The Author Prabodh Kumar Govil Follow Current Read प्रकृति मैम - एक लड़की को देखा तो कैसा लगा By Prabodh Kumar Govil Hindi Biography Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books પ્રિય સખી નો મિલાપ આખા ઘર માં આજે કઈક અલગ જ વાતાવરણ ઉભુ થયુ છે સામન્ય રીતે ઘરની... ધ્યાન અને જ્ઞાન भज गोविन्दम् ॥ प्राणायामं प्रत्याहारं नित्यानित्य विवेक... સંઘર્ષ - પ્રકરણ 11 સિંહાસન સિરીઝ સિદ્ધાર્થ છાયા Disclaimer: સિંહાસન સિરીઝની તમા... ફરે તે ફરફરે - 37 "ડેડી તમે મુંબઇમા ચાલવાનુ બિલકુલ બંધ કરી દીધેલુ છે.ઘરથ... પ્રેમ સમાધિ - પ્રકરણ-122 પ્રેમ સમાધિ પ્રકરણ-122 બધાં જમી પરવાર્યા.... પછી વિજયે કહ્યુ... Categories Short Stories Spiritual Stories Fiction Stories Motivational Stories Classic Stories Children Stories Comedy stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Moral Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Thriller Science-Fiction Business Sports Animals Astrology Science Anything Crime Stories Novel by Prabodh Kumar Govil in Hindi Philosophy Total Episodes : 21 Share प्रकृति मैम - एक लड़की को देखा तो कैसा लगा (4) 2.6k 10.7k 1 4.एक लड़की को देखा तो कैसा लगामैं जब भी छुट्टी में घर जाता तो उस लड़की से मिलना होता। अपने स्कूल के दिनों में, कॉलेज के दिनों में भी हम मिलते रहे थे। हम किसी भी विषय पर बात कर लेते। हम साथ में फ़िल्म भी देख लेते। मैं कभी भी उसके घर चला जाता। वो कभी भी मेरे घर चली आती। हम दोनों साथ मिल कर सड़क पर घूमने चले जाते।मैं जब उसके घर जाता तो अभिवादन, नमस्ते सबसे होती। घर परिवार और दुनियादारी की बातें सबसे होती थीं। लेकिन फ़िर बात स्कूल,कॉलेज, यूनिवर्सिटी, कैरियर, नौकरी, शहर पर खिसकती जाती और मैं देखता कि घर के सब लोग धीरे- धीरे अपने अपने कामों में लगते चले जाते। हम दोनों अकेले रह जाते।वो मेरे घर आती तो घर पर भाई ,बहन, मां,पिताजी सबसे बात करती,सब को यथायोग्य अभिवादन करती, अपने समाचार देती, उनके समाचार लेती, और फ़िर धीरे धीरे बात स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, विषयों, कोर्सेज, कैरियर,गांव की ओर खिसकती चली जाती। सब अपने- अपने सरोकारों में लगते चले जाते और हम दोनों अकेले रह जाते।वो मेरे यहां आती तो मैं उसे छोड़ने उसके साथ उसके घर तक जाता।मैं उसके यहां जाता तो वो मुझे सी- ऑफ करने मेरे साथ आती और बातें करते- करते मेरे साथ मेरे घर तक चली आती।लेकिन हम आग और घी की तरह कभी नहीं मिले। हम दूध और पानी की तरह भी कभी नहीं मिले। दूध का दूध और पानी का पानी ही रहा।सड़क पर मेरे दोस्त मिल जाते तो हाय- हैलो करके हमें छोड़ कर आगे बढ़ जाते। उसकी सहेलियां रास्ते में मिलती थीं तो मुझसे हाल- चाल पूछ कर जानबूझ कर पीछे रह जाती थीं।हम चले जाते। हमारे हवन की समिधा कभी जैसे बीतती ही न थी।छुट्टियां बीत जाती थीं और हम अपनी अपनी राह पकड़ लेते थे।मैंने कभी उसका हाथ भी नहीं पकड़ा। उसने मुझे कभी गौर से भी नहीं देखा।मैंने कभी उसका इंतजार भी नहीं किया, उसने मुझसे कभी आने को भी नहीं कहा।हम लोग संजीव कुमार की फिल्मों की तरह मिलते थे। कभी चर्चा में बुराई- भलाई करने के लिए कोई संजीव कुमार का नाम नहीं लेता था। कोई संजीव कुमार का नाम सुनकर फ़िल्म देखने का प्लान नहीं बनाता था। कोई संजीव कुमार की फ़िल्म का इंतजार नहीं करता था। किन्तु जब कभी भी, कहीं भी, किसी भी कारण से फ़िल्म देखने चले जाएं और अगर उसमें संजीव कुमार हो तो फ़िल्म अच्छी लगती थी।मैं जानता हूं कि संजीव कुमार के उदाहरण से नई पीढ़ी कुछ नहीं समझेगी। लेकिन मैं ऐसा जोखिम भी नहीं लूंगा कि नई नस्ल मेरी बात ही न समझे। इसलिए दूसरे उदाहरण से समझाऊंगा।नई नस्ल का कोई बाशिंदा यदि ये दास्तान पढ़ रहा है तो मैं ये कहूंगा कि हम इस तरह मिलते थे कि यदि वो कहीं दिख जाए तो उससे बात करना मेरी ड्यूटी हो,और अगर मैं उसे कहीं मिल जाऊं तो मुझसे बात करना उसका कर्तव्य हो। यदि एक दूसरे को न दिखें तो दोनों आज़ाद!इस रिश्ते में जवान लड़के और लड़की वाली कोई बात नहीं, बल्कि दो व्यक्तियों के एक साथ होने के अहसास होते थे। दो ऐसे व्यक्तित्व जो एक से विचार रखते हों,एक दिशा में देखते हों,एक तरफ सोचते हों।छुट्टियां बीतते ही जब मैं वापस अपने नौकरी के स्थान पर आया तो इसी लड़की के हाथ से लिख कर भेजे गए पत्र के मायने बदल गए।इसी पत्र के लिफाफे को देख कर पोस्टमास्टर साहब डाक जल्दी भेजते,इसी लिफाफे को देखते ही वैद्य जी चाय मांगते,और इसी लिफाफे को देख कर रात को मेरी बगल में चड्डी पहन कर सोए भरत, राजेन्द्र, गजेन्द्र या नरेश मुझसे कहते- अब तो आप हमको भूल जाओगे भैया।और मैं? मैं उन्हें और अपने आप को समझाता कि ऐसा कुछ नहीं होगा। हुआ भी तो इतनी जल्दी नहीं होगा।और एक दिन मुंबई से आने वाले नीले लिफाफे के साथ ही मेरे घर से भी एक पत्र आ गया कि मैं अपनी सगाई के लिए छुट्टी लेकर घर आ जाऊं।मुझे नहीं मालूम कि इस सूचना से मैं खुश हुआ या चिंतित, लेकिन मैं किसी अदृश्य शक्ति के हाथों मंत्रमुग्ध सा होकर छुट्टी लेकर जयपुर की ट्रेन में बैठ गया।ऐसा नहीं था कि मुझसे पूछे बिना ही ये सब हो गया हो, पर ये कैसे हुआ, आपको बताता हूं।मेरे माता- पिता और लड़की के माता- पिता के बीच बात हुई। मेरे पिता ने सीधे मुझसे कुछ न पूछ कर मेरी मां के माध्यम से इस बारे में मुझसे मेरी राय जाननी चाही। मेरी मां के पूछने पर मैंने कहा कि अभी मैं अपनी परीक्षा की तैयारी कर रहा हूं और जब तक मुझे पूरी तरह सफ़ल होकर मनपसंद पद नहीं मिल जाता तब तक तो मैं शादी की कोई बात भी नहीं करना चाहता लेकिन इस लड़की में कोई भी बात ऐसी नहीं है कि शादी के लिए उसके घर से आए प्रस्ताव का उत्तर "ना" में दिया जा सके।मेरी इस डिप्लोमेसी से घर का वातावरण उदासीन सा हो गया। मेरे पूरे परिवार ही नहीं, बल्कि पूरे खानदान में ये पहला मौक़ा था कि किसी लड़की का फोटो,जन्मकुंडली, बायोडाटा न आया हो, घरवाले लड़की देखने न गए हों, लड़की के घर के ड्राइंग रूम में छत्तीस व्यंजनों के साथ चाय- पानी न पिया गया हो, पिता, माता, बुआ, फूफा, मौसा, मौसी, ताऊ, ताई, चाचा, चाची, मामा, मामी लड़की के घर की देहरी पर खातिर - तवज्जो करवा कर न आए हों, पंडितों ने गुण- अवगुण न तौले हों, पत्री- तिथियां न देखी गई हों, भाई- बहनों, जीजा,भाभी सबकी स्कूल, कॉलेज, दफ़्तर की छुट्टियों, परीक्षाओं का कैलेंडर न देखा गया हो, शहर के मैरिज हाल की उपलब्धता न जांची गई हो, शुभ - अशुभ मुहूर्त न परखे गए हों और एक लड़का व लड़की घर बसाने निकल पड़े हों।वो लड़का और लड़की भी ऐसे , जिनका ये ठिकाना तक न हो कि ये कौन सी डिग्रियां लेंगे,कौन सी नौकरी करेंगे, कौन से शहर में बसेंगे।लोग तो ऐसे मौकों पर देवताओं तक को साधते हैं, दिवंगत पुरखों तक की आशीष लेते हैं, और हम थे कि औरों को साधना तो दूर खुद लड़खड़ाए हुए थे।फिर भी सगाई हो गई।ऐसा कोई अभिलेख मेरे पास नहीं है जिससे मैं आपको ये बता सकूं कि इस सादा समारोह में कौन खुश था ! लेकिन ये कह सकता हूं कि ये मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। दोनों के ही माता-पिता ने हमारी इस इच्छा का मान रखा था कि हमें अपने कैरियर के मसले को सुलझाने के लिए पर्याप्त मनचाहा समय मिले। इसलिए ये कहा गया कि अभी केवल सगाई करके रिश्ता पक्का किया गया है, बाक़ी शादी बाद में तभी होगी जब हम चाहें। इसके लिए एक, दो या तीन साल की भी कोई सीमा नहीं थी।सगाई के लड्डू खाकर सब फ़िर से अपने- अपने कामों में लग गए और हम दोनों भी अपने- अपने ठीहे ठिकाने आ गए।फ़िर वही रूटीन। लड़की मुंबई के अपने संस्थान के हॉस्टल में और मैं गांव के अपने छोटे से घर में।लेकिन दुनिया इतनी आसान नहीं है कि यहां कुछ न करो तो कुछ न हो।जलती गैस के पास खड़े होकर भी अगर खयालों में डूब जाओ तो दूध उफ़न कर फ़ैल जाता है।मैंने पिछले दिनों अफ़सरी की जो परीक्षाएं दी थीं, उनमें से एक का रिजल्ट आ गया। इंटरव्यू के लिए मेरा सेंटर मुंबई आया।मैं मुंबई जाकर इंटरव्यू देकर आ गया। केवल एक दिन रुका। मेरी मंगेतर की दो सहेलियां थीं जिनमें से एक के घर मैं रुका।घूमने -फिरने के दौरान मैंने हल्के- फुल्के अंदाज़ में कह दिया- बाप रे, इतने बड़े खौफ़नाक शहर में भला कोई रहता है?मैं वापस लौट आया।लड़की के पत्र नियमित आते रहे, मैं भी उसी तत्परता से जवाब देता रहा।कुछ दिन बाद लड़की ने मुझे लिखा कि वो किसी काम से उदयपुर आ रही है। मुंबई में रहने के बारे में मज़ाक में ही जताई गई मेरी अनिच्छा के बाद लड़की ने मेरी बात को गंभीरता से लेते हुए राजस्थान में भी नौकरियों के लिए एप्लाई करने की कोशिश की।शायद इसी का नतीजा था कि वो किसी इंटरव्यू के लिए उदयपुर आ रही थी।उसकी योग्यताओं को देखते हुए कोई जगह ऐसी नहीं थी कि वो आवेदन करे और कॉल न आए। वो आई और एक दिन रुक कर चली गई। मैंने उसके रुकने की व्यवस्था किसी होटल में न करके उसी मकान में की, जहां मैं खुद भी कुछ समय रहा था। मकान मालिक की धर्मपत्नी इस प्रस्ताव से बहुत खुश हुईं और उन्होंने किसी निकट परिजन की भांति ही लड़की की देखभाल और आवभगत की। मैं भी उनके यहां रहा,जहां उनके बच्चे मेरे निकट मित्र ही थे और हम लोग मिलते रहते थे। वो खुद रात को लड़की के पास उसी के कमरे में सोई और मैं महेंद्र व राजेन्द्र के साथ छत पर सोया।एक दूसरे के शहर में संयोग से ही कुछ समय के लिए आना- जानाहमें बहुत मंहगा पड़ा।हमारे घरों में सीधे- सीधे ये संदेश गया कि हम लोग आपस में मिलते हैं इसलिए अब सगाई हो जाने के बाद विवाह के लिए ज़्यादा समय तक ठहरने का कोई औचित्य नहीं है।वहां कुछ सुगबुगाहट शुरू हो गई।लेकिन विवाह के लिए सचमुच मैं अभी मन से तैयार नहीं था।दूसरे,मेरे मन में ये भय भी था कि यदि हमारी शादी हो जाती है तो भी हमें अलग- अलग, दूर-दूर ही रहना होगा। ये दूरी इतनी अधिक थी कि तीन- चार महीने से पहले आना- जाना संभव नहीं होगा,और यदि संभव हो तो भी ये बहुत खर्चीला होगा। लड़की की नौकरी ऐसी थी कि जिसे छोड़न में बुद्धिमानी नहीं थी। और मेरी नौकरी जिस जगह पर थी वहां शादी के बाद लड़की का आकर रहना संभव नहीं हो सकता था।कुल मिला कर, यदि शादी ऐसे में हो जाती तो ज़िन्दगी तन मन धन से अस्त - व्यस्त हो जानी थी।लेकिन तीर कमान से निकल चुका था,भूल हम कर चुके थे। एक बार मैं मुंबई घूम आया और एक बार वो भी उदयपुर आ गई थी। लड़की के पिता का सीधा सवाल था कि यदि अभी शादी के लिए दो तीन साल ठहरना चाहते हो तो फ़िर अभी एक दूसरे के पास आना - जाना क्यों करते हो?केवल नौकरी की जगह या दूरी की ही बात नहीं थी, मेरी तीन- चार परीक्षाएं ऐसी थीं जिनमें मैं पास होकर इंटरव्यू भी दे चुका था। उनके परिणाम आने शेष थे और ये भी निश्चित नहीं था कि यदि मेरा उनमें से किसी में चयन हो जाता है तो पोस्टिंग कहां होगी। सभी अखिल भारतीय परीक्षाएं थीं।किस्मत के फैलाए इस इज़्तिरार का फ़िलहाल कोई माकूल रास्ता हमारे पास नहीं था। और किसी के पास होता भी तो वो हमें बताने वाला नहीं था क्योंकि हमने भी अपनी जीवन- राह के लिए किसी से कुछ पूछा नहीं था। अपनी मर्ज़ी के मालिक बन कर हम खुद ही चल पड़े थे सफ़र पर।मैंने एक बार दबे स्वर में अपनी मां को समझाने की कोशिश की, कि वो अभी शादी की कोई जल्दी न करें।लेकिन न जाने घर के बड़ों ने क्या सोचा, दो तीन महीने बाद की एक तारीख भी शादी के लिए निकलवा दी गई।लड़की को इस पर कोई ऐतराज़ नहीं था। ऐतराज़ मुझे भी नहीं था, क्योंकि मैं ये भी जानता था कि अब शादी की तारीख को और दूर खिसकाने के लिए ज़्यादा ज़ोर देना शायद सबके मन में संदेह के बीज बो देगा। कहीं सब ऐसा न सोचने लग जाएं कि अब हमारा शादी से मन हट रहा है।एक मार्च का दिन शादी के लिए मुकर्रर कर दिया गया। हम दोनों को ही इस हिसाब से अपनी ज़्यादा से ज़्यादा छुट्टी लेकर आने के लिए कह दिया गया।मैं वापस अपने गांव के अपने दफ़्तर में जा पहुंचा।इन दिनों मेरे मन में एक और अजीब सी उधेड़बुन चलने लगी। मैंने कहीं पढ़ा था,और कुछ मित्रों ने इस बात की पुष्टि भी की थी कि अगर जीवन में एकबार सेक्स लाइफ़ शुरू हो जाती है तो फ़िर उसे रोकना बहुत ही मुश्किल होता है।जब तक शुरू न हो, तब तक न हो, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। किन्तु एक बार दिनचर्या में ये दुनियादारी आई तो फ़िर रुकना बहुत ही कठिन हो जाता है।मुझे लगता था कि सरकार का पति पत्नी को एक ही जगह पोस्टिंग देना, महिलाओं को अपेक्षाकृत ज़्यादा छुट्टी और हल्की ड्यूटी देना शायद निसर्ग की इसी मांग को सहने के लिए किया जाता है। इसे नीतिगत रूप से भी स्वीकार किया गया है। बड़े बड़े पदों तक पर काम करने वाली महिलाओं को पोस्टिंग और ट्रांसफर में पति के साथ रखने की यथा संभव कोशिश की जाती थी, बशर्ते वे दोनों एक ही विभाग में हों।हमारे मामले में तो दोनों के विभाग अलग थे। अभी और भी परिवर्तनों की संभावना बनी हुई थी।ऐसे में आगे क्या होगा, ये कोई नहीं जानता था।मैं मन में सोचा करता था कि हम लोग तो दो- तीन साल बाद शादी करना ही चाहते थे, तो अब अपने आपको उसी अनुशासन में रखने की कोशिश तो की ही जा सकती है।हम दुनिया को दिखाने के लिए शादी कर रहे हैं किन्तु जब तक हमारा रहना एक ही जगह पर न हो जाए,तब तक हम अपने आप को गृहस्थ आश्रम में दाख़िल होने से रोकने का प्रयास तो कर ही सकते हैं।एक कठिन तपस्या के लिए मैं अपने आप को तैयार करने लगा।मेरे मित्रों ने मुझसे मज़ाक करना शुरू कर दिया था। कोई कहता- तुम्हें शादी से क्या फ़र्क पढ़ने वाला है, मांग भर के वापस यहां आ जाना। भाभी तो मुंबई चली जाएगी।कोई -कोई मित्र जो मुझसे ज़रा ज़्यादा ही खुला हुआ था, वो कहता अब संभल कर रहना, गाड़ी के काग़ज़ तो तुम्हारे नाम होंगे, पर ड्राइविंग सीट पर कोई और न काबिज़ हो जाए।कोई कहता, बस वहां बैंड बजवा कर आ जाओ, आना तो हमारे पास ही है, हमारे ही भरोसे।गांव छोटा होने से लगभग सभी से अच्छी जान पहचान थी, बैंक में आना- जाना भी सभी का था। कुछ मित्र कहते, एक लिस्ट तो बना लो, किस-किस को कार्ड देना है।कोई पूछता, हनीमून किसी गांव में होगा या महानगर में। यहां तक कि वो स्कूल में पढ़ने वाला छोटा लड़का जो शुरू में बैंक में मुझसे पैसे मांगने आया था, वो भी एक दिन अकेले में बोल पड़ा- कुछ तैयारी करनी हो शादी की तो मैं आ जाऊं आपके पास?मैं कुछ नहीं बोला।लगभग पंद्रह दिन पहले मैं छुट्टी लेकर घर चला गया।दो सप्ताह बाद घर में शादी थी ज़रूर,पर उल्लास का जो वातावरण होना चाहिए था, वो बिल्कुल नहीं था।इसके कई कारण थे।एक तो दोनों ही घरों में महिलाओं सहित सभी सर्विस करने वाले थे। कोई भी अपने काम से इतनी लंबी छुट्टी नहीं ले सकता था।इसलिए केवल अपने- अपने घर में हम दोनों ही आकर बैठे थे,बाक़ी तो सब अपने ऑफिस, कॉलेज या स्कूल जा रहे थे। भाई लोग बाहर से आ भी नहीं पाए थे।दूसरे,मेरे पिता सर्विस से पूरी तरह रिटायर हो चुके थे, इसलिए संस्थान के परिसर में उन्हें अपना रुतबा पहले से कुछ कम हुआ लगता था। लड़की के पिता अब भी उसी परिसर में कार्यरत थे।मेरे से चार साल बड़े भाई की शादी अभी कुल डेढ़ साल पहले ही हुई थी इसलिए घर आर्थिक सामाजिक रूप से अभी इतनी जल्दी फ़िर से शादी की धूमधाम के योग्य नहीं हो पाया था।और सबसे बड़ा कारण था कि हम दोनों की इच्छा के चलते शादी बेहद सादगी से होने वाली थी, इस कारण शादी के घर में होने वाली तड़क- भड़क होने की संभावना बिल्कुल भी नहीं थी।एक महत्वपूर्ण कारण ये भी था कि लड़की उस परिसर में कॉलेज की पढ़ाई कर चुकी थी जबकि मैंने बहुत पहले ही परिसर छोड़ दिया था। और लड़की अब मुंबई में अधिकारी के बड़े ओहदे पर थी। शायद इस बात ने भी मेरे घरवालों के मनोबल में कमी कर दी थी।मुझे कभी - कभी लगता था कि इस शादी से किसका क्या बनने बिगड़ने वाला था? मन से कोई भी हमारे साथ नहीं था।और देखा जाए तो खुद मेरा मन भी मेरा साथ कहां दे रहा था। कोई भला ये संकल्प लेकर डायनिंग टेबल पर बैठता है कि अभी कुछ नहीं खाना है!घर में हम दोनों की ही छवि ऐसी थी कि दूर दूर तक कोई हमसे मज़ाक करने वाला नहीं था।शायद सबको कभी न कभी ये अनुभव या आभास हो चुका था कि हम किसी की नहीं सुनते,हम किसी की परवाह नहीं करते। हमें किसी दूसरे की भावनाओं का कोई ख्याल नहीं है, हमारे मन में अपने परिवार के बड़ों, समाज की परंपराओं, ज़माने के रीति -रिवाजों का कोई आदर नहीं है। हम विश्वसनीय नहीं हैं। हम स्वभाव से अंतर्मुखी और घुन्ने हैं, केवल और केवल अपने मन की करेंगे। हम अपने ही स्वार्थ में अंधे हैं। हम ये नहीं सोचते कि विवाह से एक परिवार को बहू मिलती है जो उस परिवार की खून की सगी न होते हुए भी समाज निर्मित बेटी होती है, जिसके व्यवहार पर परिवार के आने वाले दिनों का फैसला होता है। हम ये नहीं सोचते कि विवाह से एक परिवार को दामाद मिलता है जिसे कालांतर में उस परिवार के दायित्व बांट कर उस खानदान का नया बेटा सिद्ध होना होता है, जबकि खून का यहां भी कोई रिश्ता नहीं होता।हम तो जैसे बस एक लड़का और एक लड़की बन कर एक दूसरे के अंतर्वस्त्रों में घुस पाने की अनुज्ञा लेने के लिए खड़े आदम बुत थे।इन परिस्थितियों में भला शादी ब्याह की रौनकें होती हैं कहीं? ‹ Previous Chapterप्रकृति मैम - 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