आखर चौरासी
सैंतीस
सतनाम बताए जा रहा था, ‘‘वैसे हालात में आस-पडोस के बाकी लोग तो तमाशबीन बने चुपचाप रहे, लेकिन पड़ोस में रहने वाला वह गबरु नौजवान लड़का अपने घर से निकल आया। उसके हाथ में लोहे का एक रॉड था। बताने वाले तो कहते हैं कि अन्याय का विरोध करने की, वही उस नौजवान की भूल थी। उसे भी और लोगों की तरह ही चुपचाप अपने घर पर बैठे रहना चाहिए था या फिर लूटने वालों के साथ मिल कर शोक का जश्न मानना चाहिए था। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है....!
वह गबरु अकेला ही उस भीड़ पर गरजने लगा कि सब लोग वहाँ से भाग जाएँ। उसे देख कर भीड़ कुछ देर को ठिठकी जरुर थी, मगर हटी नहीं। जब एक दंगाई को उसने हटाना चाहा तो पीछे खड़े दंगाई के साथी ने टमाटर सॉस की बड़ी बोतल लड़के के सर पर दे मारी। लड़का एक जोर की चीख के साथ अपना सर पकड़ कर वहीं बैठ गया। उसके बाद फिर भीड़ ने उसे उठने नहीं दिया। वही उस लड़के के गले से निकलने वाली उसकी आखिरी चीख थी, जिसके बाद केवल भीड़ के अट्टहास ही सुनाई दे रहे थे।
लुटेरे दंगाइयों के चले जाने के बाद ही सबको पता चला कि लड़का मर चुका है। ब्लॉक मे मिला वह बुजुर्ग उसी लड़के का बाप था, वह उसी दिन से पागल हो गया है। दूसरी तरफ कुछ बेशर्म लोग यह कहते नहीं थकते कि उस लड़के ने सिक्ख की लड़की के चक्कर में अपनी जान गवाँ दी। अन्याय के खिलाफ़ एक बलिदान को बस ‘लड़की का चक्कर’ जैसा नाम दे दिया गया।
वह उसी लड़के का बाप था जो वहाँ चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था, खून का बदला खून से लेने वालों, मेरे बेटे के बदले बेटा दो....! जिस-जिस ने खून का बदला खून लिया है मैं उसी-उसी का बेटा ले कर जाऊँगा....! मेरे बेटे का मुआवजा मुझे बेटा दो...!’’ बोलते-बोलते सतनाम की आँखों में आँसू छलक आये, ‘‘सच कहूँ बी’जी उसे देख कर मेरा मन बहुत खराब हुआ। कौन कहता है कि इस खूनी खेल में केवल सिक्ख मरे हैं। अगर केवल सिक्खों को ही मारना था तो फिर उस गैर-सिक्ख गबरु जवान को क्यों मारा गया ?’’
सुरजीत कौर भी पत्थर–सी खामोश थी। वह शायद उस माँ की पीड़ा को महसूस कर रही थी, जिसने अपना जवान बेटा खो दिया था। पूरे कमरे में एक बेहद सर्द सन्नाटा पसर कर जम गया था।
***
वैसे तो गुरनाम का शरीर हॉस्टल आ पहुँचा था, मगर उसका मन वहीं पीछे कहीं घर में ही अटक कर रह गया था। बार-बार उसे महसूस होता जैसे उसका वजूद कई टुकड़ों में बँट कर घर के आसपास ही घूम रहा है। ....कभी डिम्पल और सतनाम भैया के डरों के पास, कभी पापा जी की आशा और विश्वास के पास, कभी घर से बाहर बस स्टैन्ड में पागलों की तरह भटक रहे डॉक्टर जगीर सिंह के पास....!
इन्हीं सब के बीच अम्बिका पाण्डे का वाक्य प्रतिध्वनि बन कर अक्सर उसके अंतर में गूँजने लगता, ‘‘तुम भी इसी तरह किसी जरुरतमंद की मदद करने को आगे आना !’’
***
गुरनाम जब से घर होकर लौटा था, उसके स्वभाव में बड़ा अंतर आ गया था। हमेशा हंसते-हंसाते रहने वाला मस्त-मौला और खिलंदड़ा गुरनाम अब अपने आप में ही गुम-सुम और धीर-गम्भीर रहने लगा था। चूँकि सभी लड़के इम्तहान की तैयारियों में लगे थे, इसलिए होना तो यह चाहिए था कि उसमें आये वे परिवर्तन दोस्तों के नोटिस में नहीं आते। मगर वैसा नहीं हुआ। वैसे भी जब कोई परिवर्तन अप्रत्याशित हो बड़ा हो तो नजर ठहर ही जाती है। उसमें आये बदलाव को सबसे पहले जगदीश ने लक्ष्य किया था। उन दिनों जगदीश कभी-कभी उसके कमरे में आकर बात-चीत कर लेता था। उस समय भी वह वहीं बैठा गुरनाम से बातें कर रहा था।
‘‘यार गुरु, तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं। न जाने तुम्हारे मन में क्या है ?’’
‘‘इसमें ना समझने वाली क्या बात है। मैं तो सीधी-साधी भाषा में बोल रहा हूँ। क्या हमारी पढ़ाई का उद्देश्य मात्र इतना ही होना चाहिए कि एक नौकरी मिल जाए ? कुछ एक हजार के वेतन के बदले में हम अपनी सारी उम्र अपने मालिकों के नाम लिख दें ? खाएँ-पीएँ, दो-चार बच्चे पैदा करें और मर जाएँ ? यह सारा कुछ निरा व्यक्तिगत हुआ न ? तो फिर हम जीयें या मरें इससे हमारे समाज, हमारे देश को क्या फर्क पड़ता है ?’’ गुरनाम की आवाज में कोई उतार-चढ़ाव न था। उसकी सपाट आवाज़ मानों कहीं दूर से आ रही हो।
उसकी बातें जगदीश की उलझन कम करने की जगह और भी बढ़ा रही थी। कुछ देर तो वह वैसे ही बैठा रहा फिर थोड़ा मुस्कुरा कर बोला, ‘‘मेरे कुछ और दोस्त भी इस शहर में हैं जो तुम्हारी तरह ऐसी ही पागलपन की बातें करते रहते हैं। उनकी बातें समझने में भी मुझे ऐसी ही कठिनाई होती है। उनमें से दो-एक तो तुम्हारी तरह ही दुबले-पतले हैं। ध्यान से देखो तो उनके शरीर की सारी हड्डियाँ गिन लो। मगर बड़ी-बड़ी बातें करेंगे ...क्रांतियों की ...बदलाव की ...तूफानों की ! मानों सारे देश और दुनियाँ का ठेका उन लोगों ने ही ले रखा हो।’’
गुरनाम ने चौंकते हुए पूछा, ‘‘क्या कहा, तुम्हारे दोस्त ? कौन हैं वे लोग ? कहाँ हैं वे ? क्या तुम मुझे उनसे मिलवा दोगे, प्लीज !’’
जगदीश की मुस्कान और भली हो गई, ‘‘ ये लो, भला उनसे मिलना कौन-सी बड़ी बात है ? तुम कहते हो तो जरुर मिलवा दूँगा। लेकिन अभी नहीं, आज शाम को। एक छोटे-से कमरे को उन लोगों ने अपना क्लब बना रखा है। वे हर शाम वहीं जुटते हैं। ढेर सारी पत्रिकाएँ और अखबार ले कर आते हैं। चाय-वाय पीते हुए देर तक बड़ी-बड़ी बहसें करते हैं। सच कहूँ, मैं तो उनकी बातें सुन कर ऐसा चटता हूँ कि फिर सप्ताह भर उधर जाने का साहस नहीं जुटा पाता। लेकिन क्या करुँ, आखिर तो अपने दोस्त ही हैं मिले बिना रहा भी नहीं जाता। आज शाम को तैयार रहना ठीक पाँच बजे निकलेंगे।’’
‘‘ओ.के. मैं तैयार रहूँगा।’’
जगदीश भले ही वहाँ चट जाता हो, लेकिन गुरनाम पर उसकी चटने वाली बात सही साबित नहीं हुई। वह जो उस शाम वहाँ गया तो फिर वहीं का हो कर रह गया। उस दिन के बाद से वह हर शाम नियमित रुप से वहाँ जाने लगा। वहाँ जाना और उनकी बातों-बहसों में शामिल होना उसके लिए अनिवार्य बन चुका था।
गुरनाम में होते हुए परिवर्तनों को देख कर एक दिन जगदीश बोला था, ‘‘गुरु, मुझे अच्छी तरह लगता है कि मेरे उन दोस्तों की तरह तुम भी सही रास्ते पर चल रहे हो। तुम लोगों का रास्ता सच्चा है। कभी-कभी मेरी भी इच्छा होती है कि तुम सब के साथ मैं भी उसी रास्ते पर चल पड़ूँ । मगर क्या करुँ, मेरा मन बड़ा कमजोर है। उस रास्ते की कठिनाइयाँ झेल सकूँगा, स्वयं पर ऐसा विश्वास नहीं कर पाता।’’
गुरनाम ने देखा जगदीश के चेहरे पर एक सच्ची आभा के साथ-साथ कुछ न कर पाने की विवशता थी।
‘‘तुम ऐसे निराश मत होओ। तुम्हारा कार्य किसी और के कार्य से कम कहाँ रहा है, जगदीश ?’’ गुरनाम ने उसे समझाया, ‘‘तुम अपनी जगह रह कर भी तो बहुत बड़ा कार्य कर रहे हो। तुमको वहीं रहना चाहिए। हो सकता है, कल फिर किसी गुरनाम को तुम्हारी सहायता की जरुरत पड़ जाए .... अभी तुम्हें उन कई गुरनामों की रक्षा करनी है। तुम्हारा कार्य किसी भी रुप में कम नहीं है। युद्ध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण केवल अगले मोर्चे पर लड़ने वाला सैनिक ही नहीं होता। ...उसे रसद पहुंचाने वाला, उसके लिए हथियार बनाने वाला, घायल सैनिकों की सेवा करने वाला, हर कोई एक सैनिक होता है। समान रुप से महत्वपूर्ण सैनिक ! उन सभी के मिल कर लड़ने से ही जंग जीती जाती है।’’
गुरनाम का उत्तर सुन कर जगदीश की बेचैनी कुछ-कुछ कम हो रही थी।
***
गुरनाम अब भी रात-रात भर जग कर पढ़ता था। मगर अब उसकी किताबें बदल गई थीं ...उसकी तैयारियाँ बदल गई थीं। भगत सिंह, राजगुरु, खुदीराम, सुभाष चन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद, मार्क्स, लेनिन और भी न जाने क्या-क्या....। वह ढेर सारी किताबों में नजरें गड़ाये, पूरी तल्लीनता से न जाने क्या तलाशता रहता ?
उसके सहपाठी समझते, वह पढ़ाई में डूबा विश्वविद्यालय के इम्तहान की तैयारी कर रहा है।
...तैयारी तो वह सच में ही कर रहा था, मगर अब उसका इम्तहान बदल चुका था ...विश्वविद्यालय बदल चुका था। वह सहपाठियों वाले विश्वविद्यालय की नहीं, जीवन के विश्वविद्यालय वाले इम्तहान की तैयारी कर रहा था। एक ऐसा इम्तहान जहाँ आगे उसकी बड़ी कठिन परीक्षा होने वाली थी।
***
कमल
Kamal8tata@gmail.com