Aakhar Chaurasi - 15 in Hindi Moral Stories by Kamal books and stories PDF | आखर चौरासी - 15

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आखर चौरासी - 15

आखर चौरासी

पंद्रह

जलती दुकानों से उठता टुकड़ा-टुकड़ा धुंआ इकट्ठा हो कर पूरे आकाश को काला कर रहा था। उस कालिमा को देख हिरनी सी घबराई सतनाम की पत्नी ने उसे झिंझोड़ कर उठाया। सतनाम ने सूख गये बालों को लपेट कर जूड़ा बांधा और सर पर जल्दी-जल्दी पटका लपेटने लगा। छत के दूसरे कोने पर खड़े हरनाम सिंह और उनकी पत्नी भी बाज़ार की तरफ देख रहे थे। उन्हीं के पास सतनाम की बहन मनजीत कौर अपनी गोद में पांच वर्षीय बेटी डिम्पल को उठाये खड़ी थी। सतनाम के जीजाजी तो उसकी शादी के तुरंत बाद ही वापस लौट गये थे। मगर मनजीत कौर को हरनाम सिंह ने कुछ और दिनों के लिए रोक लिया था। सतनाम भी जा कर उन सब की बगल में खड़ा हो गया।

‘‘आखिर गड़बड़ शुरू हो ही गई।’’ हरनाम सिंह चिन्तित होते हुए बोले। उनकी पत्नी सुरजीत कौर ‘वाहे गुरू.... वाहे गुरू’ का जाप कर रही थी।

तभी सतनाम की भटकती नज़र अपनी दुकान वाले रास्ते पर पड़ी। क्षण भर को वह स्तब्ध रह गया।

‘‘अरे वो देखिये, कोई हमारा सोफा लिये जा रहा है !’’ उसने चीखते हुए कहा।

तभी पीछे से आते कुछ और लोग उन्हें नजर आये। किसी के हाथ में रजाई, किसी के हाथ में तकिया, किसी के सर पर तेल का पीपा तो किसी की पीठ पर राशन के सामान वाली कोई बोरी लदी थी।

दिन-दहाड़े आँखों के सामने ही नई बहु के दहेज का सामान और दुकान लूट कर लोगों की भीड़ ढोती जा रही थी। सतनाम की नई-नवेली दुलहन अपना सामान यूँ लुटता देख, धाड़ें मार कर रोने लगी। सुरजीत कौर लपक कर उसके पास पहुँची और उसे गले से लगा कर बोली, ‘‘ना बहु रोना नहीं। जो किस्मत में लिखा है, वो तो होकर रहेगा। सामान के लिए नहीं रोते.... हौसला रखो....।’’

सुरजीत कौर तो उसे हौसला रखने को कह रही थी, मगर स्वयं उसका मन घबरा रहा था। वह बेचैनी से कभी बहु को देखती, कभी बेटे को तो कभी खामोश खड़े अपने पति को।

अचानक सतनाम चीखता हुआ सीढ़ियों की ओर लपका, ‘‘मैं उन्हें नहीं छोड़ूँगा। एक-एक का खून पी जाउंगा।’’

हरनाम सिंह उसके पीछे दौड़े, ‘‘सतनाम सुनो, मैं कहता हूँ रुक जाओ....’’

जब तक हरनाम सिंह नीचे पहुँचते, सतनाम अपने कमरे से कृपाण निकाल चुका था। उसके पिता ने सतनाम को कस कर पकड़ लिया, ‘‘यह तुम क्या कर रहे हो बेटा? होश की बात करो। वहाँ दंगाइयों की भीड़ में तुम अकेले क्या कर लोगे ? मैं तो वाहे गुरू का शुक्र मना रहा हूँ कि तुम दोपहर के बाद दुकान पर नहीं गए। अगर तुम वहाँ दुकान पर होते तो इस वक्त न जाने क्या अनर्थ हो जाता। तुम्हें मेरी कसम घर से बाहर कदम नहीं रखोगे।’’

हरनाम सिंह ने उसे खींच कर सोफे पर बिठाया और दरवाजा भीतर से लॉक कर छत की तरफ लपके। अभी वे पहली सीढ़ी पर ही थे कि उपर से बहु का हाथ थामे धीरे-धीरे नीचे आती सुरजीत कौर नज़र आई, ‘‘अब वह सब देखा नहीं जाता। ...कितनी बेशर्मी से वहाँ लोग लूट-पाट में मस्त हैं।’’

‘‘विश्वास नहीं होता, जहाँ मैंने अपनी पूरी जिन्दगी बिता दी... जहाँ हर किसी से मेरा दोस्ताना रहा है, वहीं लोग इस तरह लूट-पाट की बेइज्जत करेंगे...।’’ हरनाम सिंह सोफे पर निढाल पड़े बड़बड़ा रहे थे। उनकी सूनी-सूनी आँखें शून्य में अटकी न जाने क्या देख रही थीं।

उधर जो भीड़ सतनाम की दुकान तथा घरों का सामान लूट रही थी, उसमें मुख्य भूमिका निभाते हरीष बाबू और गोपाल चौधरी के साथ नेताजी का प्रिय नौकर सुखना भी मौजूद था।

‘‘जानते हैं गोपाल बाबू, यही दुकान तो सबसे बड़ा ‘हर्डल’ था।’’ हरीष बाबू ने पुलकित स्वर में गोपाल चौधरी को सम्बोधित किया।

‘‘आप ठीक कह रहे हैं। हरनाम सिंह पर हाथ डाल लेने के बाद इस इलाके में कोई सिक्ख ऐसा नहीं है, जिस पर हमलोग हाथ न डाल सकें।’’ गोपाल चौधरी ने उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए जवाब दिया, ‘‘अपनी बिरादरी में उनकी काफी पूछ और इज्जत है। यहाँ पर लूट मचा देना ही हमारी सबसे बड़ी जीत है।’’

उनकी बात-चीत में सुखना ने पास सरक कर विघ्न डाला, ‘‘मालिक ने चीनी ले आने को कहा है !’’

‘‘अरे तो चीनी का बोरा उठा न, इधर-उधर क्या देख रहा है ?’’ हरीष बाबू ने उसे ललकारा।

‘‘हुज़ूर, बोरा तो हम पहले ही छाँट लिए हैं। जरा हमरा सायकिल पर अलगा (चढ़ा) दीजिए न।’’ सुखना ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा।

‘‘चलो-चलो।’’ कहते हुए हरीष बाबू और गोपाल चौधरी उसकी मदद करने में जुट गये। आखिर उनके नेता जी का आदेश जो था।

सायकिल पर चीनी का बोरा लाद कर सुखना नेताजी के घर की ओर निश्चिंतता से चल पड़ा, मानों वह चीनी खरीद कर ला रहा हो।

चीनी का बोरा लदवाने के बाद हरीष बाबू जब दुकान के पीछे वाले कमरों की ओर गए तो उन्होंने देखा दो लड़के वहाँ खड़े नये स्कूटर को चालू करने का प्रयास कर रहे हैं। वहाँ मची अफरा-तफरी में उन्हें स्कूटर की चाबी नहीं मिल रही थी।

‘‘ये क्या कर रहे हो ?’’ हरीष बाबू ने उन्हें टोकते हुए पूछा।

‘‘देख नहीं रहे हैं क्या ? स्कूटर हम लोग ले जाएंगे।’’ उनमें से एक लड़का, जो दूसरे से ज्यादा तेज-तर्रार लगता था, बोला।

‘‘तुम लोगों का दिमाग खराब हो गया है क्या ?’’ हरीष बाबू झल्लाये, स्कूटर ले जाओगे तो तुम दोनों को पुलिस बाद में आसानी से धर दबोचेगी। ऐसी चीजें उठाओ जिनमें कोई खतरा न हो!’’

हरीष बाबू की गुरू-मंत्र देती बात तब तक उन दोनों की समझ में आ गई थी।

‘‘तब इसका क्या करें ?’’ एक ने पूछा।

‘‘करना क्या है ! जिस चीज को ले जाने में कोई खतरा हो उसे यहीं पड़ा रहने दो। अन्त में यहाँ आग तो लगानी ही है। उसी में सब जल कर खाक हो जाएगा। स्कूटर अगर हम नहीं ले जा सकेंगे तो सरदारों के चढ़ने लायक भी नहीं छोड़ेंगे...।’’ हरीष बाबू हो...हो कर हँसने लगे।

गोपाल बाबू ने छत पर लगे पंखे अपने कब्जे में कर लिए, ‘‘ये तो अब हमारे घर में ही चलेंगे।’’

सभी लुटेरे वहां का सामान समेटने में व्यस्त थे। कुछ देर पहले तक वहाँ के सामान से भरे कमरों की दीवारों पर खूबसूरत पेंटिंग्स थीं। सजा संवरा वही घर अब अपने खाली कमरों और सूनी दीवारों से उस औरत की तरह देख रहा था, जिसकी आबरू उस भीड़ द्वारा लूट ली गई हो.... मगर उस बात से बेखबर भीड़ पैशाचिक अट्टाहासों में मस्त थी।

इधर अपने घर में सतनाम की पत्नी गश खा रही थी और उसके दहेज का सामान दूसरों के घरों में पहुँचता जा रहा था। सोफा-सेट का सेंटर टेबल किसी के घर गया तो कुर्सी किसी और के... रजाइयाँ किसी के घर तो तोषक किसी और के ... टु-इन-वन प्लेयर किसी के घर तो कैसेट किसी और के.....

जब सारी दुकान और पीछे वाले कमरे लगभग खाली हो गये, तब उन लोगों ने बड़े आराम से वहाँ आग लगा दी। फिर वह भीड़ किसी और को लूटने के लिए आगे बढ़ गई।

***

लगभग उसी समय एक और भीड़ सरदार जगीर सिंह के दवाखाने में धड़धड़ाती हुई घुसी थी। वहाँ पर कोई भी अपने काम वाली चीज नहीं देख, वह भीड़ बहुत ही उग्र हो गई। उसने वहाँ तोड़-फोड़ शुरु कर दी। अलमारियों के शीशे तोड़ डाले, अन्दर रखी शीशियाँ फर्श पर पटक कर फोड़ डालीं। दूसरी सारी दवाइयाँ बिखेर दीं।

वह समय जगीर सिंह के आराम करने का था। वे भीतर अपने बिस्तर पर लेटे थे। शोर-गुल सुन कर बाहर अपने दवाखाने में निकल आए। अपने दवाखाने का वह हाल देख कर वे बदहवास से चीख पड़े।

‘‘अरे लोगों ये क्या अनर्थ कर रहे हो। छोड़ दो इन दवाओं को... मैं अपने मरीजों का इलाज कैसे करुंगा...?’’

जगीर सिंह की आगे की बातें उनके गले में अटक कर रह गईं। उन्होंने देखा एक भयानक से चेहरे वाले ने उनकी किताब उठा ली थी। वही किताब जो उनको हकीम सा’ब ने दी थी। जिसमें बेशुमार दवाइयों के नुस्खे थे। उस किताब से वे न जाने कितने मरीजों की बीमारियाँ ठीक कर उनके दुखों से मरीजों को निजात दिला चुके थे।

‘‘नहीं, उस किताब को हाथ मत लगाना....!’’ चीखते हुए जगीर सिंह उस लड़के की ओर लपके।

जैसे ही वे उस लड़के के पास पहुँचे, उस लड़के ने अपनी जोरदार लात घुमा कर उनके सीने पर जड़ दी। जगीर सिंह के लिए वह प्रहार असहनीय था। वे लड़खड़ा कर गिर पड़े। उनकी पगड़ी सर से छिटक कर दूर जा गिरी और माथा दीवार से जा टकराया। दर्द भरी एक जोरदार चीख उनके गले से निकल गई। उनका सर फट चुका था। गाढ़ा लाल खून माथे से बह कर उनकी आँखों पर टपकते हुए सफेद दाढ़ी को भिंगोने लगा। मगर उस वक्त उन्हें अपनी चोट का जरा भी ध्यान न था। उनकी जान तो उस किताब में अटकी थी। वे उठ कर फिर से उस लड़के की ओर लपके।

‘‘मत छूओ उसे... मेरी किताब लौटा दो.... वह किताब मेरी जिन्दगी है....’’

एक बार फिर उस लड़के ने फिल्मी अंदाज में उन पर वैसी ही लात से प्रहार किया। जगीर सिंह दुबारा गिर पड़े। माथे से गिरता खून पूरी रफ्तार से उनके चेहरे और दाढ़ी को रंगता, बहा जा रहा था। उनकी सफेद दाढ़ी अब लाल नजर आ रही थी। दूसरी तरफ वह लड़का हो...हो कर हंसे जा रहा था।

‘‘किताब चाहिए ? आओ बढ़ो लो अपनी किताब.... लो...लो...’’ उसने किताब उनकी ओर बढ़ाई।

उस लड़के को वह सब एक तमाशा लग रहा था। उसे जरा भी ख्याल न था कि जिस आदमी पर वह लातें चला रहा ...जिसकी दाढ़ी बहते खून से लाल हो गई है, उसकी दाढ़ी का असल रंग सफेद है। अपनी लात के पहले प्रहार से ही वह जिसके सर से वह पगड़ी दूर उछाल चुका है, वह आदमी उसके बाप की उम्र का है। उस लड़के को ऐसा कोई ख्याल नहीं आ रहा था। वह तो अपने खेल में मग्न था। भीड़ में शामिल और लोग भी अब उस खेल का आनंन्द लेते उन्हें घेर कर खड़े हो गये थे।

जगीर सिंह ज़ोर लगाकर बड़ी कठिनाई से अपने पैरों पर धीरे-धीरे खड़े हुए और लड़खड़ाते कदमों से उस लड़के की ओर फिर बढ़े, ‘‘मुझे दे दो.... मेरी किताब मुझे दे दो...’’

वह लड़का किताब उनके सामने लहराते हुए बोला,‘‘हाँ... हाँ आओ, ले लो अपनी किताब।’’

वह लड़का किताब उनके सामने लहराते हुए उल्टे पैर दवाखाने से बाहर निकलने लगा। सम्भवतः वह ये तमाशा, अब बाहर खुली हवा में दिखाना चाहता था। जगीर सिंह भी लड़खड़ाते कदमों से धीरे-धीरे चलते उसके पीछे दवाखाने से बाहर निकल आये।

उस लड़के ने तब अपने साथियों को इशारा किया। इशारा पाते ही उन लड़कों ने दवाखाने में आग लगा दी। आग की लपटें उठीं तो जगीर सिंह ने तेजी से पलट कर पीछे देखा। वहाँ उनका छोटा-सा संसार उनकी आँखों के सामने जल रहा था।

‘‘आओ....आओ, अपनी किताब नहीं लोगे ?’’ उस लड़के ने उन पर ठहाका लगाया, ‘‘क्या चाहिए, किताब या अपना दवाखाना ? हा....हा...!’’

वह लड़का पैशाचिक हंसी हंसता उनके सामने खड़ा था। जगीर सिंह ने एक नजर उस लड़के पर डाली फिर पलट कर सूनी-सूनी आँखों से अपने जलते हुए घर को देखा। एक पल की ख़ामोशी के बाद वे धीरे से उस लड़के की ओर पलटे, उनकी आँखों में गहरा दर्द था,‘‘तुम लोगों ने मेरा सब कुछ जला दिया। अब तो मेरी किताब मुझे दे दो....!’’ उनकी आवाज़ का दर्द और सूनापन उन हुड़दंगियों के लिए कोई मायने नहीं रखता था।

किताब लिए वह लड़का घूम कर जलती आग के पास जा पहुँचा। इशारा पा कर उसके दो साथियों ने कस कर जगीर सिंह को पकड़ लिया।

‘‘किताब चाहिए तुम्हें....? ये लो किताब ...ये लो....!’’ कहते हुए उस लड़के ने किताब से कुछ पन्ने फाड़े और दवाखाने की जलती आग में झोंक दिये।

‘‘नहीं, नहीं ऐसा मत करो..!’’ जगीर सिंह तड़प उठे। उन्होंने छूटने का प्रयास किया, मगर असफल रहे। कहाँ तो उन्हें पकड़े जवान लड़के और कहाँ उनका बूढ़ा शरीर। उन लड़कों की पकड़ में वे केवल मचल कर रह गये।

‘‘आओ... आओ ले लो अपनी किताब... हा....हा....हा।’’ वह लड़का बोलता जा रहा था और किताब के पन्ने फाड़-फाड़ कर आग में झोंकता जा रहा था।

उधर छटपटाते जगीर सिंह पूरी ताकत से चीखे जा रहे थे, ‘‘नहीं...नहीं, मत जलाओ! मेरी किताब मुझे दे दो....! मैं अपने मरीजों का इलाज कैसे करुँगा....? नहीं नहीं, मत जलाओ... मत जलाओ...!’’

मगर उनकी चीखें उन वहशी लड़कों के शैतानी अट्टहासों तले पिस कर दम तोड़ रहीं थीं। चीखते-चीखते उनकी आँखें उबल पड़ीं और वे उन लड़कों की बाँहों में झूल गये। लड़कों ने उनके बेहोश शरीर को मृत जान कर वहीं पटक दिया। किताब पकड़े लड़के ने एक झटके से हाथ में पकड़ी किताब उछाल कर आग के हवाले की और हंसते हुए भीड़ में शामिल हो गया, भीड़ चीखती-चिल्लाती आगे की ओर बढ़ गयी। यह पता नहीं चल रहा था कि वह भीड़ किसी के शोक में चीख रही है अथवा लूट के उल्लास में !

जगीर सिंह का बेहोश जिस्म वहीं पड़ा रहा... सामने उनका दवाखाना और घर जले जा रहे थे। उसी आग में जल रही थी वो किताब, जिसे ताउम्र जगीर सिंह अपने सीने से लगाए रहे थे।

***

कमल

Kamal8tata@gmail.com