आखर चौरासी
बत्तीस
जिस समय विक्की अपना सफर पूरा कर बस से उतरा, दोपहर ढल चुकी थी। वैसे भी ठंढ के मौसम में दिन छोटे होते हैं। शाम गर्मियों कि अपेक्षा जल्द उतर आती है। बस स्टैंड से पहले अपने घर जाने के बजाय वह सीधे गुरनाम के घर की ओर बढ़ गया। रास्ते में जब उसने सतनाम भैया की जली दुकान देखी तो ठिठक कर रुक गया। दुकान की दीवारें और छत्त पूरी तरह जल कर काली हो चुकी थीं। दुकान के सामने वाला छज्जा तोड़ डाला गया था। दरवाजे खिड़कियाँ पूरी तरह जल कर ख़ाक हो गए थे। दरवाजे खिड़कियाँ नहीं होने के कारण सड़क से ही भीतर के खाली-खाली कमरे साफ नजर आ रहे थे।
वह दृश्य देख कर विक्की बहुत दुःखी हुआ। क्या वह विनाश, वह लूट-पाट सिक्खों को सजा देने के लिए हुआ है ? अगर वह सब सजा देने के लिए हुआ है तो दुकान-मकान को पूरे सामान सहित क्यों नहीं जलाया गया ? पहले सारा समान लूट कर शोक मनाने वालों द्वारा अपने घरों को क्यों ले जाया गया ? इन्दिरा कि हत्या के बाद सजा देने के नाम पर किया गया वह सारा कुछ तो सरासर लूट है। दुकान की वैसी हालत देख उसका आशंकित मन और भी तेजी से धड़कने लग गया था। ...और फिर ये लोग होते कौन हैं सजा देने वाले ? सिक्खों को सजा देने का वह हक़ उन्हें किसने दिया ? पूरा देश एक डरावने जंगल में बदल देने का हक़ उस भीड़ को किसने दिया ? वे सारे प्रश्न विक्की के अन्तर्मन में बिजली की तरह कौंध रहे थे। उन्हीं विचारों में सुलगता विक्की तेजी से गुरनाम के घर की ओर लपक लिया। पास पहुँचने पर घर सुरक्षित देख उसने चैन की साँस ली और दरवाजा खटखटाया। दरवाजा हरनाम सिंह ने खोला।
‘‘नमस्ते अंकल !’’ कहते हुए उसने झुक कर उनके चरण स्पर्श किये।
‘‘खुश रहो बेटा ! आओ, आओ भीतर आ जाओ।’’ कह कर हरनाम सिंह मुड़े।
‘‘कौन आया है ?’’ वार्तालाप की आवाज़ें सुन कर सुरजीत कौर भी बाहर निकल आयीं। घर पर छाया हुआ दहशत का असर उस दिन तक काफी कम हो चुका था।
विक्की ने झुक कर उनके भी चरण स्पर्श किये, ‘‘आँटी जी पैरीं पैना !’’
सुरजीत कौर ने उसके सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए उसे अपने सीने से लगा लिया। उन्होंने सदा ही गुरनाम और विक्की को एक-सा स्नेह दिया था। न जाने क्या सोच कर उनकी आँखें भींग गईं।
फिर आँखें पोंछते हुए वे बोलीं, ‘‘बेटा, तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था। हमारे घर आने से कोई तुम्हारा भी कुछ अहित न कर दे।’’ सुरजीत कौर की आवाज़ में दर्द था।
‘‘आप मेरी फिक्र मत करें आँटी जी, मुझे कुछ नहीं होगा। रही बात अहित की तो उसके लिए किसी को सामने आना पड़ेगा। पहले कोई सामने तो आये, फिर देखेंगे कौन किसका अहित करता है ?’’ विक्की का क्रोध उसके स्वर में आक्रोश बन कर उभर आया था।
कुछ देर उसके बीच खामोशी-सी छायी रही, फिर सुरजीत कौर का धीमा स्वर उभरा, ‘‘हम सब तो यहाँ ठीक हैं। न जाने गुरनाम वहाँ हॉस्टल में कैसा होगा ?’’
उनकी बात पर विक्की ने कहा, ‘‘आँटी जी आप चिन्ता न करें। मैं कल सुबह ही जा कर उसकी खबर ले आता हूँ।’’
‘‘बेटा देख लेना, अगर उसकी पढ़ाई का हर्ज न हो, तो उसे अपने साथ ही लेते आना। कुछ दिन हमारे पास रह लेगा।’’ एक माँ की आवाज़ अपने बेटे को देख भर लेने को काँप रही थी।
‘‘ठीक है मैं उसे लेता ही आऊँगा।’’ विक्की ने उन्हें आश्वस्त किया।
हरनाम सिंह ने विक्की को बताते हुए कहा, ‘‘आज महादेव अपने गाँव गया है। हम लोगों ने उसे भी गुरनाम से मिलने को कहा है, लेकिन उसकी वापसी कुछ दिनों बाद होनी है। तब तक हमें गुरनाम का कोई समाचार नहीं मिल सकेगा।’’
‘‘महादेव भैया तो दिन में ही उससे मिल चुके होंगे।’’ विक्की ने हिसाब लगाया, ‘‘अगर चिन्ता वाली कोई बात होती तो वे तत्काल वापस आ जाते। वे नहीं लौटे हैं, इसका अर्थ है कि चिन्ता की कोई बात नहीं है। बस आज रात की ही तो बात है, आप निश्चिंत रहें, कल इस समय तक तो गुरनाम आपके पास बैठा होगा।’’
तभी भीतर से आवाज़ आई, ‘‘बी’जी, चाय बन गई है।’’
‘‘जा बेटा, अपनी भाभी से चाय ले ले।’’ सुरजीत कौर ने कहा।
विक्की उठ कर चाय पीने भीतर चला गया।
***
जब विक्की अपने घर पहुँचा, शाम गहरा चुकी थी। उसने जब रमण शांडिल्य को प्रणाम करते हुए उनके पांव छूए तो वे चौंके ।
‘‘अरे, तुम कब आये ? तुम्हें तो अपने कॉलेज में होना चाहिए था।’’
‘‘हाँ, गया तो था। लेकिन बोकरो में ही जो मार-काट देखी तो आगे न जा सका।’’ विक्की का स्वर थका हुआ था।
रमण शाडिल्य ने उसकी थकान को लक्ष्य किया, ‘‘क्या बात है, थके-थके नजर आ रहे हो।’’ फिर मानों स्वयं ही उत्तर देते हुए बोले, ‘‘सफर से आये हो न, इसीलिए।’’
‘‘मगर यह थकान सफर की नहीं है पापा!’’ विक्की ने कहा, फिर अपने पिता की आँखों में झाँकते हुए बोला, ‘‘आप तो अपनी पार्टी में काफी महत्वपूर्ण पद पर हैं, फिर भी सतनाम भैया की दुकान लुटने से नहीं बचा सके ? क्या फायदा ऐसी पार्टी- पॉलिटिक्स का ?’’
विक्की के स्वर में अजीब-सा विद्रोह था। रमण शांडिल्य को उसके वैसे व्यवहार की आशंका उसी दिन हो गई थी, जब उन्होंने सतनाम की दुकान लुटी देखी थी। वे जानते थे विक्की वह सब देख बहुत आहत होगा।
उन्होंने सफाई देनी चाही थी, ‘‘देखो, यहाँ इस छोटी-सी जगह पर ऐसा कुछ होगा, मैंने बिल्कुल नहीं सोचा था। अगर पता भी होता तो मैं अकेला क्या कर लेता ? फिर यह सब तो पूरे देश में ही हुआ है। प्रजातंत्र है, यहाँ बहुमत के आगे चुप ही रहना पड़ता है। और.....’’
‘‘नहीं पापा, आपकी बात पूरी सही नहीं है। प्रजातंत्र की परिभाषा तो आपने सही बतलाई है। मगर क्या पूरा देश चाहता था कि इन्दिरा गाँधी की हत्या का बदला लेने के लिए सिक्खों का कत्लेआम किया जाए ? जहाँ तक मैं अपने देश को जानता हूँ, मेरा देश ऐसे किसी भी कत्लेआम का कभी समर्थन नहीं कर सकता। यह तो बस उस एक पार्टी ने मौके का फायदा उठाया है! ...अपना स्वार्थ साधा है ! ताकि आगामी चुनाव में मतदाताओं की सहानुभूति, वोटों के रुप में वह पार्टी बटोर सके और सत्ता पर काबिज हो सके...! चलिए एक पल के लिए आपकी ही बात सही मान ली जाए तो फिर ऐसे प्रजातंत्र की क्या ज़रुरत है जो अपने निरपराध, निहत्थे और निरीह नागरिकों की रक्षा न कर सके ? जो भी सिक्ख मार डाले गये हैं, इन्दिरा गाँधी की हत्या के लिए आप उन सबको कैसे दोषी ठहराएँगे ? क्या आप इस बात से इंकार करेंगे कि इन्दिरा गाँधी की हत्या स्वयं उसके ही द्वारा रचित राजनीतिक कुचक्र का परिणाम थी ?’’
विक्की एक के बाद एक प्रश्न किये जा रहा था। उसके पिता रमण शांडिल्य पूरी तरह निरुत्तर हो गए थे। बेटे की आँखों में धधकती सच्चे तर्कों की आग का उनके पास कोई उत्तर ना था।
दम भर रुक कर विक्की फिर बोला, ‘‘वर्तमान को अपने हर कृत्य के लिए इतिहास के कटघरे में खड़ा होना पड़ता है। कल आपकी पार्टी अपनी इन नृशंस हत्याओं के लिए इतिहास के कटघरे में किन तर्कों का सहारा लेगी ? इतिहास के उस कटघरे में तो हर झूठ दम तोड़ देता है।’’
‘‘गुरनाम तुम्हारा मित्र है न, इसीलिए तुम कुछ ज्यादा ही भावुक हो रहे हो। अपने देश् में सिक्खों के विरुद्ध भड़के दंगों को कोई इतिहास नहीं है। न ही ये कभी दुबारा होंगे। ये तो बस तात्कालिक आक्रोश का परिणाम थे। इतिहास के लिए इनकी अहमियत केवल पानी के एक बुलबुले-सी है। यह एक छोटी-सी दुर्घटना से ज्यादा कुछ भी नहीं है।’’ रमण शांडिल्य ने उसे समझाने का प्रयास किया।
‘‘तब तो ईसाई, बौद्ध, जैन और ऐसे ही अन्य समुदायों के विरुद्ध भविष्य में यदि दंगे होंगे तो आप उन्हें भी पानी का एक बुलबुला ही कह कर दरकिनार कर देंगे कि उनका भी कोई इतिहास नहीं रहा है ? पापा, बात बड़े या छोटे अथवा एक बार या लगातार होने वाले दंगों की नहीं है। बात मनुष्यता के आहत होने की है। बात मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई आदि के विरुद्ध दंगों की भी नहीं है। बात यह है कि क्या भारत का बहुमत सचमुच दंगों को चाहता है ? क्या भारतवर्ष की विराट सभ्यता और संस्कृति में कभी भी, कहीं भी ये अपनी कोई सार्थक पहचान रखते हैं ? यदि नहीं तो साम्प्रदायिकता के दानव को सर उठाने क्यों दिया जाता है ? ....खैर देख लीजिए आपका पानी का एक बुलबुला कितना विनाश कर सकता है। सब कुछ तो आपकी आँखों के सामने ही है न !’’ विक्की कह कर घर के भीतर चला गया।
....रमण शांडिल्य निरुत्तर वहीं बैठे रह गए। उनके पास तो क्या सच में किसी के भी पास विक्की के उन धधकते, तीखे प्रश्नों का कोई उत्तर न था। दरअसल उस तारीख में पूरे देश के पास ही उन तीखे प्रश्नों का कोई उत्तर न था। पता नहीं अभी और कितने वर्षों तक उत्तर मिले भी नहीं ....।
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कमल
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