Avlamb in Hindi Short Stories by Dr Narendra Shukl books and stories PDF | अवलंब

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अवलंब

‘तू आने दे ललूआ को . . . सारी बात बताउंगी । एक टेढ़ी सी लकड़ी के सहारे चलती हुई बुढ़िया ने बहू से कहा । ‘

‘ हां हां देख लूंगी । काम तो करती नहीं . . . उपर से चाहिये साबूदाने की खीर । रामदेयी बड़बड़ाती हुई रसोई घर में घुस गई ।‘

आज बुढ़िया ने कुछ नहीं खाया । केवल रोती रही । लालमणि आज होता तो क्या बहू ऐसा बोलने की हिम्मत कर सकती थी । लालमणि रूपया कमाने शहर गया है । पति के मरने के बाद उसने जैसे - तैसे लोगों की गालियां सुनकर , घरों में बरतन मांजकर ललूआ को पढ़ाया लिखाया । आज ललूआ बड़ा अफसर है । बीसीयों लोग उसके नीचे काम करते हैं । बचपन में , झोला हाथ में लिये कैसे कहता था - मां . . मां मैं दिल्ली जा रहा हूं । तेले लिये खूब पैसा लाउंदा । अच्छी साली भी लाउंदा . मां । दिनेसवा की मां की तरह सितारों वाली । और वह उसे गोद में ले लेती थी । मगर , वह फिर रोने लगी । इतने साल हो गये दिल्ली गये हुये । एक चिटठी को छोड़कर , कोई खबर ली । . . . शायद , काम में फंस गया होगा । लोग कहते हैं कि अफसरी में बड़ा काम करना पड़ता है । ऐसा सोचती हुई वह खाट पर लेट गई । पर , नींद उसकी आंखों से कोसों दूर थी । दीए की रोशनी में कोई काला सा साया उभर आया था । वह उठी और धीरे-धीरे आंगन की ओर बढ़ने लगी ।

‘कौन है ?‘

‘ मैं हूं ललूआ । सीधा स्टेशन से आया हूं मां । ‘

वह किसी तरह ललुआ तक पहुंची और उससे लिपटकर रोने लगी - बेटा । शेष शब्द हिचकियों में तबदील हो गये । पुत्र स्नेह की उन्मादिनी मां अपने लाल को अनवरत चूमती जा रही थी । वह केवल औल केवल अपने ललूआ को देखे जा रही थी । आंसुओं का सैलाब सारे गिले - शिकवे बहा कर ले गया ।

‘ चल आ । आज तेरे लिये मैंने अपने हाथों से अरबी की सब्ज़ी बनाई है । आज तुझे अपने हाथों से खाना खिलाउंगी । वह उसका हाथ पकड़ रसोई की ओर ले जाने लगी ।‘

‘ मैं स्टेशन से खा - पीकर आया हूं मां । तू चिंता मत कर । रात बहुत हो गई है । अब सो जा । वह हाथ छुड़ाकर अपने कमरे की ओर बढ़ गया ।

सुबह, बेटा - बहू को हाथ में सूटकेस लिये अपनी ओर आते देखकर वह हतप्रभ रह गई ।

‘ हाय बेटा ! इतनी सुबह कहां जा रहा है ? ‘

‘ कुछ नहीं मां । मैं वापिस शहर जा रहा हूं । एक मिनट की फुर्सत नहीं है । दफतर की सारी जिम्मेदारी तेरे लाल पर ही है । फिर , कुछ सोेचकर वह बोला - ‘ तुझे तो पता ही है मां , कि बाहर का खाना मुझे हज़म नहीं होता । इसलिये तेरी बहू को भी साथ ले जा रहा हूं । वह मां के पैरों को हाथ लगाते हुये बोला । ‘

‘जुग . . जुग जियो मेरे लाल । पर बेटा . . ।‘ वह आंसुओं को रोक न सकी । आंचल का छोर मुंह में खोंस लिया ।

‘ तू चिंता न कर मां । यह मेरा फोन नंबर रख ले । जब कोई समस्या हो , तुरंत फोन कर लेना । मैं फ़ौरन चला आउंगा । और , यह भी रख । 500 रूपये का एक नोट व कागज़ का एक टुकड़ा जबरदस्ती मां के हाथ में थमाकर वह चल पड़ा । बहू भी उसके पीछे हो ली ।

अनपढ़ , ना समझ . . गुमसुम मां अपने लाल को दूर जाते हुये तब तक देखती रही जब तक कि वह उसकी आंखों से ओझल नहीं हो गया ।

सुखपूर्ण जीवन व्यतीत करने का अवलंब अब भी उसकी मुटठी में बंद था ।

डा. नरेंद्र शुक्ल