चैन
ऐसी ही एक अंजान सी बुझी बुझी सी शाम को वह अपने घर से निकल कर बाहर सड़क पर आ गयी थी. उसे नहीं पता था कि उसे कहाँ जाना है. वह तो बस घर से निकल आयी थी. उस घर से, जहाँ जाते हुए उसका मन हमेशा ही बुझने लगता था.
उस घर में वे सारे एशो-आराम थे. जिनकी भी किसी अकल्मन्द आदमी को ज़रुरत हो. मगर उस घर में चैन नहीं था. चैन उस घर की देहरी लांघ कर अन्दर आते हुए अक्सर डर जाता था. और बाहर-बाहर से ही उलटे पाँव लौट जाता था.
कई बार उसने भी कोशिश की कि दफ्तर से घर लौटते हुए रास्ते में मेट्रो के दरवाजे से सटा पसरा हुआ चैन का एक लम्हा तोड़ कर अपने साथ घर ले चले.
वहां से तो वो उखड कर उसके हाथ में आ जाता था. रास्ते भर जब वो पैदल चलती हुयी प्लेटफार्म से निकलती थी,मेट्रो स्टेशन की सीढ़ियाँ उतरती थी. उसके बाद घर तक का रास्ता कभी ऑटो से तो कभी रिक्शे से तय करती थी चैन उसके हाथों में सधा हुया बैठा इंतज़ार करता था उसके घर पहुँच जाने का.
रिक्शे या ऑटो से उतर कर जब वो अपनी सोसाइटी के प्रवेश द्वार से अन्दर आती तो उसके हाथों में बैठे चैन को अपने दिल में खलबली सी महसूस होने लगती. चैन का दिल धड़कने लगता और उसके हाथों में कंपन होने लगती. यहाँ तक कि उसके हाथों में पडी चार सोने के चूड़ियों तक भी ये कम्पन पहुँच जाती. लिफ्ट तक पहुंचते-पहुँचते यह कम्पन बढ़ जाती. इतनी कि उसकी चूड़ियों की आवाज़ खासी तेज़ हो जाती.
और फिर जैसे ही वो अपने घर का ताला खोलने लगती ये कम्पन इतनी तेज़ हो जाती कि चैन को उसके लिए अपने हाथों में समेटे रखना मुश्किल हो जाता. अक्सर तब तक उसका पति घर नहीं आया होता. तो ताला खोलते ना खोलते चैन एक तेज़ कम्पन के साथ उसके हाथों से छूट जाता. और लिफ्ट के सामने की बालकनी से उड़ कर हवा में कहीं विलीन हो जाता.
जिस दिन पति घर पर होता तो उसे ताला नहीं खोलना पड़ता था. ऐसे में चैन को संभलने का मौका ही नहीं मिल पाता. वह उसके हाथों में बसा-बसा घर के अन्दर तक तो दाखिल हो जाता मगर जैसे ही पति को सामने सोफे पर बैठा हुआ देखता और उसका सवाल हवा को चीरता हुआ सामने की हवा को कुरेदता वहां पहुंचता, “आज फिर देर से आयी तुम? कहाँ थी अब तक? कहाँ गुलछर्रे उड़ा रही थी ?”
इस सवाल के जवाब में हर बार उसका एक ही जवाब होता था, “मैं कहाँ थी? ऑफिस से सीधे ही आ रही हूँ. मेट्रो छूट गयी थी.”
या फिर, “ देर से ऑफिस से निकल पायी. सीधे घर ही आ रही हूँ. आपको अभी नाश्ता देती हूँ.”
घबराई हुयी सी वह तेज़ी से बैग को लिए दिए ही रसोई की तरफ बढ़ जाती. जो इस टू बी.एच.के. में ओपन ही थी. ऐसे में उसके स्वर में जो दीन-हीन भाव और जो घबराहट समाये होते उसे महसूस कर के कुछ देर को तो चैन द्रवित हो कर उसके पास रुकता. उसके हाथों से निकल कर रसोई की स्लैब पर माइक्रोवेव ओवन के ऊपर जा कर टाँगे फैला कर बैठ जाता. उसे उस अबला सी नारी पर खासी दया आती और कुछ गुस्सा भी आता कि आखिर क्यों वह इस तरह दब्बू बनी डर-डर कर जीती है.
मगर जल्दी ही पति की तरफ से हो रही बाणों की बौछार से उकता कर चैन रसोई की खिड़की से उड़ कर हवा में गायब हो जाता. उसके लिए शीशा बंद हो या न हो, कोई फरक नहीं पड़ता था.
चैन की फितरत ऐसी है कि वो कहीं से भी कभी भी उड़ कर कहीं भी जा सकता है. दरअसल चैन ही इस दुनिया का एक ऐसा बाशिंदा है जो अपने मर्जी का खुद मालिक है. बाकी तो सब उसके गुलाम हैं. कम से कम चैन तो यही सोचता और समझता है.
तो आज शाम वह लगभग उसी वक़्त घर से निकल आयी है जब चैन ने खिड़की की राह पकड़ी थी.
और दिनों की तरह आज भी मेट्रो से चैन उसके साथ साथ घर तक आया था. बदकिस्मती से आज पति के दफ्तर में पूरे दिन की छुट्टी थी. पति दिन भर घर में पडा सोफे तोड़ता रहा था. टेलीविज़न पर फ़िल्में, समाचार और कार्टून देख-देख कर उकता गया था. सुबह जो कुछ भी वो दफ्तर जाने से पहले पका कर गयी थी, वो सब भी खा-पचा चुका था.
ऐसे में पति को अपनी माँ की याद शिद्दत से आती थी. जो एक कसबे में रहती थीं पिता के साथ. वे दिन भर घर में ही रहती थीं. शायद इसी वजह से दिन भर उसकी और उसके पिता की फरमाईशों पर तरह-तरह के खाने और नाश्ते बना कर खिलाती थी. इसमें उनको आनंद भी आता था. इसके अलावा वे थक भी जाएँ तो इसे अपनी ड्यूटी मानते हुए हारी-बीमारी की भी परवाह नहीं करती थी. थकना तो शायद उनके लिए कुछ मायने रखता ही नहीं था.
आज दिन भर तो पति का दिन अच्छा कट गया. मगर शाम होते न होते उसे जब चाय दूसरी बार भी खुद बनानी पडी और साथ में नाश्ते के तौर पर सिर्फ बिस्कुट ही मिले तो वह झल्ला उठा. उठ कर रसोई में कुछ नमकीन नाश्ता या कुछ और तलाश करने की सोच ही रहा था कि तभी बाहर के दरवाज़े में चाभी के घूमने की आवाज़ सुनायी दी.
सुबह जब वो दोनों के लिए खाना-नाश्ता और बाकी सारे घर के काम-काज निपटा कर अपने दफ्तर के लिए निकली थी तो वह सो ही रहा था. उसका छुट्टी को पूरी तरह तफरीह के साथ मनाने का इरादा था. सो वह उसको उठाये बिना उसकी प्यारी सी नींद में खलल डालने की जुर्रत किये बिना, ताला लगा कर ही चली गयी थी. पति दिन भर सोफे और बिस्तर के आस-पास ही रहा सो ताला खोलने की उसे ज़रुरत ही महसूस नहीं हुयी थी.
आज जब दफ्तर से निकलने का समय हुया था तो बॉस ने एक ज़रूरी लैटर के लिए उसे बुला लिया था. हालाँकि लैटर छोटा सा ही था और पन्द्रह मिनट में ही उसने उसकी हार्ड कॉपी बॉस के सामने रख दी थी और जाने की इजाज़त ले ली थी मगर तब तक भी देर तो हो ही चुकी थी. उसने फ़ोन में टाइम देखा तो अंदाजा लगा लिया कि इसी वक़्त सीधे मेट्रो स्टेशन की तरफ लपक लेगी तो मेट्रो पकड़ पायेगी. इसी हडबडी में उसने बाथरूम जाना भी मुल्तवी कर दिया, हालाँकि उसे पेशाब की हाज्जत हो रही थी.
अब जब वो हडबडी में बाथरूम जाना भी छोड़ कर मेट्रो स्टेशन पहुँची तो उसकी नज़रों के सामने ही उसकी रोज़ वाली ट्रेन के दरवाजे बंद हो गए. अब उसके पास अगले दस मिनट के लिए इंतजार करने के सिवा कोई रास्ता नहीं था. डर के मारे स्टेशन का बाथरूम भी इस्तेमाल करने नहीं गयी कि कहीं वहां देर हो गयी तो अगली ट्रेन भी न छूट जाए. अब जब घर का ताला खोल रही थी तब हाथों में इत्मीनान से रखे चैन को सहलाते पहला ख्याल यही था कि भीतर जाते ही सीधे बाथरूम जाना है और अपना ब्लैडर खाली करना है.
मगर अंदर तो पति था और थी बेचारगी और बेईज्ज़ती. सो ब्लैडर चीख चीख कर कह रहा था, “मुझे खाली करो.” मगर कान पति का एकालाप सुन रहे थे. जो सुदूर कसबे में रहने वाली माँ के व्यंजनों की गाथा गाते हुए शायद कई हजारवीं बार दोहरा रहे थे कि वहीं की कोई लडकी ले आता तो ये दिन न देखना पड़ता. मेम साहब के दफ्तर से आ कर उनके लिए नाश्ता बना कर देने का इंतजार करने का.
आज भी जब पति ने देर से आने की वजह पूछी थी, उसने बता दी थी और उसके साथ ही बाथरूम जाना मुल्तवी कर के सीधे रसोई की तरफ लपकी थी तो अन्दर बैठा एक कोई सर उठा कर पूछ बैठा था, “जाहिल औरत. शर्म होती तेरे अन्दर तो इस चैन के साथ ही तू भी किसी खिड़की दरवाजे में सेंध लगा कर निकल लेती.”
"नहीं ऐसी बात नहीं है. मुझे ही खयाल रखना चाहिए था कि देर हो सकती है शाम का नाश्ता भी बना कर ही रख जाती सुबह ही.”
"अच्छा ! उससे मसला हल हो जाता? वो नहीं पूछता फिर कि देर से क्यों आयी? कहाँ गुलछर्रे उड़ा रही थी?”
"अब पति है न. कह लेने दो. क्या फर्क पड़ता है?”
"अच्छा हैं. नहीं फर्क पड़ता तुम्हें. गेंडे की खाल मढ़ी हो न तुम.”
"अब तुम भी मुझे खदेड़ो. सब मिल कर मुझे लाताडों.” वह रुआंसी हो आयी थी.
अब तक ब्लैडर फटने को हो आया था. पति का एकालाप जारी था. उधर भीतर बैठा ये चैन का हितैषी अपना अलग ही राग अलापे हुए था.
इतना प्रेशर आज नहीं झेल पायी. दिन में एक सहयोगी से भी काम के बटवारे को लेकर खासी बहस हो गयी थी. वहां भी उसके दब्बू स्वभाव की वजह से उसने उसे दबा कर ज्यादा और मुश्किल काम उसके मत्थे मढ़ दिया था.
अचानक उसने पकौड़ों के लिए जो बेसन घोला था, उसे उठा कर बेसिन में जोर से पटक दिया. हाथ में आलू था जिसे छील रही थी. प्याज पहले ही गोल-गोल लच्छों में काट लिया था. उसी अध्-छिले आलू और प्याज के लच्छे को उठा कर डस्ट बिन में डाला. बैग उठाया और खिड़की की तरफ बढ़ी. एक दिल किया इसी खिड़की से कूद जाए. मगर फिर खुद को सम्भाला. सोचा कि इस तरह नीचे लहू-लुहान हुयी उसकी लाश को देख कर उसके माँ पापा को बहुत तकलीफ होगी. सो तेज़ क़दमों से ब्लैडर के दबाव को झेलते हुए दिमाग की फट-फट जाती नसों को किसी तरह संभाले हुए अभी तक एकालाप में लगे पति की बगल से होती हुयी दरवाजे की तरफ बढ़ गयी.
ये नहीं देखा कि भौचक सा हुआ पति उसे जाते हुए देखता रहा था. उसका वाक्य अधूरा ही उसके मुंह पर धरा रह गया था. उठ कर उससे जाने की वजह तक नहीं पूछ पाया था. यकीनन उसके मन की आग की आंच आज पति तक पहुँच गयी थी.
मगर अब वो चैन की तलाश में सड़क पर भटक रही थी. सोसाइटी से बाहर निकलते ही पेशाब जाने का बंदोबस्त यूँ हो गया था कि वहां पास ही सुलभ शौचालय था. पांच रुपये का सिक्का दे कर एक साफ़ सुथरा बाथरूम उसे मिल गया था. सोसाइटी में किसी से इतनी भी जान-पहचान नहीं थी कि बाहर आने से पहले किसी का बाथरूम ही इस्तेमाल कर सके.
घर से निकल तो आयी है. मगर अब उसे बार-बार छूट कर उड़ जाने वाले चैन की शिद्दत से तलाश है. इस वक़्त सिर्फ एक यही काम है जो उसे करना है. चैन के बगैर जीना उसे दूभर लग रहा है.
तभी ख्याल आया कि चैन उसे अक्सर मेट्रो के दरवाजे पर पसरा हुआ मिलता है. वहीं से चल कर उसे साथ लिया जाए. फिर आगे के बारे में सोचा जाए. लेकिन आज जिस तरह वह गया है क्या वहां भी मिलेगा उसे?
अक्सर ऐसा होता था कि जब वह खुद से, अपनी ज़िंदगी से उकता जाती थी तो कई दिनों तक चैन उसे मेट्रो के दरवाजे से लगा हुया नहीं मिलता था. वह मायूस घर लौटती थी. कुछ मिनटों का चैन का साथ भी तो नहीं मिल पाता था. आज तो चैन खासा उचाट हो कर लगभग भागता हुआ खिड़की से उड़ा था. उसके मेट्रो के दरवाजे से लगा होने की उम्मीद भी कम ही थी.
यही सोचती हुयी वह चली जा रही थी. जाना कहाँ था ये मालूम नहीं था. वर्ना रिक्शा या ऑटो ही कर लेती. उसे तो बताना ही पड़ेगा न कि जाना कहाँ है. ये अब खुद को ही न पता हो तो आदमी क्या करेगा? पैदल ही तो चलेगा, जब तक चल सके.
अजनबी सड़कों पर आज जिस तरह वह भटक रही है. वो नहीं जानती उसकी इस भटकन का अंजाम क्या होने वाला है. चैन उसे कहीं मिलेगा भी? और अगर मिला भी तो क्या उसके उस घर में उसके साथ जाने को राजी होगा जहाँ से वो हर बार उसके हाथ से निकल कर उड़ लेता है.
आज एक बात तो उसके मन में बिलकुल शीशे की तरह साफ़ हो गयी है कि चैन के साथ न होने की सूरत में उसका जी पाना लगभग असंभव सा है. वो हर रोज़ बेचैनी से करवटें बदलते हुए रात-रात भर जागते हुए, आने वाले दिन के आतंक के साए में जीते मरते हुए जीवन नहीं काट सकती. उसे चैन की संगत हर हाल में चाहिए ही चाहिए. इसके लिए उसे जो करना पड़ेगा वो करेगी.
मिसाल के तौर पर आज इस वक़्त घर से निकल आयी है. भटकते हुए कई घंटे हो गए हैं. फ़ोन कई बार बजा. उसने बैग से निकाल कर देखा ही नहीं. अब फ़ोन भी चुप हो गया है. शायद बैटरी ख़त्म हो गयी है. या फिर पति को समझ आ गया है कि वो नहीं आयेगी. मगर जायेगी कहाँ?
प्यास लग रही है. भूख भी लगनी शुरू हो गयी है. पाँव थक कर चूर हो गए हैं. पीठ और कमर अकड़ गए हैं. एक-एक कदम चलना दूभर हो गया है. ऐसा नहीं कि किसी जंगल में है. चारों तरफ खाने-पीने के खोखे और रेस्तरां हैं. कहीं भी रुक कर खा पी सकती है. अन्दर जा कर बैठ भी सकती है.
मगर कब तक? आखिर को एक घर तो चाहिए होगा ही. हाँ! होटल में जा सकती है. कमरा ले सकती है. क्रेडिट कार्ड से या डेबिट कार्ड से पेमेंट कर सकती है. नौकरी करने का इतना तो फायदा है. मगर बाद में जब घर जायेगी. जब पति हिसाब मांगेगा तो कितनी लानत मलानत होगी इस बात को लेकर. ये भी भान है. चैन तब तक मिल भी गया तो फिर उड़ जाएगा खिड़की से.
क्या करे? कहाँ जाए? कैसे जिंदा रहे?
भूखी-प्यासी सड़क पर चल तो रही है मगर दिमाग कई स्तरों पर घूम रहा है किसी और ही राह पर. दिल तो है ही नहीं कहीं. दिल को चैन की तलाश है. उसके बिना मरगिला सा हो कर उजड़ा हुया पडा है. शायद पुराने से बैग की ही किसी लिजलिजी सी पॉकेट में. या फिर सस्ती ब्रा के स्ट्राप में उलझा है. कितना शौक था उसे महंगी डिजाईन वाली ब्रा पहनने का. मगर शादी के बाद से उनके लिए तरस गयी है.
पति का कहना है,”किसको पहन कर दिखाना है वो सब? मुझे ही तो. मुझे पता है जो खजाना है तुम्हारे पास. मुझे रिझाने की कोशिश करनी बेकार है. पत्नी हो तो सो लेता हूँ तुम्हारे साथ वर्ना इस ठंडी शिला को छुए तक न कोई.”
बर्फ से नहा जाती है ऐसे में. याद आते हैं कॉलेज में आगे पीछे घूमते लड़के. उनमें से किसी एक के साथ घर बसा लेती तो शायद चैन होता बगल में. अब तो सिर्फ सोच ही सकती है. कर तो कुछ नहीं सकती.
शाम कब की ख़त्म हो गयी है. रात के इस पहर में सडक पर आवा-जाही तो है मगर कम है. एन.सी आर के इस इलाके में भीड़-भाड़ खासी होती है देर रात तक. मगर अब साढ़े बारह बज चुके हैं. रौनक कम हो गयी है. दुकाने लगभग बंद हैं. 24X 7 खुली है. और खुली है देसी शराब के ठेके की एक दूकान. जहां लोग बाग़ कतार में खड़े भीड़ लगाए हैं.
उसी ठेके के सामने दो खोखे हैं जहां रात भर आमलेट, ब्रेड, कबाब और रोटी मिलते हैं. यहाँ भी जवान लड़कों और एकाध लडकी ने डेरा लगा रखा है. ये लोग खुलेआम शराब पीते हैं और साथ में चटपटा भोजन करते हैं.
उसे लगता है शायद यहाँ उसे चैन का ठिकाना मिल जाये. यही सोच कर वह इधर चली आयी है.
अभी वह कुछ ही कदम दूर थी इस खोखे से कि एक तेज़ आवाज़ उसके कानों में पडी, “ओये, तूने समझ क्या रखा है? मैं क्या डरता हूँ तेरे से? साले. तेरी औकात ही क्या है? साले शराब तो रोज़ मेरे पैसे की पीता है. मुझ से ही पंगा लेगा? मुझे धौंस दिखाएगा? “
दो युवक आमने सामने खड़े हैं. एक के पास एक युवती भी खड़ी है. उसे रोक रही है मगर दोनों ही गली गलौज करते हुए गुथ्थम-गुथ्था होने को उतारू हैं.
एकाएक सब तरफ शोर उठ गया है.
"रोको रोको सालों को. यहाँ दंगा नहीं करने का.”
"साले पीते क्यों हैं, अगर पचानी नहीं आती.”
"पीते क्यों हैं अगर संभाली नहीं जाती?"
"निकलो यहाँ से सालो... हमारा मूड मत खराब करो,”
"अरे यार लड़ने दो न. मज़ा रहेगा. देखेंगे मुफ्त का तमाशा,”
"हाँ यार. मज़ा आएगा. लाओ करने दो इनका कुश्ती. हमारा क्या है? मज़ा लेंगे. मुफ्त की पिक्चर.”
"अरे नहीं यार. पंगा हो जाएगा. पुलिस आ जायेगी.”
मगर पुलिस तो आ चुकी थी. उसने देखा पास ही एक पी सी आर आ खड़ी हुयी थी.
और उसमें से दो पुलिस कर्मी निकल आये थे और इन सब की तरफ बढ़ रहे थे.
वो रुक गयी. उसे यकीन हो चला हो न हो अब चैन आयेगा ही आयेगा. पुलिस ज़रूर निकाल लायेगी उसे कहीं से. न हो तो पी. सी. आर. वैन से ही.
ये सोच ही रही थी कि उसने देखा चैन ने यहाँ से भी एक लम्बी छलांग ली और सड़क के दूसरी तरफ बढ़ चला.
वो भी लपक ली उसके पीछे. किसी ने भी उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया, न ही चैन की तरफ.
वे तो पुलिस और उन शराबी लड़कों और बीच-बचाव करती लडकी के बीच कहीं गुम हो गए थे.
उसने सड़क पार करते हुए एक बार पीछे मुड़ कर देखा. वहां कुछ लोग नहीं बल्कि गालियों और दुश-भावनाओं का एक बड़ा सा बवंडर उठा हुया था. आंधी तूफ़ान की तरह. उसमें सब कुछ बह गया था. उस बवंडर के अन्दर ही वे दो लड़के, उनका बीच-बचाव करती हुयी लडकी, तमाशाई भीड़ और पुलिस अधिकारी सहित पी. सी. आर वैन और लड़कों की गाडी के साथ साथ ऑमलेट ओर ब्रेड वाला ठीया भी गुम हो गया था.
उसने अपने सर को झटका दिया. वो तो चैन की तलाश में निकली थी. इस तरफ ध्यान देना बेकार था. उसने जल्दी से खुद को सड़क पार करवाई. ऐसा कहना ही सही होगा क्योंकि सड़क पार करना इस वक़्त इतनी रात गए भी खतरे से खाली नहीं है. चारों तरफ देखना भालना होता है. ख़ास कर रात के वक़्त तो गाडी चलाने वालों को ये भ्रम रहता है कि उनके सिवा तो कोई और है ही नहीं सड़क पर. सो जैसे चाहो चलाओ.
पुलिस से आजकल डरता कौन है भला? ऐसा होता तो उसे रात के इस वक़्त चैन कहीं भी मिल ही जाता. मगर वो खुद मारा-मारा इधेर से उधर घूम रहा था. कुछ इस कदर कि जहाँ उसे दीखता वहां जब तक पहुँचती तो वो और आगे के लिए निकल चुका होता.
इस चैन की तलाश के मारे वह बेतरह थक चुकी थी. मगर चैन के बिना जीना भी तो दूभर था. उसे साथ लिए बगैर घर नहीं लौट सकती थी. उसे मिले बिना जी नहीं सकती थी. ये और बात थी कि देर रात यूँ सडक पर घूमने के लिए उसे कई तरह की सफाई देनी होगी अपने पति को.
पति का ख्याल एक बार फिर आ गया था. उसके साथ ही बेसन का घोल और डस्ट बिन में फेंके प्याज और आलू भी याद आ गए थे. दिल ने कहा घर लौट जाओ और नए सिरे से पकोड़े बना कर पति को खिला दो. न हो तो हलुवा भी बना लेना.उसका और अपना पेट भर जाए तो फिर खुद को भी उसे परोस देना. वो नरम पड़ जाएगा.
चैन तो सिर्फ एक छलावा है. ये कहाँ मिलने वाला है? उसके साथ उसके घर में तो किसी हाल में नहीं रहने वाला.
शराब की दूकान के सामने से निकल कर वो आगे बढ़ गयी.
उसने नहीं देखा वहां लाइन में पति खड़ा था. अपने आगे खड़े हुए आदमी से कह रहा था, “यार कहीं चैन नहीं. न दफ्तर में, न घर में. शाम से बीवी नाराज़ हो कर अपने मायके चली गयी है. फ़ोन भी नहीं ले रही. कल तक गुस्सा शांत होगा तो लौट आयेगी. मगर तब तक क्या करूँ? उसके बिना घर में चैन नहीं.”
प्रितपाल कौर.