया तब कहीं जाकर लाजो की जान में जान आई । वह खाट से निकलकर बाहर आई तब तक खाट पर सोये आदमी ने उसे नहीं देखा था । मगर जैसे ही वह उसकी तरफ मुड़ा तो देखकर हैरान रह गया । लाजो भी उसे देख कर हैरान हो उठी । उसने अपनी हथेलियों को दांतों से काट खाया और जब दर्द महसूस हुआ तब उसे जाकर विष्वास हुआ कि सामने खड़ा आदमी उसका केषव ही है । केषव....। ऐसे अचानक उसे मिल जायेगा उसने तो कभी सोचा भी नहीं था । लाजो केषव को आंखों में आंसू लिये अपलक निहारती रही और केषव पत्थर की मूरत बना यूं ही खड़ा रह गया । फिर अचानक ही केषव ने लाजो के आगे अपनी बाहें फेेैला दीं और लाजो सिसक कर उसकी बाहों मंे समा गई ।

झौंपड़ी की हवा मंे दोनों की सिसकियां तैरने लगीं । आंसुओं से झौंपड़ी का लोहे का दरवाज़ा भी गल उठा । दो प्रेमियों का मिलन....। मानो सृष्टि में एक नई उमंग -सी भर गई । सुबह चंचल हो मधुर गीत गा उठी हो । दोनों एक-दूसरे को बाहों में जकड़े बहुत देर तक यूं ही खड़े रहे ।

अनायास ही लाजो केषव से अलग हो गई, “अब ...अब हमारा मिलना, ना मिलना सब बेकार है....व्यर्थ है । अब लाजो लाजो नहीं, ज़िन्दा लाष है ।”

“क्यों ? तेरा वही केषव हूं । केषव जो अपना सब कुछ छोड़कर तुझे पाने के लिये दर-दर भटका है।”

“मगर अब बहुत देर हो चुकी । मैंने अपना सब कुछ खो दिया है । मैं....मैं ना केवल सेठ से छली गई, बल्कि उसके बेटे ने भी मुझे रात ही....।” कह कर फफक पड़ी लाजो ।

“मगर मैं तेरे शरीर से नहीं, आत्मा से प्यार करता हूं रे ।”

“जिस आत्मा से मैंने तुझे प्यार किया था वो आत्मा घायल हो चुकी है केषव । औरत का दिल कांच का बना होता है, तुम आदमियों की तरह पत्थर का नहीं होता । ये दिल एक बार टूट जाये तो फिर कभी नहीं जुड़ता । इस आत्मा पर भारी बोझ है जो अब ज़िन्दगी का बोझ बर्दाष्त नहीं कर पायेगा । तेरे साथ जी पाना खुद अपने आपसे धोखा होगा । बार-बार सेठ की बूढ़ी हड्डियों का वो चुभन भरा अहसास मेरे जिस्म को छलनी कर देंगा । सेठ से ब्याह हो जाने के बाद उसके बेटे की सौतेली मां होने के बावजूद उसके बेटे की तपती हवस की आग मेरे मन को जीवन-भर झुलसाती रहेगी । तुझे पता नहीं केैसे घुट-घुटकर जी रही थी तेरे बिना....। और जब तू मिला तो मैं मर चुकी हूं आत्मा से । तेरे साथ भी अब कभी पूरा सुख नहीं भोग सकूंगी । तू औरत के दिल को नहीं समझ पाया । मैंने कभी तेरे साथ छत पर लेट कर पूरा सुख और पूर्णिमा के पूरे चांद को पाने की कल्पना की थी मगर.....। मगर मेरी किस्मत मंे हमेषा मुझे आधा सुख, आधा चांद ही नसीब हुआ...। अब तो अगले जन्म में ही मैं तुझे अपनी पवित्र आत्मा और पवित्र शरीर सौंप पाऊंगी... । इस जन्म में तो मुट्ठी भर सुख के लिये भी तरसती रही ...।” कहते हुये बिलखती हुई लाजो झौंपड़े से निकल कर बाहर दौड़ पड़ी और पीछे-पीछे केषव ।

लाजो भागती रही....भागते-भागते उसने पास के कुएं में छलांग लगा दी और जब तक केषव कुएं तक पहुंच पाता लाजो कुएं के गहरे पानी में समा चुकी थी । केषव कुएं की मुंडेर पर पहुंच बिना सोचे-समझे लाजो को बचाने के लिये कूद पड़ा । कुछ देर तक कुएं का पानी दोनों की हलचल से कांपता रहा फिर कुछ ही समय बाद शांत पड़ गया । कुएं की दीवार से निकल कर दो कबूतर फड़फड़ाते हुए कुएं से बाहर उड़ गये ।

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