The Times of Ishrat in Hindi Moral Stories by इशरत हिदायत ख़ान books and stories PDF | द टाइम्स ऑफ इशरत (पत्र शैली)

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द टाइम्स ऑफ इशरत (पत्र शैली)

मैं रमिया बिहाऱ प्रवास के दौरान दोस्तो को पत्र लिखता रहता था क्योंकि तब मोबाइल की सुविधा नही थी। यह आपको विचित्र लग सकता है कि मैं अपनेपत्र अक्सर अखबार के रूप में लिखता था। इस अखबार का नाम भी रख लिया था, 'द टाइम्स आफ इशरत'। एक पत्र आप को दिखाता हूँ, जो रबाब अहमद के नाम है। उन दिनो जिन्दगी में जो ज्वार-भाटा सा उतार-चढ़ाव हो रहा था। उसमें बहुत हद तक रबाब अहमद की भी सहभागिता थी।
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09 सितंबर 1996 ईस्वी रनिया बेहड़, से प्रकाशित।
(( संपादकीय))
वह सबक जो दुनिया का कोई स्कूल नही सिखाता, ज़िन्दगी की हक़ीकत सिखा देती है। मुझे भी सिखाया। वह सब सिखाया जिससे अभी तक अनभिज्ञ था।
मिथक में जैसे अनेक चेहरे अज्ञात चेहरों का रूप धर के छलते पाए जाते हैं। ज़िन्दगी में भी अनेक विश्वास और आशाएं छलावा बन जाती हैं। - मेरी आशाएं भी छलावा बन गयीं। गलती मेरी ही है कि मैं लोगों को जल्दी समझ नही पाता हूँ।
एक माह पहले की बात है, जब धमौला से मेरे विवाह का प्रसंग चल रहा था। मुझे लगा कि वह लोग मेरा मूल्याकन ठीक नही कर रहे हैं। एक रिश्ता और अमेठी से एक मास्टर साहब के यहाँ से था। बहुत ही भले और नेक आदमी थे लेकिन उस तरफ अभी ध्यान नही था। मैंने धमौला को लेकर सोचा, कि शादी अपने आप में इतनी अहम नही है कि उसके लिए ज़िन्दग़ी ही दाँव पर लगा दी जाए। मेरे विचार से उठाया गया कदम ज़िन्दग़ी का आधा सच लगे तो उसे वापस लौटा लेना चाहिए। मैंने फैसला किया। मुझे आधा सच नही जीना है। और फिर मन में प्रतिज्ञा कर ली कि एक वर्ष तक इस विषय में सोचना नही है। किसी की भी सुनना नही है। एक वर्ष तनावमुक्त स्वतंत्र जीवन जीना है। ....बे फिक्र ज़िन्दगी । जी रहा था। याद करो, मैंने पिछले खत में कहा था। मुझे आसमान बेंचकर सितारे खरीदना पसंद नही। पर ख़ुदा का जाने कैसा निज़ाम है कि अक्सर आदमी का अपना सोचा हुआ धरा का धरा रह जाता है।
उस दिन जब जाकिया आपा ने कहा था, उनका मुँह जाने कितना मीेठा था कि उनका मुँह देखते हुए, मैं अपने फैसले के ख़िलाफ़ मना नही कर पाया। फिर मुझे मारूफ़ ने बताया कि गुड़िया नील मायल आँखों वाली एक भली लड़की है और पढ़ी-लिखी तो है ही। मौलाना साहब तो एक अच्छे इंसान हैं, इसमें कोई दो राय नही। मस्जिद में इमामत करते हैं। समाज में इज़्जत है। यह अच्छी बात है। पैसा नही है ज़्यादा तो हमें क्या फर्क पड़ता है। मुझे उनसे कौन सा कुछ चाहिए है। आपको एक बात बताऊं, मारूफ़ के बताने के बाद मुझे गुड़िया से एक गायवाना लगाव सा हो गया था। मोहब्बत भी कह सकते हो। - एक अहमकाना मोहब्बत!
एक लेखक कितना भावुक और संवेदनशील होता है। वह किसी का बुरा नही चाह सकता है। किसी की भावनाओं को ठेस नही पहुँचा सकता है। न किसी की आह और आँसू देख सकता है। यही वजह है जब जाकिया आपा ने कहा कि मैं तुम्हारी बहुत दुखियारी बहन हूँ तो उनके इस जुमले ने प्यार और आदर ही नही बल्कि अपने लिए सहानुभूति भी पैदा कर दी। मैने तो उन्हें सगी बहन सा ही माना था और निश्चय कर लिया था कि ऐसा समय नही आने दूँगा कि जिस तरह वे अपने भाई मोहसिन की वजह से शर्मसार हुयी हैं। अब इस भाई की वजह से किसी के सामने शर्मिंदा नही होने दूँगा। पर मैं यह नही जानता था कि वे इतना जीवंत अभिनय कर लेती हैं। सच तो यह है कि उन्होने मेरी समर्पित भावनाओं का मूल्य नही समझा और उल्टा यह कहकर अपमानित करना शुरू कर दिया कि मैं उन्मादी हो गया हूँ। - मैं गुड़िया को लेकर दीवाना हो गया हूँ। शायद उन्हे यह पता नही, पर यह बात ख़ुदा जानता है कि मैं जीवन में किसी बात और किसी चेहरे को लेकर उन्मादी कभी नही रहा हूँ। यह तो उनका अपनापन था, जो मुझे इतना पिघला गया। कि मैं इतना ज़्यादा लचीला होता चला गया।
ख़ुदा का शुक्र है कि उसने मुझे सब तरह से संपन्न और समर्थ बनाया। ज़िन्दगी में हमारे सामने ऐसा समय नही आया कि मुझे लोगों के पीछे भागना पड़ा हो बल्कि लोग ही मेरे पीछे भागते रहे हैं। जहाँ तक सौन्दर्य का सवाल है तो वह तो संसार में सर्वत्र विद्यमान है, उसके पीछे भागने का प्रश्न ही कहाँ उठता है। गुड़िया के लिए मेरे मन में प्रेम से कहीं बढ़कर सहानुभूति रही है। मैं सोचता हूँ, उसके साथ ठीक नही हुआ। एक लड़की के साथ ऐसा नही होना चाहिए। लेकिन मेरे समीप वह कोई चीनी सुन्दरी ली-सुअॉगं नही है, जिससे फ्रांस का राजदूत वेलफ्राय मोहब्बत कर बैठा था। फिर दोनो को मिलाने के लिए तत्कालीन फ्रांस सरकार चीन को दो बड़े परमाणु बिजली घर देने के लिए तैयार हो गयी थी, पर चीन सरकार ने उस प्रस्ताव को बड़ी निर्दयता से ठुकरा दिया था और ली-सुअॉगं को कैद में डाल दिया था। ली-सुऑगं इस सदी की शायद सबसे कीमती लड़की है।
लेकिन मैं वेलफ्राय नही हूँ, जो सहज ही एक सुन्दर लड़की के लिए इतनी बड़ी कीमत देने के लिए तैयार हो गया था। जो लोग मेरे दीवाना होने की बात कहते हैं या समझ रहे हैं, यह उनका समझना है, मेरा नही। लोग कुछ बातें कहते होंगे। बहुत सी तो मुझ तक पहुँच ही नही पातीं और जो पहुँच जाती हैं, उनका मेरे लिए कोई महात्व नही है। फिकरे कसने वालों को कहना चाहूँगा, उनके विचार उन्हें ही मुबारक हों।
पता नही किसने मुझ से एक दिन कहा था कि मैं सरैंया में लोगों की नज़र से उतर गया हूँ। शायद उसे आप अच्छी तरह से जानते हैं - रिश्ते में हैं आपके। मैं तो जानता ही हूँ। एक माँ की कोख से जन्म लेकर कोई इतना छल सकता है, नही जानता था। बहरहाल उन्हें इतना अवश्य कह दीजिए। अगर कह सकते हैं कि जब तक मेरी नज़र में मेरी इज़्जत है - कीमत है। तब तक मेरे सम्मान को ठेस नही पहुँचती। जिनकी नज़र में उतर गया हूँ, वे आगे से मेरे मामलों की तरफ नज़र न उठाएं और न नज़र आएं बस। मैं सब खेल समझ गया हूँ। वह अभी भी हमारे साथ खेल रहे हैं। शायद कहीं अपनी बिरादरी में कोई लड़की होगी। सोचा होगा कि यह रिश्ता तो तय ही हुआ जा रहा है। आपका दोष यह है कि वह आपको वह रुपये और अँगूठी वापस नही लेनी चाहिए थी, जो फुफ्फी गुड़िया को पसंद करके देकर आयीं थीं। ऊपर से आपने चार-पाँच दिन तक किसी को बताया तक नही। आपको मौलाना साहब को कहना चाहिए था कि "ठहरो, जो आपको देकर गया है, अभी मैं उसको बुलाता हूँ। आप यह सब उन्हें ही वापस करें।" लेकिन आप ने ऐसा नही किया क्योंकि तब शायद बात बिगड़ते-बिगड़ते बन सकती थी और आप या कोई और ऐसा नही चाहते थे।

एक बात और किसी ने मुझसे कही थी कि मैं बात-चीत ज़्यादा करता हूँ। इसका मतलब यह तो नही, जो लोग कम बोलते हैं या ख़ामोश। रहते हैं, वे बड़े होशियार होते हैं। मैं समझता हूँ, इंसान को गूंगा होने की अपेक्षा स्पष्टवादी और तार्किक होना चाहिए, बात करना बौरा होने से अच्छा है। हाँ, यह अलग बात है कि कुछ लोग गूंगों को पसंद करते हैं क्योंकि वह बोलते नही सिर्फ सुनते हैं। भारतीय लड़कियां भी पति के रुप में ऐसा ही पति चाहती हैं ,जो जीवन भर सिर्फ सुनता ही रहे!
मैंने कई बार महसूस किया कि जिनको मेरी बात समझ नही आती वह ऐसा ही कहते हैं। पर मेरी यह बहुत बुरी आदत है कि कई बार बात को उसके भाव के साथ संपूर्णता में कहने के लिए कठोर हिन्दी शब्दावली का उपयोग कर जाता हूँ। मुझे याद ही नही रहता सामने वाले की पकड़ सिर्फ पन्द्रह सौ से दो हजार काम चलाऊ शब्दों तक ही है, ऐसे लोगों को मेरी बातों से कोफ़्त होना स्वभाविक है। मैं जानता हूँ, आज जीवन में मैं जहाँ हूँ, वे वहाँ नही हैं और वह जहाँ हैं ,उस जगह से मैं गुजर चुका हूँ। चेतना और विचारशीलता की यह खांई वह चाह कर भी छलांग नही सकते। बस कुछ हद तक समझ सकते हैं। अम्रता प्रीतम का कथन है कि इस दुनिया में व्यक्ति अपना बहुत कुछ माँ की कोख में छोड़ कर आधा-अधूरा जन्म लेता है। फिर वह लोग जो अपनी मेंहनत और लगन से उस अधूरेपन को संपूर्णता में बदल पाने में सफल हो जाते हैं, वे सहज ही लोगों की ईर्ष्या और द्वेष के शिकार हो जाते हैं। लोगों का ऐसे विचारशील और कई बार तो आर्थिक रुप से संपन्न लोगों को देखने से बढ़कर ज़्यादा दुखदाई कोई दूसरी बात नही होती है। इस लिए मेरे प्रति लोगों की उदासीनता और आलोचना बहुत स्वभाविक है।
उस दिन नूर आलम भाई ने बताया, "रबाब भाई ने तुम्हें बहुत जरूरी काम से बुलाया है।"
और मैं उनके बताने से ही घर चला आया था। अगर जानता होता कि वहाँ कोई पार्टी मौजूद है तो शायद ही आता क्योंकि पिछले दिनो मेरे मन में जो धूल पड़ी थी, वह अभी तक साफ नही हो सकी। उस गर्द व गुबार से मुझे अभी तक घुटन महसूस हो रही है। आप लोग तो शांत तालाब में पत्थर फेंक कर उसमें लहरें उत्पन्न कर किनारे हो जाते हो, पर पानी में लहरें चल पड़ती हैं। पानी पर क्या गुजरती है, यह आप क्या जाने? पानी को कितनी मानसिक पीड़ा सहन करनी पड़ती है, आप को इससे क्या सरोकार?
जानता हूँ, यह सब मेरे प्रति आत्मीयता से समर्पित होकर कर रहे हो। आप लोगों की मोहब्बत से इन्कार नही। आप लोगों के प्रति मेरे दिल में बहुत इज़्जत है। यह हमेशा यूँ ही बनी रहेगी। लेकिन आपसे विनती है, मेहरबानी करके मुझे और न उछालो। बस रहने दो। पिछले दिनो काफी अपमानित हो चुका हूँ। अब और नही होना चाहता। फिलहाल तो अभी शादी करने का विचार छोड़ दिया है - विवाह को लेकर मेरे मन में घृणा सी भर गयी है। वह अपने आप में इतना अहम नही होता है कि उसके लिए संपूर्ण अस्तित्व ही हार दिया जाए। बनी हुयी छवि ही धूमिल कर ली जाए।
मैं जानता हूँ, शादी न करके अपने आप को अपने हाथ में साध के रखना होता है। मेरे लिए यह इतना मुश्किल नही है। अकेलेपन में ही तो गुज़ार रहा हूँ। अकेलेपन का भयं तो लड़कियों को होता है कि दुनिया के भयानक जंगल से अकेले नही गुज़र सकतीं, दुनिया के भयं से गुज़रने के लिए किसी मर्द का मुँह देखना, उनकी विवशता हो सकती है, पर मेरी नही। शायद इसी लिए हर लड़की मन ही मन अपने भावी जीवन के शहजादे के रुप में एक पुरुष छवि की कल्पना को गढ़ती रहती है। मगर मैं तो पुुरुष हूँ। मुझे अकेलेपन का डर नही, तो कोई ख़ुशी भी नही। यदि जीवन की पूर्णत: के लिए किसी तरुणी के मुँह की कल्पना करना आवश्यक भी हुआ, तो भी जल्दी नही है। मैं ज़िन्दगी के छोटे-छोटे फैसले भी बहुत सोच-विचार कर करता हूँ। फिर शादी जैसा महात्वपूर्ण निर्णय जल्दबाजी में क्यों ? भला यह क्या बात हुयी कि एक पार्टी से बात नही बनी तो उसी खीज में अलग-अलग कई पार्टियों को आमंत्रित कर लिया। भाई, मैं जीता जागता इंसान हूँ , कोई मरा हुआ ढोर-डंगर तो नही, कि गिद्धों के हवाले कर दिया जाए। - और न ही मैं *'मोहसिन' हूँ, जिसे कोई परी उड़ा ले जायेगी।
मैं फिल्में कम देखता हूँ, पर अच्छी फिल्में देखने का मोह छोड नही पाता हूँ। कभी एक हालीवुड फिल्म देखी थी, शायद विश्व फिल्म महोत्सव के दौरान टी.वी. पर देखी थी। कुछ फिल्में ऐसी होती हैं, जो जीवन को एक दिशा दे जाती हैं, वह ऐसी ही फिल्म थी। फिल्म का नायक सम्राट अपनी एक लेडी जासूस सारा फ्लोरिना को समुंद्री जहाज पर महात्वपूर्ण काम सौंप कर रवाना करता है, जिसे वह मन ही मन प्यार करता है, तो किनारे से दूरबीन लगाकर देखता है कि सारा के साथ उसका एक प्रेमी भी है, वे दोनो डेक पर खड़े हैं। यह देख प्रिंस विचलित हो उठता है। तब प्रिंस का एक शुभचिंतक अपनी आँखों से दूरबीन हटाते हुए कहता है, "सर, लुक ए विट हायर।"
ऊपर उस लेडी जासूस और उसके नौजवान प्रेमी के सिरों पर प्रिंस के राज्य का ध्वज हवा में लहरा रहा था।
मुझ से सांत्वना के यह शब्द किसी ने नही कहे लेकिन मैंने सुने हैं। मेरी आत्मा मुझे कह रही है। मेरा अन्ता:करण मुझसे कह रहा है, "इशरत, लुक ए विट हायर।"
और मैं ज़िन्दगी की सारी हारों, परेशानियों, टूटे हुए विश्वासों, अटकावों और सब तरह की विध्न बाधाओं से ऊपर देखने की कोशिश कर रहा हूँ, जहाँ मेरा लक्ष्य, मेरी प्रगति , लोक प्रियता और वह मान-सम्मान है, जो यहाँ रनिया बेहड़ के लोगों और बच्चों से मुझे बराबर मिल रहा है बल्कि उससे भी ऊपर जो ईश्वर ने मुझे रचना धर्मिता की कला स्वरुप प्रदान किया है।
मैंने कलम को कस कर पकड़ सीने से लगाया और बेेख़ुदी में होठो से चूम लिया है। अल्लाह की तमाम नेमतों में से क़लम भी सबसे बड़ी पाक नेमत है, तभी तो क़ुरान में क़लम के हवाले से अल्लाह ने फरमाया है, "और हमने क़लम के जरिए से इल्म सिखाया और इंसान को वह इल्म सिखाया, जिसे इंसान नही जानता था।"
सोचो तो क्या मर्तबा है क़लम का। है कोई पूरी दुनिया में, जो क़लम के बिना इल्म हासिल कर सकता है? शायद बिना क़लम पकड़े यह संभव नही है। मैं तो क़लम का सैदाई हूँ क्योंकि मैं इसे छू सकता हूँ, इसको गले लगा सकता हूँ और अपना सारा दर्द इससे कह सकता हूँ। किताबों और क़लम का मकाम मेरे आसमानो पर है। इन से मुझे इस कदर इश्क़ है कि चाहूँ तो सारी ज़िन्दगी लिखते-पढ़ते हुए ख़ुशी से गुज़ार सकता हूँ।
संपादकीय : शेष प्रष्ठ 5 पर पढ़ें -
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मोहम्मदी से रनिया बिहाऱ - एक उदास सफर
मोहम्मदी वह नगर, जो मेरे लिए तो स्वर्ग है। बच्पन से आज तक कभी मोहम्मदी को मैंने इतना उदास और बोझिल नही पाया। चाहें जहाँ भी जाता, पर मोहम्मदी को नही भूलता था। अपना वतन कोई भूल भी कैसे सकता है। पर पिछली जून की छुट्टी पर जब आया था तो पता नही मुझे या मोहम्मदी को क्या हो गया कि मेरा जी निढ़ाल था। बिलकुल अच्छा नही लग रहा था। सब कुछ रीता-रीता उदास और सूना था। यहाँ रमिया बेहड़ में आकर ही मेरे बदहवास मन ने थोड़ा सुकून पाया। मोहम्मदी आते-जाते सफर में कोई किताब पढ़ता था। हालांकि *मधु की दी हुयी मेरे पास कई किताबें थीं, वह भी मेरे पसंदीदा लेखकों की। मैं किन लेखकों को पसंद करता हूँ , मधु को पता है, वह पुस्तकों के चुनाव में मेरी पसंद का ध्यान रखती है। पर आज चाहते हुए भी पढ़ने की इच्छा नही कर सका। ज़िन्दगी में पिछले दिनो जो कुछ घटित हुआ, उस दिन पूरे सफर भर मन-मस्तिष्क में चलता रहा। एक- एक बात जहन में चल-चित्र की तरह से चलती रही। सोच की न खत्म होने वाली डोर उलझती रही और सुलझती रही। मुझे यह पता ही नही चला कि कब-कब बस पर चढ़ा और आखिर में रमिया बेहड़ में उतर गया। इस बार तो मुझे यहाँ की बुरी जलवायु भी रास आ गयी मालूम होती है। ऑरसेनिक युक्त पानी भी पहले सा पीने में नही अखरता है। यह कैसा जादू , ओ ख़ुदाया...!
सोचता हूँ , शायद अगली बार जब आऊं तो मोहम्मदी भी रास आ जाए।
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मधुलिका एक मधुर दोस्ती का आग़ाज़

कहीं पर पीछे अनचाहे ही मधू का ज़िक्र हो गया। जिज्ञासा तो स्वभाविक रुप से होगी कि आखिर यह मधु कौन है? आप ख़्याली घोड़े दौड़ाओ इससे बेहतर है कि मैं ख़ुद ही बता दूँ। नाम मधु है तो जाहिर सी बात है कि एक लड़की ही हो सकती है। समाज का जाने कैसा स्वभाव है कि एक लड़के के मुँह से किसी लड़की का नाम सुनते ही पता नही क्या-क्या कुछ समझना- सोचना शुरू कर देता है। बात यहीं तक हो तो भी गनीमत है बल्कि अक्सर होता यह है कि लोग सुनते थोड़ा हैं और कहते ज़्यादा हैं। यही हाल देखने वालों का होता है। यदि किसी लड़़की को लड़के के समीप भी खड़ा देख लें तो ज़मीन-आसमान के कुलाबे लगाने लगते हैं। पिछले दिनो संध्या भाभी स्कूल में आयीं थी यानी हमारे साथी ओम प्रकाश शुक्ला जी की पत्नी तब एक अद्भुत घटना हो गयी, उस घटना पर तो अलग से एक कहानी ही लिख़ूंगा। संक्षेप में इतना ही कहना चाहूँगा कि मधु को लेकर उन्होने भी मस्तिष्क पटल पर पूरी एक कथा का ताना-बाना बुन डाला था। आखिर किया भी क्या जाए, पूरे समाज की सोचने की एक ही शैली है और सारा संसार एक ही भाषा में हंसता है।
एक दिन मधु अपने स्कूल की कुछ सूचनाएं देने आयी थी। मैंने बस यूँ ही पूछ लिया था, "आपकी पोस्टिंग हौकना-मटेरा में है?"
"जी, सर....!"
"अरे...! वहाँ तक तो आपको नाँव से जाना होता होगा?"
" हाँ, सर ! वोटिंग करके ही जाती हूँ। इतना ज़्यादा पानी है कि मुझे तो देखकर बहुत डर लगता है। मैं तो तैरना भी नही जानती। गिर जाऊं, तो डूब ही जाऊंगी।" वह एक बारगी एक अंजाने भयं से सिहर उठी थी।
मैंने भी हंसते हुए कहा, "आपको डूबना नही पड़ेगा। चलो, कुछ ऐसा करते हैं। आप यह बताओ, क्या यहाँ केन्द्रीय विद्यालय में ड्यूटी कर सकोगी?"
"जी, सर! यहाँ तो बहुत आराम हो जायेगी।" मधु ने अपनी सहमति जता दी।
मैंने दूसरे ही दिन संवद्धीकरण का आदेश बना कर डिप्टी साहब के सम्मुख रख दिया। वे कहने लगे, " ये सब क्या तमाशा है। कोई अटैचमेंट नही होगा।"
"अरे सर...! लड़की है। वोटिंग करके जाती है। कुँवारी लड़की डूब-डाब गयी तो सेत-मेत् को पाप लगेगा!"
मेरी बात सुनकर डिप्टी साहब ठहाका लगाकर हंसने लगे थे। फिर कहने लगे, "अरे यार इशरत....तुम भी बहुत बदमाश हो!" इसके साथ ही उन्होने मधुलिका के संवद्धीकरण आदेश पर हस्ताक्षर बना दिए थे। तब से मधुलिका मेरे ही स्कूल में हमारे साथ काम करती है।
एक दिन की बात है। हम सब लोग ऑफिस में बैठे चाय पी रहे थे। चाय हर रोज स्कूल में ही बनती थी और कभी एक से अधिक बार चाय का प्रोग्राम बनता तो धौरहरा रोड पर बने समलू के होटल से आ जाती थी। होटल स्कूल से थोड़े ही फासले पर है। स्कूल में चाय सियाराम बाबा बनाते थे, जो अनुचर के रुप में कार्यरत थे।
चाय पीते हुए मधु की दृष्टि अलमारी में रखी एक पत्रिका केतकी मासिक पर जा पड़ी, वह पत्रिका को उठा कर प्रष्ठों को उलट-पलट कर देखने लगी थी। सहसा वह चहक कर शुक्ला जी से कहने लगी, "शुक्ला सर, ये देखो, इसमें तो अपने इशरत सर की कहानी छपी है और फोटो भी। इशरत सर तो लेखक हैं!"
"अरे नही, अध्यापिका जी, मैं कोई लेखक-वेखक नही हूँ। मुझे तो बस पढ़ने का शौक है और अपने इसी शौक के बदौलत कभी-कभार छपने का सौभाग्य हो जाता है।" मधु की बात का जवाब शुक्ला जी के बजाय मैंने दिया था।
शुक्ला जी कहने लगे, "आप क्या हमरे मास्टर साहब को ऐसे ही समझती हैं, यह तो बहुत प्रतिभाशाली और योग्य व्यक्ति हैं। देखन मा तो यह लड़का ठाकुर हैं, मगर इनकी भाषा-शैली ऐसी उत्कृष्ट है कि पढ़ने वाला मंत्रमुग्ध हो एक सांस में पढ़ता चला जाता है।" मैं तो शुक्ला जी की बात से अभिभूत हो गया। कुछ कहते न बन पड़ा। बस उनकी ओर हाथ जोड़ दिए।
"सर, पुस्तकें पढ़ने का तो मुझे भी बहुत शौक है। सैकड़ों पुस्तकें पढ़ी होंगी अब तक। जी चाहता है कि लिखूं भी, पर समझ नही आता कि कहाँ से शुरु करूँ ओर कहाँ पर समापन करूँ।" मधु ने समस्या कह सुनाई।
" अध्यापिका जी, इशरत भाई को गुरु मान लो, आपका कल्याण हो जायेगा। इन से ऊचित मार्गदरशन और सलाह मिल जायेगी।" संतोष जी ने मधु को बिन मांगे ही सलाह दे डाली।
" अरे सर, आप क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं। मैं तो ख़ुद ही साहित्य की पाठशाला में विद्यार्थी ही हूँ। जब से यहाँ पर आया हूँ, इन दो वर्ष में कोई पुस्तक तक पढ़ नही पाया। आप को पता है, अच्छा लिखने के लिए बेहतर पढ़ना अनिवार्य है।" मैंने संतोष जी की बात का खंडन किया।
" सर, आपकी इस समस्या का समझो समाधान हो भी गया। आप अपनी पसंद की पुस्तकें बताते जाओ। मैं शहर से आते-जाते लेती आऊंगी।" मधु ने न केवल कहा था बल्कि वह अपने शब्दों की अभी तक लाज रखे हुए है। वह आए दिन बतायी गयी पुस्तकें तलाश कर लाती है। कभी वह अपने द्वारा लिखे गए शब्द-चित्र, कहानी आदि लेकर विचार-विमर्श करने लगती है। मैं अपने सीमित ज्ञान और सामर्थ्य भर उसका मार्गदर्शन करने का प्रयास करता हूँ। इतना भर ही हमारी मैत्री का आधार है बस। मधु गेंहुंए वर्ण की दुबली-पतली, सामान्य कद कांठी की भावुक और संवेदनशील लड़की है, जो मुझसे वैचारिक रुप से प्रभावित है।
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मेरा आवास : उदासियों का आँगन
कभी-कभी दु:ख अकेले नही आते हैं बल्कि अपने सगे संबंधियों को साथ लेकर आते हैं। मेरे मन में बार-बार यह विचार आता है क्योंकि पिछले दो महीने से ऐसा कुछ घटित हो रहा है, जिसकी वजह से मेरे इस छोटे से सरकारी आवास में उदासी की परछाईयां उतरती चली आयी हैं। गुजरे हुए इन दो महीनो में कई बहुत प्यारे लोगों का विकास खण्ड रनिया बिहार से स्थानान्तरण हो गया। हमारे साथ जाहिद बाबू रहते थे, उनका तबादला पसगंवा ब्लाक में हो गया। हमारे पड़ोस के आवास में दो ग्राम विकास अधिकारी विनोद कुमार और विमल कुमार रहते थे, वह भी स्थानान्तरण होकर बहराईच चले गए। एडीओ एस्टीटिक्स नन्द कुमार दीक्षित रिटायर्ड होकर अपने गाँव राजेपारा भदफर सीतापुर जा चुके हैं, वे बड़े विद्वान और व्यवहार कुशल व्यक्ति थे। यह सबलोग जो हर शाम हमारे आवास पर आ जाते थे और फिर रंग की महफिल सज जाती थी। राजनीति, समाज, साहित्य , शेर ओ शायरी हर मौजू पर वार्तालाप होती थी। सम-सामायिक घटनाओ पर चर्चा होती थी। नंद कुमार जी साठ वर्ष की उम्र में भी गाँव,कस्बे और शहर की लड़कियों की आपसी बात-चीत और विदाई के समय रोने की गजब पैरोडी करते थे, देख-सुन कर हंसते-हंसते पेट में बल पड़ जाते थे। यूँ ज़िन्दगी बड़े मजे से गुज़र रही थी। पर अब इस घर में अकेला मैं हूँ और अकेला अल्लाह निगेहवान! शाम से ही गहरी उदासी की अदृश्य चादर फहर जाती है। हाँ, कभी-कभार ईश्वरदीन चौकीदार और पशु चिकित्सालय वाले पंडित जी अवश्य आ जाते हैं लेकिन उनके साथ वार्तालाप कुशलक्षेम से आगे नही बढ़ती क्योंकि उनका बौद्धिक स्तर वैसा नही है।
मधू की दोस्ती ज़िन्दगी में ऐसे वक़्त में आयी थी, जब शायद उसकी बहुत जरुरत थी क्योंकि उसकी दी हुयी किताबें मेरी रात की तन्हाई की भी साथी और ज़िन्दगी की हम सफर साबित हो रही थीं। मैं रात गए तक लैंम्प की धुमैली रोशनी में पढ़ता रहता हूँ और उसको मिस भी करता हूँ । अक्सर किताब हाथ में पकड़े-पकड़े ही सीने पर रख कर सो जाता हूँ। कभी-कभी तो रात की उबाऊ गहरी ख़ामोशी के वक़्त महसूस होता है, जैसे मैं दुनिया का पहला और आखिरी आदमी हूँ। बिस्तर पर पसरे-पसरे मैं सोचता रहता हूँ और इसी दौरान ज़िन्दगी की डोर की बहुत सी उलझी गुच्छियां सुलझायी हैं। ऐसे वक़्त में अक्सर मेरे होठो पर एक जुमला नाच उठता है, " अकेले की उड़ान अकेले की तरफ! शायद यही ज़िन्दगी का सार भी है।
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गोस्वामी तुलसीदास द्वारा हस्तलिखित रामायण
रनिया बिहार मुख्यालय से कोई दस किलोमीटर दूर शारदा के किनारे एक गाँव दुल्ही है। सुनता आ रहा हूँ कि वहाँ पर गोस्वामी तुलसीदास द्वारा हस्तलिखित रामायण की पाण्डुलिपि है। गोस्वामी तुलसी दास के जीवन का कुछ समय इस गाँव से लेकर धौरहरा नगर के उत्तर दिशा में स्थित 'रामवटी' नामक स्थान पर व्यतीत हुआ था। कहते हैं कि वाराणसी से सरयू तट के किनारे-किनारे पद-यात्रा कररते हुए गोस्वामी तुलसी दास जब वर्तमान 'रामवटी' आ पहुँचे तो यहाँ के सुरम्य, शांत एवं मनोहारी प्राकृतिक छटा ने उन्हें सहज ही आकर्षित कर लिया और वे यहाँ पर कुछ समय के लिए ठहर गए थे। बालकाण्ड के अधिकाशं भाग की रचना उन्होने इसी हर-भरे सुन्दर वातावरण के सानिध्य में रहते हुए की थी। यहीं तुलसी दास ने रमणीक अरण्य के मध्य अपनी कुटी बनायी थी, जिसे वह रामवाटिका कहते थे।बहुत दिनो से मन में जिज्ञासा थी कि उस स्थान पर जाऊँ और कालजयी काव्यकृति की हस्तलिखित दुर्लभ पाण्डुलिपि देख पाऊँ। दैवयोग से आज वह समय आ ही गया कि मैं उसे देख पाया। भोजपत्र पर लिखी यह संपूर्ण राम चरित मानस नही बल्कि बालकाण्ड भर है, जो गाँव के एक ब्राहम्ण परिवार के पास सुरक्षित है, वह इसे सहेज कर रखे हुए है। फिलहाल किसी दिन धौरहरा स्थिति उस रामवाटिका के लिए प्रस्थान करूँगा। आप तो जानते ही हैं कि इतिहास और साहित्य में मेरी गहरी रुचि है। रामवाटिका मुझे आकर्षित कर रही है। मैं समझता हूँ कि यह खोज और शोध का विषय है। वास्तविकता की तहों को खोल कर इतिहास की सत्यता को सामने लाने की आवश्यकता है। इससे बढ़कर मेरे लिए यह महात्वपूर्ण है कि आखिर उस स्थान में ऐसा क्या सम्मोहन है कि तुलसी का कवि मन वहाँ रम गया। मैं उसे अनुभव कर आत्मसात करना चाहता हूँ। मैं उस शांती को अनुभव करना चाहता हूँ, जिसने उस कविमन को तुलसी-प्रिया की स्मृति से विमुख कर पारलौकिक प्रेम की ओर उन्मुख कर दिया। मैं सोचता हूँ, शायद वहाँ जाना बैशाख की धूप में तपती रेत पर नंगे पाँव चलने की तरह जलते हुए मेरे मन को शीतलता प्रदान कर सके।
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सपनो का गाँव और गाँव में सपना
हमारे देश की खुशहाली का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि यह मेलों और उत्सवों का देश है और यहाँ की संस्कृति की बुनावट में रीत-रिवाजों, त्योहारो, मेलों और उत्सवों रुपी अलंकारों की ख़ूब झिलमिलाहट है। विभिन्न धार्मिक विचार-धाराओं के संगम ने प्रेम और सौहार्द का चटख इन्द्र-धनुष गढ़ लिया है। शायद तभी यहाँ का हर इंसान अपने में मस्त-मगन रहता है। इस मामले में छोटी-बड़ी नदियों, साखू, सागवान, खैर और चंदन सरीखे वृक्षों के सघन वनो से हरी-भरी यह तराई भी अछूती नही है। प्रति वर्ष बाढ़ से उपजती भुखमरी और गरीबी की त्रासदी को सहन करने के बावुजूद यहाँ के वासिंदों का मेलों और उत्सवों के प्रति उत्साह देख मुझे घोर आश्चर्य होता है। श्री कृष्ण जन्माष्टमी हो या होली का अवसर, यहाँ गाँव-गाँव मेले और द्वारे-द्वारे उत्सव किसी माहौल हो जाता है। दुधवा वन्य क्षेत्र में सदियों से रह रही थारू जन-जाति में होली पर्व के संपूर्ण मास लोकनृत्य और संगीत की धूम रहती है।
मेरे स्कूल से लगी विशाल भगहर झील है, उसकी लंबाई तो मैं जान ही नही पाया, लेकिन चौड़ी भी बहुत है। झील के पानी पर डबसे जैसी मजबूत घनी घास की तहों की परत ऐसे बन गयी है कि उसके घास उगी शुष्क भूमि होने का आभास होता है। गाँव के शराराती लड़के पशुओं का चारा लेने के लिए जब झील के पार जाते हैं तो एक सांस में डू बाँध कर दौड़ते हुए पार हो जाते हैं। फिर उधर से घास का बोझ नाव पर लाद कर लौट आते हैं। कभी अगर घास के फट जाने से पाँव घास में फंस कर पानी में डूब जाता है तो वे बिजली की फुर्ती से उसी घास पर पेट के बल लेट जाते हैं और दूसरे ही पल पाँव को संभाल कर निकालने के बाद गजब की तेजी से दौड़ने लगते हैं, वे कैसे जान-जोखिम में डाल कर यह करतब करते हैं, देखकर मेरे तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। एक दिन मैंने भी यह करतब करने का साहस जुटाया। पर हिम्मत टूट गयी। मैं थोड़ी ही दूर जाकर वापस लौट आया। तब मेरा लड़कों ने उपहास भी खूब उड़ाया था।
झील का पानी सब जगह घास की मोटी परत से नही ढ़का है। घास केवल गाँव से लगे भाग में थी क्योंकि यहाँ पर न तो मछली का शिकार होता है और न ही नाव का उतारा है। गाँव के किनारे से हटकर झील का पानी धूप में शीशे सा झिलमिलाता है और गाँव से दूर हटकर नाँवों द्वारा उतारा होता है। एक समय में कई-कई नावें पानी पर तैरती हुयी इस पार से उस पार और उधर से इधर आती-जाती रहती हैं। झील के उस पार कई गाँव हैं। एक बंगालियों का गाँव विवेकानंद भी है। यह गाँव सरकार ने 1965 में बंग्ला शरणार्थियों को पुनर्वासित कर बसाया था। पर वहाँ पर किसी गाँव में स्कूल नही है, इस लिए वहाँ के बच्चे प्रतिदिन सुबह नाव से उतारा करके पढ़ने आते हैं। नाँव वाले इन स्कूल आने-जाने वाले बच्चों से भाड़ा नही लेते हैं। वे कहते हैं कि यह सब बच्चे पढ़-लिख कर हमारे गाँव की सुख-समृद्धि को बढ़ाने का काम करेंगे। विवेकानंद की दो लड़कियां भी हमारे स्कूल में आती हैं, मंजरी और झरना विश्वास। तभी उनके बाबा भव: कृष्ण विश्वास अक्सर स्कूल आते रहते थे। एक बार दुर्गा पूजा के अवसर पर उन्होने साग्रह किया कि मैं उनके गाँव आऊँ। तब मैं उन्हीं के साथ हो लिया था। रास्ते में उन्होने बताया था कि "आमतौर पर बंगाली मुसलमानो से घृणा करते हैं, यह घृणा बंग्ला में आपसी झगड़ों की वजह से उपजी कड़ुवाहट की वजह से है, जिसको बंकिम बाबू जैसे साहित्यकारों ने यत्नपूर्वक खूब बढ़ावा दिया।"
"तब फिर आपको मुझे नही लाना चाहिए था?"
"गुरु जी, निश्चिंत रहिए। बंगालियों में बंकिम बाबू को नापसंद करने वालों की बड़ी संख्या है। आज स्वतंत्र और शांत बंग्लादेश को देख यह स्पष्ट हो गया है कि मूसलमानो की जैसी आक्रामक और क्रूर छवि गढ़ी गयी है वस्तुत: वह वैसे होते नही हैं और हमारे गाँव में कोई भी बंकिम की विचार-धारा से प्रभावित नही है।" झरना के बाबा ने बताया तो मेरे मन में तैर आयी उदासी छटी।
गाँव के हरे-भरे सुन्दर वातावरण ने मुझे पहली नज़र में मोह लिया। लग रहा था कि पूरा गाँव योजनाबद्ध बसाया गया था। कच्ची दीवारों तो कहीं लकड़ी के ढ़ांचे पर गोल शंकुवाकार और चौकोर शंकुवाकार मोटे-मोटे घास-फूस के छप्परों से बने घर देखते ही बनते थे। चौड़ी-चौड़ी गलियों के किनारे समकोण पर बने घर और कई घरों के सामने पेड़-पौधों से आच्छादित लॉन और पूरे गाँव में ऐसी स्वच्छता मैंने पहले नही देखी थी। मकानों की दीवार से टिके हुए पतली-पतली लकड़ियों पर गोबर की मोटी परत चढ़ाकर बने कंडों की लंबी कतारें भी सुन्दरता का आभास कराती थीं। भव कृष्ण जी घर और गाँव के लोगों को पूछने पर बंग्ला भाषा में मेरे बारे में बताते थे। तब पूछने वाला आदर और शिष्टचार से नमस्ते कर हाथ जोड़ देता। मैं तो यहाँ आकर गदगद हो उठा था। मैं मन ही मन सोच रहा था, यदि मैं फिल्मकार होता तो इस गाँव का फिल्मांकन जरूर करता। पर अस्सिटेंट कैमरामैन के रुप में फिल्म इण्डस्ट्री को तो कई वर्ष पहले ही छोड़ चुका था।

विवेकानंद गाँव तो भुलाए नही भूल रहा था। पुरुष मन भी भौंरे सा चंचल होता है, जो किसी भी पुष्प का अपमान नही कर सकता है और गुंजन करता हुआ एक फूल से दूसरे और तीसरे फूल पर क्षण-क्षण जा बैठता है। ऐसा ही कुछ उस दिन हुआ था। जब पूजा की थाली हाथ में पकड़े सजी-संवरी सांवली सी उस नवयोवना ने झरना से मेरी ओर संकेत कर बंग्ला भाषा में कुछ पूछा था। प्रतियुत्तर में झरना ने जो कहा था, उस बंग्ला वाक्य का 'गुरु जी' ही मैं समझ सका था। फिर उसने झरना से शायद यह कहा था, " तेरा गुरु तो सुन्दर है..!" और वह आँखें तरेर कर इठलाती हुयी आगे चल पड़ी थी। उसकी भाव-भंगिमा में पता नही कैसी कशिश थी कि मेरा मन उछल कर धरती पर पाँव-पाँव उसके पीछे चल पड़ा था। मेंने बाद में झरना से उसके बारे में पूछा था, तो उसने बताया था कि उसके पड़ोस में सत्यम् चाचा की लड़की है और उसका नाम स्वप्ना राय है। और उस दिन यह शब्द मुझे पवित्र मंत्र जाप सा लगा था।
उस दिन रात को जब मैं सोया, तो मुझे एक अजीब सा सपना आया। -एक विचित्र सपना। यह नींद में भी दिवा:स्वप्न देखने जैसा था क्योंकि मैं सपने में एक शिक्षक नही बल्कि युवा फिल्मकार था। शायद पिछले दिन की एक पल की सोच वाली रील निद्रावस्था में एक बार पुन: मस्तिष्क-पटल पर चल पड़ी थी। जैसे अक्सर कई युवा फिल्म देखते हुए पर्दे पर नायक के स्थान पर अपने आप को देखना शुरू कर देते हैं वैसे ही मैं अपने आपको एक समय मेरे गुरु रहे चर्चित फिल्म निर्देशक मंजर अली के स्थान पर स्वयं को देख रहा था। यह बहुत सहज और वास्तविक लग रहा था। मैंने स्वप्न में भी शादी न करने की जैसे शपथ ले रखी थी। विवाह की उम्र बीतने को आ पहुँची थी। यह शायद वह डर था, जो कई बार मेरी भाभी श्री ने मुझे दिख़ाया था।
विवेकानंद गाँव में सेट लगा हुआ था। फिल्म 'नायिका' का शूट चल रहा था। आर्टिस्ट रूबीना ख़ान ने री-टेक शॉट कर-कर थका दिया था। फिर जब पैक-अप हो गया तो मैं सीधा नहाने के लिये चला गया था। अभी मुझे यहाँ दो दिन और ठहरना था। मैं भव कृष्ण विश्वास के यहाँ ही ठहरा था और मैनेजर यहीं पर पूरी यूनिट की खान-पान की व्यवस्था जुटा रहा था। शाम से पहले फुर्सत के क्षणों में बैठा फिल्म मैगजीन में अपनी ही फिल्म 'नक़ाब' की समीक्षा पढ़ रहा था, जिस पर मुस्लिम समुदाय की तीखी प्रक्रिया हो रही थी। उसी समय भव कृष्ण जी आ गए। मैगजीन एक ओर रख दी और इस क्षेत्र के जन-जीवन के बारे में बात करने लगा। बातों-बातों में ही उन्होने पूछा, "यदि बुरा न माने तो एक बात पूछना चाहूँगा।"
"श्योर , बुरा मानने की बात भला क्योंकर पूछेंगे!"
"नहीं-नहीं, ऐसी बात नही है। मैं वास्तव में यह जानना चाहता हूँ कि आपने अब तक विवाह क्यों नही किया, क्या कोई पसंद की लड़की मिली नही?"
" हाँ, ऐसा ही कुछ ...दरअसल लड़कियां तो कई आयीं लेकिन मुझे फिल्मी ग्लैमर से ऊब होती है। मैं इस चकाचौंध से हटकर ऑरेंज मैरिज करने के पक्ष में हूँ। कुछ लड़कियां देखीं, पर जंची नही। इधर व्यस्त होने के चलते सोच नही पाया बस।"
" इशरत बाबू , आपने हमारे परिवारों की लड़कियां नहीं देखी होंगी? कहो, तो दिखाऊं ?" उन्होने सीधे और सपाट शब्दों में शादी का प्रस्ताव ही रख दिया।
" ठीक है, देख लूँगा।"
"देख क्या लूँगा। कहो तो कल ही दिखाऊँ ?"
" चलो, कल ही सही।" मैंने अनमनेपन से कह दिया। सोचा पसंद तो वैसे ही नही आयेगी।
फिर जैसा कि निश्चित हुआ था, उन्ही के घर की एक छोटी बंग्ला हट में एक प्यारी सी सांवली सुन्दर नैन-नक्श वाली वाली लड़की को देखा, साड़ी के पट में से लड़की का आधे से भी कम चेहरा दिख रहा था, उसके परिजन भी साथ आए थे। वह लज्जा से सहमी सी बैठी थी। मुझे भी जाने क्या सूझी। मैं सहसा ही पूछ बैठा, " खाना बनाना जानती हो न?"
" खाना तो तभी बनाऊँगी, जब पहले रसोई बनाओगे। तब बनाऊँगी और खिलाऊँगी भी..!" उसने शर्माते हुए धीमे स्वर में कहा। उसकी बातों ने तो मुझे लूट ही लिया।
"अच्छा, यह बताओ, तुमने पढ़ाई कहाँ तक की है?" यह मेरा दूसरा सवाल था।
" मैं आठवीं तक पढ़ी हूँ। झील के पार पढ़ने जाती थी" उसने सहज भाव से बताया।
" तब फिर तुम अच्छा खाना कैसे बना पाओगी?" मेंने अविश्वास प्रकट किया।
" खाने से शिक्षा का क्या संबध...? दुनिया की हर औरत खाना ही तो बनाती है....और फिर अच्छे खाने, खराब खाने में छटाक भर घी-तेल का ही तो अन्तर होता है।" उसकी वाकपटुता मुझे भा गयी। फिर मैने सिर्फ इतना ही पूछा, " तुम्हारा नाम क्या है?
" स्वप्ना राय।"
" अरे...! तो तुम...उसी दिन वाली हो....! झूठी कहीं की...! झरना ने मुझे सब बता दिया था कि तुमने जेएनयू से पढ़ाई की है!" मैंने अब उसे ध्यान से देखा तो लगा कि वह कटार सी ह्रदय में ही उतर गयी है! मैं जब विवेकानंद से 'नायिका' की शूटिंग पैकअप करके लौट रहा था तो ज़िन्दगी की हक़ीकी नायिका भी साथ में थी।
सुबह जब मेरी आँख खुली तो रात के सपने को स्मरण कर हंसी छूट गयी।
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'देख मेरा रुप' सृजन
इन दिनो मकई की लहलहाती फसल पक कर तैयार है। स्कूल के बाद मेरा ज़्यादा समय मकई के खेतों पर वारिस और असलम भैया के साथ बीतता है। खेत पर बने मचान पर बैठकर पुस्तक पढ़ता हूँ या फिर लिखता हूँ। खेत के कोने में खड़े बबूल के वृक्ष की दो शाखाओं पर लंबी-लंबी लकड़ियां बाँध कर मंचान बनाया गया है फिर उस पर यूकेलिप्टिस की दो लकड़ियों को टिका बेड़े-बेड़े डंडे कीलों से जड़कर ऊपर चढ़ने-उतरने के लिए सीढ़ी बनायी गयी है। मचान की लकड़ियों की कठोरता लेटने-बैठने की आराम में बाधक न बनें, इस लिए उन पर सूखी सिवाल डाल कर ऊपर से दरी बिछा दी गयी। जिससे ऐसा गुदगुदापन पैदा हो गया है कि स्लीपवेल के गददों की आराम भी फीकी मालूम होती है। बबूल की ऊपर फैली शाखाओं की पत्तियां बड़े से छाते की भांति मचान पर छांव किए रहती हैं। इस मचान पर बैठकर तो इतना मज़ा आता है कि आजकल मैंने भगहर झील में नौका-विहार करना भी तर्क कर दिया है। चाय की तलब होती है तो आरिफ से समलू के होटल से मंगा भेजता हूँ। होटल खेत से थोड़ी ही दूर तो है। मक्का के भुटटे भून कर खाने का, जो आनंद यहाँ आता है,वह पहले कभी न आया था।
मचान पर बैठ-बैठे ही एक कहानी शुरू की थी। शीर्षक दिया था, 'देख मेरा रुप'। वह आज पूरी हो गयी है। इसके माध्यम से प्रेम और अध्यात्म के व्यापक और गूढ़ रहस्यों को व्याख्याकित करने का प्रयास किया है और यह प्रेम और पीड़ा के कांपते क्षणों का भी लेखा है।
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शेष प्रष्ठ 1 से आगे - प्रष्ठ संख्या 5

(( संपादकीय))
आपने उस दिन जब नूर आलम से कहकर मुझे बुला भेजा था। तब मैं नही जानता था कि आप क्या कहने वाले हैं। मैं तो बस अंदाजा ही लगा रहा था। मुझे लेशमात्र भी आभास नही था कि आप ऐसी बात कहेंगे। सच पूछो, तो मैं सोच तक नही सकता था कि यह दुनिया इतनी स्वार्थी हो गयी है। पहले जिन मौलाना की इतनी तारीफ और अब उन्हीं की इतनी बुराई। शायद इस लिए कि अब किसी और की प्रसंशा का समय था। सच कहूँ तो मुझे यह बिलकुल अच्छा नही लगा था। जब आपने कहा था, " इस साले मौलाना का दिमाग़ खराब हो गया है। मगर अब इस मामले की वजह से तुम्हारी बहुत बदनामी हो रही है। जिससे बचने के लिए जरूरी है कि तय तारीख़ पर शादी होना चाहिए। मौलाना ने क्या समझ रखा है कि लड़कियों का कहीं उड़ा पड़ गया है।"
" लेकिन इतनी जल्दी कहाँ मिलेगी कोई लड़की ?" मैंने पूछा था।
"लड़की...! तुम्हारी जाकिया आपा की भी तो लड़की है। बहुत ज़्यादा अच्छी ही तो नही है, पर काम-काज़ में कितनी होशियार है।"
" हाँ, ठीक है लेकिन जाकिया तो हमारी आपा हैं।"
" अरे यार , कोई सगी आपा तो नही हैं न। तुम भी कैसी अहमकाना बात करते हो। ख़ैर छोड़ो...तुम्हारी भाभी की बहन सुमैय्या के बारे में क्या ख़्याल है?" आपने तपाक से दूसरी बार सुमैय्या के लिए कहा था।
" लेकिन हमने तो पहले ही कह दिया है कि हम किसी ग़ैरतालीमयाफ़्ता लड़की से शादी नही करेंगे।" मैंने असमर्थता में जवाब दिया था।
" क्यों नौकरी कराना है ?"
"नौकरी न सही लेकिन परिवार और बच्चों की तरबियत के लिए जरूरी है।"
" बच्चों की तरबियत और तालीम अम्मा करेगी! क्या दुनिया के सारे स्कूल बंद हो गए हैं? आपने थोड़ा खीजकर कहा था लेकिन दूसरे ही पल आप समझाने के अंदाज़ में उतर आए थे।, " मियां एक बात बताऊँ, यह जो पढ़ी-लिखी लड़कियां होती हैं। अपने शौहर को जूती की नोक पर रखती हैं और बग़ैर पढ़ी-लिखी लड़कियां यह सोचकर अपने शौहर की इज़्जत करती हैं और दबाव भी मानती हैं कि हमारा आदमी बहुत पढ़ा-लिखा है।" आपकी इस बात का जवाब होत हुए भी मैं उस दिन ख़ामोश रह गया था और उठकर चला आया था। पर मेरी आत्मा मुझे कचोटती रही है।
मैं जानता हूँ। मेरी बात आपको अच्छी नही लगेगी, पर मैं परवाह नही करता। आज मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि मुस्लिम समाज की लड़कियों और औरतों की जो दशा आज है, उसके लिए आप जैसे लोग ही जिम्मेदार हैं!
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- ख़ान इशरत परवेज़
मोहल्ला: शिक्लापुर
पोस्ट : मोहम्मदी 262804
जिला खीरी उ. प्र.
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