इंद्रधनुष सतरंगा
(15)
सब अकेले हो गए
मुहल्ले की ख़ुशियों को जैसे ग्रहण लग गया। लोग हँसना-मुस्कराना भूल गए। हँसी-मज़ाक़, चुहल-ठिठोली जैसे बीते ज़माने की बात हो गई। लोग एक-दूसरे के सामने पड़ने से कतराने लगे। एक-दूसरे को देखकर राह बदल देते। हमेशा गुलज़ार रहने वाला मुहल्ला सुनसान हो गया। लोग दरवाजे़ बंद करके अपने आप में सिमट गए। दूसरों के सुख-दुख से आँखें फेर लीं।
घोष बाबू फर्श की धुलाई करते तो दरवाजे़ कीचड़ और फिसलन हो जाती थी। एक दिन पटेल बाबू उधर से निकलते हुए फिसलकर गिर गए। इसी बात पर घोष बाबू से उनका झगड़ा हो गया। उन्होंने ख़ूब खरी-खोटी सुनाई। घोष बाबू भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने भी जो मन आया कहा।
कीचड़ तो पहले भी होता था, फिसलन भी रहती थी, लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं देता था। एक बार गुल मोहम्मद फिसलकर गिर गए थे तो बड़ी हँसी हुई थी। ख़ुद गुल मोहम्मद भी हँसे थे।
पर अब छोटी-छोटी बातें लोगों को बुरी लगने लगी थीं। पहले जो बातें लोगों को आपस में जोड़ती थीं और हँसने-खिलखिलाने का अवसर देती थीं, आज वही आपस में टकराव का कारण बन गई थीं। लोग अपना-पराया सोचने लगे थे। दोस्ती छोटी हो गई थी, स्वार्थ बड़े हो गए थे।
मोबले ने अब अपने स्कूटर से आना-जाना शुरू कर दिया था। साइकिल छोड़कर स्कूटर लिए उन्हें अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए थे। इसलिए चलाने में थोड़ा कच्चे थे। भीड़ देखकर उनकी हैंडिल काँपने लगती थी। कभी ब्रेक भूल जाते, कभी गियर। लोग हँसते। लड़के ताना मारते--‘चलाना नहीं आता तो भीड़ में क्यों निकल पड़े!’ लेकिन मोबले ने तय कर लिया था कि अब मौलाना साहब के साथ नहीं जाएँगे। जाएँगे तो सिर्फ अपने स्कूटर पर।
मौलाना साहब और कर्तार जी के घर आमने-सामने थे। कर्तार जी की खिड़की से मौलाना साहब का घर बिल्कुल साफ दिखाई देता था। मौलाना साहब की रसोई में कुछ बनता तो उसकी ख़ुशबू कर्तार जी के आँगन तक पहुँचती थी। अक्सर दोनों अपनी-अपनी खिड़की से बातें कर लिया करते थे। लेकिन अब उनकी खिड़कियाँ सूनी रहने लगी थीं।
घोष बाबू की चुहलबाज़ी अब ख़त्म हो गई थी। पहले लोग उनकी जिन बातों पर मजे़े लिया करते थे, अब वही बुरी लगने लगी थीं। उनके मज़ाक़ पर लोग लड़ने को उतारू हो जाते। हमेशा खिले-खिले रहने वाले घोष बाबू अब गुमसुम रहने लगे थे।
एक दिन पटेल बाबू और गायकवाड़ में भी झगड़ा हो गया। पटेल बाबू ने कूड़ा बुहार कर किनारे लगा दिया था। कूड़े वाला रोज़ वहीं से उठा ले जाता था। लेकिन उस दिन कुत्तों ने खाने की खोज-बीन में सारा कूड़ा तितर-बितर कर डाला। गायकवाड़ का दरवाज़ा भी गंदा हो गया। बस, इसी बात पर दोनों में ठन गई। बात इतनी बढ़ी कि गायकवाड़ ने पटेल बाबू का गिरेबान खींच लिया। लेकिन उन्हें छुड़ाने और बीच-बचाव करने कोई नहीं आया। सब सुनते-देखते भी लोग दरवाज़ों के पीछे कै़द रहे। राह चलते लोगों ने उन्हें छुड़ाया।
मुहल्ले का मौसम अब बदल गया था। पहले पूनम का चाँद गलियों में आकर खिलखिलाता था। दरो-दीवार को अपनी शीतल चाँदनी से नहला देता था। पर अब आसमान से चाँदनी की जगह मानो दुख झरता था। सूरज अब रोशनी की जगह आग उगलता था।
हँसी-ठहाकों से देर रात तक गूँजता रहनेवाला पार्क अब सुनसान पड़ा रहता। किनारे पड़ी पत्थर की बेंचों पर जाने कब से कोई नहीं बैठा था।
अब कोई किसी के दरवाजे़ नहीं जाता था। एक अकेले आतिश जी थे जो सबके हाल-चाल पूछ आया करते थे। वर्ना हर कोई अब अपने घर की चहारदीवारी में क़ैद हो चुका था।
***