Indradhanush Satranga - 13 in Hindi Motivational Stories by Mohd Arshad Khan books and stories PDF | इंद्रधनुष सतरंगा - 13

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इंद्रधनुष सतरंगा - 13

इंद्रधनुष सतरंगा

(13)

पंडित जी के हाल-चाल

अगले दिन स्कूल से लौटते समय मौलाना साहब पंडित जी के दरवाज़े रुक गए। सोचा पंडित जी के हाल-चाल लेता चलें। मन में यह भी था कि पंडित जी संकोची प्रवृत्ति के आदमी हैं, कहीं बरन के कारण परेशान न हो रहे हों। चलकर देख-भाल भी लें।

मौलाना साहब का स्कूटर रुका तो बरन ने खिड़की खोलकर झाँका। दोनों की नज़रें मिलीं। उसने फिर खिड़की बंद कर ली। मौलाना साहब धूप में खड़े दरवाज़ा खुलने का इंतज़ार करते रहे। उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया नहीं। सोचा था बरन सूचना दे ही देगा, या ख़ुद आकर दरवाज़ा खोल देगा। पर जब खड़े-खड़े पाँच मिनट हो गए तो उन्होंने बढ़कर घंटी बजा दी।

अगले ही पल दरवाज़ा खुल गया। मौलाना साहब को पसीने से तर-बतर देखकर पंडित जी बोले, ‘‘अरे आप! कब से खड़े हैं?’’

‘‘बस, अभी-अभी आया था। सोचा आपका हाल-चाल लेता चलूँ।’’ मौलाना साहब हाथों से पंखा करते हुए बोले।

‘‘आइए, अंदर आ जाइए। वर्षा-काल की यह गर्मी बहुत विचलित करने वाली होती है।’’ पंडित जी ने फौरन बैठक खोली और पंखा पूरी रफ्ऱतार पर ऑन कर दिया।

‘‘विद्यालय से लौट रहे होंगे। भोजन लगवाऊँ?’’ पंडित जी ने पूछा।

‘‘अरे, नहीं-नहीं, आप तो जानते हैं कि मैं जु़हर की नमाज़ के बाद ही खाना खाता हूँ। हाँ, पानी पी लूँगा। पर थोड़ा रुककर, गर्मी से तपकर एकदम पानी पीना ठीक नहीं होता।’’

दोनों बैठकर बातें करने लगे। मौलाना साहब ने हँसकर पूछा, ‘‘आपके मेहमान के क्या हाल-चाल हैं?’’

‘‘कौन? वह फेरीवाला?’’ पंडित जी मौलाना साहब का आशय समझकर मुसकराते हुए बोले, ‘‘थोड़ा बहुत समायोजन तो करना ही पड़ता है।’’

‘‘थोड़ा या बहुत? साफ-साफ कहिए।’’ मौलाना साहब ने ठहाका लगाया।

तभी आँगन में बीड़ी का एक टुकड़ा आकर गिरा। साथ ही खँखारकर ढेर सारा बलगम भी थूका गया।

मौलाना साहब का जी बुरा हो गया।

‘‘आप यह सब कैसे सहन कर रहे हैं? अभी समझाता हूँ इसे,’’ मौलाना साहब गु़स्से में बोले।

‘‘अरे छोडि़ए, अतिथि है। वह क्या समझेगा मेरी आदतें। हफ्रते-दस दिनों की ही तो बात है।’’ पंडित जी समझाते हुए बोले।

‘‘लेकिन मेहमान का मतलब यह तो नहीं कि वह हमारे लिए परेशानी का सबब बन जाए।’’ मौलाना साहब ने आवाज़ दी, ‘‘बरन ओ, बरन !’’

‘‘जी साहब,’’ बरन सामने आकर खड़ा हो गया।

‘‘तुम बीड़ी पीते हो?’’ मौलाना साहब ने पूछा।

‘‘हाँ साहब,’’ उसने सिर झुका लिया।

‘‘पता है यह कितनी नुकसानदेह होती है?’’ अपनी बात कहने का मौलाना साहब का अलग ही ढंग था।

‘‘मालूम है, साहब। लेकिन क्या करूँ?’’ बरन बेहयाई से बोला, ‘‘जब दिन भर गलियों की ख़ाक छानकर लौटता हूँ तो अच्छा-बुरा कुछ नहीं सूझता।’’

‘‘वह सब तो ठीक है,’’ मौलाना साहब को थोड़ा नरम होना पड़ा, ‘‘लेकिन तुम दूसरे के घर में हो इस बात का तो ख़्याल रखो। तुम्हें पता नहीं पंडित जी कितने सफाई-पसंद आदमी हैं।’’

‘‘ग़लती हो गई, साहब। आगे से बाहर फेंक दिया करूँगा।’’

‘‘बाहर गंदगी फैलाना तो और भी ग़लत है।’’

‘‘तो जैसा हुकुम करें।’’

‘‘गली के मोड़ पर कूड़ादान रखा है। हम लोग कूड़ा वहीं फेंकते हैं।’’

‘‘ठीक है साहब आगे से शिकायत का मौका नहीं दूँगा।’’

ठस पूरे प्रसंग में पंडित जी मन ही मन सकुचाए जा रहे थे। सोच रहे थे कैसे बात बदली जाए। एकाएक वह बोले, ‘‘रहमत भाई, आप तो अच्छे वनस्पति शास्त्री हैं। मैंने पाटल-पुष्प लगाया है। पर न जाने क्यों सूखा जा रहा है। चलकर देखिए।’’

‘‘पाटल---?’’

‘‘हाँ, गुलाब।’’

‘‘अच्छा---’’ मौलाना साहब हँस पड़े।

बात बदल गई। बरन वहाँ से हट गया। मौलाना साहब भी पंडित जी की बाग़वानी देखने के बाद घर चले गए।

उन्हें विदा करके पंडित जी लौटे तो बरन कमरे के दरवाज़े खड़ा था। उड़ा-उड़ा-सा चेहरा लिए। पंडित जी संकुचित हो गए और खिसियाई आवाज़ में बोले, ‘‘रहमत भाई भले मनुष्य हैं। बोलते थोड़ा अधिक हैं। उनकी बातों का बुरा मत मानना।’’

‘‘माप़फ़ करना साहब, लेकिन बुरा तो लगा।’’

‘‘क्यों?’’ पंडित जी हतप्रभ रह गए। उन्हें ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी।

‘‘बातें उसकी अच्छी लगती हैं जिसकी कथनी और करनी में भेद न हो।’’

‘‘क्या तात्पर्य है तुम्हारा?’’ मित्र की बुराई सुनकर पंडित जी थोड़ा गरम हुए।

‘‘मुझे तो वह सफाई की दुहाई देकर चले गए। पर ख़ुद गंदगी भरे जूतों से तुलसी-चौरा अपवित्र कर दिया।’’

पंडित जी अवाक रह गए। बात बिल्कुल सही थी। मौलाना साहब ने तुलसी चौरे की सीढि़यों पर पैर रखकर जूते कसे थे।

अपनी बात कहकर बरन अंदर चला गया। पंडित जी ठगे-से थोड़ी देर वहीं खड़े रह गए। फिर धीरे-धीरे सिर झुकाकर अपने कमरे में चले गए।

पंडित जी ने उस दिन भी तीन बार पूरा तुलसी-चौरा धुलकर पवित्र किया। और दिनों में यह रोज़-मर्रा के कामों की तरह हँसी-ख़ुशी होता था, पर आज वही काम उन्हें बहुत भारी लगा।

***