The Author Prabodh Kumar Govil Follow Current Read प्रकृति मैम - इसी दरख़्त की एक और डाली By Prabodh Kumar Govil Hindi Biography Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books दरिंदा - भाग - 8 अशोक के हाँ कहने से प्रिया ने एक गहरी लंबी सांस ली और उसका न... भटकती आत्मा का अंत हैलो दोस्तों में आपकी दोस्त फिर से आई हूं एक नई कहानी लेके य... बिक गए हैं जो वो सवाल. नहीं पूछते (लॉजिक सो रही हैं हमारी आपकी और मीडिया की)हम लोगों में एक क... My Devil Hubby Rebirth Love - 49 अब आगे मेरी डॉल जिससे भी प्यार करती है उसका साथ कभी नहीं छोड... जंगल - भाग 6 कहने को शातिर दिमाग़ वाला स्पिन नि... 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साथ घूमते। जब भी समय मिलता तब उसे भविष्य में अपने किए जाने वाले कार्यों की रूपरेखा बनाने में और चर्चा करने में बिताते थे।ये एक बेमेल जोड़ी थी, हमारी उम्र में बहुत अंतर था,किन्तु मानसिक मूल्यांकन के किसी धरातल पर मैं उसे अपने समकक्ष पाता था।ये लड़का हर समय जैसे कुछ ढूंढता रहता था। खेलने में, पेड़ों पर चढ़ने में ख़ूब गिरता, चोट खाता। शरीर पर कहीं न कहीं पट्टियां बंधी रहतीं पर पट्टी खुलते ही फ़िर तरोताजा।जिस परिसर में हम रहते थे वहां पढ़ने वाली लड़कियां जब हम दोनों को एक साथ देखती थीं तो कभी छोटू- लंबू कहती, तो कभी दो बेचारे या दो जासूस।कभी- कभी हम सचमुच ऐसी बातें किया करते थे कि कुछ समय नौकरियां करके कुछ धन कमा कर हम वापस यहीं आ जाएंगे और फिर अपने ही सामाजिक कामों का एक केंद्र खोलेंगे। हम दोनों को ही ग्रामीण क्षेत्र के ऐसे युवकों से सहानुभूति होती थी जिन पर थोड़ी सी उम्र बढ़ते ही घर- परिवार की जिम्मेदारी तो आ जाती थी,पर कमाने का कोई साधन या जरिया नहीं मिलता था। नौकरियां भी शहर में पढ़े बिना मिलना मुश्किल होता था। हम ऐसे युवकों के लिए कोई काम करना चाहते थे।ये सब बातें तभी होती थीं जब मैं छुट्टियों में घर आया करता था। लेकिन जब मैं वापस चला जाता तो सब ठंडे बस्ते में चला जाता।हम आपस में ये बात भी किया करते थे कि हम शादी नहीं करेंगे।हम दोनों की ज़्यादा दिलचस्पी अपना- अपना परिवार बनाने में नहीं थी। हमारा मानना था कि अपना परिवार होते ही आदमी सारी दुनिया से बेगाना होकर अपने चार परिजनों का ही होकर रह जाता है। वह केवल उन्हीं, अपने बीबी बच्चों का ही सगा और शुभचिंतक होकर रह जाता है। यहां तक कि लोग शादी के बाद अपने माता- पिता और भाई- बहन तक के लिए पराए हो जाते हैं।शादी के बाद भाइयों के बीच एक दूसरे को नीचा दिखाने की जी तोड़ स्पर्धा, बहनों के लिए ज़िम्मेदारी से बचने की प्रवृत्ति और मां- बाप के लिए उपेक्षा का प्रादुर्भाव हो जाता है।हम दोनों के बीच कभी - कभी एक दिलचस्प बहस भी छिड़ जाती।मैं जहां बढ़ती जनसंख्या को एक बड़ी समस्या मानता था, वहीं वो ज्यादा जनशक्ति को समाज का एक शक्ति स्रोत मानता था। वो कहता था कि जब हम अपनी जरूरतों को कम करके इन असंख्य हाथों का इस्तेमाल करेंगे तो खुशहाली अपने आप आयेगी।अब जब मेरी शादी तय हो चुकी थी और मैं लंबी छुट्टी लेकर घर आया हुआ था, वह हर बात में मज़ाक के स्वर में कहता,अब सब भूल जा, अब तो अपना घर बसाने की फ़िक्र कर। वह कहता,एक नोट बुक बना ले, भाभी जो कहे, वो उसमें लिखता जाना और करता जाना।इस समय मेरी आयु लगभग चौबीस साल और उसकी उन्नीस साल होगी पर हम बचपन से ही एक दूसरे को ऐसे ही तू - तड़ाक कह कर बोलते थे। उसकी ये व्यंग्य भरी टिप्पणियां सुन कर मैं सड़क पर चलते हुए भी उसकी पीठ पर एक धौल जमा देता।आने-जाने वाले हमें देखते, और हम हंसते।वास्तव में ये घड़ी ऐसी ही थी कि मुझे दोस्तों, बचपन और बीती बातों से संजीदगी से पीछा छुड़ाना था और नई जिम्मेवारियों तथा नए संबंधों पर भविष्य के परिप्रेक्ष्य में सोचना शुरू करना था।मेरा एक मित्र मुझसे गंभीरता से ये भी बोला कि तू सचमुच प्रेम का मतलब नहीं जानता,अब भाभी का ख्याल रखना, देख कैसे कुम्हला- मुरझा रही है!ये मुझसे ज़रा बड़ा वही दोस्त था जो कहा करता था कि प्रेम प्रसंगों से ही हमारे तन - मन पुष्ट होते हैं और अंग उमंग हमारे व्यक्तित्वों में दिखाई देती है, किताबी ज्ञान ही सब कुछ नहीं है।उधर मैं तो ये ठान कर बैठा था कि कम से कम दो साल हम अपने को गृहस्थ आश्रम से बचाएंगे,इधर ऐसे सलाहकार दोस्त घूम रहे थे।धीरे - धीरे शादी का दिन नज़दीक आ गया।विवाह उसी परिसर में हो रहा था जहां हम दोनों पढ़े भी थे और जहां हम दोनों के माता- पिता नौकरी भी कर रहे थे।उस परिसर के स्टाफ क्वार्टर्स में रहते हुए ये भी बड़ा मुश्किल काम होता था कि आप किसे निमंत्रण भेजें, किसे न भेजें। क्योंकि लगभग सभी लोग एक दूसरे के संपर्क में रहते थे।फ़िर कई विभागों में घर के सदस्यों ने ही काम भी किया था,जिस कारण परिचय का दायरा असीमित था।किन्तु खास बात ये थी कि मेरे परिवार जनों में से बाहर से आने वालों की संख्या लगभग न के ही बराबर थी। कुछ मित्र ज़रूर आए थे। लड़की की कुछ मित्र मुंबई से भी आई थीं।विवाह मार्च के महीने में था,जो कि परीक्षा आदि की दृष्टि से विद्यार्थियों के लिए तो एक कठिन समय होता ही है। सरकारी नौकरी में भी मार्च को भारी दबाव वाला महीना माना जाता है।प्रायः शादी के बाद लड़का और लड़की दोनों कहीं बाहर घूमने जाने का कार्यक्रम बनाते हैं जिसे हनीमून का नाम दे दिया जाता है,किन्तु इस मामले में भी हम दोनों एक जटिल स्थिति से गुज़र रहे थे। हम दोनों पहले से ही बाहर रहते थे, इसलिए हमने तो ये सोच रखा था कि हम विवाह के बाद कुछ समय घर में ही रहेंगे।दोनों घर पास - पास होने के कारण बाद में रिवाजों के अनुसार इधर - उधर आने जाने का भी कोई सिलसिला अपेक्षित नहीं था।न जाने क्यों, जैसे- जैसे शादी का समय नज़दीक आता जा रहा था मेरा मन कुछ बातों को लेकर उद्विग्न था।मेरा ध्यान सबसे पहले इसी बात पर जा रहा था, कि मेरे पिता कुछ समय पूर्व ही सेवा से रिटायर हुए हैं। ऐसे समय में उनकी ज़िंदगी भर की संचित निधि पर भविष्य के कई खर्चों का बोझ है। मैं अब तक ऐसी कोई बड़ी राशि जोड़ नहीं पाया था जिसे मेरे विवाह के नाम पर गर्व से मेरे माता- पिता को दे सकूं। जो विवाह लगभग दो- तीन साल बाद होने वाला था वो केवल इसलिए अभी हो रहा है, क्योंकि मैं और मेरी होने वाली पत्नी सगाई का आधा- अधूरा लाइसेंस लेकर शादी से पहले ही एक - दूसरे के पास आने - जाने की बचकानी भूल कर बैठे।यद्यपि हमने एक जिम्मेदार शरीफ़ शहरी की तरह हर बात और समाज के विश्वास के अनुसार अपने परिवारों की प्रतिष्ठा का पूरा ख्याल रखा है पर लड़की के पिता के मन की तसल्ली के लिए, उनके मन को शांति देने के लिए ही हमने आनन- फानन में शादी कर लेने का उनका ये फ़ैसला स्वीकार कर लिया है,परन्तु इससे मेरे माता - पिता पर जो आकस्मिक बोझ पड़ गया,वो मुझे विचलित कर रहा है, ये मैं हर समय सोचता रहता था।अभी - अभी सेवानिवृत्त हुए मेरे पिता के दायित्व के रूप में मेरा एक छोटा भाई और एक बहन भी थे, जिनकी शादियां की जानी थीं। यद्यपि मेरी माता भी अभी सेवा में थीं,किन्तु इतने बड़े परिवार के लिए ये पर्याप्त न था।अपने आदर्शवादी विचारों के चलते हम लोग लड़की के पिता से किसी भी तरह की मांग करने के पक्ष में कभी नहीं रहे थे।मैं ये भी अच्छी तरह जानता था कि वो अपनी अत्यंत मेधावी, बुद्धिमान और सक्षम लड़की हमें देने जा रहे हैं, तो उनसे इससे ज़्यादा और क्या अपेक्षा की जा सकती है।इन्हीं सब बातों के चलते मैं अपने मनोबल और उत्साह में कुछ कमी पा रहा था।मैं मन ही मन कहीं पूरे परिवार पर पड़ने वाले इस आर्थिक बोझ के लिए अपने आप को दोषी मानने लगा था।मैं अपनी ओर से इसकी भरपाई करने की कोशिश करता। जैसे,जब मेरे घरवालों ने कहा कि शादी के अवसर पर मुझे दो- तीन सूट खरीदने चाहिए तो मैंने स्पष्ट तौर पर कह दिया कि सर्दी का मौसम आने में अभी आठ महीने बाक़ी हैं और मैं सूट उसी समय बनवाऊंगा। शादी में पहनने के लिए भी मैंने कहा कि मैं गर्मी की ड्रेस कुर्ता पायजामा पहनूंगा और वो भी खादी का।लेकिन मेरी ये बातें नहीं चलने दी गईं। लड़की के घर वालों ने हमारे मना करने के बावजूद कई खर्चे किए।बारात में जाने वाले लोगों में अधिकांश ऐसे थे जो हमारे भी मेहमान थे और लड़की वालों के भी। क्योंकि हम दोनों के परिवार एक ही जगह पर एक ही संस्थान की नौकरी में थे। तो बारात की आवभगत भी लड़की वालों की ओर से हो गई।जब मैंने कहा कि मैं बारात को बिना बैंड बाजे के साथ ले जाना चाहता हूं तो मेरे पिता ने मुझे समझाया कि शादी में सारे काम लड़के के लिए नहीं होते, बहुत से नेग- रिवाज़ और खुशियां दूसरे परिजनों के लिए भी होती हैं अतः उनके लिए निर्णय भी मुझे नहीं लेना चाहिए। उन्होंने मुझे समझाया कि शादी का खर्च चार भागों में बांटकर किया जाता है, जिसमें से केवल एक पर मेरा, अर्थात लड़के का अख़्तियार है। बाक़ी के काम जैसे होते हैं वैसे ही हों, इस बारे में मुझे कुछ नहीं बोलना चाहिए।बाक़ी व्यय दूसरे लोगों के लिए, उन्हीं की इच्छा से, उन्हीं के हित में, उन्हीं के सम्मान के लिए होते हैं और मैं उनके बारे में किसी बात की परवाह न करूं,ये मेरे पिता चाहते थे।मैं घोड़ी पर न चढ़ कर पैदल ही जाना भी चाहता था पर मुझे ऐसा नहीं करने दिया गया।मैं घोड़ी पर चढ़ने का ज़िक्र करने के पहले एक बात आपको ज़रूर बताना चाहता हूं जिसने मुझे,और परिवार को भी कुछ समय असमंजस में रखा।जैसा कि मैं बता चुका हूं, लड़की की दादी किसी बहुत दूर के और पुराने रिश्ते के कारण मेरे पिता को अपना भाई मानती रही थीं और सालों से उन्हें राखी भी बांधती आ रही थीं।मुझे नहीं मालूम कि उन्हें जब पहली बार इस रिश्ते के बाबत बताया गया होगा तब उनकी क्या प्रतिक्रिया रही होगी पर अब बाद में भी वे मुझे बुझी - बुझी सी नजर आती थीं।हमारे जिस घर में आकर वो पहले कई बार भोजन भी कर चुकी थीं, वहीं अब उन्हें पानी भी पीना गंवारा न था। ज़्यादा ज़ोर देने पर वो कहती थीं कि अब यहां पानी तक पीने में उन्हें जिस्म की खाल खिंचने जैसा अहसास होता है।इतना ही नहीं, मैं खुद अपने होने वाले ससुर और सास मां को भाईसाहब और भाभी कहता रहा था। मेरे सभी भाई- बहन भी उन्हें ऐसे ही संबोधित करते रहे थे। और वो दोनों खुद भी मेरे पिता को मामाजी और मामीजी कह कर संबोधित करते रहे थे।ये सब देख कर मैं मन ही मन भय से सोचा करता था कि कहीं मैंने अपने आप को कोई भयंकर गाली तो नहीं दे डाली?लेकिन तभी मुझे सामने एक पवित्र झरना बहता हुआ दिखाई देता था और मेरी सोच उसमें धुलकर निर्मल हो जाती थी।ये झरना कौन सा था,ये भी जान लीजिए।मेरी होने वाली पत्नी मेरे तीनों भाइयों को भैया कहती आ रही थी।पर अब मुझे ये याद कर- करके और सोच- सोच कर अद्भुत, अनिर्वचनीय, सुखद आश्चर्य हो रहा था कि मेरी होने वाली पत्नी ने बचपन से अब तक,किसी भी मौक़े पर, मुझे आज तक भैया नहीं कहा था! मैंने बहुत याद करने की कोशिश की, कि ऐसा कोई वाकया मुझे याद आए,पर नहीं,कभी नहीं,कभी भी नहीं... मुझे ऐसा कोई अवसर याद न आया जब भूल से भी उसने ऐसा कहा हो !तो क्या हमारा विवाह वर्षों पहले ही संकेत छोड़ने लगा था?मुझे ये भी कह देना चाहिए कि हमारे विवाह से सभी को खुशी हीहोने वाली हो, ऐसा हरगिज़ नहीं था।कुछ लोगों को ये बिल्कुल नहीं भाया था,और वे अपनी हैसियत भर अपनी नाखुशी इधर- उधर जाहिर कर रहे थे। मुझे ये भी महसूस हो रहा था कि मेरे पिता के परिवार जन, अर्थात मेरे ताऊ जी, चाचा लोग,बुआजी वगैरह ने भी इस विवाह को पसंद नहीं किया था। कारण वही, कि ये लड़का- लड़की के अपने फ़ैसले से बिना दान दहेज के, सादगी के साथ बिना परंपराओं के पालन के संपन्न होने वाला विवाह कह कर प्रचारित किया गया था जिसे चलताऊ भाषा में लव मैरिज कह दिया जाता है। यद्यपि लड़की के माता- पिता ने हमारे ना कहने के बावजूद ज़रूरत भर का सामान दिया ही था और आशा से अधिक खर्चा भी किया था।मुझे याद नहीं कि पंडित ने शादी की प्रक्रिया के दौरान अग्नि को साक्षी रख कर मुझसे क्या संकल्प करवाए परन्तु मैं मन ही मन ये संकल्प ले चुका था कि मेरे विवाह ने मेरे परिवार को जिस आर्थिक असंतुलन में ला खड़ा किया है, उसकी भरपाई मैं भविष्य में ज़रूर करूंगा।इस विवाह के लिए हमारी जन्मकुंडली नहीं मिलाई गई। हम दोनों ही इस बात में यकीन नहीं रखते थे कि किसी व्यक्ति के जन्म पर किसी काग़ज़ पर सुनी - सुनाई कुछ बातें उतार कर उसे ऐसा प्रभावी बनाया जा सकता है कि इंसान जीवन भर उसके असर से बाहर न आए। फ़िर जो पंडित लोग इन सब बातों में डील करते थे, उनके जीवन का सच भी अक्सर यही होता था कि बचपन में उनके माता पिता उन्हें इंजीनियर या डॉक्टर बनाने के लिए स्कूल में दाख़िल करवाते और बाद में ये सब न हो पाने के बाद वे संस्कृत पढ़ कर ज्योतिष अथवा पंडिताई अपना लें।अपने धर्म और जाति को लेकर भी तो इस तरह की असमंजस भरी बातें हम लोग सुनते ही थे। गांव में मेरे परिचित एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि तुम्हारी पत्नी बीसा अग्रवाल है,और तुम दस्सा अग्रवाल हो। मैंने कौतुक से उनसे पूछा कि इन दोनों में अंतर क्या है? वो बोले- बीसा अग्रवाल ऊंचे होते हैं। - ऊंचे मतलब? मैंने जिज्ञासा बताई।वो बोले- बीसा अग्रवाल अपनी परंपराओं के लिए शुद्ध होते हैं,पर यदि किसी ने कभी समाज की मर्यादा या परंपरा तोड़ दी तो वो दस्सा हो गया।-ओह,तब तो शायद अब हम दोनों ही पांचे रह गए,क्योंकि घर और समाज की परंपराएं तो हमने भी ढेर सारी तोड़ी हैं। मेरे ऐसा कहते ही वो कुछ खिन्न होकर अपने वार्तालाप का पटाक्षेप कर गए।आमतौर पर विवाह के बाद लड़की पराई होकर अपना घर छोड़ कर लड़के के घर - परिवार में जाती है लेकिन यहां विवाह के बाद हम दोनों को ही अलग- अलग दिशा में अपने - अपने कार्यस्थल पर चले जाना था। और इसके बाद हम अपने भविष्य के घर की आयोजना कहां और कैसे करेंगे,ये अनिश्चित था।शादी की तीन - चार दिन की रौनक के बाद फ़िर से सब लोग अपने अपने काम में लग गए। मेरी पत्नी रेखा अब मेरे घर आ गई।हम दोनों ने भी कुछ दिन,जैसा कि सोच रखा था,कहीं बाहर न जाकर अपने घरवालों के संग ही कुछ समय निकाला।और फ़िर मेरी पत्नी अपनी ड्यूटी पर मुंबई चली गई, क्योंकि उसे एक बार ज्वाइन कर लेने के बाद कुछ दिन के लिए मेरे पास उदयपुर आना था।दिन जल्दी- जल्दी निकल गए। कलाकार परिवार का छोटा सुपुत्र मेरा मित्र, जिसे मैं पप्पू कहता था,वो भी अब मुझसे कुछ दूरी बना कर पीछे हट गया।मेरा मन न जाने क्यों, भीतर ही भीतर डरता रहता था,पता नहीं ये कैसा भय था कि मुझे हर पल किसी अनहोनी की आशंका सताती थी।पत्नी के मुंबई वापस लौट जाने के बाद गांव में मुझे अकेलापन बहुत खलने लगा था। जो मित्रगण पहले मेरे पास चाहे जब आकर रात को रुक जाया करते थे, वे भी अब मेरे पास रुकने में कुछ संकोच करने लगे थे। कभी - कभी मुझे लगता था कि शायद मेरे मित्र मेरे होने वाले विवाह को कुछ संदेह से देखते थे, शायद मन ही मन उन्हें ये यकीन नहीं रहा होगा कि मुंबई जैसे बड़े शहर के एक विश्वप्रसिद्ध संस्थान की बड़ी अधिकारी लड़की मेरे जैसे, उनके साथ गांव की गलियों की खाक छानने वाले, चड्डी पहन कर उनके साथ एक बिस्तर पर लेट कर लड़कियों की बातें करने वाले, अपने हाथों चाय और खाना बना लेने वाले, खेतों में घूम कर तालाबों में नंगे नहा लेने वाले सीधे- सादे लड़के से कभी शादी कर लेगी। इसलिए वे मेरी बातों को किसी परीकथा का सा रस लेकर सुन तो लिया करते थे मगर भीतर से उसे मेरी कपोल- कल्पना मान कर उस पर विश्वास नहीं करते थे।पर अब, जब वास्तव में ऐसा हो गया था, तो वे मन ही मन मुझे संदेह से देखते पीछे हटते जा रहे थे। उन्हें लगने लगा था कि मैं जितना ज़मीन से बाहर दिखाई देता हूं,शायद उससे कहीं ज़्यादा ज़मीन के भीतर भी हूं। और वे धीरे- धीरे मेरा आदर- सम्मान करते हुए मेरे साथ व्यवहार में औपचारिक तथा शालीन होते जा रहे थे।मेरे लिए उनका ये बदलाव एक अजूबा था। मुझे तो लगता था कि मेरे एक हाथ में कुछ न आया,और दूसरे हाथ से वो सब छिनता जा रहा है जो मेरे पास था। मेरी मायूसी बढ़ती जा रही थी।मुझे लगता था कि मैं अपनी ज़िंदगी से दो अंगुल ऊपर उठ गया हूं और इस तरह मेरी पिछली ज़िन्दगी मुझसे नीचे रह गई है।मेरा अकेलापन बढ़ने लगा।ठीक भी तो था, जिस तरह एक मास्टर से शादी करके एक लड़की रातों रात मास्टरनी कहलाने लग जाती है,एक डॉक्टर से ब्याहने वाली लड़की डॉक्टरनी कहलाने लगती है, वैसे ही अफ़सर से शादी करके मेरे मित्रगण मुझे बड़ा अफ़सर समझने लगें तो इसमें हैरानी कैसी? हां,इससे अगर कोई बेचैनी होती हो, तो वो मुझे होनी थी।अब मैं चाहता था कि मैं अकेला न रहूं,और मेरे साथ कोई न कोई रहे। मगर न जाने क्या था कि अपने रोज के मिलने - जुलने वालों में भी एक अजनबी पन आने लगा था। शायद लोग समझने लगे थे कि अब जल्दी ही मैं गांव छोड़ कर चला जाऊंगा।कुछ दिन ऐसी ही ऊहापोह में गुज़रे।और एक दिन अचानक मुझे घर से खबर मिली कि मुझे तत्काल घर बुलाया गया है। कारण के नाम पर बस इतना बताया गया कि किसी की तबीयत खराब है। ‹ Previous Chapterप्रकृति मैम - एक लड़की को देखा तो कैसा लगा › Next Chapter प्रकृति मैम- उजड़ा घोंसला Download Our App