Aakhar Chaurasi - 17 in Hindi Moral Stories by Kamal books and stories PDF | आखर चौरासी - 17

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आखर चौरासी - 17

आखर चौरासी

सत्रह

अवतार सिंह जिस रफ्तार से कार ड्राइव कर रहे थे, उसमें वे सब सुबह छः बजे तक निश्चय ही धनबाद पहुँच जाते। मगर उनकी कार अभी ‘नया मोड़’ ही पहुँची थी कि पिछला पहिया पंक्चर हो गया। वहाँ से उनका घर तक का मात्र घंटे भर का सफर और बाकी था। अवतार सिंह ने नियंत्रण बनाये रखा और सावधानी से कार सड़क के बांयी ओर रोक दी। बगल में बैठा करमू बीच-बीच में झपकी ले लेता था, कार रुकते ही सजग हो कर उठ बैठा।

अवतार सिंह ने अपनी तरफ का दरवाजा खोल कर उतरते हुए बेटे को संबोधित किया, ‘‘लगता है पिछला पहिया पंक्चर हो गया। करमू उठ जल्दी से जैक निकालकर पहिया बदलो।’’

दूसरी तरफ का दरवाजा खोल करमू भी कार से नीचे उतर आया। कार के दोनों दरवाजे खुलते ही नवंबर वाली रात की तीखी ठंढी हवा पिछली सीट तक भी जा पहुँची। अवतार सिंह की पत्नी चरण कौर तथा बहू लाडो की भी नींद खुल गई।

चरण कौर ने चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘क्या बात है जी, गाड़ी क्यों रोकी ?’’

‘‘वो, पहिया पंक्चर हो गया है। अभी बदल कर चलते हैं।’’ अवतार सिंह ने उसे आश्वस्त करने के लिए उत्तर दिया।

करमू टार्च की रोशनी में कार के नीचे जैक लगा कर पहिया उठा रहा था जब अवतार सिंह की परेशान आवाज आयी, ‘‘अरे, स्टेपनी में तो जरा भी हवा नहीं है।’’

उनकी बात सुन कर करमू भी चौंका। जैक छोड़ कर वह तेजी से बाहर आया। स्टेपनी को देख कर उसने भी निराशा में सर हिलाया।

‘‘अब क्या होगा ?’’ अवतार सिंह ने आस-पास नज़रें दौड़ाईं।

कुछ दूर पर दुकानें थीं जिनके बाहर रखे पुराने टायरों के ढेर से यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता था कि वे पंक्चर बनाने वाली दुकानें हैं। उन्होंने स्टेपनी करमू को थमाते हुए कहा,‘‘जल्दी जा कर देखो शायद कोई मिस्त्री दुकान के अंदर ही सोया मिल जाए। दुगने-तिगुने पैसे भी माँगे तो दे कर स्टेपनी दुरुस्त करवा लाओ।’’

करमू स्टेपनी लुढ़काता तेजी से उधर बढ़ गया। परन्तु थोड़ी ही देर में वह उसी तरह स्टेपनी लुढ़काता वापस आया। स्टेपनी के साथ उतना लंबा चक्कर लगाने के कारण उसकी साँस फूल गई थी।

हाँफते हुए करमू ने बताया, ‘‘वहाँ पंक्चर बनाने वाली दो दुकानें हैं। लेकिन दोनों में ही बाहर से ताले लगे हैं। मैंने आवाज़ें भी दीं। मगर वहाँ कोई नहीं है।’’

‘‘अब क्या होगा ?’’ चरण कौर ने घबराते हुए पूछा।

अवतार सिंह कुछ देर वैसे ही खड़े सोचते रहे। फिर स्टेपनी और जैक डिक्की में रखते हुए बोले, ‘‘यहाँ नहीं रुका जा सकता। करमू चलो गाड़ी में बैठो, धीरे-धीरे निकलते हैं। पंक्चर में चलने से बस पहिया ही खराब होगा न !’’

उनकी कार फिर से चल पड़ी। परन्तु इस बार उसकी रफ्तार बहुत धीमी थी। अवतार सिंह बड़ी सावधानी से कार चला रहे थे। सड़क के छोटे-बड़े गड्ढों के बीच से वे बड़ी कुशलता से पंक्चर पहिये को निकालते चले जा रहे थे।

अचानक एक स्पीड ब्रेकर के पास पिछला पहिया ज़ोर से पटकाया। टन्...न् की आवाज के साथ ही वह पहिया बिल्कुल जाम हो गया। कार कुछ दूर तक उसी तरह घिसटने के बाद रुक गयी। अवतार सिंह और करमू ने जा कर देखा तो उनके होश उड़ गये। जो पहिया पंक्चर हुआ था उसका टायर और ट्यूब फट कर तार-तार हो चुके थे। गड्ढे में पटकाने के कारण अब उसका रिम टेढ़ा हो कर फंस गया था। वैसी स्थिति में कार का ज़रा भी चलना नामुमकिन था। वह सब देख कर उस ठंढी सुबह में भी अवतार सिंह के चेहरे पर पसीना आ गया था।

‘न जाने अब आगे कौन-सी अनहोनी होने वाली है ? एक के बाद एक अड़चनें आ रही हैं।’ उन्होंने सोचा। वे चिन्तित हो गए। अब न जाने धनबाद अपने घर कब पहुँच पाएंगे ? कार खराब होने के कारण वे सब अभी तो बोकारो की उस सड़क पर ही फँस कर रह गये हैं। हवा में ठिठुरन बढ़ रही थी, वापस अपनी कार में बैठ कर उन्होंने दरवाजे बंद कर लिये।

‘‘अब क्या होगा ?’’ चरण कौर का चिन्तित स्वर कार में गूँजा।

‘‘होना क्या है, थोड़ी देर में दिन निकलने वाला है। जो भी पहली सवारी गाड़ी धनबाद को जाती मिलेगी, उसमें तुम तीनों को भेज कर, मैं कार बनावा कर बाद में आ जाऊंगा।’’

‘‘नहीं पापा जी, मैं आपके साथ रुकूंगा।’’ करमू बोल पड़़। चरण कौर भी उनकी बात से सहमत होती नहीं दिखी।

अवतार सिंह ने उन्हें समझाते हुए कहा, ‘‘घबराओ मत, रब्ब ते भरोसा रखो। सब ठीक हो जाएगा। तुम सब का धनबाद पहुँचना जरुरी है।’’

मगर उनके समझाने पर भी सब के मन अशांत ही बने रहे। कार के भीतर व्याप्त सन्नाटे में केवल उनकी साँसों की ही आवाज़ें गूँज रही थीं....। क्या पता उनकी वो साँसें कब तक चलने वाली थीं ?

आमतौर पर सवेरे पाँच बजे से ही बोकारो और धनबाद के बीच चलने वाली बसें शुरू हो जाती हैं लेकिन उस दिन काफी दिन चढ़ने के बाद भी कोई गाड़ी उधर से नहीं निकली थी।

कुछ देर पहले अवतार सिंह और करमू कार से बाहर निकल आये थे। मगर जब उन्हें लगा कि आस-पास से गुजरने वाला हर व्यक्ति उन्हें अजीब-सी नज़रों से घूरता गुजर रहा है तो वे वापस कार में घुस कर बैठ गये। आस-पास की दुकानें भी काफी कम खुली थीं।

‘‘हम कब तक यूँ ही बैठे रहेंगे ? मैं जा कर किसी पंक्चर बनाने वाले को देखता हूँ।’’ कह कर करमू कार से नीचे उतर गया।

हालाँकि कोई नहीं चाहता था, करमू जाए। मगर इसके सिवा और कोई चारा भी नहीं था। कुछ तो करना ही था, ऐसे कब तक बैठे रहते ?

‘‘देखना अगर कोई न भी मिला तो देर न लगाना। जल्दी लौट आना।’’ अवतार सिंह ने हिदायत दी।

....और करमू अपनी ओर का दरवाजा खोल कर चला गया।

उसने लौटने में सचमुच देर नहीं लगाई थी....। वह आग के पैरों पर दौड़ता हुआ वापस लौटा था। वह चीख रहा था। उसके गले में जलते हुए टायर पड़े थे। करमू की दिल दहलाती चीखों के पीछे वहशियों की एक भीड़ उत्सव मनाती आ रही थी। अपने कृत्य का गर्व करती वह भीड़ उल्लास में भरी चली आ रही थी।

अवतार सिंह ने वह मंजर देखा तो तेजी से कार से निकल कर बदहवास से अपने बेटे की ओर दौड़े। मगर तब तक उस भीड़ ने उन्हें और जलते-तड़पते करमू के साथ-साथ कार को भी घेर लिया था।

एक ने कहा, ‘‘देख बे सरदार कित्ता मस्त जल रहा है।’’

उसके साथी ने हंसते हुए कहा, ‘‘ई स्साला सब खूब खा-पी कर चर्बिया जाता है, तभ्भी तो इतना मस्त जल रहा है।’’

देखते ही देखते कुछ लड़कों ने चीखती-चिल्लाती लाडो को कार से खींच कर बाहर निकाल लिया। चरण कौर भी चीखते हुए उसे बचाने का असफल प्रयास करती लाडो के पीछे झपटी। मगर भीड़ ने उसे वापस कार में ठेल कर कार का दरवाजा बाहर से कुछ फंसा कर बंद कर दिया। प्रेतों सी उछलती-कूदती भीड़ बड़ी तीव्र गति से अपनी कर्रवाई कर रही थी। कार को उसी की टंकी से निकाले पेट्रोल से नहला दिया गया था। अनजानी भीड़ के हाथों पिटता-गिरता निरपराध अवतार सिंह कभी खुद को बचाता, कभी अपने परिवार को बचाने का प्रयास करता। उधर भीड़ ने कार में आग लगा दी थी। कार की आग में चरण कौर भी करमू की तरह जिन्दा जलने लगी। कुछ लड़के लाडो को खींचते हुए पास ही पुटुस की झाड़ियों की ओर ले जा रहे थे।

अवतार सिंह कभी करमू की ओर दौड़ते, कभी पत्नी की ओर तो कभी अपनी फूल-सी बहू लाडो की ओर ..... मगर वे कहीं ना पहुँच पाते। हर तरफ से भीड़ उन पर प्रहार कर उन्हें नीचे गिरा देती। वे गिरते, फिर उठते.... उठ-उठ कर फिर गिरते... और गिर-गिर का फिर उठते....। मगर कहीं ना पहुँच पाते.....।

जल्दी ही कुछ लोगों ने पकड़ कर जलते टायरों का एक हार उनके गले में भी डाल दिया। पत्नी और बेटे की ही तरह अब अवतार सिंह भी जिन्दा जलने लगे थे। जलते, भागते, चीखते-चिल्लाते उन लोगों को बचने का कहीं कोई भी स्थान न था। उन्हें चारों तरफ से घेरे खड़ी भीड़ तालियाँ पीट कर तमाशा देख रही थी। जब तक वे भाग सके, उस घेरे में ही इधर-उधर भागते रहे। फिर वे दोनों वहीं गिर पड़े। अभी कुछ देर पहले तक के जिन्दा इंसान देखते ही देखते सड़क पर पड़ी राख में तब्दील हो गए थे.... उनका संघर्ष समाप्त हो चुका था। संघर्ष तो पुटुस की झाड़ियों के पीछे तड़पती लाडो का भी समाप्त हो चुका था। उसे दबोचे, नोचते-खसोटते दरिंदों ने लाडो का फूल-सा शरीर रौंद डाला था। उसका निर्वस्त्र, बेजान शरीर जलती कार पर उछाल, वे लड़के भी भीड़ के साथ-साथ अगले शिकार की तलाश में आगे बढ़ गये थे। वे लड़के अब आपस में इस बात की चटखारों के साथ चर्चा कर रहे थे कि उस फूल से शरीर के साथ किसने-किसने और कैसे-कैसे वह सब किया...।

दूर जाती भीड़ बीच-बीच में नारे लगाती जा रही थी-

‘‘खून का बदला.... खून से लेंगे....’’

उनके वे नारे टी.वी. वाली उस भीड़ की याद दिला रहे थे। लगता था टी.वी. वाली वह छोटी-सी भीड़ वहां से निकल कर अब विकराल हो सड़कों पर फैल गई है। अपने देश के एक प्रसिद्ध नगर बोकारो में निरपराध सिक्खों का कत्लेआम पूरे उफान पर था।

***

कमल

Kamal8tata@gmail.com