परिणीता
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
(10)
शेखर ने असम्भव समझकर ललिता को पाने की आशा छोड़ दी। कर्इ दिन उसे डर अनुभव होता रहा। वह एकाएक सोचने लगता कि कहीं ललिता आकर सब बातें कहकर भण्डफोड़ न कर दे, उसकी बातों का जवाब न देना पड़ जाए, परंतु कर्इ दिन बीत गए, उसने किसी ने कुछ नहीं कहा। यह भी पता नहीं चला कि किसी को ये बाते मालूम हुर्इ अथवा नहीं। किसी प्रकार की चर्चा ललिता के घर में नहीं हुर्इ और न कोर्इ शेखर के यहाँ ही इस विषय के लिए आया।
शेखर के कमरे के सामने वाली छत से ललिता के घर की छत साफ दिखार्इ देती थी, जिससे उसकी निगाह ललिता पर न पड़े, परंतु एक माह बिना किसी कहा-सुनी के बीत गया, तो उसने थोड़ा आराम अनुभव किया और मन में विचार करने लगा-स्त्री जाति लज्जा और संकोच की मूर्ति है- इस प्रकार की बातों को वह कभी दूसरों पर नहीं प्रकट करती। नारी की छाती फटकर टुकड़े-टुकड़े क्यों न हो जाए, पर उसकी जुबान नहीं हिलती। शेखर के हृदय में इन बातों ने स्थान पा लिया। इस प्रकार औरतों के हृदय की कमजोरी, लज्जा तथा शील के लिए उसने विधाता को बारम्बार धन्यवाद दिया। इतना सोचने के पश्चात भी तो उसे चैन न था। उसकी स्थिति सदैव डांवाडोल क्यों रहती है? इस डर के निकल जाने पर भी उसके हृदय में बराबर आंतरिक वेदना क्यों उठती है? ललिता क्या कुछ न कहेगी? वह किसी दूसरे के संग ब्याहे जाने पर पूर्णरूप से खामोश हो जाएगी। ललिता का ब्याह हो गया है, औऱ प्रीतम के साथ अपना घर-बार संभालने चली गर्इ है- और सोचते ही शेखर के बदन में आग क्यों लग जाती है? उसका क्रोध क्यों सीमा को पार कर जाता है?
शेखर अपनी खुली हुर्इ छत पर नियमनपूर्वक नित्य टहला करता था- आज भी उसने टहलना शुरू किया, परंतु उस घर का कोर्इ भी प्राणी दिखार्इ न पड़ा, केवल अन्नाकाली किसी काम से वहाँ आर्इ थी, परंतु शेखर को देखते ही अपनी निगाहें नीची कर ली। शेखर दुविधा में था कि उसे पुकारे या न पुकारे, इसी बीच वह आँख के सामने से अदृश्य हो गर्इ। शेखर ने तुरंत समझ लिया कि स दीवार के बन जाने से, दोनों घरों के अलगाव का अनुभव इस अन्नाकाली को भी हो गया है।
इसी उधेड़-बुन में एक माह और बीत गया।
एक दिन भुवनेश्वरी ने बातों-ही-बातों में पूछा- ‘शेखर बेटा! क्या इस बीच में ललिता को कभी दैखा है?’
शेखर ने उत्तर दिया- ‘नहीं तो माँ। क्या हुआ माँ?’
भुवनेश्वरी ने कहा- ‘करीब दो माह बाद उसको मैंने छत पर देखा था और पुकारा भी था, परंतु उसके रंग-ढंग से ऐसा लगा कि उसमें बहुत ही परिवर्तन हो गया है। अब वह ललिता नहीं रही, बीमार-सी लगती है- चेहरा उदास तथा सूखा हुआ है- देखने में उसकी उम्र बहुत प्रतीत होती है। उसको देखकर कोर्इ नहीं कह सकता कि वह चौदह की है।’ इतना कहते हुए उनकी आँखों में आँसू भर आए।
अपनी धोती से आँसू पोंछकर, दुःख भरे शब्दों में फिर उन्होंने कहना आरम्भ किया- ‘वह मैली तथा फटी साड़ी पहने थी, किनारी में पैबंद लगा हुआ था। मैंने उससे पूछा- बेटी! क्या कोर्इ साड़ी नहीं है? उसने उत्तर दिया- है! परंतु मुझे उसके इस उत्तर से जरा भी विश्वास नहीं हुआ। अपने मामा की दी हुर्इ साड़ी उसने कभी नहीं पहनी। उसे साड़ी मैं ही देती थी। इधर छः- सात मास से मैंने उसे एक भी साड़ी नहीं दी है।’
इतना कहकर वह बिल्कुल चुप हो गर्इ। उनके मुंह से मानो शब्द ही न निकल सके। अपनी भीगी हुर्इ आँखों को उन्होंने धोती से पोंछ डाला। उनके दुःख का एकमात्र कारण यह था कि वह ललिता को अपनी सगी पुत्री के सदृश समझती थीं।
शेखर अवाक् सा दूसरी तरफ देखता रहा।
थोड़ी देर बाद भुवनेश्वरी ने फिर कहना प्रारम्भ किया- ‘आज तक मेरे अलावा उसने किसी से कुछ मांगा नही। खाने का समय होने पर, यदि वह भूखी होती थी, तो भी किसी ने मुंह खोलकर न मांगती थी, बल्कि सीधे मेरे पास ही रुकती थी, और में उसका मुंह देखकर समझ जाती थी कि वह भूखी है। शेखर बेटा! मैं यही बात बार-बार सोचती हूँ कि न वह अपने दुःख को किसी से कहती है और न उसके दुःख को कोर्इ अनुभव करने वाला है। वह नाम-मात्र को मुझे माँ नहीं कहा करती थी, बल्कि वह मुझको वास्तविक माँ की भांति प्रेम करती थी।’
साहस करने पर भी शेखर अपनी माँ की ओर मुंह उठाकर न देख सका। नीचे मुंह किए हुए बैठे-बैठे माँ की और देखकर कहा- ‘अच्छा माँ, तो जिन-जिन वस्तुओं की आवश्यकता है, बुलाकर दे दे न।’
भुवनेश्वरी ने कहा- ‘अब वह क्यों लेने लगी। तुम्हारे पिता ने तो घर आने-जाने का मार्ग भी बंद कर दिया है। साथ ही मैं भी कौन-सा मुंह लेकर उसके यहाँ जाऊं? यदि गुरुचरण बाबू ने दुःख के कारण पागलपन में कुछ बुरा काम कर ही डाला था, तो हमें चाहिए था कि हम शुद्धि कराकर उन्हें अपने में मिला लेते। मिलाने की बात तो दूर हो गर्इ, बल्कि हमने उन्हें बिल्कुल पराया बना दिया है। दुःख में पड़कर गुरुचरण बाबू ने अपनी जाति भी बदली दी है। इस कार्य के कारण ते पिता ही हैं। जब देखो तब तकाजा सवार। मेरी समझ में तो गुरुचरण बाबू ने बड़ा ही अच्छा किया। हृदय में घृणा भर जाने पर मनुष्य मनचाहा काम करने का अधिकारी होता है। गिरीन्द्र उनके लिए हम लोगों से बढ़कर है। अगले महीने शायद उसी के साथ ललिता की शादी होने वाली है। मुझे विश्वास है कि बड़ी खुशी और आनंद से उसके साथ जीवन बिताएगी।’
शेखर ने आश्चर्य में पड़कर अपनी माँ से पूछा- ‘क्या ललिता का ब्याह अगले माह ही है?’
भुवनेश्वरी- ‘सुना तो ऐसा ही है।’
शेखर ने और कुछ नहीं पूछा।
माँ कुछ देर चुप रही, कहने लगीं- ‘ललिता ने बताया था कि उसके मामा का स्वास्थय ठीक नहीं रहता और ठीक रहें भी कैसे? वैसे हार्दिक शांति नहीं है, फिर घर की हाय-हाय और भी बुरी। उसके मकान में तो सदैव अशांति का डेरा है।’
कुछ समय बाद माँ के चले जाने पर शेखर उठकर अपने कमरे में चला आया, और बिछौने पर करवटें बदलते हुए, ललिता की यादों में विचारमग्न हो गया।
शेखर का मकान एक पतली गली में था। उस गली में दो गाड़ियां अथवा मोटरें पास होने में बड़ी दिक्कत होगी। करीब दस बारह दिन बाद, शेखर की गाड़ी गुरुचरण बाबू के घर के सामने खड़ी हुर्इ। रास्ता रूके होने के कारण गाड़ी रूक गर्इ। शेखर अपने ओफिस से वापस आ रहा था। गाड़ी से नीचे उतरकर उसे मालूम हुआ कि गुरुचरण बाबू के यहाँ र्डाक्टर आए हैं।
कर्इ दिन पहले ही उसने गुरुचरण बाबू की अस्वस्थता के बारे में अपनी माँ से सुना था, इसीलिए अपने घर न जाकर उन्हें देखने के लिए वह गुरुचरण बाबू के घर चला आया और सीधे उन्हीं के कमरे में गया। गुरुचरण बाबू निर्जीव से चारपार्इ पर पड़े थे, तब ललिता और गिरीन्द्र वहीं पर बैठे थे। सामने कुर्सी पर बैठे र्डाक्टर रोग का निरीक्षण कर रहे थे।
धीमे स्वर में गुरुचरण बाबू ने शेखर को बैठने के लिए कहा। ललिता भी उसे देखकर, थोड़ा घूंघट खींचकर औऱ मुंह घुमाकर बैठ गर्इ।
र्डाक्टर साहब उसी मोहल्ले के रहने वाले थे और शेखर को भली-भांति जानते थे। दवार्इ आदि लिखकर वह शेखर के साथ बाहर आए। गिरीन्द्र ने बाहर आकर र्डाक्टर साहब की फीस दी। जाते समय र्डाक्टर साहब ने गिरीन्द्र से कहा- ‘काफी सतर्कता की आवश्यकता है। वैसे अभी रोग बढ़ा नहीं है। यदि इनको जलवायु-परिवर्तन कराने के लिए अन्यत्र ले जाया जाए तो बेहतर होगा।’
र्डाक्टर के जाने के पश्चात् शेखर तथा गिरीनद्र अंदर आए। ललिता ने गिरीन्द्र को इशारा देकर अपनी तरफ बुल लिया और दोंनो आपस में कानाफूसी करने लगे। शेखर चुपचाप कुर्सी पर बैठा हुआ, गुरुचरण बाबू की ओर देखता रहा। शेखर बाबू का मुंह इस समय दीवार की तरफ था, इसीलिए शेखर का दुबारा वहाँ लौटकर आना वे नहीं जान सके।
थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहने पर शेखर को ऊब सी मालूम हुर्इ और वह उठकर अपने घर चला गया। ललिता तथा गिरीन्द्र दोनों अब भी कानाफूसी कर रहे थे। शेखर ने किसी से कोर्इ बात नहीं की। शेखर का एक प्रकार से अपमान नहीं तो और क्या था?
आज शेखर को पूर्ण रुप से पता चल गया था कि ललिता चाहती है कि वह पिछले दिनों की याद तथा अधिकार, जो भी उसके सिर थे, उन्हें भूल जाए। अब वह निर्भय होकर कहीं भी रह सकता है। अब उसके ऊपर कोर्इ जिम्मेदारी नहीं रही और न उसके बारे में सोचकर दिमाग खराब करने की आवश्यकता है। ललिता ने संभवतः इन सब बंधनों से उसे मुक्त कर दिया है। कमरे में कपड़े उतारते हुए उसे हजारों बार यही बात याद आर्इ की गिरीन्द्र ही उसका सगा है, ललिता के घरवालों का एकमात्र सहारा वही है तथा उसी पर ललिता का भविष्य निर्भर है। शेखर अब उसका कोर्इ नहीं है। ललिता किसी बात में शेखर से सलाह लेने की कौन कहे, बोलना भी नहीं चाहती।
शेखर ने कपड़े उतारे और आरामकुर्सी पर बैठ गया। वह अब भी उन विचारों में उथल-पुथल मचा रहा था। ललिता ने उसे देखकर माथे पर कपड़ा खींच लिया और मुंह घुमा लिया था, मानो वह कोर्इ पराया हो! उसके सामने ही गिरीन्द्र को अपने पास बुलाकर काफी समय तक बातें करती रही। ऐसा प्रतीत होता था कि शेखर अब उसका कोर्इ भी नहीं है और गिरीन्द्र ही उसका सगा है। ललिता के ऐसे व्यवहार से शेखर को बड़ी ठेस लगी। धीरे-धीरे ललिता के प्रति जो भी प्रेम शेखर के हृदय में था धृणा के रूप में बदल गया।
गिरीन्द्र तथा ललिता की कानाफूसी के प्रति शेखर ने विचारा कि कहीं उसकी गुप्त बातें तो नहीं हो रही थीं। शेखर को यह ख्याल आते ही लज्जा आ गर्इ, परंतु मन में ढाढ़स पैदा कर वह विचार करने लगा कि ऐसा सम्भव नहीं, यदि वे बातें होतीं, तो अब तक भयंकर दृश्य सामने आ उपस्थित होता, और इसके लिए शेखर को अवश्य उत्तर देना पड़ता।
एकाएक कमरे में माँ के आने की आहट से शेखर की विचारधारा खण्डित हुर्इ। उन्होंने कहा- ‘शेखर तुमको क्या हुआ, बेटा! अभी तक हाथ-मुंह नहीं धोया।’
‘जा रहा हूँ।’- कहता हुआ शेखर तुरंत नीचे चला गया। उसकी धबराहट माँ न जान सके इसीलिए तुरंत मुंह घुमाकर नीचे चला गया।
ललिता की इन्हीं तमाम बातों पर शेखर कर्इ दिन तक विचार करता रहा और अभिमान-वश अपने मन में विरक्ति के भावों का संचयन करता रहा। वह शेखर की भूल और ज्यादती थी। केवल यही वात वह न सोचता था कि वास्तव में दोष तता इनकी जड़ कहाँ पर है? उस दिन से आज तक उसने आशा की एक किरण भी ललिता को ओर नहीं फेंकी। निर्लज्ज ललिता स्वयं उसकी छाती-से-छाती मिलाकर तमाम बातें करने के लिए तैयार थी, उसके लिए भी उसने अवसर नहीं दिया। अपनी हिंसा, क्रोध, और अभिमान से जल-भुन रहा था। शेखर ही नहीं, वरन् संसार के सारे पुरुष सभी दोष नारी के ऊपर अभिमानपूर्वक मढ़कर एकतरफा फैसला करते हैं। बेचारी नारी को सब कुछ सहन करना पड़ता है। पुरुष अपने हृदय की ज्वाला में उसे भी जलाकर खाक कर देते हैं। साथ-ही-साथ वे स्वयं भी जला करते हैं। पुरुष सदैव से स्त्री-जाति को पशु के समान अबला समझते आए हैं, इसलिए पुरुष को अभिमानी कहना उचित ही है। यह ज्वलंत उदाहरण है कि पुरुष कितना स्वार्थी तथा अभिमानी होता है।
मन-ही-मन जलते हुए एक सप्ताह बीता। आज भी ओफिस से आने पर उसी प्रकार विचारों की ज्वाला में अपने को तपा रहा था। एकाएक दरवाजे पर आवाज सुनार्इ पड़ते ही उसका ध्यान भंग हो गया। उसके हृदय की गति रुक गयी, यह देखकर कि अन्नाकाली के साथ ललिता उसके कमरे में आर्इ और फर्श पर बिछे हुए गलीचे पर बैठ गर्इ। बैठने के पश्चात् अन्नाकाली ने कहा- ‘शेखर भैया, हम लोग कल चले जाएंगे, इस कारण हम दोनों आपको नमस्कार करने आर्इ हैं।’
शेखर चुपचाप उसकी ओर देखता रहा।
अन्नाकाली ने फिर कहा- ‘भैया, न जाने कितने अपराध अनजाने में हमने किए होंगे, उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।’
शेखर तुरंत ताड़ गया कि यह अन्नाकाली नहीं, बल्कि और ही कोर्इ उसके मुंह से बोल रहा है। इस बार शेखर ने पूछा ‘कल कहाँ जाओगी?’
‘पश्चिम की ओर! बाबूजी को मुंगरे ले जाएंगे। वहीं पर गिरीन्द्र बाबू का मकान है। अब हम लोगों का आना बाबूजी के ठीक हो जाने पर भी न हो सकेगा। यहाँ की जलवायु बाबूजी के लिए लाभदायक नहीं है।’
‘अब उनका क्या हाल है?’
‘अब कुछ ठीक है।’- अन्नाकाली ने यह कहकर, बहुत-से नए कपड़े दिखाकर कहा- ‘यह सब तार्इजी ने दिए हैं।’
ललिता अब तक खामोश बैठी रही। फिर अपने स्थान से उठकर वह मेज के समीप आर्इ अपने आंचल से ताली खोलकर रखते हुए कहने लगी, ‘यह अलमारी की चाभी अब तक मेरे पास ही थी।’ फिर थोड़ा सा मुस्कुरार्इ और बोली- ‘परंतु एक पैसा भी नहीं बचा है। सब पैसे खर्च हो गए है।’
शेखर ने कुछ नहीं कहा बल्कि उसकी ओर देखता रहा।
अन्नाकाली ने ललिता से कहा- ‘अच्छा चलो जीजी, बहुत देर हो रही है।’
ललिता के कुछ बोलने से पहले ही, शेखर ने अन्नाकाली से कहा- ‘अन्नाकाली, जा, माँ से पान ले आ।’
लेकिन ललिता ने जाने से मना कर दिया और बोली- ‘तू यहीं रह, मैं ले आ रही हूँ।’ यह कहकर वह शीध्र ही नीचे चली गर्इ और पान लाकर अन्नाकाली को दिया कि शेखर को दे दे।
पान लेकर शेखर निराश हो गया और जीतने की आशा भरे जुआरी की भांति हार जाने पर चुप होकर बैठा रहा।
‘अच्छा अब जाती हूँ।’ यह कहकर अन्नाकाली ने शेखर के निकट आकर, उसके पांव छूकर प्रणाम किया, किन्तु ललिता ने वहीं से हाथ जोड़कर प्रणाम किया। फिर दोनों चली गर्इ।
शेखर अवाक् और निराश बैठा रहा। ललिता आर्इ और कुछ कहना चाहती थी, कह गर्इ, पर विदा के समय शेखर को कुछ मौका न देकर तुरंत चली गर्इ। शेखर वहीं ठगा-सा बैठा रह गया, कुछ भी नहीं बोला, मानो वह कुछ कहना ही नहीं जानता था। शेखर ललिता से बहुत कुछ कहने का इच्छुक था, पर मौका ही न पा सका। अन्नाकाली को वह शायद इसीलिए साथ लार्इ थी कि इस विषय में कोर्इ बात न हो। अपने मन में उसने सोचा- शायद ललिता भी नहीं चाहती की उस विषय की बात छिड़े। वह शायद पिछली बातें भूल जाना चाहती है। यह सोचकर वह कटी पतंग की भांति लड़खड़ाया हुआ अपने बिस्तर पर गिर पड़ा। उसके हृदय में ललिता के प्रति विरक्ति समा ही रही थी। आज की इस घटना से उसका हृदय और दुःखी हो उठा।
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