Life @ Twist and Turn .com - 15 in Hindi Moral Stories by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | लाइफ़ @ ट्विस्ट एन्ड टर्न. कॉम - 15

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लाइफ़ @ ट्विस्ट एन्ड टर्न. कॉम - 15

लाइफ़ @ ट्विस्ट एन्ड टर्न. कॉम

[ साझा उपन्यास ]

कथानक रूपरेखा व संयोजन

नीलम कुलश्रेष्ठ

एपीसोड - 15

यामिनी सबसे मिलकर अपने घर चली आई है । मीशा की चिंता लगी रही । उसे विश्वास था दामिनी दीदी पर । वे इतनी जुझारू महिला थीं, पता नहीं किस मिट्टी की बनी थीं , नेगेटिव तो उन्हें छूता भी नहीं था । हैरी अपने बैंक के कामों में व्यस्त रहे फिर बोले, ``मैं ज़रा बैंक होकर आता हूँ। लंच तक आ जाऊंगा। ``

पलँगों पर धुले कपड़ों का पहाड पड़ा था, वह बैठ कर तह लगाने लगी धोबी को फ़ोन किया, अपने नौकरों को फ़ोन कर सबको बताया कि काम पर लौट आओ ।

अभी वो घर सम्भाल ही रही थी कि टेलिफ़ोन की घंटी बजी, यामिनी ने फ़ोन उठाया उधर से अपरिचित आवाज़ और अपरिचित एक्सेंट में कोई महिला बोल रही थी, "आई नोरा, माई मैडम बेरी-बेरी सिक, प्लीज़ कम क्विक ---। ”

नोरा नाम की फ़िलिपीन हैल्पर (नौकरानी) सिंगापुर में यामिनी की बिटिया अनुभा के घर काम करती थी | उसको इंग्लिश टूटी- फूटी आती थी और हिंदी बिलकुल नहीं | पर यामिनी को समझ आ गया था कि वह क्या कहना चाहती है ?उसने पूछा, "व्हेयर इस सर ?” ( दामाद कहाँ है ?)

"नॉट होम --”

"ओ. के. वी आर कमिंग ---”यामिनी ने काँपते स्वर में कहा |

यामिनी और हैरी घबरा गए थे, उन्होंने तुरंत एमरजेंसी वीसा लिया, रात की फ़्लाइट की टिकिट बुक की और तीन घंटे पहले एयर पोर्ट आ पहुँचे | कोहरे को चीरती तीन शक्लें उनकी ओर हाथ उठाए मदद माँग रही हैं, भँवरो के बवंडर में फँसी वो तीन ज़िंदगियाँ, तट पर आने को व्याकुल हैं | उनके पास तो केवल एक छोटी सी नाव है | उन्हें खींच कर बीच समुद्र में से लाने लायक मोटर बोट उनके पास नहीं है.तो क्या करें ? डूब जाने दें ?`

यामिनी ने बैग में से एक डिब्बा निकाला, ``चलो डिनर यहीं खत्म कर लेते हैं। ``

``मुझे भूख नहीं है। ``

``मुझे तो बहुत ज़ोर से भूख लग रही है। ``यामिनी ने नाटक किया क्योंकि वह जानती है डाइबिटीज़ के मरीज़ अभी कुछ खायेंगे नहीं तो इन्हें चक्कर आने लगेंगें।

कौन हैं वो तीन ज़िंदगियाँ ? उनकी बिटिया अनुभा उसे उन्होंने अपनी कोख से जन्म दिया था। अपनी माँ और बापू की आँखों का तारा थी वह ! कैसी प्यारी बातें करती थी !स्कूल में सर्वप्रथम आ कर उनका मस्तक उन्नत करती थी | गाती थी, गिटार बजाती थी | वादविवाद प्रातियोगिता हो या स्पेलिंग का कॉम्पटीशन सबमें अव्वल !महफ़िल का केंद्र-बिंदु! विकटतम को सहज कर लेती थी | कभी घर आकर बहुत झुंझलाती, ``मम्मी !जानतीं हैं मुझे कॉलेज में सब डॉन कहतें हैं। ``

``क्या ?``वह देर तक हंसती रही फिर बोलीं, ``सही तो कहतें हैं तू हर काम में अव्वल है. तू हुई न डॉन। ``

``ये भी कोई नाम है ?दोनों नई पुरानी `डॉन `मूवी में देखा नहीं था कि अमिताभ बच्चन व शाहरुख़ ख़ान कितने गंदे काम करते हैं ?``

उन्होंने उसके सिर पर हाथ रखकर सहलाया था, ``ओफ़ो -तू वो डॉन थोड़े ही है। तू तो पॉज़िटिव डॉन है। ``

वह भोली बहल भी गई थी। देती थी साथ सच का | निर्बल पर अन्याय देख नहीं पाती थी | दुःख किसी का सहा नहीं जाता था | रोना किसी दुर्बल और गरीब का तो बिल्कुल नहीं | माँ और पिता का कदापि नहीं | तो वो आज निर्बल- दुर्बल और निरीह कैसे और क्यों कर हो गयी? मदद करने वाली मदद माँगती सी क्यों हो गयी ?

बड़ी हुई पढ़ी - लिखी और जवान हुई | जीवन साथी पाने की चाह उसके भी दिल में जाग उठी | वह एक डॉक्टर से शादी करना चाहती थी लेकिन उसके फ़ौजी पिता ने कब किसकी सुनी थी ? एक बहुत सुदर्शन ऊंची नौकरी वाले लड़के यानि अंकुर का परिवार उनके पीछे पड़ गया था। अनुभा शंकित भी हुई `` वे लोग क्यों पीछे पड़े हैं जबकि उनका बेटा कितना हैंडसम है और मैं देखने में मैं एकदम मामूली लड़की ?``

``उन्हें डॉक्टर बहू चाहिए होंगे इसलिए वे पीछे पड़े होंगे। `` उसी लड़के से उसकी शादी हुई, खूब धूम धाम से ! दिल खोल पिता ने सारी पूँजी व्यय कर ड़ाली, ससुराल की एक भी माँग अधूरी ना रखी, “ बेटी खुश रहे, पैसे का अब हमें क्या करना है ! ’’

पिता खुशी के आँसू बहाता था | बड़े उल्लास से प्यारी बेटी का ब्याह रचाया था | गहना कपड़ा उसे व ससुराल वालों को दिया | आवभगत की उसने शानदार | कोई कोर कसर न उठा रखी | चली गई बिटिया ससुराल और जब एक दिन बाद लौटी तो उसकी आँखें थीं बड़ी उदास |

``अनुभा !तू इतनी उदास क्यों लग रही है ?``

``यहाँ मैं डबल बैड पर सोती थी। वहां मुझे उन्होंने चटाई पर सुलाया है। ``

``क्या ?`` यामिनी की सांस अटक गई।

``जानतीं हैं एक डॉक्टर बहू से कपड़े धुलवायें हैं, बर्तन साफ़ करवाये हैं। ``

``तू क्या कह रही है ?मैं तुझसे कितना कह थी कि रिसेप्शन के फोटोज़ भेज। तूने भेजे क्यों नहीं ?``

``उन लोगों ने रिसेप्शन दिया होता तो फोटोज़ भेजती। ``अनुभा फ ट फूट कर रो पड़ी।

"तेरे लिए कोई पार्टी, कोई रिसेप्शन, कुछ भी नहीं था ?’’ मर्माहत हो उठी माँ देख कर बेटी की ब्याहता ज़िन्दगी की शुरुआत !“ उन्होंने तेरा स्वागत नहीं किया ?’’

“ नहीं --- ’’

“ तुझे किसी ने मुँह -दिखाई नहीं दी ?’’

फीके से स्वर में कहा, “नहीं ---’’

“ छोड़ो, तुम क्यों करती हो उसका मन खराब ? सब कुछ है उसके पास, ’’ पिता ने गर्व से कहा, “अच्छी-ख़ासी है दोनों की कमाई | क्या ज़रूरत है किसी को देने की मुँह -दिखाई ?’’

पिता बेटी का क्षोभ कम करने की गरज़ से कह रहे थे | उसे कोई लालच किसी की चीज़ का कभी नहीं था, न किसी से लेने की इच्छा, “ स्वयंसिद्धा है बेटी मेरी डॉक्टर, वो भी एम डी, स्वयं बना लेगी अपने लिए हीरे -ज़वाहरात |’’

माँ ने भी` हाँ `में `हाँ मिलाई “ छोड़ परे, तू तो खुश है उनके साथ ?’’

चेहरे पर हलकी सी लालिमा छाई और उसने नेत्र झुका लिए | काफ़ी था इशारा माँ बाप को सुख देने के लिए, बेफ़िक्र हुए | वे दोनों साथ रहने अलग घर बड़े शहर रवाना हुए | अच्छा हवादार घर मुंबई जैसी महानगरी में | अनुभा बेहद ख़ुश थी क्योंकि मेडिकल पढ़ाई मुम्बई से की थी। मन भीतर तक संतोष की साँस में भीग गया | सुख की अनुभूति हुए कुछ ही दिन हुए थे कि बिटिया का फ़ोन आया, रात ग्यारह बजे, “ रोज रात को देर से आते हैं, आते ही सो जाते हैं, सुबह सात बजे मैं चली जाती हूँ – और तो और शराब पीते हैं , शनिवार-इतवार को मित्र आ जाते हैं, यहीं सो जाते हैं |’’

पाँव तले से ज़मीन सरक गई |अभी तो ब्याह को पन्द्रह दिन न हुए थे.

“ प्राइवेट सैक्टर की नौकरी है, कोई हमारे जैसी सरकारी नौकरी थोड़ा है, नौ से पाँच |’’ पिता माँ को समझाते थे कि स्वयं को ? कुछ दिन बाद बेटी की विधवा सास वहाँ आ पहुँचीं, बहू से सेवा लाभ उठाने ! वो तो मानो सौगंध खा कर वहाँ आई थीं | जब ब्याह की बात चली तो हमारी बेटी उनकी बेटी है कह कर उनका मन जीतने वाली उस स्त्री ने पीछे पड़कर उनकी बेटी हाथों-हाथ ली थी | अब उसी सासू माँ ने अपने मुख से निकले शब्दों का अर्थ ही व्यर्थ कर दिया, “ ऐसे पहनो ’’, “ ऐसे चलो ’’

“ पति आये, तुम श्रृंगार करो ’’

अनुभा कसक से पूछती “ कब रात के ग्यारह बजे ?’’

“ बड़ी मुहँजोर है रे तेरी वोट्टी ( बहू ) । ’’ अपने बेटे से शिकायत कर डालती।

“ अक्ल सिखाई नहीं माँ- बाप ने इसे । ’’ बेटा भड़काने पर गरजता

माँ बाप ने उसे चुप रहना न सिखाया होता तो बताती उन्हें, “ तुमने अपने बेटे को क्या सिखाया --- शराब पीना –देर रात को घर में आना ----?’’

परन्तु घोंट लिए सारे जवाब गले के भीतर | जो गहने बनवाए थे माँ बेटी ने मिलकर डिज़ाइन दे कर जौहरी को, वो सब रख लिए थे उसके पति की माँ ने जो कहती थी, क्या सिखाया तेरे माँ बाप ने तुझे ?

ऐसा क्यों होता है कि हम अपने ही हाथों से बलि चढ़ा देते है अपनी कोख जनी की ! बलि जिसका नाम है ‘ कन्यादान !’ किसने बनाया ये विधान ? कौनसे शब्द-कोष से जन्मा ये घिनौना शब्द ?

कन्या क्या कोई दान देने की वस्तु है ? किसने दिया अधिकार उन्हें कि कर सकें उस कन्या का जब चाहें अपमान ? ‘कन्यादान’ के नाम पर कर देता है जो हमारी अपनी संतान को पराया, एतराज़ है ऐसे नियमों का ऐसे समाजों का !

`‘ करते रहो एतराज़ ! बनाते रहो सत्यमेव -जयते जैसे प्रोग्राम कुछ बदलने वाला नहीं है ’ एक नहीं, सैकड़ों बेटियों के माँ -बाप सह रहे हैं , ये ही दिन और रात |इतने मॉडर्न नहीं थे उसके पिता कि बेटी को ले आते अपने घर ! रोती रही वो वहाँ और माँ यहाँ घर पर | गोद भरी तो आशा की किरण दूर क्षितिज पर लालिमा बिखेरने लगी | बेटी की मौसी ने कहा, “बच्चा हो जाने पर ज़िम्मेदारी आ जायेगी, शुरू – शुरू की बैचलर-लाइफ़ ऎसी ही होती है, जीजी तुम सब्र करो| ’’

उसने सोचा, ``क्या सच ही अंकुर बच्चा होने से सुधर जायेगा ?

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मधु सोसी गुप्ता

ई-मेल –sosimadhu@gmail.com

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