आखर चौरासी
पैंतीस
गुरनाम और विक्की जब भी घर पर होते हैं, उनकी शामें बस स्टैण्ड पर बने यात्री पड़ाव वाली सीमेंट की बेंच पर शुरु होती हैं। उस शाम भी वे दोनों वहीं बैठे बातें कर रहे थे। उनकी बातें विक्की के इंजीनियरिंग कॉलेज और नये दोस्तों के बारे में थीं।
विक्की बड़े उत्साह से बताए जा रहा था, ‘‘हमारे कॉलेज में नये छात्रों को मुर्गा और छात्राओं को मुर्गी कहा जाता है। जब तक मुर्गे-मुर्गियों के स्वागत में होने वाला कॉलेज का समारोह यानि कि ‘फ्रेशर्स नाईट’ नहीं हो जाता, वे सम्बोधन तब तक लागू रहते हैं। ’’
‘‘हा...हा...हा... तब तो तुम अभी अपने कॉलेज के मुर्गे हो।’’ गुरनाम ने हंसते हुए कहा।
‘‘...एक और मजेदार बात तो सुनो ! लड़कियों के हॉस्टल से कॉलेज तक आने-जाने वाली सड़क को मुर्गी-पथ कहा जाता है। वैसे तो अपनी पढ़ाई और कॉरियर को लेकर सभी स्टूडेंट्स काफी व्यस्त रहते हैं, लेकिन फिर भी शाम के समय मुर्गी-पथ भ्रमण लड़कों में खासा आकर्षण रखता है। परन्तु मुर्गों अर्थात् फ़र्स्ट इयर के लड़कों के लिए मुर्गी-पथ पूर्णतः वर्जित है। अगर कोई मुर्गा उधर पकड़ा गया तो उसकी भयंकर रैगिंग तो पक्की है।’’
उनकी गप्पों के साथ-साथ गहराती शाम में नवंबर की सर्द हवा की ठंढक बढ़ती जा रही थी। गुरनाम ने अपना मफलर कानों पर अच्छी तरह से लपेट लिया। उसे विक्की की रोचक बातों में बड़ा मजा आ रहा था। उसका तनाव मुक्त चेहरा खिला-खिला नज़र आ रहा था।
‘‘तुम कभी मुर्गी-पथ भ्रमण अभियान पर गये या नहीं ?’’ उसने मुस्कुराते हुए पूछा।
विक्की गुरनाम को कोई उत्तर देता उससे पहले ही उन दोनों ने देखा, एक बूढ़ा-सा आदमी डगमगाता हुआ उनकी ओर चला आ रहा है। अस्त-व्यस्त वेशभूषा में वह बूढ़ा अपने आप से बातें करता उनसे कुछ दूरी पर आ कर बैठ गया। उन्हें पहचान कर वे दोनों चौंके , वह बूढ़ा कोई और नहीं डॉक्टर जगीर सिंह थे। हमेशा साफ-सुथरे कपड़ों में चुस्त रहने वाले जगीर सिंह का वह हुलिया दोनों के लिए आश्चर्यजनक था। उनके बिखरे केश और अस्त-व्यस्त हुलिया बता रहा था, कई दिनों से उन्होंने स्नान भी नहीं किया है। गुरनाम ने उठकर उनका अभिवादन करते हुए ‘सतश्रीअकाल’ कहा।
परन्तु जगीर सिंह ने उस पर कोई ध्यान ना दिया। वह अपने-आप से ही बड़बड़ा कर बातें करते रहे। उनके हाव-भाव ऐसे बने रहे मानों उन्होंने गुरनाम को पहचाना ही न हो। उनके चेहरे पर स्वयं के लिए अपरिचय के भाव देख कर गुरनाम परेशान हो गया। डॉक्टर जगीर सिंह तो उसे खूब अच्छी तरह पहचानते थे। उसे पढ़ाई में मन लगाने और अच्छा रिजल्ट करने को वे बराबर उत्साहित किया करते थे। उन्होंने कई बार कहा था कि, ‘‘गुरनाम ध्यान से पढ़ो और पढ़ कर डॉक्टर बनो। मैं तुम्हें कुछ ऐसी जड़ी-बूटियों के नुस्खे बताऊँगा, जिनका उपयोग कर तुम वैसे मरीजों को भी चंगा कर दोगे, जिन बिमारियों का इलाज ऐलोपैथी में नहीं है। उन अचूक नुस्खों की मदद से जब तुम अपने लाइलाज रोगियों को भी ठीक कर दोगे, तब तुम्हारा खूब नाम होगा। दूर-दूर से मरीज अपना इलाज करवाने तुम्हारे पास आयेंगे। इस तरह तुम्हारी प्रैक्टिस सबसे ज्यादा चला करेगी ।’’
अतीत की वे सारी बातें क्षणांश में ही गुरनाम के मानस पटल पर कौंध गईं। आज वही डॉक्टर जगीर सिंह उस पर एक उचटती सी अजनबी नजर डाल उठ कर दूसरी बेन्च की ओर बढ़ने लगे।
‘‘डॉक्टर अंकल, मैं गुरनाम हूँ। आपने मुझे पहचाना नहीं ?’’ गुरनाम ने उन्हें टोका।
जगीर सिंह ने एक बार उसकी ओर देखा, फिर निगाहें मोड़ लीं। उनके चेहरे पर परिचय का कोई भाव न उभरा। उन्होंने एक बार आकाश की ओर नज़रें उठायीं और फिर से बड़बड़ाने लगे। धीरे-धीरे उनकी आवाज ऊँची होने लगी, ‘‘...जला दो.... मार दो....लूट लो....! ...जला दो.... मार दो....लूट लो....!!’’
पागलों-सी उनकी वैसी हालत देख कर गुरनाम स्तब्ध रह गया। थोड़ी देर डॉक्टर जगीर सिंह वैसे ही जोर-जोर से बोलते रहे, फिर एक झटके से उठ कर तेजी से चलते हुए अंधेरे में गुम हो गये।
गुरनाम ने अधीरता से कहा, ‘‘विक्की, विक्की देखा तुमने वे डॉक्टर जगीर सिंह ही थे न !’’
‘‘हाँ, वे डॉक्टर सा’ब ही थे। मुझे पापा ने बताया था, जिस दिन से उनका दवाखाना लूट कर जला दिया गया, उसी दिन से वे पागल हो गए हैं। किसी को नहीं पहचानते। यूँ ही भटकते रहते हैं। बस उन चंद शब्दों के अलावा और कुछ नहीं बोलते। किसी से कोई बात नहीं करते।’’ विक्की ने जवाब दिया और उठ खड़ा हुआ। उसने गुरनाम का हाथ पकड़ कर खींचा, ‘‘चलो, घर चलें। ठण्ढ बढ़ने लगी है।’’
गुरनाम उठ कर चुपचाप उसके साथ चलने लगा। उसके भीतर उठाने वाला एक तूफान रुकता नहीं कि दूसरा सामने आ खड़ा होता है। जगीर सिंह से सामना होने के बाद विचारों का एक और तूफान उसे भीतर से मथने लगा था। अपने घरों के पास वाले मोड़ पर पहुँच कर वे दोनों रुके।
‘‘तुम कल सुबह ही सिन्दरी के लिए निकलोगे न ?’’ गुरनाम ने पूछा।
‘‘हाँ, सुबह ही।’’ विक्की बोला, ‘‘मैं तैयार हो कर तुम्हारे घर आ जाऊँगा। भाभी से कहना कल सुबह आलू के पराँठे बनाये। हम दोनों साथ-साथ नाश्ता करेंगे। फिर मैं ऑटो पकड़ कर स्टेशन चला जाऊँगा। हमारे ‘शेशनल्स टेस्ट’ सर पर हैं। जाते ही पढ़ाई में भिड़ जाना पड़ेगा। तुम भी यहाँ एक-दो रोज से ज्यादा मत रुकना। तुम्हारे फाइनल एग्जाम का प्रोग्राम निकला या नहीं ?’’
‘हाँ, निकल गया है। आठ दिसम्बर से शुरु हो रहे हैं। मुझे भी बस एक-दो दिनों में निकलना पड़ेगा।‘’ गुरनाम ने बताया।
‘‘ओ.के. गुड नाइट !’’
‘‘गुड नाइट !’’
वे दोनों अपने-अपने घरों की ओर मुड़ गये। दोनों ही अपने भीतर मचल रहे विचारों के अपने-अपने तूफानों से अशांत थे।
विक्की केवल गुरनाम के लिए चिन्तित था। आज उसने गुरनाम का नया ही रुप देखा था। गुरनाम की आज की बातों ने उसे हिला कर रख दिया था।
दूसरी तरफ गुरनाम, डॉक्टर जगीर सिंह, गुरुद्वारे में मार डाले गये ग्रंथी, डिम्पल जैसी बच्ची के मन में उपजे भय और न जाने क्या-क्या दुनियाँ जहान की बातों को लेकर चिन्तित था।
***
अगले दिन जब विक्की को स्टैण्ड पर छोड़, गुरनाम अपने घर लौट रहा था, उसे सामने से आते अम्बिका पाण्डे दिखाई दिये। घर वालों से उनके द्वारा की गई सहायता तथा उस शराबी को पीटे जाने की घटना का विवरण वह सुन ही चुका था। आस-पड़ोस में केवल वे ही थे जिन्होंने संकट के समय आगे बढ़ कर उन लोगों की सक्रिय मदद की थी। सारी बातें सुनने के बाद से ही गुरनाम के मन में उनके प्रति श्रद्धा भाव बढ़ गये थे। चूँकि केश कटे होने के कारण उन्होंने गुरनाम को नहीं पहचाना था, वे अपनी राह बढ़े चले जा रहे थे।
गुरनाम ने दोनों हाथ जोड़ कर उनका अभिवादन किया, ‘‘अंकल नमस्ते !’’
उसकी आवाज पहचान कर वे रुके, अब वे गुरनाम को पहचान गये, ‘‘कौन गुरनाम ! ...खुश रहो, खुश रहो। कब आये ?’’
‘‘जी कल शाम को आया था।’’
‘‘...और सब तो ठीक है न !’’ उन्होंने प्यार से पूछा, ‘‘कुछ दिन रुकोगे न ?’’
‘‘जी अंकल, एक-दो रोज रुकूँगा।’’
‘‘अच्छा, अच्छा ठीक है।’’ कहते हुए अम्बिका पाण्डे चले गये।
गुरनाम भी अपने घर लौट आया। अंदर आते हुए उसने सतनाम को पापा से कहते सुना, ‘‘पापा जी मेरा मन अब यहाँ बिल्कुल नहीं लगता। बाहर निकलता हूँ तो हर नजर सीना बेधती-सी लगती है। दुकान और घर लूटने वालों की नजरों में तो उपहास रहता है कि देखा तुम्हें लूट लिया और तुम हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सके....। पहले जहाँ सरदार जी का सम्बोधन मिलता था वहीं अब ओये सरदार, अरे सरदरवा और न जाने क्या-क्या अपमानजनक सम्बोधन सुनने को मिलते हैं। मैं अब यहाँ नहीं रह सकूँगा। यहाँ रहूँ भी तो कैसे ? इससे अच्छा है पंजाब चला जाऊँ !’’
हरनाम सिंह उसे समझाते हुए बोले, ‘‘पुत्तर, ऐसे दिल छोटा करने से काम नहीं चलता। फिर यहाँ तुम्हारा काम अच्छा चल रहा है। अपनी जमी-जमाई जगह से जा कर कियी नयी जगह सेट करना इतना आसान नहीं होता।’’
‘‘पापा जी, माना कि यहाँ काम जमा-जमाया है। यहाँ के काम को छोड़ कर जाने से तकलीफ होगी और वहाँ नया काम शुरु करने में कठिनाई भी होगी। लेकिन यहाँ की बेइज्जती अब बर्दाश्त नहीं होती। भले ही आधा पेट खाने को मिले, मगर वहाँ इज्जत से जी तो सकूँगा !’’ सतनाम अपने पिता की बात काटते हुए बोला।
उसके तर्कों ने उसके माता-पिता को निरुत्तर कर दिया। अंदर वाले दरवाजे के पास भाभी और दीदी भी बैठी थीं। भैया की बातें सुन कर गुरनाम को अपने भीतर कुछ तिड़कता-सा महसूस हुआ। भैया किस कदर टूट चुके हैं। उनका दर्द कितना साफ-साफ उनकी आवाज में झलक रहा था।
गुरनाम ने उनके पास बैठते हुए कहा, ‘‘क्यों चले जाएंगे आप पंजाब ? आपके साथ एक हादसा हुआ और आप इतना विचलित हो गये ? हम यहीं पैदा हुए हैं। आदमी की जड़ें वहीं होती हैं, जहाँ वह पैदा हुआ हो पला-बढ़ा हो। हमारे दुःख-दर्द, हमारी खुशियाँ सभी में तो यहाँ की मिट्टी की गंध समाई हुई है। यहाँ से पंजाब चले जाना तो अपनी जड़ों से कट जाना ही होगा न! भला अपनी जड़ों से कट कर भी कोई जी पाया है ? फिर यहाँ से पलायन तो कोई समाधान नहीं हुआ न! ...कल को वहाँ आपके साथ कुछ अप्रिय घट गया तो क्या करेंगे ? कहाँ जाएंगे ?’’
गुरनाम की बातें सुन कर हरनाम सिंह के बुझे चेहरे पर रौनक लौट आई। वे भी संभवतः वैसी ही बातें सतनाम को समझाना चाहते थे। वे बोले, ‘‘देखो तो तुम्हारा छोटा भाई हो कर भी कितनी अच्छी बातें कह रहा है।’’
परन्तु सतनाम पर उन बातों का ज़रा भी सार्थक प्रभाव न हुआ। उसके चेहरे पर बोझिल उदासी पूर्ववत् ही छायी रही। वह बोला, ‘‘यह सब तो किताबी आदर्शवाद है, गुरनाम। अभी तुम पढ़ रहे हो न, विद्यार्थी जीवन में आदर्शवाद बहुतायत में पाया जाता है। तुम भी कोई हट कर बातें नहीं कर रहे। सामाजिक जीवन तुम्हारी कॉलेज लाईफ से बहुत अलग चीज होती है। जब तुम सामाजिक जीवन प्रारंभ करोगे, तो तुम्हें भी समाज की जटिलताओं, छल-प्रपंचों को झेलना पड़ेगा। अभी तुम मेरी तकलीफों को पूरी तरह नहीं समझ पाओगे।’’
गुरनाम ने अपने भाई को संभालने का फिर प्रयास किया, ‘‘भैया मानता हूँ, आपकी बातें गलत नहीं हैं। लेकिन मनुष्य का सारा जीवन ही तो संघर्ष का नाम है। सभी को संघर्ष करना पड़ता है। यह बात और है कि समय तथा परिस्थितियों के साथ हर किसी के संघर्ष की तीव्रता का स्तर घटता-बढ़ता रहता है। ...रात कितनी भी काली क्यों न हो, उसकी अवधि निश्चित होती है, अनंत नहीं। निश्चित समय पर दिन का उजाला राह की हर कालिमा को निगल जाता है। ...यह रात भी खत्म होगी, ऐसा मेरा अटूट विश्वास है।’’
कुछ पल ठहर कर उसने सतनाम का हाथ पकड़ कर उसे उठाया और बोला, ‘‘चलिए भैया, जरा बाहर से घूम कर आते हैं। घर में बैठे रहने से मन पर बोझ बना रहेगा।’’
बी’जी ने भी गुरनाम की बात का समर्थन किया, ‘‘हाँ, हाँ बेटा, जाओ जरा बाहर घूम आओ।’’
गुरनाम ने भाभी को संबोधित किया, ‘‘भाभी जी, दुकान की चाबी और एक फोल्डिंग खाट तो निकलना। वहाँ बैठने के काम आयेगी। हम दोनों दुकान खोलने जा रहे हैं।’’
खाट और दुकान की चाबी लेकर गुरनाम अपने बड़े भाई के साथ दुकान की ओर चल पड़ा। उसने तय कर लिया था कि वह सारा दिन वहीं दुकान पर रहेगा। बस एक बार दुकान खुलनी शुरु हो जाए तो भैया का मन भी धीरे-धीरे पुनः उसमें लगने लग जाएगा।
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कमल
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