Aakhar Chaurasi - 18 in Hindi Moral Stories by Kamal books and stories PDF | आखर चौरासी - 18

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आखर चौरासी - 18

आखर चौरासी

अठारह

ऐसा ही एक दृष्य विक्की ने दूसरे माले पर स्थित अपने फूफा के फ्लैट की खिड़की से देखा था। अपने पुर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार उस दिन उसे बी.आई.टी. सिन्दरी पहुँच जाना था। मगर उसे फूफा जी ने रोक लिया था। विक्की ने जब अपनी आँखों से सरेआम चौराहे पर सिक्खों को जलाये जाते देखा तो बेचैन हो गया। तुरन्त ही उसका ध्यान गुरनाम और उसके परिवार वालों की ओर गया। उसने मन ही मन भगवान से प्रार्थना की, ‘हे ईश्वर उनकी रक्षा करना।’

फिर वह अपने फूफा के पास जा कर बोला, ‘‘अंकल, मैं वापस घर जा रहा हूँ ।’’

उसके फूफा चौंके , ‘‘क्या, तुम घर जाओगे ? मगर तुम्हें तो अपने कॉलेज जाना है न !’’

‘‘हां, जाना तो था। लेकिन गुरनाम के बारे में सोच कर मन घबरा रहा है। जब तक उसे सकुशल न देख लूँ, मैं कॉलेज नहीं जा सकूँगा। जो कुछ भी यहां हो रहा है, उसके बाद तो एक पल को भी रुकने का मन नहीं कर रहा है।’’ विक्की ने जवाब दिया। फूफा भी उन दोनों की दोस्ती के बारे में जानते थे।

‘‘ठीक है घर ही लौट जाना। मगर आज तो तुम कहीं नहीं जा सकते। शहर में बड़ी गड़बड़ है। फिर कोई मोटर-गाड़ी भी नहीं चल रही।’’ फूफा जी ने उसे समझाया।

उनकी बात मानने के सिवा विक्की के पास और कोई चारा भी न था। वह मन मसोस कर बैठा रहा। उसका मन तो कर रहा था, काश उसके पंख उग आयें और वह उड़ कर अपने जिगरी दोस्त विक्की के पास पहुँच जाए....। उसने अपनी आँखें बंद कर लीं और सब कुछ भगवान पर छोड़ दिया, ‘‘हे ईश्वर , गुरनाम और उसके परिवार की रक्षा करना।’’

***

बोकारो से सैंकड़ों मील दूर राजधानी जाने के रास्ते में पड़ने वाला वह भी एक औद्योगिक नगर ही था। 31 अक्तूबर वाली रात उस फैक्ट्री में कुल 28 सिक्ख कामगार आये थे। नाईट शिफ़्ट के लिए फैक्ट्री में आने के बाद से अपने-अपने काम करने की जगहों पर उन सबों को ही बहुत डर लगा था। मजदूर के काम करने की जगह उसके लिए पूजा-स्थल होती है। जहाँ वह हर रोज सर नवा कर काम प्रारंभ करता है और फिर पूजा की तरह ही पूरे मनोयोग से काम करने में जुट जाता है। हर मजदूर के लिए काम करने की उसकी वह जगह बड़ी पवित्र होती है।

मगर उस रात उन सिक्खों को अपनी-अपनी पवित्र जगहों पर पहली बार भय लगा था। अपने आस-पास मंडराते कुछ गैर-सिक्खों की बातें उन्हें भयभीत करने वाली थीं। कुछ देर तक तो वे अपनी जगहों पर कसमसाते रहे, फिर जब भय उनकी सहने की सीमा पार करने लगा तो वे सभी चाय पीने के बहाने एक-एक कर फैक्ट्री की कैंटीन में जमा होते गए थे, सभी बेहद डरे, सहमे से। एक दूसरे के भयभीत चेहरों में, स्वयं के लिए हिम्मत तलाशते और निराश होते। उन भयभीत और निराश चेहरों में कभी-कभी कोई बोल उठता। उसकी आवाज़ बेहद धीमी होती, बिल्कुल फुसफुसाहट-सी। मगर वहां जुटे सभी सिक्खों के कान उस फुसफुसाहट को भी सुन लेते।

‘‘मेरी बीवी ने मना किया था, आज फैक्ट्री मत जाओ। मगर तब मुझे उसकी बात मूर्खतापूर्ण लगी थी।’’ एक फुसफुसाहट उभरी और फिर मौन पसर गया।

थोड़ी देर बाद उभरी दूसरी फुसफुसाहट ने भी पहली का समर्थन किया, ‘‘कमोबेश हम सबों के साथ भी ऐसा ही हुआ है।’’

जैसे कोई तारा टूटा हो, ‘‘....मगर तब हमने कहाँ सोचा था कि जिनके साथ सारी उम्र कंधे से कंधा जोड़ कर खटते रहे हैं, वे ही अचानक यूँ अजनबी बन जाएंगे ! आखिर हमारा दोष क्या है ?’’

उस सवाल के साथ ही मौन के काले, गहरे अंधकार में वे फिर से गोते लगाने लगे। लगभग सभी के सामने चाय के गिलास रखे थे। मगर वैसी हालत में उन्हें चाय पीने का होश कहाँ था ? उनके सामने पड़े गिलासों में चाय ठंढी हो रही थी।

तभी एक व्यक्ति ने कैंटीन-हाल में प्रवेश किया। वहाँ बैठे सिक्खों पर एक उचटती सी नजर डाल, वह कऊंटर की ओर बढ़ गया। उस व्यक्ति को वहाँ देख सिक्खों के बीच बेचैनी बढ़ गई। दरअसल वही व्यक्ति आज शाम के बाद से ही पूरी फैक्ट्री में हर जगह घूमता नजर आया था और उसके घूमने के बाद से ही फैक्ट्री में सिक्खों के खिलाफ बातें उग्रता से होने लगी थीं। अब उसे वहाँ आया देख कर सारे सिक्खों को तरह-तरह की आशंकाओं ने घेर लिया था।

भीतर आया वह व्यक्ति कऊंटर पर बैठे ‘कैंटीन-मैनेजर’ को बार-बार कुछ समझाने की कोशिश कर रहा था। मगर मैनेजर उसकी बातों से सहमत नहीं हो रहा था। थोड़ी देर बाद वह व्यक्ति बड़बड़ाता हुआ पैर पटकता बाहर चला गया। उसके चले जाने से वहाँ बैठे सिक्खों ने चैन की सांस ली।

एक फुसफुसाहट उभरी, ‘‘न जाने वहाँ कऊंटर पर क्या बातें हो रही थीं।’’

‘‘मुझे तो आसार कुछ अच्छे नहीं लगते।’’ दूसरे ने साथ दिया।

‘‘देखिए, आप लोग धैर्य से काम लें, घबराएँ नहीं। रात लगभग आधी बीत चुकी है। कुछ ही घंटों की बात है। सुबह शिफ़्ट बदलने तक हमें हिम्मत से काम लेना है, फैक्ट्री का गेट खुलते ही हम सब मुक्त हो जाएंगे।’’

वह बात सब को राहत देती लगी। इस बीच उन्होंने ध्यान नहीं दिया था कि कैंटीन के सारे नौकर एक-एक कर बाहर जा चुके हैं। उस बात का पता उन्हें तब चला जब ‘कैंटीन-मैनेजर’ के बाहर जाते ही एक झटके के साथ बाहर वाला दरवाजा बन्द हुआ। दरवाजा बन्द होने की ज़ोरदार आवाज के साथ ही सारे सिक्खों का ध्यान उस ओर गया। जल्द ही उन्हें वास्तविकता का अहसास हुआ कि वे सभी कैंटीन-हाल में किसी चूहेदानी में फंसे चूहों की तरह घेर लिये गए हैं।

... तो वह व्यक्ति इसी बात के लिए काऊंटर पर मैनेजर से उलझा था ?... अब हमारा क्या होगा ? बाहर जमा भीड़ हमारे साथ क्या करना चाहती है ? ढेर सारी आशंकाएं भीतर बैठे सिक्खों को मथने लगीं। जिसका जवाब उन्हें जल्द ही बाहर से उठते पैशचिक अट्टहासों से मिल गया।

‘‘सरदरवा सब बड़ा तेज बन रहा था। यहाँ एक साथ बैठ कर सोचा कि बच जाएँगे। सब एक साथ ही फंस गया। हा...हा...हा अब सब को बाहर से आग लगा कर एक ही साथ जला देंगे। कोई पूछेगा तो यही कहेंगे कि कैंटीन की भट्ठी में लगी आग से सब जल गया। ...हा....हा....हा।’’

अवश्यंभावी मृत्यु से सामना हो जाए तो मृत्यु का भय सहज ही समाप्त हो जाता है। उस अट्टहास को सुन कर कुछ वैसी ही बात कैंटीन के भीतर बैठे उन सिक्खों के अंदर भी उभरी।

‘‘अब आप लोग स्वयं ही तय कीजिए कि यहाँ चुपचाप बैठ कर जल मरना है या फिर बाहर निकल कर मौत से आँखें चार करनी हैं ?’’ तब तक उनके बीच होने वाली एक फुसफुसाहट ज़ोरदार गर्जना में बदल चुकी थी।

‘‘नहीं, नहीं। कायरों की तरह नहीं मरेंगे....।’’ कई स्वर एक साथ उभरे।

‘‘तो, फिर चलो !’’

वे सब कैंटीन के मुख्य द्वार की ओर झपटे। मगर यह क्या, दरवाजा तो बाहर से बन्द था। उन्होंने मिल कर ज़ोर लगाया लेकिन काफी प्रयत्नों के बाद भी वह ना खुला।

‘‘सब लोग ज़रा एक तरफ हो जाएँ, दरवाजा तोड़ना पड़ेगा।’’

दरवाजे के पास से भीड़ नियंत्रित होते ही दो-चार सिक्खों ने पास पड़े बेंच उठा लिए और दरवाजे पर प्रहार करने लगे। दरवाजा तो टस से मस न हुआ, परन्तु बाहर से उठती आग की लपटें उन्हें नजर आने लगीं।

उनके बीच अफरा-तफरी फैल गई। सभी सिक्ख एक साथ बंद दरवाजे पर टूट पड़े। मगर उनके प्रयासों का कोई वांछित परिणाम नहीं निकल रहा था। तभी बाहर किसी भारी ट्रक के रुकने की आवाज आई। उसके साथ ही फौजी बूटों की कड़कती आवाज़ें उभरने लगीं।

‘‘लगता है मिल्ट्री आ गई है।’’ उनके बीच उम्मीद की आवाज़ उभरी।

उनका अनुमान सही था। फौज आते ही कैंटीन को बाहर से आग लगाने वाली भीड़ देखते-देखते गायब हो गई। फौज के जवानों ने तुरंत ही आग पर काबू पा लिया। कैंटीन का दरवाजा तोड़ कर उन सिक्खों को बाहर निकाला गया। मौत के मुँह से सकुशल बच निकलने पर कई लोग फूट-फूट कर रोने लगे।

‘‘आप लोग जल्द से जल्द हमारे ट्रक पर चढ़ जाएं। फौजी अफसर ने उनको संबोधित किया। सारे लोग जल्दी-जल्दी ट्रक पर चढ़ने लगे। ट्रक पर चढ़ते सिक्खों ने महासूस किया कि आसपास फैले अंधेरे में, आग लगाने वाली भीड़ की आँखें भेड़ियों सी चमक रही हैं। उन आँखों में ठीक वैसे ही खूंखार भाव थे जो भेड़ियों की आँखों में अपना शिकार छिन जाने से आ जाते हैं... उन भेड़ियों को भी अपनी प्यास बुझाने के लिए जल्द से जल्द सिक्खों का खून चाहिए था।

ट्रक पर चढ़ते सिक्खों को उसी फौजी अफसर ने बताया था, ‘‘भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि हम समय पर पहुँच गए। हमें फैक्ट्री के भीतर से ही किसी ने फोन पर इस घटना की सूचना दी थी। निश्चय ही आप सब की किस्मत अच्छी है।’’

ट्रक एक झटके के साथ फैक्ट्री से बाहर निकल कर शहर की दो सिक्ख आबादियों, बर्रा और दबौली की ओर चल पड़ा। सभी खामोश थे, शायद उन्हें अभी भी अपने बच निकलने का विश्वास नहीं हो पा रहा था। थोड़ी ही देर में वह फौजी ट्रक गोबिन्द नगर की पीली कॉलोनी के सामने पहुँच कर रुक गया। वह भी सिक्खों की कॉलोनी थी। ट्रक के सारे सिक्खों को वहाँ उतार कर ट्रक आगे बढ़ गया। तुरंत ही पीली कॉलोनी के सिक्खों ने ट्रक से उतरे उन मजदूर सिक्खों को अपने संरक्षण में ले लिया। उस समय वे सुरक्षित थे ।

***

कमल

Kamal8tata@gmail.com