Nim ka ped in Hindi Moral Stories by Rajesh Bhatnagar books and stories PDF | नीम का पेड़

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नीम का पेड़

14 - नीम का पेड़

ज़िन्दगी की हज़ारों षामों की तरह ही आज की शाम भी ढलने को थी । सूरज उसके आंगन के नीम के पेड़ के पीछे छिपने को था । बस पेड़ की ओट में आते-आते ही दिन का उजाला खत्म होने लगता है । मगर कल.....कल ना ये पेड़ होगा और ना ही सांझ के उतरने का उसे पता चलेगा । वो पेड़ जिसे उसकी पत्नी काजल ने उनकी शादी की पहली वर्षगांठ की यादगार के रूप में लगाया था । उससे बोली थी, “जानते हैं अपनी शादी की पहली सालगिरह के तोहफ़े में आपसे एक अनमोल तोहफ़ा मांगने वाली हूं ।”

तब किसी बड़ी फरमाईष से आषंकित हो वह पूछ बैठा था, “अनमोल तोहफा ! वो क्या जरा मैं भी तो सुनूं ।”

“आप घबरायें नहीं, ऐसा कुछ नहीं मांगूगी आपसे जो आप दे ना सकें और आपके दिल को ठेस पहुंचे ।” फिर आासमान को ताकते हुए कहा था उसने, “मुझे एक नीम का पोैधा ला देना बस....।”

तब वह आष्चर्यचकित हो कह उठा था, “नीम का पोैधा ?”

“जी हां, नीम का पौधा । जो बड़ा होकर ना केवल छाया और मीठी-मीठी निबोलियां देगा बल्कि बड़ा होकर हमारे प्यार और गृहस्थ जीवन के सुख-दुःख का साक्षी भी होगा । जिसकी छांव मंे अपने सलोने बच्चे खेलेंगे.........जिसकी छांव में हम सुख-दुःख के दिन एक साथ बितायेंगे और जो मेरे मरने के बाद भी आपको अपनी छांव ऐसे अर्पित करेगा जैसे...।”

उसके वाक्य पूरा करने से पहले ही मुंह पर अपना हाथ रख दिया था उसने, “बस ....। बस काजल आगे कुछ न कहो। तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना से भी डरता हूं मैं ।”

और वास्तव में काजल ने यही नीम रोप दिया था अपने कोमल हाथों से । उसके प्यार का प्रतीक....... उसके पर्यावरण प्रेम का प्रतीक.......। कहती थी, “जानते हैं आप, षास्त्रों मंे लिखा है एक पेड़ लगाने से दस पु़त्रों का पुण्य प्राप्त होता है ...... ।” और अपने पुत्र की भंाति ही पाल-पोस कर बड़ा किया था उसने । उसकी छांव में ना जाने कितनी रातें साथ बिताई थीं उसने । उसकी छांव में ही उसके चारेां बेटे पलकर, उसकी मीठी-मीठी निबोलियां खाकर बड़े हुए थे ।

मगर.......मगर आज के बाद यह पेड़ ना होगा । कल ही कुल्हाड़ी लेकर काटने आने वाला है लकड़हारा । वह कितनी बेदर्दी से चोट करेगा इस पर । उसे लगा जैसे नीम को नहीं उसकी काजल के ही हृदय को चीरने आने वाला है ।

अनायास ही बजरी से भरी एक ट्रॉली आकर उसके घर के सामने रूक गई । हाथ में पर्ची लिये ट्रॉली वाले ने उसी से पूछा, “सुषील बाबू का घर यही है ?” वह हाथ मंे पर्ची लिये उसका मुंह ताकता रहा जैसे किसी गहरे सोच में डूब गया हो उसे देखकर । फिर “हां ! यही है ।” कहकर बाहर ही चबूतरे पर पड़ी खाट पर पुनः लेट गया । बजरी वाला बजरी डालकर चला गया ।

उसे पता है अभी पत्थर की ट्रॉली भी आयेगी । आखिर कल उसके प्यार के आंगन को ईंट-गारे से रौंदा जायेगा । आंगन में दीवारें खड़ी होंगी जो करेंगी बंटवारा मकान का । हदें खींचीं जायेंगी दिलों पर । आखिर उसके होते हुये यह हो क्या रहा है....? उसका कोई अस्तित्व क्यों नहीं रह गया है ..? हर बेटा उसे अपनी बद्तर हालत का ज़िम्मेदार क्यों मान बैठा है ..? फिर खून-पसीना एक कर पाल-पोसकर अपने पैरों पर खड़ा करने वाला, उनकी गृहस्थ्यिां बसाने वाला वही तो है.......। फिर उसके साथ ऐसा सलूक क्यों...? वह काजल की याद कर मन ही मन रो पड़ा, “अच्छा हुआ काजल तू इस दुनिया से चली गई वरना...वरना मेरी दुर्दषा देखकर तेरा कलेजा ही फट जाता.।” फिर उसकी आंखों में उसके सबसे बड़े बेटे का विद्रूप चेहरा छलछला आया । अभी तीन दिन पहले ही वह उस पर चढ़ बैठा था, “बापू ! अब नहीं सहा जाता मुझसे...। अरे आपने तो मुझे कुछ नहीं बनाया, मुझे तो अपने बेटों का भविष्य बनाने दो.।”

वह धीरज रखकर पूछ बैठा था, “क्येां क्या हुआ ?”

“अब मैं एक पैसा भी घर में नहीं दे सकता । मेरे भी चार-चार बच्चे हैं । उनकी फीसें, किताबों का खर्च... । फिर मुझे भी तो आगे के लिये कुछ जोड़ना है या...।”

इतने में ही दूसरा बेटा प्रकाष भनभनाता चला आया था, “तो क्या आपकी तनख्वाह से ही घर चल रहा है ....? मैं और शैला जो पूरी एक तनख्वाह दे देते हैं घर में ।”

प्रकाष के ही अंदाज़ में भन्नाता बोला था बड़ा, “और बैठी-बैठी खाती भी तो है शैला......। सारा काम तो तुम्हारी भाभी संभाले और वो नौकरी से थकने का बहाना करके ...।”

“मगर आपके चार-चार बच्चों के पेट भरने लायक भी पैसा नहीं देते आप...। हमारी तनख्वाह से ही पल रहे हैं सब ।” प्रकाष ने अहसान जताते हुये कह दिया था ।

वह चीख पड़ा था तब, “बन्द करो अपनी-अपनी बकवास । यूं भाई-भाई आपस मंे लड़ते शर्म नहीं आती...?”

“षर्म क्येां आये .? किसी का खाते थोड़े ही हैं जो बातें सुनेंगे । हम दो मेम्बर ही तो हैं फिर भी पूरी की पूरी तनख्वाह दे देते हैं । अगर हम अकेले होते तो आज क्या हमारे पास अपनी खुद की प्रॉपर्टी नहीं होती..? कितनी डिस्टर्ब्ड होती है षैला दिन भर इनके बच्चों की कांय-कांय से...।”

तभी तीसरा बेटा भी कूद पड़ा था बीच में, “प्रकाष भैया ज़्यादा पैसे की धौंस देने की ज़रूरत नहीं । दोनों कमाते हुये भी इतना भी दिल नहीं था कि मां के बारहवें के लिये कुछ रूपये ज़्यादा निकाल पाते । अरे मैं तो खल्लासी हूं फिर भी आप लोगों ने मुझसे भी खर्चे का बराबर हिस्सा लिया ? जरा ये तो सोचा होता मेरे भी छोटे-छोटे तीन बच्चे हैं, मैं कहां से दूंगा ....। मज़बूरन मुझे उधार लेकर भी अपना हिस्सा भरना पड़ा ।

वह रो पड़ा था दिल को छलनी करने वाली उनकी बातें सुनकर । चीख पड़ा था, “भगवान के लिये बन्द करो अपना-अपना रोना और चले जाओ यहां से......।”

प्रकाष फिर बोल पड़ा था, “बापू जाने से कुछ नहीं होगा । हमें आज़ादी जाहिये । अपनी-अपनी गृहस्थी चलाने की आज़ादी.....अपने ढंग, अपनी मनमर्जी से रहने की आज़ादी । हमसे जैसा भी होगा स्वयं करेंगे । अपना पकाऐंगे और खायेंगे। इनके साथ अब अपनी गुज़र नहीं होगी । चार दोस्त-यारों को बुलाने लायक भी नहीं यह घर । ना बैठाने की जगह, ना ही अपनी पसन्द का खाना-पीना.......। कमाते-धमाते भी हर किसी की धौंस अब नहीं सुन सकते ....।”

“तो फिर आज से ही अलग कर लो अपना चूल्हा और उड़ाओ गुलछर्रे अपने दोस्त यारों के साथ । हम तुम्हारा कुछ छीनने नहीं आयेंगे । महल बनाओ अपने घर को । दो-दो कमाई है, साथ में बुरा तो लगता ही होगा शैला को भी ।” बड़े ने फिर व्यंग्यबाण छोड़ दिया था ।

बेटों के हृदय में भरी कड़वाहट देखकर ही उसका हृदय चीत्कार कर उठा था । उसे लगा था जैसे नीम के पेड़ पर बैठी काजल की आत्मा रो उठी हो । उसके घर को यूं क्लेष की आग झुलसा देगी ऐसी तो कभी कल्पना भी नहीं की थी उसने । त्याग, प्रेम की बजाय स्वार्थ और घृणा की पराकाष्ठा पार कर चुके थे उसके बेटे-बहुएं । उसे लगा था कि बड़े परिवार के सुख की उसकी कल्पना झूठी थी । इस दुनिया में कोई किसी का नहीं होता । ना बेटे, ना बहुएं...। और तब वह स्वयं ही बहुओं को भी बुलाकर मष्विरा कर बैठा था अलग-अलग रहने का । जवाब में सभी की एक राय थी कि उन्हें मकान का हिस्सा दे दिया जाये । फिर क्या उसके सपनों के संसार को टूटना ही था । उसने स्वयं की पेंषन के पैसों से बनाए-संवारे अपने पुष्तैनी मकान के हिस्से कर उन्हें बेटों की इच्छानुरूप दे देने का वादा कर लिया था जिसमें उसके खुद के लिये कोई स्थान नहीं था । उसने मन ही मन बाकी जीवन गंगा के घाट पर साधु सा बिताकर अपेन पापों का प्रायष्चित करने का संकल्प कर लिया था । आखिर वही तो कारण है काजल के नीम की छांव को घृणा, स्वार्थ और क्लेष की धूप में जलाने वाला.।

अनायास ही वह पत्थर की ट्रॉली की घड़घड़ाहट से चौंक पड़ा । ट्रॉली वाला बजरी के पास ही पत्थर डाल रहा था । कल उसने लकड़हारे को भी बुलाया हैे । आंगन में उसकी पत्नी काजल के सपनों का प्रतीक नीम, जो उसके बेटों को मकान का हिस्सा करने के बीच में आ रहा है, उसे भी कटवाकर सदा-सदा के लिये काजल की याद से मुक्त हो जाने के लिये दृढ़ संकल्पिक हो चुका है । मगर फिर भी नीम पर पड़ने वाली कुल्हाड़ी की चोट की कल्पना करके ही वह कांप जाता है ।

रात गहराने लगी है । उसी के साथ उसकी आंसुओं से भीगी आंखों में भी नींद भरने लगी है । हालांकि उसने तीन दिन से पेटभर खाना तक नहीं खाया । खाये भी तो कैसे...? ऐसे घृणा भरे माहौल में निवाला गले से भी नहीं उतरता उसके । उसमें अन्दर जाने तक की हिम्मत नहीं बची है । बादलों के बीच भागते चांद को देख उसे लग रहा है जैसे चाद मंे बैठी काजल उससे कह रही हो, “आपको पता है, शास्त्रों में लिखा है एक पेड़ लगाने से ही दस पुत्रों के बराबर पुण्य मिलता है ।”

और वह चांद को घूरते हुये सोचने लगता है काष.......! उसने परिवार बढ़ाने की बजाय काजल की ही तरह एक पौधा रोप दिया होता तो आज उसे ये दिन ना देखने पड़ते...।

***