डोर – रिश्तों का बंधन
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नयना के एक बार कहने भर से प्रकाश मोसाजी ने कनाडा जाने वाली टीम में विवेक को शामिल करने की सिफारिश ही नहीं की वरन उसका चयन होने के बाद पासपोर्ट, वीज़ा आदि बनवाने में भी उसकी हर तरह की मदद की। विवेक का वीज़ा भी बन गया और टिकट भी आ गया। विवेक तो बहुत उत्साहित था पर जैसे जैसे उसके जाने का दिन पास आ रहा था नयना का दिल बैठा जा रहा था। विवेक का सामान पैक करने की आड़ में वह पूरा पूरा दिन खुद को उलझाए रखती पर कहीं चैन ना पाती। वह जानती थी उसकी इच्छा कोई महत्व नहीं रखती पर फिर भी वह चाहती थी कि विवेक अपना इरादा बदल दे। काश कोई तो हो जो विवेक को कनाडा ना जाने के लिए मना ले। पता नहीं विवेक ने यह कैसी ज़िद पकड़ ली है, डिप्लोमा तो यहां भारत में भी हो सकता है ना उसके लिए अपने परिवार से इतनी दूर परदेस जाने की क्या जरूरत है। अब तो भारत में भी कंप्यूटर शिक्षा के एक से बढ़ कर एक संस्थान हैं। आह! विवेक क्यों नहीं समझता कि परिवार कभी व्यक्ति की तरक्की में बाधक नहीं होता अपितु सहायक होता है। व्यक्ति अपने परिवार के साथ रहते हुए भी उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकता है। यहां भी सबको उसकी जरूरत है। उसने एक बार भी नहीं सोचा कि नयना अकेले सब कुछ कैसे संभालेगी। नयना को घबराहट सी होने लगी और वह मनाने लगी कि कोई चमत्कार हो जाए और विवेक का कनाडा जाना टल जाए।
पर ऐसे चमत्कार तो केवल फिल्मों में होते है, असल ज़िंदगी में नहीं। यहां भी कोई चमत्कार नहीं हुआ और पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार विवेक हवाई जहाज में बैठ कर कनाडा रवाना हो गया। उसके जाने तक नयना भी उसके साथ हंसती मुस्कुराती रही, खुद को खुश दिखाने की कोशिश करती रही पर अपने अंदर का खोखलापन बस वह खुद ही जानती थी। विवेक के जाने के बाद नयना के चारों तरफ एक शून्य सा घिर आया था। वह अपने भीतर जीवन के प्रति एक अजीब ही निराशा का भाव महसूस करने लगी थी, उसे लगता था जैसे समय एक ही स्थान पर रूक सा गया है। जब विवेक यहीं था, उसके पास तब भी उसकी विवेक से कोई खास बातचीत नहीं होती थी, कभी कभी तो कई कई दिन बीत जाते थे उन दोनों को आपस में बात किए। पर जाने क्यों तब ऐसा नैराश्य भाव नहीं था उसके मन में जैसा अब आ गया है।
नयना ने यह सोच कर खुद को समेटने की कोशिश भी की कि बस एक साल की ही तो बात है, और एक साल कौनसा लंबी अवधि है, बीतते बीतते बीत ही जाएगा। बस एक विवेक ही तो दूर गया है परिवार के बाकी सदस्य तो यहीं हैं उसके पास। उनके प्रति भी तो उसकी कोई जिम्मेदारी बनती है। फिर विवेक भी तो उसी के भरोसे पर ही तो सबको छोड़ कर गया है। अपनी यह जिम्मेदारी नयना ने पूरी ईमानदारी से निभाने की कोशिश की पर सबकी उम्मीदों का भार इतना अधिक था कि उससे संभाले नहीं संभल रहा था। गुज़रते वक्त के साथ मां और पापाजी को भी विवेक की कमी खलने लगी थी। मां ने तो विवेक के विदेश जाने का दोष भी नयना के ही मत्थे मढ़ दिया। मां ने यह बात अपनी भाभी के सामने कह भी डाली थी जब विवेक के मामाजी अपने परिवार के साथ उन लोगों से मिलने आए थे।
मामा मामी उनके बेटा बहू और पोती इतने मेहमानों के अचानक आ जाने से नयना का काम तो बढ़ गया था पर फिर भी उसे उन लोगों का आना अच्छा लगा। उनकी नीरस सी ज़िंदगी में कई दिनों बाद कोई अच्छा बदलाव आया था, घर में कई दिनों बाद हंसी की आवाज गूंजी थी। होली से एक दिन पहले अचानक उन लोगों के आ जाने से इस वर्ष भी रंगों भरा यह त्योहार नयना को अच्छा लगने लगा था वरना तो जबसे विवेक कनाडा गया था उसे रंग ही फीके लगने लगे थे तो होली क्या भाती। नयना तो इन दिनों विवेक के साथ मनाई होली की यादों में डूब उतर रही थी।
और दिन भले ही विवेक कितना भी उखड़ा उखड़ा रहता हो पर होली के दिन तो वह भी त्योहार के रंग में रंगा रहता था। शादी के बाद पहली होली की सुबह नयना ने बाथरूम में मुंह धोने के बाद जब आईना देखा तो अपना चेहरा देख कर वह डर के मारे चिल्ला पड़ी। उसके पूरे चेहरे पर लाल रंग पुता हुआ था। बाहर से आती विवेक की हंसी ने उसे यह तो समझा दिया कि यह शरारत उसकी है पर यह उसने किया कैसे यह नयना नहीं समझ पा रही थी। टॉवल तो उसने पहले ही चैक कर लिया था क्योंकि ऐसी शरारतें तो चिंटू उसके साथ पहले भी करता आया था। तभी उसकी नज़र फेसवॉश की बॉटल की ओर गई तो उसे सारा माजरा समझ आ गया, विवेक ने उसके फेसवॉश में रंग डाल दिया था। नयना गुस्से में विवेक को मारने दौड़ी तो वह भाग कर छत पर चला गया जहां रोहित पहले से रंग से भरी बाल्टी लिए तैयार खड़ा था। उसके बाद तो विवेक और रोहित ने मिल कर नयना पर रंगों की इतनी परतें चढ़ा दी कि वह कई कई दिनों तक खुद को साबुन से मांजती रही तब कहीं जा कर होली का रंग उसके बदन से छूटा। आज भी रह रह कर नयना के मन में ख्याल आ रहा था काश विवेक भी यहां होता तो पूरे परिवार के साथ त्योहार मनाने में अलग ही आनंद आता।
मामाजी मामीजी के आ जाने से घर की मायूस हवा में भी एक रंगत सी आ गई थी। मामाजी की चार साल की पोती श्रेया तो इतनी प्यारी थी कि नयना का उसे अपनी गोद से उतारने का मन ही नहीं कर रहा था। पर जाने क्यों वह बच्ची थोड़ी सुस्त सी लगी नयना को, चार पांच साल के बच्चे तो बहुत वाचाल होते हैं। लावन्या और ईशान को तो नयना ने कभी एक जगह टिक कर बैठे देखा ही नहीं। होली के दिनों में तो पूरा दिन हाथों में रंग और पिचकारी लिए वो दोनों घर भर में हुड़दंग मचाए रहते थे। कई दिन पहले ही उनकी होली शुरू हो जाती थी, खुद नयना भी उन दोनों की शरारतों की शिकार हो कर जाने कितनी ही बार तमन्ना के घर से चितकबरी हो कर निकली है। जब उसने तमन्ना या घरवालों से उनकी शिकायत की सबने हर बार हंस कर टाल दिया कि 'मासूम बच्चे हैं, शरारत कर ही देते हैं,' उन बच्चों की मासूम शरारत का खामियाजा नयना को हर बार घर जाकर चाची से डांट खा कर चुकाना पड़ता था। पर श्रेया तो अपने दादाजी की गोद में एकदम शांत बैठी थी। पहले तो नयना ने इसका कारण यात्रा की थकान और अनजान लोगों से संकोच समझा था पर जब अगले दिन भी श्रेया गुमसुम सी ही बैठी रही तो नयना को उसकी फिक्र होने लगी। "मामीजी श्रेया की तबियत तो ठीक है, देखो कैसे उदास बैठी है, कुछ खेल भी नहीं रही है।"
"डर कर बैठी है अपनी मां से। इसे सिवाय पढ़ाई के कुछ सूझता ही नहीं। आज भी सुबह सुबह बच्ची के हाथ में कॉपी पेंसिल पकड़ा दी। घर में तो इसकी मां इसे दो पल चैन लेने ही नहीं देती यहां भी शुरू हो गई। अरे आज कम से कम त्योहार के दिन तो उसे दो घड़ी खेल लेने दे। इतनी छोटी बच्ची है अगर एक दिन नहीं पढ़ेगी तो क्या बिगड़ जाएगा, आज एक ही दिन में इसे कौनसे वेद पढ़ा लेगी तू।" मामीजी ने अपनी बहू की ओर शिकायती नज़रों से देखते हुए कहा।
"मैं जो भी कर रही हूं इसके भले के लिए ही कर रही हूं मम्मी। आराम करने और खेलने को तो सारी उम्र पड़ी है। पर पढ़ने लिखने की उम्र एक बार निकल गई तो इंसान बस आराम ही करने लायक रह जाता है।" मामीजी की बहू का जवाब सफाई कम और प्रतिवाद अधिक लगा नयना को।
"पंद्रह किलोमीटर दूर है वो स्कूल जहां तूने इसका दाखिला करवाया है। सुबह सात बजे जाती है बच्ची और शाम के चार बजे वापस घर आ पाती है। सुबह सुबह छह बजे तू इसके सर पे डंडा लेकर खड़ी हो जाती है जगाने को कि बस निकल जाएगी। स्कूल से वापस आ कर भी तू कहां उसे दो घड़ी चैन लेने देती है पढ़ पढ़ की रट ले कर पीछे पड़ी रहती है, इतने में भी चैन नहीं शाम को तू उसे ट्यूशन भी पढ़ने भेजती है। ना बच्ची को खेलने देती है ना आराम करने देती है। कहती तो है, 'मैं जो कर रही हूं इसके भले के लिए कर रही हूं।' कोई भला वला नहीं कर रही है तू इसका तू तो अपनी जिद पूरी कर रही है बस।"
"आज बच्चे ने क्या खेला ये कोई नहीं पूछता, पढ़ाई काम आती हर जगह। आज के समय में बच्चे को पढ़ाई में अव्वल आना चाहिए और अव्वल आने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। मैं भी तो यही कर रही हूं अपनी बच्ची से थोड़ी मेहनत करवा रही हूं ताकि बड़ी हो कर यह जिस क्षेत्र में भी जाए सफलता उसके कदम चूमे। और खेल तो वो स्कूल में भी लेती है, मैंने एक अच्छा स्कूल चुना है उसके लिए जहां पढ़ाई के अतिरिक्त बच्चे के शारिरिक और मानसिक विकास पर भी ध्यान दिया जाता है। खेल और पेंटिंग, तैराकी, डांस और गाना सब सिखाने की कोशिश होती यहां तक की ताइक्वांडो की क्लास भी है स्कूल में, बच्चा जो चाहे, जो मन करे वो सीखे।" "
हां मानती हूं स्कूल घर से थोड़ा दूर है आने जाने में थोड़ा वक्त ज्यादा लगता है तो भी क्या फर्क पड़ता है? बस आती है लेने, आराम से घर के सामने से ले कर जाती है और घर के सामने ही छोड़ती है। अच्छा स्कूल है जहां बच्चों को अच्छी बातें सिखाते हैं। घर में खाली बैठ कर बदमाशी करने से तो अच्छा है कुछ अच्छा सीखे भले थोड़ा व्यस्त रहे। अब तुम ही बताओ नयना तुम्हें भी मैं ही गलत लगती हूं? और अगर लगती भी हूं तो भी क्या? अपनी बच्ची की भलाई तो मुझे ही सोचनी है ना। मैं वही कर रही हूं जो उसके लिए सही है, भले ही दूसरों को गलत लगे। हर मां यही करेगी, बल्कि मैं तो यह भी कहूंगी कि अगर मेरी जगह तुम होती तो तुम भी यही करती।"
नयना ने तो अब तक मामीजी और भाभी के बीच के विवाद को सास बहू की साधारण नोकझोंक ही समझा था पर यहां तो मामला थोड़ा अलग ही था। इतनी छोटी बच्ची पर अभी से पढ़ाई और कैरियर बनाने का इतना दबाव डालने के पक्ष में तो नयना भी नहीं थी। वह इसके दुष्परिणामों के संबंध में भाभी से कुछ कह पाती उससे पहले ही मां बोल पड़ीं, "ये क्या कहेगी, तुम्हारी हां में ही हां मिलाएगी, इसे कौनसा धन की हाय कम लगी है। अगर ये ही कुछ काम की होती भाभी, तो मेरा बेटा मुझसे दूर ही क्यों जाता। जाने क्या पट्टी पढ़ाई इसने और इसके रिश्तेदारों ने विवेक को कि जो लड़का आज तक कभी शहर से बाहर नहीं गया था वो दूसरे देश जा बैठा।" मां दुपट्टे में मुंह दबा कर रोने लगीं। मामीजी उन्हें शांत करने की कोशिश कर रही थी। नयना हैरान रह गई मां की बात सुन कर। उसके पास भी बहुत कुछ था कहने को पर वह जानती थी उसके ज़बान खोलते ही मां बवाल मचा देंगी इसलिए नयना ने कुछ भी कहने की बजाय वहां से हटना ही उचित समझा। वह फुर्सत से रो कर दिल हलका करने अपने कमरे में आ बैठी।
कितनी आसानी से मां ने विवेक के विदेश जाने के लिए उसे और प्रकाश मोसाजी को दोषी करार दे दिया जबकि वे भी जानती हैं खुद विवेक कनाडा जाने की जिद ठाने बैठा था। उसे किसी ने मजबूर नहीं किया था। विवेक तो विवेक खुद मां पापाजी भी तो कितने खुश थे अपने बेटे की इस उपलब्धि पर, सबको गर्व से बताते फिर रहे थे और आज जिन प्रकाश मोसाजी को मां भला बुरा कह रही थीं उनका धन्यवाद करते नहीं थक रहे थे। नयना के भीतर एक गुबार सा था जिसे वह किसी के सामने कह कर अपना दिल हल्का करना चाहती थी पर किसे कहती यहां इस घर में कौन था उसका।
पहले तो फिर भी मीनू और रोहित का सहारा था। पर अब तो वो दोनों भी पहले जैसे कहां रहे थे। अब बच्चे नहीं रहे थे वो दोनों, बड़े हो रहे थे और बड़े होने के साथ ही उनके स्वभाव भी बदल रहे थे। अब उनमें मासूमियत के स्थान पर स्वार्थ की झलक दिखने लगी थी। दिनों दिन उनकी जरूरतें बढ़ रही थीं, बदल रही थीं। कभी महंगा स्मार्ट फोन, कभी लैपटॉप तो कभी बाइक और कभी कोई डिजाइनर ड्रेस। जरूरत का जामा पहना कर पेश की गई उनकी ये नित नई इच्छाएं नयना की आमदनी पर भारी पड़ रही थीं।
अपनी इच्छाओं की पूर्ति ना होने की स्थिति में वे दोनों ही नयना का विरोध करने से भी बाज़ नहीं आते थे। शायद यह उम्र का तकाज़ा भी था आखिर जवानी की दहलीज़ पर खड़े दो किशोरों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती थी। उन्हें दुनियादारी की समझ ही कितनी थी। इस वयसंधी काल में हर बच्चे की सोच स्वकेंद्रित ही होती है। उनकी मांगे सुन सुन कर नयना परेशान हो जाती। पर किससे कहती, मां से कहने का तो कोई फायदा भी नहीं था क्योंकि कोई ना कोई बहाना बना कर वो दोनों मां को बरगला ही लेते थे। और पापाजी को इन बातों से कोई लेना देना नहीं होता था। ऐसे में नयना को विवेक का ही सहारा था। विवेक आकर सब ठीक कर देगा इसी आस में वह अकेले ही सारी परेशानियों से जूझती रही।
पर विवेक ने एक बार फिर उसकी आशाओं पर पानी फेर दिया। उसने अपना कोर्स पूरा होते ही कंपनी की कनाडा की ब्रांच में अपना ट्रांसफर करवा लिया। इसके पीछे तर्क तो उसने यह दिया था कि यहां रह कर वह अपने परिवार की आर्थिक सहायता ज्यादा अच्छे से कर पाएगा पर सच यह था कि उसे अब कनाडा का खुला पाश्चात्य माहौल रास आ गया था और अब वह वापस आना ही नहीं चाहता था। बाकी रही घरवालों की सहायता की बात तो उसकी तनख्वाह से उसके खर्चे ही पूरे नहीं होते थे तो वह उन्हें क्या भेजता।
बहुत सहा नयना ने, बहुत कोशिश की अपनी शादी संभालने की पर जब हालात उसके काबू से बाहर हो गए तो वह वापस अपने घर आ गई, अपने चाचा चाची के पास। चाचा चाची ने भी उसे अपने सीने से लगा लिया। ससुराल की देहरी लांघते समय बहुत भय लगा था नयना को कि जाने उसका निर्णय सही है या गलत। पता नहीं चाचा चाची की प्रतिक्रिया क्या होगी। सबसे अधिक मां के लिए क्योंकि वह तो अभी कुछ समय पहले ही पापा की मौत के सदमे से बाहर आईं हैं कहीं फिर से उनकी तबियत ना बिगड़ जाए। पर यह सब उसका वहम ही था। एक स्त्री पत्नी के रूप में चाहे कितनी भी कमज़ोर रही हो पर मां के रूप में तो उसका हृदय धरती की तरह हो जाता है, विशाल भी और मजबूत भी। जैसे नयना के आंसू पौछते समय नयना की मां का हृदय हो गया था। नयना का दुख, नयना के आंसू सब मां के आंचल में समा गए और खुद नयना को मां ने अपने सीने में छिपा लिया।
ससुराल छोड़कर वापस अपने चाचा के पास आने का फैसला लेना नयना के लिए भी आसान नहीं था। आखिर पांच साल से वह यहां इस घर में इस परिवार के साथ रह रही थी और पांच साल इतना कम समय भी नहीं होता। विवेक को और उसके इस परिवार को नयना ने अपना सब कुछ माना था, इन रिश्तों से जुड़े हर फर्ज़ को निभाने में उसने अपनी ओर से कोई कमी नहीं छोड़ी। अगर यह कहा जाए कि वह इन सबके पीछे खुद को भी भुला बैठी थी तो गलत ना होगा। पर इन लोगों ने, इन रिश्तों ने उसे कभी दिल से अपना नहीं माना। तभी तो किसी ने भी उसे रोकने की एक बार भी कोशिश नहीं की, सिवाय मां के पर उन्हें भी नयना की बजाय अपनी इज्जत और अविवाहत बेटी के भविष्य की फिक्र ही अधिक थी।
किसी भी स्त्री के लिए यह स्थिति सबसे अधिक दुखदाई होती है कि जिसे उसने जीवन में सबसे अधिक महत्व दिया एक रोज़ वही उसे अकेला छोड़ कर किसी और का हो जाए। विवेक ने यही तो किया था नयना के साथ। कनाडा जाने से पहले चाहे कितने भी बड़े बड़े दावे किए हों विवेक ने घर में खुशहाली लाने के, चाहे कितने ही सब्ज़बाग दिखाए हों नयना को पर असलियत यह थी कि उस पर कनाडा जाते ही वहां की संस्कृति का रंग चढ़ गया। धीरे धीरे कुछ ऐसा हो गया कि उसके जीवन में ना तो नयना की कोई जगह ही बची और ना ही कोई जरूरत।
विवेक के कनाडा जाने के बाद कुछ दिन तक तो सब ठीक ही रहा। उसने नयना से संपर्क भी रखा। शुरुआत में तो उसे घरवालों की याद भी बहुत आती थी। खासकर नयना की, अपने छोटे छोटे कामों के लिए वह नयना पर निर्भर था। अब जब वही काम खुद करने पड़ते थे तो उसे बहुत झुंझलाहट होती थी। एक अजनबी देश में अकेलापन भी उसे परेशान करता था। दिन के कुछ घंटे तो क्लास में निकल जाते थे पर बाकी का समय तो उसे अपने फ्लैट में अपने कमरे की दीवारों के बीच ही गुज़ारनी होता था क्योंकि इस अजनबी देश में कहीं भी अकेला जाने में उसे घबराहट सी होती थी। फिर यहां था भी कौन जिससे मिलने वह जाता, ना कोई दोस्त और ना ही कोई रिश्तेदार। घड़ी की सुइयों के साथ भागते इस देश में वह अकेला ही तो था। भाषा भी उसके लिए एक समस्या बनी हुई थी फिर चाहे पढ़ाई हो या फिर किसी से बातचीत। अंग्रेजी में हाथ तंग होना उसकी एक बड़ी कमी थी जिसके चलते वह फ्लैट में अपने साथ ही रहने वाले रशियन लड़के से भी बात नहीं कर पाता था।
जल्द ही उसे कनाडा आने के अपने फैसले पर पछतावा होने लगा था और वह कोर्स बीच में ही छोड़ कर भारत वापस आने के बारे में भी सोचने लगा था। वह कोई फैसला लेता उससे पहले ऐमिली उसके लिए एक वरदान बन कर आई। एक रोज वह अपने फ्लैट के पास ही एक जनरल स्टोर से सामान खरीदने गया था। अंग्रेजी में हाथ थोड़ा तंग था और सामान की कीमत समझने में उसे थोड़ी परेशानी हो रही थी। विवेक अभी खुद से जूझ ही रहा था कि "कैन आई हेल्प यू," पूछती एक सुरीली सी आवाज ने उसे चौंक दिया। पहले तो उसने सोचा यहां उससे कौन बात करेगा पर जब थोड़ी टूटी फूटी सी हिंदी में अपनी बात दोहराती वही आवाज विवेक तक पहुंची तो यह तय हो गया कि वह सुमधुर स्वर की स्वामिनी उसीसे मुखातिब है क्योंकि उस समय उस स्टोर में हिंदी भाषी एकमात्र विवेक ही था।
उसने मुड़ कर एक बार जो उस आवाज की ओर देखा तो बस देखता ही रह गया। दूध जैसी सफेद रंगत और भूरे बालों वाली वह नाज़ुक सी लड़की बला की खूबसूरत थी, उसकी नीली आंखें उसकी खूबसूरती बढ़ा रही थीं। उस पर उसके कपड़े वाह, विवेक तो उसे आंखें फाड़े देखता ही रह गया। आज तक तो वह नयना को ही सुंदर मानता आया था। नयना है भी बहुत सुंदर, कम से कम उसके दोस्तों और जानकारों की पत्नियों में तो सबसे ज्यादा सुंदर नयना ही है। इसी वजह से उसके दोस्त उससे जलते भी हैं पर यह अंग्रेज़न तो नयना से कहीं बढ़ कर सुंदर थी, नयना की सुंदरता तो इसके आगे पानी भरती सी प्रतीत हो रही थी।
"मैं कुच मडट कड़ूं?"उस सुंदरी ने पास आकर फिर से पूछा तो विवेक को होश आया। अब तक तो जैसे वह किसी और ही लोक में था। उसने हाथ में पकड़े डब्बे उस लड़की की ओर बढ़ा दिए। वह उसे सामान की कीमत भारतीय मुद्रा में बताती रही। "आपको हिंदी आती है?" बड़ी मुश्किल से विवेक के मुंह से बोल फूटे।
"तोरी तोरी आती है। यहां बहुत सारे इंडियन कस्टमर आते हैं। उनसे बात करना होती है।" वह बिल और सामान की थैली विवेक को पकड़ाती हुई बोली और दूसरे ग्राहक की मदद करने आगे बढ़ गई। ऐमिली की मदद से विवेक की शॉपिंग आसानी से हो गई, सामान खरीद कर वह अपने फ्लैट पर लौट आया। घर आकर भी वह लड़की ऐमिली इस कदर उसके ख्यालों में छाई रही कि वह भारत फोन करना ही भूल गया बस बिस्तर पर पड़ा पड़ा ऐमिली के बारे में ही सोचता रहा। जब उसने नयना के कई सारे मिस कॉल्स देखे तब उसे याद आया कि आज तो भारत वीडियो कॉल करने का दिन था। अब उसका मन भी नहीं हो रहा था उन लोगों से बात करने का अतः उसने नयना को मैसेज कर दिया कि आज वह व्यस्त है इसलिए बाद में फोन करेगा।
नयना मायूस हो गई आखिर पूरे हफ्ते में एक रविवार का ही तो दिन होता है जब पूरा परिवार एक साथ विवेक से बात कर पाता था वरना बाकी दिन तो दोनों देशों में समय के अंतर के कारण सबके लिए एकसाथ फुर्सत का समय निकाल कर बात करना कठिन ही रहता था। खासकर मां पापजी के लिए क्योंकि वे दोनों तो रात के समय जल्दी ही सो जाते थे। उनकी तो विवेक से बात हो ही नहीं पाती थी। खुद नयना के साथ भी तो अक्सर यही होता था, जब विवेक फ्री होता है तो नयना ऑफिस में व्यस्त होती है और जब नयना देर रात फ्री होती तो विवेक की क्लास चल रही होती। कभी कभी ऑफिस में वक्त निकाल कर अगर नयना विवेक को फोन करने की सोचे तो भी क्या फायदा अधिकतर तो जनाब घोड़े बेच कर सोते ही मिलते थे।
अब विवेक ज्यादातर उसी स्टोर से सामान खरीदने जाता था जहां ऐमिली काम करती थी, उस पर भी तभी जब ऐमिली की ड्यूटी होती थी। थोड़ी मेहनत करनी पड़ी उसे पर उसने बातों बातों में एक दिन ऐमिली से पूछ ही लिया था उसकी शिफ्ट कब कब लगती है स्टोर में। स्टोर पर आते जाते ऐमिली से मुस्कान की आदान प्रदान का रिश्ता कब दोस्ती में बदल गया इसका पता ना तो विवेक को चला और ना ही ऐमिली को। धीरे धीरे गुज़रते हर दिन के साथ यह दोस्ती भी गहरी होती गई। अजनबी देश और अजनबी लोगों के बीच ऐमिली विवेक को एक बड़ा सहारा लगती थी। वह उसकी कई समस्याएं चुटकी में सुलझा देती। विवेक को अंग्रेजी नहीं आती थी पर ऐमिली उसका मज़ाक नहीं उड़ाती बल्कि उसकी भाषा सुधारने में उसकी मदद कर देती।
ऐमिली विवेक से हिंदी में ही बात करती, टूटी-फूटी और गलत ही सही पर वह हिंदी बोलने की कोशिश ही करती। विवेक ऐमिली के गलत उच्चारण पर मुस्कुरा देता पर वह कभी उसका उच्चारण सुधारने की कोशिश नहीं करता क्योंकि उसे ऐमिली ऐसे ही गलत हिंदी बोलती हुई ज्यादा प्यारी लगती थी। जीवन अच्छा चल रहा था अब विवेक का घर पर बात करना कम हो गया था। नयना से बात करना तो उसने लगभग बंद ही कर दिया था। अब उसका मन ही नहीं करता था नयना से बात करने का, हर बार वह एक ही तरह की बात तो करती थी, हमेशा वही उसके लिए परवाह दिखाना और वही घर परिवार के हाल और समस्याएं बताना। बस और कुछ भी अलग नहीं होता था उसके पास कहने को। विवेक इतनी दूर बैठ कर नयना की समस्याएं कैसे दूर कर सकता था, वह तो यहां आया ही इन्हीं बातों से निजात पाने था। वैसे भी अब उसका खाली वक्त ज्यादातर ऐमिली के साथ ही बीतता था तो फिर किसी और से बात करने के लिए उसके पास फुर्सत ही कहां रह गई थी।
इधर विवेक का कोर्स खत्म हो रहा था और इधर विवेक और ऐमिली काफी नज़दीक आ चुके थे। अब विवेक के लिए कनाडा में रुकने का कोई मतलब नहीं था पर ना तो वह वापस आना चाहता था और ना ही ऐमिली ही उससे दूर होना चाहती थी। ऐसे में विवेक ने नेट पर कंपनी की कनाडा वाली ब्रांच में पद खाली होने की सूचना पढ़ी। यह सूचना उसके लिए वरदान की तरह ही थी और आखिर विवेक ने कोशिश करके कनाडा की ब्रांच में अपना ट्रांसफर करवा कर अपने कनाडा में ही रहने का रास्ता निकाल ही लिया। यह करना उसके लिए ज्यादा मुश्किल भी नहीं था बस हमेशा की तरह नयना की थोड़ी सी चिरौरी की और काम बन गया। अब वह अपने नयना को पूरी तरह से भूल कर ऐमिली के साथ सजाई नई नवेली खूबसूरत दुनिया में खो गया।
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