दोस्तों !..आज मैं जिंदगी के उस दोहराहे पर खड़ा हूँ जहां मेरे लिए यह तय कर पाना संभव नही कि मैं किस रास्ते का चुनाव करू?
एक ओर जहां साहित्य है तो दूसरी ओर मेरी जिंदगी ! ...
भला कोई तो बताये इन विकल्पों में किसका चुनाव करूँ ?..
यूँ तो दोस्तों!..आपके मिश्र को साहित्य का कोई विशेष ज्ञान नही है ...पर क्या है ना !
बचपन से ही साहित्य और साहित्यकारों की दुनियां मुझे बहुत प्यारी लगती है...
सच ये सहित्य से ही प्रेम और लगाव का परिणाम है
..कि चंद शब्दों को माध्यम बनाकर अपनी ज्वलंत जिंदगी से आपको रूबरू कराने की एक कोशिश कर रहा हूँ... सच पुछएँ दोस्तों यदि मेरे हृदय में साहित्य से अनुराग न होता, तो शायद ये जिंदगी थम सी गयी होती..।.
..मैं चाहकर भी नहीं बया कर सकता कि किस तरह प्रकृति और परमात्मा मेरे हौशलो की परीक्षा ले रहा है....
पर कुछ भी हो ..कैसी भी परिस्थिति ही क्यों न हो !..
हर .एक भयाभव परिस्थिति में भी मेरा हाथ थामे मुझे धैर्य दिलाता जो अदृश्य मगर लौकिक शक्ति नजर आती है .....
असल वह साहित्य है ।..
. ये कहना मिश्र! कोई अतिश्योक्ति नही की साहित्य से बढ़ा शायद की मेरे जीवन मे कोई अन्य पारितोषिक हो ..
.बेहतर तो यह है कि एक साहित्यकार ही
साहित्य के गुणों का व्याख्यान कर सकता है ...मेरे जैसे अदने से बालक से भला ये कैसे संभव हो।...
लेकिन कुछ भी हो ..इस साहित्य ने मुझे सहारा दिया है तो यकीकन हम भी साहित्य साधना से कभी पीछे नही हटेंगे ...
अब परिणाम कुछ भी हो ..पर साहित्य के सेवा भाव से एक तट भी विचलित नहीं हूँगा...
पर दोस्तो!... इन दिनों मन मे एक निराश स्वर गुंजित हो रहा है ...वह है अपने सपनो का
. कभी कभी तो सोचना हूँ ...कि साहित्य साधना के चलते मेरी जिंदगी कुछ यूं उलझती जा रही है ..कि मेरे सपने और मेरे अपने सभी क्रमश टूटते और रूठते जा रहे है ....
मुझे खुद से भी सदैव ऐसा लगता है कि मैं जिंदगी को कुछ ज्यादा ही गहराई से सोचने लगा हूँ.....
मिश्र !मेरी उम्र जवां जरूर है पर हकीकत ये है कि जवां दिलो को रास आना वाला भोग-विलास मुझसे दूर ही रहता है .......
मैं तो बस कागज और कलम की दुनिया मे जा बसा हूँ!..
ये दुविधा का पल है क्योंकि मैं 21वीं सदी के युग मे जी रहा हूँ... और ये तो जनजात है कि 21वीं सदी तकनीक की सदी है... तो ऐसे में मिश्र क्या चुनूँ मैं ?..
साहित्य या सपने ,..?
.क्या सब कुछ हालात पर छोड़ दूं ...
यदि नही तो क्या करूँ मैं !..
सच मेरे अन्दर इतना साहस नही कि मैं ऐसी विषम परिस्थिति में भी अपने को को उबार पाऊँ।
दोस्तों हमें पता है ऐसी स्थिति आपके भी समक्ष जरूर आयी होगी !...
क्योंकि ये जिंदगी है न जो ..
हर एक इंसान के धैर्य की परीक्षा लेती है ....
अमूमन देखा जाता है कि इन संघर्ष के दिनों में हम अपने आप को नियंत्रित नही कर पाते है और अपने लक्ष्य से विचलित हो जाते है .....ऐसा ही घटनाक्रम ज्वलंत मेरे समक्ष प्रस्तुत हो रहा है...
दोस्तों मुझे साहित्य से कोई परहेज नही , बल्कि बहुत प्यार है !...पर साथ ही साथ अपने जवां सपनो को भी बचाएं रखने की चुनौती है .....
सच मेरी जिंदगी एक निबंध के शीर्षक की तरह उभर कर आई है !..जो इस प्रकार है ..."साहित्य और स्वयं "...
साहित्य तो मेरी एक साधना है ..जिसका पालन पोषण अति स्वभाग्य से मुझे प्राप्त हो रहा है ...तो भला मैं इससे पीछे कैसे हट जाऊं....
लेकिन मिश्र क्या यह जरूरी है कि साहित्य की साधना में अपना सर्वस्व लुटाकर जग हँसाई का पात्र बनूँ......
चलो मिश्र ! एक पल मान भी ले की मैंने साहित्य को अपना परम् ध्येय बना लिया !...
लेकिन यदि जीवन में तपस्या पूर्ण विकसित न हुई।
तो लोगों के आलोचना और कटाक्ष कौन सहेगा...। लोग तो कहते फिरेंगे--" कि जब जवां थे तो बनने साहित्यकार चले थे...
यदि कोई काम थाम अच्छे से करते तो शायद ये हाल न होता ।"......
दोस्तों मैंने अपने जीवन मे कई साहित्यकारों की जीवनी पढ़ी !...
जिनकी साहित्य -साधना अपने -आप में उल्लेखनीय है !.....
मिश्र मुझे स्मरण है कि एक रोज मैंने महाप्राण निराला की जीवनी पढ़ी थी ...
मैंने पढ़ा !..
महाप्राण निराला की निर्धनता इस हद तक थी कि कभी -कभी तो नग्नवेशधारी ब्राह्मण भूखा ही सो जाता था ...कितने आश्चर्य की बात है न दो वक्त की रोटी भी मां भारती के तपस्वी को नही मिल पाती थी !.....
लेकिन विडंबना देखिये तो जरा इस समाज की मरणोपरांत हम उनका यशगान इस उत्साह से करते है जैसे इस समाज के नही बल्कि और जहां के लोगो ने उनका तिरस्कार किया हो ..
मिश्र ! ऐसी न जाने की कितनी ही बाते है जो इस साहित्यकार के मन मे घर किये है....
जिस समाज ने निराला की साहित्य साधना को जरा भी महत्व नही दिया और उनकी निंदनीय उपेक्षा की...."तो भला आप सोच सकते है कि आपके मिश्र की साहित्य साधना का क्या होने वाला है ....
बस यही घटनाक्रम
जो मेरे हृदय को झंझोर देता है ...लेकिन फिर भी न मैं किसी की बात पर प्रक्रिया नही देता वह इसलिए कि वक्त के साथ कभी मेरा भी व्यक्तिव और कृतित्व निखरकर आयेगा...
..फिर उनकी खामोशी उन्हें हर एक सवाल का जवाब खुद बा खुद दे देगी..
दोस्तों असमंजस साहित्य और स्वयं ?..के मध्य चुनाव का है ...और मुझे लगता है कि इस निबंध में तो क्या जीवन के अनुबंध में भी इसका समाधान संभव नहीं ...
ये अनवरत है ..और जीवन और मृतु के मध्य तक बार -बार अपने आप को दोहराता रहेगा।...
धन्यवाद!..
स्वयं प्रकाश मिश्र