Khidki ki aankh in Hindi Comedy stories by Pritpal Kaur books and stories PDF | खिड़की की आँख

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खिड़की की आँख

खिड़की की आँख

खिड़की के बाहर का चौकोर आसमान का टुकड़ा खिड़की जितना ही बड़ा है. लेकिन इसमें से भी पूरा आसमान नहीं दिख रहा. दरअसल इस चौकोर खालीपन में जो मुख्य भरावट है वह है, हरे-भरे लहकते मदमाते अनार के पेड़ की शाखाएं. आकाश तो बस इन शाखाओं के हरे पत्तों और दहकते केसरिया रंग के फूलों के बीच कभी कभी अपनी एक झलक सी दिखा जाता है. हल्की मोटी शाखाओं पर टंकी पत्तियां देख कर दीप्ति को महसूस होने लगता है कि बाहर हवा चल रही होगी. लेकिन इस बात से उसे कोई आश्चर्य नहीं होता. यहाँ इस शहर में जब हवा न चले तो आश्चर्य होता है.

एका-एक एक डाली बड़ी जोर से हिल उठी. दीप्ति ने चौंक कर हल्का सा उठने की कोशिश की और अपनी कोहनी तकिये से टिका अधलेटी हो गयी. आश्चर्य से उसने देखा, जाने कहाँ से एक काला लम्बा सा चूहा पेड़ की एक पतली सी डाल पर लगा छोटा कच्चा हरा अनार कुतर रहा है. चूहा और पेड़ पर? यूँ दिन दहाड़े... ?

दीप्ति ने उसके ध्यान अपनी तरफ करने के लिए जोर-जोर से "शी......" की आवाज़ की. मानों कह रही हो---"अरे भाई! तुम कैसे चूहे हो? जो पेड़ पर चढ़कर अनार खाते हो. मैंने तो तुम लोगों के बारे में कहीं भी ऐसा न पढ़ा न सुना. ज़रा अपने चेहरा तो इधर करो."

उस चूहे ने न जाने दीप्ति की आवाज़ से या अपने ही पेट से दिमाग की ओर पहुंचाते संकेतों से प्रेरित हो कर अनार कुतरना छोड़ कर खिड़की की ओर मुंह किया. ऐसा करते ही झटके से उसने जो देह घुमाई तो उसकी पीठ पर की लम्बी सामानांतर गहरी-हल्की धारियां दीप्ति को दिख गयीं.

'धत तेरे की" पहती वह फिर दायीं कोहनी का सहारा छोड़ कर अपने बिस्तर पर सीधी लेट गयी. 'किट-किट' क्रमशः धीमी होती गयी और उसे सुनायी देने लगी गौरैया की चीं-चीं..... मार्च का खुशगवार मौसम दीप्ति को बेहद पसंद है. अगर बुखार में जकड़ी देह को लेकर बिस्तर में पड़े रहने को मजबूर न हो तो....

उसने दायीं दीवार पर लगी क्लॉक पर नज़र डाली, साढ़े ग्यारह बजे थे. बाहर खिड़की की चौखट में झूमते अनार के पेड़ के पत्तों पर धुप झिलमिलाने लगी है. इसकी चमक में वे पत्ते हलके हरे हो कर पारदर्शी से हो आये हैं. दीप्ति को लगा जैसे उनमें बहता रस उए दिखायी देने लगा है.

पत्तों की कोशिकाओं की शिराओं में बहते रस की आवाज़ 'घू घू ' करती उसके कानों में गूंजने लगी. चिड़िया की 'चीं चीं ' और दूर रसोईं में हो रही बर्तनों की खटपट के साथ मिल कर यह 'घू घू' उसे बेहद परेशान करने लगी. सिर में बेतरह दर्द हो आया. उसने आँखें बंद कर ली.

अपने सामने के चौकोर खिडकी देखते उसे याद आया पिछले हफ्ते उसके पीछे की सीट पर बैठी निवेदिता ने 'सर' की नयी भड़कीली चेक की कमीज़ पर बड़ा कसावदार व्यंग्य किया था. आस-पास बैठी सभी लड़कियां इसका मज़ा ले रही थी. पर शायद दीप्ति के चेहरे का हास्य कुछ ज्यादा ही मुखर हो आया था. 'सर' की दहाड़ भरी 'स्टैंड अप दीप्ति' पर वह बिना एक पल गवाए खडी हो गयी थी.

बहुत देर तक सर इस हंसी के रहस्य को जानने के प्रयत्न में वाक्यों और प्रशनों का प्रहार उसकी पर करते रहे और वह सर झुक कर सूखे गले से थूक निगलती खडी रही थी. सहपाठियो के अपराध का घनीभूत हुआ लबादा अपने ऊपर ओढ़े, उन प्रहारों को झेलती... सर का धर्य शीघ्र ही छूट गया था और उन्होंने अपने स्वर में से मुलामियत को छान कर अपने पास रखते हुए उसी दहाड़ से भरा आदेश दिया था," गेट आउट ऑफ़ माय क्लास".

वैसे ही सिर झुकाए, अपमान से दहकता लाल भभूका चेहरा लिए बैग को लगभग घसीटती सी वह बाहर चली आयी थी. दत्ता सर जब दहाड़ते हैं तो उनकी मूंछे फडकने लगती हैं, आख्ने चौड़ी हो जाती हैं, माथे पर बल पड़ने लगते हैं, बिलकुल गिलहरी की पीठ पर पडी धारीओं जैसे....

चौकोर खिड़की से झांकता दत्ता 'सर' का चेहरा धीरे-धीरे बदलने लगा... कुछ देर में ही सामानांतर रेखाएं टेढ़ी-मेढ़ी होती हुयी आपस में गड्ड-मड्ड हो गयीं. दीप्ति ने देखा, वहां गिलहरी का बड़ा सा चेहरा, बहुत बड़ा, खिड़की के फ्रेम से कुछ ही छोटा, फ्रेम पर टिका उसके कमरे ला जायजा ले रहा है... शायद गिलहरी अपने खाने के लिए कुछ ढूंढ रही थी.

लेकिन इतनी बड़ी गिलहरी के लायक यहाँ भला क्या होगा? यही सोच कर दीप्ति ने उसे टोका,"अरे सुनो, क्या चाहिए तुम्हें?"

गिलहरी की पलक रहित गोल-मटोल आँखें निर्निमेष कमरे में टंगे पिछले साल के कलेंडर पर टिकी थी, जिसमें तरबूज की एक फांक का खूबसूरत चित्र छपा था. चित्र में तरबूज के बीज कई अलग-अलग रंगों में थे.

चौंक कर गिलहरी ने दीप्ति की तरफ देखा और बोली," यह भला कैसा तरबूज है? मैंने तो कई तरबूज खाए हैं. ऐसे बीजों वाला तरबूज कहीं नहीं होता."

"ऐसा है, जहाँ तक मैं समझती हूँ, असली तरबूज में नकली बीज लगा कर यह तस्वीर खींची गयी है.

" एक-एक शब्द स्पष्ट बोलती, बात को समझा कर कहती दीप्ति की भंगिमा में थोड़े से दत्ता सर आ गए.

चिढ़ाते से स्वर में गिलहरी ने कहा," जहाँ तक मैं समझती हूँ..........क्या समझती हो तुम? अपने-आप को क्या समझती हो तुम? "

उसके इस अचानक आक्रमण से दीप्ति घबरा गयी.

"नहीं. ऐसा कुछ नहीं है. मैं खुद को वही समझती हूँ जो कि मैं हूँ."

"क्या हो तुम? ज़रा मैं भी तो सुनु?"

"मैं दीप्ति हूँ. "गिलहरी के साथ-साथ वह स्वयं अपने-आप को भी विश्वास दिलाना चाहती था.

"क्या होती है दीप्ति? मुझे तो तुम एक अच्छी खासी लडकी दिखाई पड़ती हो. क्यूँ अपने आप को आग कहती फिरती हो? "गिलहरी के स्वर में डांट स्पष्ट थी.

"यह मेरा नाम है." दीप्ति रुआंसी हो आयी थी.

"नाम?" गिलहरी ने कस के ठहाका लगाया और उसकी मूंछों के बाल खतरनाक ढंग से ऊपर-नीचे होने लगे.

"तुम आदमी लोग बड़े वाहियात होते हो. पैदा होते हो, नाम रख देते हो, फिर जाति चुन लेते हो फिर आपस में लड़ना शुरू कर देते हो. अपने-आप को एक लडकी कहने में शर्म आती है तुम्हें? "

"नहीं मुझे क्यूँ शर्म आयेगी भला? पर मेरा कोई नाम तो होना चाहिए ना. वर्ना मेरी पहचान क्या होगी?"

दीप्ति के स्वर में स्वभिमान आया तो स्वर ऊंचा और कठोर हो गया. यह दो टके की गिलहरी.... क्या सोच कर अकडती चली जा रही है?

"क्यूँ होनी चाहिए पहचान? मेरा तो कोई नाम नहीं. मुझे तो इससे कोई परेशानी नहीं होती."

"क्यूंकि तुम गिलहरी हो, लडकी नहीं."

"तुम्हारे यहाँ तो लड़कों के भी नाम सुने हैं मैंने."

दीप्ति ने अपने सिर पकड़ लिया.

"कैसी ल.... गिलहरी हो तुम? लड़कियों की तरह लड़कों की भी तो पहचान होनी चाहिए कि नहीं? " उसका स्वर नर्म हो आया और अंदाज़ में फिर दत्ता सर झलक गए.

"ठीक है. होती होगी. मैं तुमसे बहस करने तो आयी नहीं."

"तो किसलिए आयी हो?"

"तुम मनुष्य वाकई वाहियात होते हो. बात करना तक तो आता नहीं."वह फिर व्यंग्य से मुंह बिचकाने लगी थी.

"मुझे बात करना तुम सिखाओगी?" दत्ता सर दीप्ति के कंठ में दहाड़ उठे.

"तुम्हें क्या कोई बात करना सिखाएगा? तुम्हें तो कैसी भी तमीज नहीं."

गिलहरी जोर-जोर से किट-किट करने लगी. उसकी लम्बी-लम्बी मूंछे होटों के हिलने के साथ ही ऊपर-नीचे होती बार-बार खिड़की के पल्ले पर सरकती सर्रर-सर्रर करने लगी. दीप्ति को लगा जैसे मिट्टी से सने फर्श पर कोई लोहे का भारी संदूक खींच रहा हो.

सर्रर-सर्रर की लगातार चलती तरंग उसके भेजे को चीरती आर-पार जाने लगी. दर्द से तिलमिलाते उसने अपने माथे को दांयें हाथ की अंगुलिओं से जोर से दबाया.

"तुम कहना क्या चाहती हो? क्यूँ लड़ने आयी हो मुझसे?"

"हम गिलहरियाँ तुम जैसी नहीं होतीं. हम किसी से लडाई नहीं करती. समझी तुम. " उसकी किट-किट और तेज़ हो गयी. और मूंछों की रगड़ खाने की आवाज़ अपनी सीमा लांघ चली.

सिर पर हाथ रखे-रखे दर्द से तिलमिलाते क्षीण स्वर में दीप्ति ने कहा," अच्छा! अब तुम साफ़-साफ़ बताओ क्यों आयी हो यहाँ?"

"क्यूँ आयी हूँ? अपने ही काम से आयी हूँ. तुमने मुझे दावत पर तो बुलाया नहीं." सर्रर-सर्रर के आवाज़ बदस्तूर जारी थी.

दीप्ति दर्द के मारे बेहाल कुछ बोल नहीं पाई. उसने हाथों से अपने माथे को भींच लिया.

"तुमने मेरे बेटे को क्यूँ चिढ़ाया था?" उसकी किट-किट भी अब सीमा पार कर चुकी थी.

"तुम्हारा बेटा? कौन.....? किसकी बता कर रही हो तुम....?"

दीप्ति अपना सर दर्द भूल गयी. विस्फारित आँखों में विस्मय और प्रश्न अटक गए. यह गिलहरी और इसका बेटा ? उसे कुछ समझ नहीं आया.

"हाँ, मेरा बेटा. यहाँ इसी डाल पर बैठा अनार खा रहा था. तुमने उसे चिढ़ा कर भगा दिया. क्यूँ? जवाब दो मुझे."

गुस्से से उसकी नाक ऊपर-नीचे होने लगी. आँखों से चिंगारियां निकलने लगीं. चेहरा बड़ा और बड़ा होने लगा.

दीप्ति एकाएक सकपका गयी. अपना बचाव करने की बात मन में आयी तो सिर का दर्द भूल गया.

"लेकिन मैंने तो उसे डराया नहीं.... मैं तो उससे बात करना चाहती थी." दीप्ति का क्षमा याचना में डूबा स्वर कांपने लगा.

"क्यूँ बात करना चाहती थी तुम उससे? छोटे-छोटे बच्चों से बात करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं."

"बच्चों से बात करने में अधिकार की बता कहाँ से आ गयी?" दीप्ति फिर तल्ख़ हो आयी.

"मैं कहती हूँ इसलिए."

"क्यूँ कहती हो ऐसा? हम लोग तो अनजान बच्चों से अक्सर बात कर लिया करते हैं."

"तुम मनुष्य तो होते ही ऐसे हो, वाहियात. " तीसरी बार उसने वहियात्त शब्द का इस्तेमाल किया तो दीप्ति को लगने लगा कि शायद सच ही मनुष्य वाहियात होते हैं.

थोड़ी देर चुप्पी छाई रही. दीप्ति ने सोचा शायद गिलहरी का गुस्सा शांत हो गया है और फिर यह लड़ने भी तो नहीं आयी. उसका सर दर्द कम होने लगा. उसने माथे पर से हाथ हटा लिए लेकिन गिलहरी की किट-किट फिर गूँज उठी.

"लेकिन हम गिलहरियों में ऐसा बिलकुल नहीं चलता. क्यूँ डराया तुमने मेरे बेटे को.....? क्यूँ? जवाब दो.....क्यूँ डराया तुमने? "

गिलहरी लगातार यही प्रश्न करने लगी. उसका स्वर कमरे की दीवारों से प्रतिध्वनित होता दीप्ति के कानों को गुंजाने लगा. माथे की ढीली पडी शिराएँ फिर तन उठी. सर से दर्द की फिर एक तीखी लहर गुज़र गयी.

दीप्ति की गिलहरी के चेहरे पर टिकी निगाहें थक कर नीचे झुकीं तो देखा गिलहरी के गर्दन के पास के थोड़े से खाली स्थान से चूहे जैसा उसके नन्हे बेटे का सर, अपराध बोध से भरी आँखों से हाथ जोड़ता सा उसे मानो कह रहा हो, "मुझे माफ़ कर दो दीप्ति, मैंने माँ से इसलिए शिकायत नहीं की थी."

दीप्ति को थोड़ी राहत महसूस हुयी. उसने दृष्टि पुनः गिलहरी की तरफ घुमाई तो उसके गले से लिपटा नीला दुपट्टा दिखाई दे गया. वह चौंक उठी. कानों में अब किट-किट के स्थान पर बेहद तीखी, हवा को चीरती से ज़नाना आवाज़ में जो वाक्य गूँज रहा था, वह पहले से भिन्न लगा.

और ऊपर निगाह उठाई तो वहां गिलहरी के माथे पर लम्बी सी चमचमाती बिंदी लगी थी. कानों में सोने के झुमके और मूंछे ग़ायब........बेहद तीखी तराशी हुयी बरौनियाँ और लाल सुर्ख लिपस्टिक पुते होंठ. अरे! यह तो बंटी की मम्मी है.

"तूने बंटी की गेंद क्यूँ ली कुड़िये? क्यूँ ली तूने ? बता....दादागिरी करती है? हैं? वेख खां... कुडी हो के दादागिरी करती है? शर्म नहीं तैनू? कुड़ी हो के? " सुर्ख होंठ अंगारे उगल रहे थे.

दीप्ति का गुनाह क्या था वह समझ नहीं पाई. गेंद लेना या कुड़ी होना?

शरारत से बंटी की बॉल छिपाए खडी, नन्ही पांच साल की दीप्ति की आँखें सहमे आंसुओं से लबालब भरी थी, दृष्टि धुंधला गयी थी. न उसे गुस्से से लाल-पीली होती बंटी की मम्मी दिख रही थी न ही शर्म से गुलाबी हुआ बंटी.......

अवश, सहमी, कांपती आवाज़ और लबलाबाती आँखों, भीगे चेहरे और सूखे होंठों पर जुबान फेरती वह कह रही थी, "नहीं आंटी मैंने कुछ नहीं किया..... नहीं...."

आंटी का बड़ा सा हाथ उठा और उसे लगा कि चपत अब लगी तब लगी. क्षीण होती अपनी सारी ताकत समेट कर झटके से उसने बचाव के लिए उस हाथ को पकड़ने के लिए अपना हाथ उठाया तो सारी देह झटका खा गयी.

यह क्या? सामने तो मम्मी खडी हैं. उसके माथे पर हलके से हाथ फेरती मम्मी ने कहा," अब कैसी तबियत है बेटा?"

खाली आँखों से वह कुछ देर उन्हें देखती रही. सर के बाल, बदन के कपडे, सब बेतरह पसीने से भीगे हुए...... एक अजीब सी दम-घोटू बदबू कमरे में पसरी थी. कुछ समय पहले जो अकडन देह में थी वह अब गायब हो चुकी थी. सर भी हल्का हो आया था. अपना-आप उसे हल्का लगने लगा. मंद हवा में तैरते पत्ते जैसा.....

मम्मी माथे पर हाथ फेरती निश्चिंत हो उठी.

"अब तो तेरा बुखार उतर गया लगता है. मैं तेरे लिए दूध ले कर आती हूँ. तेरी दवाई का समय भी हो गया है." कहती वे चली गयी.

दीप्ति की नज़र यकायक खिड़की की तरफ उठ गयी. वहां कोई नहीं था.

दो बजने वाले हैं. खिड़की की धूप इस वक़्त सीधे उसके बिस्तर पर आती इसलिए मम्मी ने खिड़की बंद कर के पर्दा खींच दिया है. अब वह मरियल सा बंटी...... नहीं चूहे जैसा गिलहरी का बच्चा नहीं दिखाई देगा. यही सोच कर उसने सुकून की सांस ली और मुस्कुरा उठी.

प्रितपाल कौर.