इंद्रधनुष सतरंगा
(14)
मोबले का स्कूटर
बारिश अभी-अभी थमी थी। लेकिन बादल पानी का बोझ लिए आसमान में ऐसे डटे थे कि लगता था अब बरसे कि तब।
बारिश थमी देख मोबले दौड़े आए।
‘‘मौलाना साहब, जल्दी निकल लीजिए, वर्ना बारिश फिर से शुरू हो जाएगी।’’
मौलाना साहब शेरवानी पहन रहे थे। आवाज़ सुनकर भी उन्होंने निगाहें नहीं उठाईं। बटन बंद करते हुए बोले, ‘‘हाँ, सही कहा। फौरन स्कूटर निकाल लो। आज तुम्हारे स्कूटर से चलेंगे।’’
‘‘क्यों? आपका स्कूटर ख़राब हो गया क्या?’’ मोबले चौंककर बोले।
‘‘नहीं, ख़ुदा न करे।’’
‘‘तो फिर?’’
‘‘कभी-कभी अपना स्कूटर भी निकाल लिया करो। खड़ा-खड़ा धूल खा रहा है।’’
‘‘अरे भई, जब एक ही जगह जाना है तो पेट्रोल की बर्बादी क्यों की जाए? और फिर यह तो आपका ही कहना है।’’
‘‘हाँ, अब भी कहता हूँ। पर कभी-कभी अपना पेट्रोल भी खर्च कर लिया करो।’’
मोबले हतप्रभ रह गए। फटी-फटी आँखों से मौलाना साहब का चेहरा देखते हुए बोले, ‘‘यह अपने-पराए की बात हमारे बीच कब से आ गई?’’
मौलाना साहब एक पल को जवाब न दे सके। पर निगाहें चुराते-चुराते आखि़र कह गए, ‘‘जब से तुम जैसों ने अपनेपन का ग़लत प़फ़ायदा उठाना शुरू कर दिया।’’
मोबले अवाक रह गए। उन्हें समझ नहीं आ रहा था क्या करें? क्या जवाब दें? थोड़ी देर थरथराते खड़े रहे फिर काँपती आवाज़ में बोले, ‘‘क्षमा करना, मौलाना साहब। मैंने आपको समझने में भूल की।’’
मोबले चले गए। मौलाना साहब बेचैनी से कमरे में इधर-उधर टहलने लगे। उनका शरीर उत्तेजना से थरथरा रहा था। ठंडे मौसम में भी उनके माथे पर पसीना छलछला आया था। उन्होंने मोबले को बातें तो सुना दी थीं पर अंदर ही अंदर असहज महसूस कर रहे थे।
दस मिनट बीत गए और मोबले न आए तो मौलाना साहब ने दरवाज़ा खोलकर बाहर झाँका। मोबले का कहीं अता-पता नहीं था। हाँ, कर्तार जी अपने दरवाज़े खड़े थे।
‘‘क्या मोबले निकल गए?’’ मौलाना साहब ने पूछा।
मोबले निकल जा चुके थे। कर्तार जी ने उन्हें जाते देखा भी था। लेकिन मौलाना साहब ने एकाएक पूछा तो समझ न आया क्या जवाब दें, क्योंकि घटना का कुछ-कुछ अनुमान उन्हें भी हो गया था। उनके मुँह से निकल पड़ा, ‘‘नहीं---अभी नहीं।’’
उत्तर पाकर मौलाना साहब थोड़ी देर असमंजस में खड़े रहे। फिर एकाएक तेज़ क़दमों से मोबले के घर की ओर बढ़ चले। जाकर देखा तो दरवाजे़ पर ताला लटका हुआ था। मोबले जा चुके थे। मौलाना साहब का चेहरा स्याह पड़ गया। बोले, ‘‘मेरी छोटी-सी बात का उसने इतना बुरा माना? मैं तो उससे माप़फ़ी माँगने आया था। पर वह मुझे बिना बताए चला गया? मेरे एहसानों का यह बदला दिया?’’
मौलाना साहब गु़स्से में थरथराते हुए कर्तार जी के पास पहुँचे, ‘‘कर्तार सिंह, आपने भी मुझसे झूठ बोला? सब जानते हुए भी?’’
‘‘वो---वो, दरअसल---’’ कर्तार जी से कुछ कहते न बन पड़ा।
‘‘समझ गया, सब समझ गया। सरदार जी, कुसूर आप लोगों का नहीं, मेरा है। मेरी मोहब्बत और हमदर्दी का है। दुनिया में मुझसे बड़ा वेवकूप़फ़ कौन होगा?’’
मौलाना साहब ने बड़बड़ाते हुए स्कूटर निकाला और चल दिए। कर्तार जी पीछे से ‘सुनिए-सुनिए’ चिल्लाते रहे पर उन्होंने मुड़कर नहीं देखा।
गर्मियों में शाम देर से ढलती है, जाड़ों में जल्दी, पर बारिश के दिनों में शाम कब घिर आएगी, पता नहीं चलता।
मौलाना साहब जब वापस लौटे तो अंधेरा हो रहा था। हालाँकि अभी दिन के सिर्फ तीन बजे थे। पर काले बादलों ने दिन को भी रात में बदल डाला था।
मौलाना साहब पंडित जी के दरवाज़े रुक गए। जब तक अपने सुख-दुख की बात वह पंडित जी से न कर लेते उन्हें चैन नहीं आता था। स्कूटर रुकने की आवाज़ पाकर बरन की खिड़की खुली। उसने बाहर झाँका। आशा के विपरीत इस बार उसने ख़ुद आकर दरवाज़ा खोला। अंदर जाकर पंडित जी को आवाज़ दी और खाँसता हुआ अपने कमरे में चला गया।
‘‘कहिए मौलाना साहब, कैसे आना हुआ?’’ पंडित जी ने बाहर आकर औपचारिक ढंग से पूछा।
पंडित जी का रुख देखकर मौलाना साहब को थोड़ी हैरानी हुई। आज तक पंडित जी ने इतनी बेरुखी से बात नहीं की थी।
‘‘यह तो मुझसे ज़्यादा आप जानते होंगे, जनाब।’’
मौलाना साहब ने माहौल हल्का करने की कोशिश की। लेकिन पंडित जी कुछ न बोले। आगे बढ़कर बैठक का दरवाज़ा खोला और लाइट ऑन कर दी।
‘‘आज तो दिन में रात हो गई,’’ मौलाना साहब ने कहा।
पंडित जी फिर भी चुप रहे। मौलाना साहब ने सुबह की पूरी घटना कह सुनाई। कर्तार जी के रवैये की भी चर्चा की। सोचा था पंडित जी इस पर अपनी कुछ न कुछ प्रतिक्रिया अवश्य देंगे लेकिन पंडित जी का ध्यान कहीं और था। वह मौलाना साहब के कीचड़ भरे जूतों की ओर देख रहे थे। पंडित जी का इशारा समझकर मौलाना साहब का चेहरा फक हो गया। उनसे कहते न बना।
हालाँकि मौलाना साहब के लिए यह कोई नई बात न थी। वह हमेशा से ऐसा ही करते आए थे। पंडित जी के घर में बेधड़क कहीं भी चले जाया करते थे। पंडित जी नेे आज तक किसी बात पर नहीं टोका था। किंतु आज उनके व्यवहार पर मौलाना साहब हतप्रभ थे।
‘‘वर्षा में वैसे भी सब तरफ किचकिच रहती है। अब घर को फिर से पवित्र करना पड़ेगा। व्यर्थ में काम बढ़ गया।’’ पंडित जी ने कहा।
मौलाना साहब को जैसे काठ मार गया। गु़स्से और पछतावे से उनका चेहरा स्याह पड़ गया। वह तत्काल उठ पड़े।
‘‘जल ग्रहण करेंगे?’’ चलते-चलते पंडित जी ने औपचारिकतावश पूछा।
‘‘माफ कीजिएगा, अब मैं आपका काम और नहीं बढ़ाना चाहता।’’
प्रतिक्रिया का इंतज़ार किए बिना मौलाना साहब मुड़े और बाहर निकल आए। गु़स्से और दुख से उनकी आँखे टपकी पड़ रही थीं।
बारिश फिर शुरू हो गई थी। हवा थपेड़े मार रही थी। सड़क के उस पार लगे यूक्लेप्टिस दुहरे हुए जा रहे थे। लगता था अब चटख़े कि तब। बादलों की गरज दिल को दहला रही थी। रह-रहकर बिजली चमक उठती थी।
आसमान में हलचल मची हुई थी पर मुहल्ले में जैसे सन्नाटा पसर गया था। लोगों ने घबराकर अपने-अपने दरवाज़े बंद कर लिए थे।
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