घोंघे
अर्पण कुमार
साहित्य में नए-नए कदम रखे अरुण कौशल ने छपने-छपाने की दुनिया में प्रवेश कर लिया था। अपने से वरिष्ठ साथियों की रचनाओं को पढ़कर और उसमें हाशिए और सर्वहारा वर्ग के प्रति ध्वनित होती उनकी समानुभूति की तीव्रता के आधार पर वह उन नामी-गिरामी साहित्यकारों के प्रति श्रद्धा-नत हो जाता। ये बड़े लेखक उसके आदर्श थे।
अरुण कौशल चूँकि अपने-आप को हिंदी कविता की दुनिया में स्थापित करना चाहता है, अतः वह पहले से इस क्षेत्र में बाजी मारे हुए लोगों के कद को एक हसरत भरी निगाह से देखता है। खासतौर से फेसबुक जैसे त्वरित माध्यमों पर आती सूचनाएँ और चित्र उसे बड़े आकर्षित करते हैं। वह उन्हें लाइक्स करता है और उन्हें अपनी बधाइयाँ भी देता है। कई लेखकों लेखिकाओं को वह फॉलो भी करता है। इन सबके बावज़ूद, हाल हाल तक उनसे बातचीत करने की उसे हिम्मत नहीं होती थी। उसकी इच्छा पर संकोच की एक परत बिछी रहती थी। वह सोचता था, ये बड़े लेखक हैं, इनकी तेज नज़र और इनकी सूक्ष्म दृष्टि के आगे वह कहाँ टिक पाएगा। उसे कई बार लगता...वह बात करे भी तो क्या करे! मगर धीरे धीरे वह उनके ‘टॆक्सट’ और उसके स्तर से परिचित होने लगा। उनके और अपने लिखे की तुलना करने लगा और उसके अंदर क्रमशः आत्मविश्वास आने लगा।
अरुण इन दिनों नित्य नए लोगों से संपर्क में रहना चाहता है। वह अपने से वरिष्ठ साहित्यकारों से मार्गनिर्देशन चाहता है। वह उन्हें अपनी कविताएँ सुनाना और पढ़ाना चाहता है और उनपर उनकी प्रतिक्रिया चाहता है। वह दूसरे लेखकों की तरह ख़ुद को भी फेसबुक, ट्विटर और आर्कुट पर अपडेट रखता है। उसी क्रम में एक दिन वह ‘फेसबुक’ पर अंशुमान प्रधान से बातचीत करने लगा।
अरुण कौशल, “ नमस्कार, नया क्या लिख रहे हैं?”
अंशुमान प्रधान, “ कविताएँ।”
अरुण कौशल, “ इधर कहाँ प्रकाशित हुई हैं?”
अंशुमान प्रधान, “ कहीं नहीं।”
अरुण कौशल, “ कहीं नहीं...क्या मतलब!”
उधर से कोई जवाब नहीं आया। अरुण ने दुबारा लिखा, “ ज़रा खुलकर चर्चा हो!”
अंशुमान प्रधान, “ बस।”
अरुण कौशल, “ हमारे जैसे पाठक आपकी कविताओं की प्रतीक्षा किया करते हैं। हमारी प्रतीक्षा का भी थोड़ा ध्यान रखें।”
अंशुमान प्रधान, “ बिल्कुल, आभार।”
(कुछ देर रुककर)
अरुण कौशल, “ थोड़ा बहुत मैं भी लिखता हूँ।”
अंशुमान प्रधान, “….”
अंशुमान प्रधान ने आगे जवाब नहीं दिया। वास्तव में वे जवाब देना नहीं चाहते थे। वे कविताएँ लिखते हैं, लेकिन उनकी परवर्ती पीढ़ी क्या लिख रही है, इसमें उनकी कोई रुचि नहीं है। वे अपने आपको इतने बड़े कवि मानते हैं कि उन्हें अपने आगे किसी नए ‘लौंडे-लफाड़े’ के लिखे को पढ़ने की ज़रूरत महसूस नहीं होती।
यह दो कवियों के बीच इंटरनेट पर हुआ वार्तालाप था, जहाँ ख़ामोश और रुखी प्रतिक्रिया उनकी गंभीरता का पर्याय नहीं थी, बल्कि वरिष्ठ की हेकड़ी और कनिष्ठ की दयनीता का सबूत थी। यह हिंदी कविता का प्रदेश है जहाँ जीते जी निराला और मुक्तिबोध को मार दिया जाता है। एक समय का अंशुमान प्रधान इन्हें मार देता है और दूसरे समय का अंशुमान प्रधान इनकी विरुदावलि गाता है। इस ख़याल से अरुण डर गया। उसका पूरा शरीर पसीने से नहा उठा। क्लासिकल गीत ‘केतकी, गुलाब, जूही, चंपक वन फूले’ उसे याद आ गया। मगर क्या उसके जैसे नवोदित लेखक सचमुच कभी खिल पाएँगे और उनके शब्दों की खुशबू दूर तक पहुँचेगी! काँटे, धूप और जानवर आदि तमाम प्रतिकूल स्थितियों को सहते हुए इन फूलों की जीवटता और अनथकता को उसने मन ही मन सलाम किया और कहीं स्वयं भी इनसे ऊर्जस्वित हुआ।
कोई तीसरे दिन फेसबुक पर दोनों एक बार पुनः ऑनलाइन दिखे। मगर अरुण ने इस बार अंशुमान प्रधान से कोई बातचीत नहीं की। एक छोटा सा संवाद उसे इस तरह कई दिनों तक प्रभावित कर सकता है, उसे स्वयं पर आश्चर्य हुआ था। वर्चुअल प्लेटफॉर्म पर हुई चैटिंग उसके वास्तविक जीवन के कई चटख रंगों को चाट चुकी थी। वह एक बार अपने मन की भड़ास साफ़ साफ़ लिख देना चाहता था, फिर इसे धूल मे लट्ठ मारने जैसा एक अनावश्यक उपक्रम समझते हुए वह चुप ही रहा। सुबह सुबह रेडियो पर एक गाना बज रहा था। गाने के बोल इस प्रकार थे :-
निर्बल से लड़ाई बलवान की
ये कहानी है दीए की और तूफ़ान की
वह मन ही मन मुस्कुरा उठा। गाने में दीए के उत्साह की चर्चा रोचक अंदाज़ में की गई थी। तो क्या वह स्वयं दीया है और अंशुमान प्रधान कोई तूफ़ान। वह कंधा उचकाकर उठ गया और बाहर बालकनी में बैठ गया। पत्नी चाय लेकर आ गई। चाय का प्याला अपने हाथ में लेता हुआ अरुण ने पूछा, “अंजना, एक सवाल का जवाब दो। देखो, तुम्हें मेरी कसम। बिल्कुल सच-सच बतलाना। क्या किसी तूफ़ान को एक दीया हरा सकता है?”
इन सात वर्षों में अंजना अपने पति के मिज़ाज को थोड़ा समझने लगी थी। कुछ देर चुप रही। फिर बोली, “उल-जुलूल खयालों से बाहर आइए कवि महोदय। चाय का मज़ा लीजिए और शाम का आनंद उठाइए मेरे साथ। बाक़ी सब चीज़ें बेकार हैं। और हाँ, ये कसम-वसम, आप कवियों को शोभा नहीं देता। आगे से ऐसी कोई बात मत कीजिएगा।”
“प्लीज़, मज़ाक नहीं। बताओ तो सही।” अरुण गंभीर ही बना रहा। हाँ, उसके स्वर में अनुरोध की ध्वनि स्पष्ट सुनी जा सकती थी।”
अंजना शुरू में मंद मंद हँसी । फिर, कहने लगी, “तूफ़ान में दीए को अंततः बुझना ही है। मगर इससे वह जलना क्यों छोड़े! तूफ़ान का अपना धर्म है और दीए का अपना।”
अंजना किसी काम से भीतर चली गई थी, मगर उसके भीतर एक दीया जला गई। उसका उद्विग्न मन शांत हो गया था। वह वापस अपने दिल की सुनने लगा था और शब्दों की दुनिया उसे आकर्षित करने लगी थी।
कुछ दिनों बाद वह वापस फेसबुक पर था। एक नई ऊर्जा और संकल्प के साथ। निराला की एक पंक्ति को उसने अपनी दीवार पर पोस्ट किया ‘एक मन रहा राम का जो न थका’। ‘लाइक्स’ भी अच्छे मिले। उसने सूची देखी। अधिकांश उसके असाहित्यिक मित्र थे और दो-तीन उसके जैसे ही युवा लेखक। इन दिनों में रह रहकर उसके मन में यह अंतर्द्वन्द्व चलता रहा कि क्या हर बड़ा लेखक अंशुमान प्रधान जैसे ही बात करता है। मन ही मन उसने सोचा...चलो अंशुमान प्रधान से नहीं तो इस बार किसी और से संवाद किया जाए। आख़िर हिंदी साहित्य में सभी वरिष्ठ लेखक इतने कटु और आत्मकेंद्रित तो नहीं होंगे। यह क्या कि किसी एक की बेरुखी को सभी वरिष्ठ साहित्यकारों पर लागू करते हुए सभी को एक ही निगाह से देखा जाए! आख़िर स्वयं अपने हाथ की उँगलियाँ भी कहाँ एक होती हैं! और फिर उस समय आदमी का जाने कैसा मूड रहा हो! अगर अंशुमान से नहीं तो किसी और वरिष्ठ लेखक से तो बातचीत की ही जा सकती है। तभी छोटे-बड़े कई पुरस्कारों से सम्मानित और ‘मनभावन’ नामक साहित्यिक संस्था के सचिव और प्रसिद्ध कहानीकार कैलाश शंकर उसे ऑनलाइन दिखे। उसने उन्हीं से चैटिंग करने का मन बनाया। कैलाश शंकर कोई आठ-महीनों से उसके फेसबुक फ्रेंड थे, मगर उसकी अबतक उनसे कभी चैटिंग नहीं हुई थी। सोचा...चलो इसी बहाने उनसे कुछ सीखना हो जाएगा और कुछ परिचय भी।
अरुण कौशल, “ कैसे हैं आदरणीय!”
कैलाश शंकर, “ अच्छा हूँ भाई।”
(टिप्पणी : नोट करें, यह भाई शब्द बहुत कुछ कहता है।)
कैलाश शंकर, अरुण कौशल के इस संबोधन से गदगद हैं। उन्हें अपने आप पर बड़ा नाज़ है। संभव है उनके लिखे का कोई मूल्य भी हो मगर इस तरह हेकड़ी में जीना, अरुण कौशल बस ठगा ठगा रह गया। वह तो यही पढ़ता आया है कि हर लेखक को अपने लिखे पर संशय करना चाहिए। मगर यहाँ तो उल्टी गंगा बह रही है। कैलाश शंकर के ‘भाई’ शब्द में अरुण को कुछ अतिरिक्त वज़न लगा।
सावधान!, कहीं अरुण कौशल उस बोझ के नीचे न आ जाए!
अरुण को एक बार फिर अपने वरिष्ठ साथी का वही जातिगत चरित्र नज़र आया। उसका मन अवसाद से भर गया। पल भर के लिए उसे लगा, वह अपना खून जलाकर यह सब क्यों लिखता है! क्या सचमुच इन्हें कोई पढ़ता है! वह यह सब छोड़ क्यों नहीं देता! क्या इससे बेहतर यह नहीं कि वह लेखकीय कर्म में व्यतित होते अपने समय को अपने परिवार के साथ बिताए! शेयर बाज़ार में शेयर लगाए, म्यूच्युअल फंड खरीदे और अपने पैसे को बढ़ाए। उसे याद आया, कल ही तो मन में उमड़-घुमड़ रही कविता को शब्दों में ढालने के लिए घर आते ही वह लैपटॉप लेकर बैठ गया था। कोई दो-ढाई घंटे लगातार कुछ न कुछ वह लिखता रहा। कई बार अपने लिखे हुए की काट-छाँट की। दो बार पत्नी चाय रखकर चली गई। कविता की धुन में दोनों बार उसे ठंडी चाय पीनी पड़ी।
अरुण ने पिछली चैटिंग से कुछ सबक लिया था। इस बार ‘बैकफुट’ पर खेलने की बजाय वह स्वयं आक्रामक हो जाता है। आगे बढ़कर ऐसा शॉट मारना चाहता है कि गेंद सीधे मैदान से बाहर।
अरुण कौशल, “ ‘परिवेश’ पत्रिका के फरवरी अंक में मेरी कुछ कविताएँ थीं।”
कैलाश शंकर को कुछ सूझा नहीं कि वे क्या प्रतिक्रिया दें! बहुत देर तक वे सोचते रहे। उनके मन में कुछ अलग किस्म के उमड़-घुमड़ चल रहे थे। किसी नए कवि के प्रति यूँ सहज भाव से कोई उत्सुकता कैसे जगा दे! फिर उनके वर्षों के परिश्रम से जमा किए ‘एट्टीट्यूड’ का क्या होगा! वे बहुत देर तक सोचते रहे। कुछ तो जवाब देना बनता था। उन्होंने अपने हलक से कुछ वमन किया, “ ओह!”
अरुण कौशल भी एक कवि है। वह समझ रहा था कि शब्द-व्यापार में आए इस अवरोध के बीच क्या पक रहा है! वह भी कहाँ चूकनेवाला था! अरुण कौशल ने आगे लिखा, “ कभी-कभार छोटे लोगों पर भी नज़रें दौड़ा ले!”
कैलाश शंकर, “अभी पत्रिका पलट ही नहीं पाया।”
अरुण कौशल, कैलाश शंकर की इस चालाकी को समझ रहा था। कैलाश शंकर की कहानी भी उसी पत्रिका के समान अंक में आई थी। वह जानता है, कैलाश शंकर अब इतने स्थापित हो चुके हैं कि कि उनके अंदर आत्मकेंद्रण बढ़ गया है। उन्हें अपने अलावा किसी की भी खबर नहीं रहती है। वे फेसबुक, आर्कुट, इंस्टाग्राम, ट्विटर आदि हर जगह अपनी ही प्रशंसा के गान में लिप्त रहते हैं। कई बार भाटनुमा दूसरे लेखक उनकी यह हसरत पूरी कर देते हैं। उन्हें दूसरों पर ध्यान देने की फुर्सत कहाँ है!
अरुण कौशल, कैलाश शंकर को साफ-साफ बतलाना चाहता है कि आप कोई बहाना मत ढूँढ़ें। ऐसा करने की कोई ज़रूरत नहीं है। जवाब में अरुण कौशल ने लिखा, “ नहीं, पिछले महीने के अंक में ही थी।”
अब कैलाश शंकर क्या करें! उनका गंभीर नकाब क्षतिग्रस्त हो रहा था। लेकिन उन्हें मालूम है, यह चैटिंग है। जवाब दो, न दो, कोई पूछनेवाला नहीं है। आदमी अपने मनोवेगों की ट्रेन को अपनी इच्छा मुताबिक भगाता चला जा रहा है। कोई उसके नीचे आए, मरे कटे, उसकी बला से।
अरुण को दिखने लगा था कि अंशुमान प्रधान और कैलाश शंकर जैसे लोग बस अपनी ही पीठ ठोकने में लगे रहते हैं। समीक्षा के नाम पर वे अपनी रचनाओं की वाहवाही सुनना चाहते हैं। छोटे-बड़े पुरस्कारों के निर्णय-कुनिर्णय पर अपना आधिपत्य जमाए ये लोग अपने आगे-पीछे करनेवालों को ही कल के महान लेखक घोषित करेंगे। अरुण कौशल अब इस सच को जान गया था। अपनी इच्छा के लिए और किसी वाद से परे लिखना ही उसे श्रेयस्कर लगा। उसने एक सुबह फेसबुक पर पोस्ट किया, ‘मेरा लेखन, मेरे जीवनानुभव और मेरी सोच का आईना मात्रा है। अब यह आईना किसी को साफ और चमकता हुआ दिखे तो ठीक वरना किसी को अगर इस पर धूल और धुंध भी जमी नज़र आए तो मेरी बला से।’
अरुण ने संभवतः महानता के पीछे का पोला और ऐंठन से भरा सच देख लिया था।
कोई दो सप्ताह बाद एक नई कवयित्री अनुपमा सक्सेना ने अपने फेसबुक मेसेंजर के मैटर का फोटो खींचकर एक धमाकेदार पोस्ट किया, जिसमें अंशुमान प्रधान की लार टपकाती लोलुपता का पर्दाफाश किया गया था। उन्होंने सीधे सीधे उससे कुछ अवांछित लाभ चाहे थे। और वह भी अनुपमा के पहले काव्य-संग्रह पर आयोजित एक लोकार्पण समारोह में उसके बारे में सब कुछ अनुकूल बोलने के लिए। अनुपमा एक कॉलेज में अंग्रेज़ी पढ़ाती थी और हिंदी में कुछेक वर्षों से लिखती थी। हिंदी साहित्य के समकालीन लेखन में यह सब चल रहा है, इससे लगभग अनजान अनुपमा, अंशुमान की बड़ी-बड़ी बातों में आ गई थी। फेसबुक पर नए पुराने कई लेखक और पाठक यह सब देख थू थू कर रहे थे। कुछेक को भीतर ही भीतर मज़ा आ रहा था। इस पूरे प्रकरण में जो सबसे अधिक रुचि ले रहे थे, वे कैलाश शंकर थे। अरुण दोनों को करीब से जान रहा था। वह अपनी ओर से कोई प्रतिक्रिया दिए बग़ैर चुपचाप यह पूरा तमाशा देख रहा था। उसने एक दो बार अनुपमा से बात करनी चाही मगर रुक गया। इस समय अनुपमा चाहे-अनचाहे कैलाश शंकर की रणनीति का शिकार हो गई थी, यह उसे उचित नहीं लग रहा था। मगर कैलाश शंकर जिन लच्छेदार शब्दों का सहारा लेकर अपना बदला अंशुमान प्रधान से निकाल रहे थे, हिंदी साहित्य में अभी अभी आई अनुपमा के लिए इसे समझना आसान न था। अरुण को लगा कि अगर वह अनुपमा को आगाह भी करे तो संभवतः वह उसे गंभीरता से न ले। इसलिए वह चाहकर भी अपने भीतर के आवेगों को बाहर नहीं ला सका। ख़ैर, किसी तरह खेद आदि व्यक्त कर अंशुमान प्रधान ने अपने आपको बचाया। उसके कोई दो सप्ताहों तक वे फेसबुक से लगभग अदृश्य दिखे। अपनी किसी नई हरकत से दुनिया को रू-ब-रू नहीं कराया, अपनी किसी नई यात्रा के बारे में कुछ नहीं लिखा और न ही अपना कोई फोटो पोस्ट किया। उन्होंने अपने किसी चापलूस के समर्थन में कुछ लिखा और न ही कोई अधकचरी राजनीतिक टिप्पणी की। उनकी ‘वॉल’ पर इन दिनों कोई हलचल नहीं दिख रही थी। साहित्य को लेकर कोई जुमला छोड़ने से भी वे बचना चाह रहे थे । उन्होंने मानो अपने आप को किसी घोंघे की तरह कवच में समेट लिया था। अपने को परम प्रतिभावान माननेवाला लेखक, कुछ दिनों के लिए जैसे घोंघा-बसंत हो गया था। तेज-विहीन और अपनी मूर्खता को स्वयं स्वीकारता। ख़ुद के खोल में सिमटा हुआ। लोगों की तिरछी नज़रों और आक्रामक सवालों से बचता हुआ।
न्यूटन महाशय बता गए हैं कि हर क्रिया की कोई प्रतिक्रिया होती है। कुछ दिनों बाद एक और धमाका हुआ। संयोग से फेसबुक पर ही। जिस साहित्यिक संस्था के कैलाश शंकर सचिव थे, उसके कुछ पुरस्कारों को लेकर इस बार विवाद हो रहा था। पुरस्कारों के पीछे भाई-भतीजावाद और बंदरबाँट के आरोप लग रहे थे। जिन लेखकों ने पूर्व में कैलाश शंकर के लेखन में कोई न कोई सहयोग किया था, उन्हें ही पुरस्कार दिए गए थे। जिस प्रकाशक ने उनकी किताबें छापीं, उसे ही ‘मनभावन’ संस्था से पुस्तकों और पत्रिकाओं के प्रकाशन का टेंडर ज़ारी किया गया। इस बार इस मौके को भुनाने की बारी अंशुमान प्रधान की थी। विरल लक्षणा-व्यंजना के कवि अंशुमान प्रधान हर अवसर को भली-भाँति भुनाना जानते थे। ‘घोंघा’ एक बार फिर अपने कवच से बाहर आ गया था। कथित रूप से बड़े दो बड़े घोंघों की लड़ाई वर्चुअल दुनिया के एक पटल पर हो रही थी। हिंदी साहित्य अपनी ख़ुमारी में आगे बढ़ रहा था और दो घोंघों का वर्चुअल युद्ध जारी था। लेखक-प्रकाशक अपने हानि-लाभ के मद्देनज़र अपनी प्रतिक्रियाएँ दर्ज़ कर रहे थे। अरुण कौशल यह सब देखे जा रहा था। वह किसी मोहभंग और महत्वाकांक्षा से परे चुपचाप अपने दैनंदिन कार्यों और लेखन में व्यस्त था। उसे यह सब ड्रामेबाजी से अधिक कुछ नहीं लग रहा था। उसे ‘अपहरण’ फ़िल्म का आख़िरी दृश्य याद आ रहा था, जिसमें मौका मिलने पर एक-दूसरे के कट्टर विरोधी दो राजनेता मिलकर सरकार बना लेते हैं। काफ़ी धीमे और आहत स्वर में उसने अपनी पत्नी से कहा, “हमारे लेखक-गण, जिन राजनीतिज्ञों को दिन-रात गाली देते रहते हैं, वे स्वयं उनसे अधिक घटिया राजनीति करते हैं।”
कुछ देर चुप रहकर अरुण अहमद फ़राज़ का एक शे’र गुनगुनाने लगा : -
‘कुछ मुश्किलें ऐसी हैं कि आसाँ नहीं होतीं
कुछ ऐसे मुअम्मे हैं कभी हल नहीं होते’
अंजना ने मामला समझते हुए भी ज़रा अनजान बनकर पूछा, “अब यह किस ख़ुशी में?”
अरुण ने उदासी भरे लहज़े में कहा, “ बस, यूँ ही। जाने क्यों, मुझे यह शे’र साहित्य की अंतहीन राजनीति को बड़े साफ़गोई से व्यक्त करता लगता है। शायद ही कभी हमारे लेखक इससे मुक्त हो पाएँ! मेरी पीढ़ी के भी कई लोग मुझे उसी राह पर चलते दिखते हैं। आह कि ज़िंदगी भर इन्हीं के साथ जीना और मरना है।”
अरुण की आवाज़ में थकान स्पष्ट रूप से दिख रही थी। उसके शरीर को नींद की ज़रूरत थी या उसका मन कला और दुनियादारी के पचड़ों से उद्विग्न था या कहें कुछ-कुछ दोनों ही बातें थीं, मगर अरुण बुरी तरह मार खाए किसी बच्चे-सा लग रहा था। उसका रोनी और निर्दोष चेहरा बहुत कुछ कह रहा था। अंजना को कुछ सँभालना ज़रूरी लगा। कमरे की बत्ती को बुझाते हुए वह हर चीज़ पर पटाक्षेप करती हुई बोली, “कला हो या राजनीति, रिश्तेदारी हो या पड़ोस, गाँव हो या शहर हर जगह ज़्यादातर लोग ऐसे ही हैं। समाज में हर तरह के लोग रहते ही हैं। छोटी-छोटी बात को दिल से लगाना छोड़िए। रात ज़्यादा हो गई है। सो जाइए।”
अरुण मन ही मन अंजना की बातों से सहमत होना चाह रहा था। सोचने लगा, यह समाज तो जैसा है, वैसा ही रहेगा। अच्छे-बुरों का मिश्रण, फूल-काँटों का गुलशन। मैं किसी को सुधार नहीं सकता। कुछ बेहतर करना होगा, तो मुझे स्वयं अपने स्तर पर ही करना होगा।
अरुण अपने बिस्तर पर निस्पंद लेटा रहा। उसकी आँखों से नींद कोसों दूर थी। वह घुप्प अँधेरे में अपने भीतर के शैतान को उभरने देना नहीं चाह रहा था। उसे लगा, हैवानियत की महाज्वाला को धैर्य की रेत और उदारता के पानी से ही ठंडा किया जा सकता है। उसके लिए इस समय सर्वाधिक महत्वपूर्ण था, स्वयं को अकलुषित और अमिश्र बनाए रखने का। उसके सामने, कुछ बेहतर रचने से ज़्यादा बड़ी चुनौती ख़ुद को घोंघा बनने से बचाने की थी। उसे इब्राहीम अश्क की एक गज़ल के दो शे’र याद हो उठे। वह मन ही मन उन्हें गुनगुनाने लगा :-
गुलशन में ले के चल किसी सहरा में ले के चल
ऐ दिल मगर सुकून की दुनिया में ले के चल
........
ये प्यास बुझ न पाई तो मैं डूब जाऊँगा
साहिल से दूर तू मुझे दरिया में ले के चल
उसे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला। सुबह अंजना ने जब उसे जगाया, वह तरोताज़ा महसूस कर रहा था।
....... ……. ……