स्वराज के लिए
मुझे सन याद नहीं रहा। लेकिन वही दिन थे। जब अमृतसर में हर तरफ़ “इन्क़िलाब ज़िंदाबाद के नारे गूंजते थे। इन नारों में, मुझे अच्छी तरह याद है, एक अजीब क़िस्म का जोश था.... एक जवानी.... एक अजीब क़िस्म की जवानी। बिलकुल अमृतसर की गुजरियों की सी जो सर पर ऊपलों के टोकरे उठाए बाज़ारों को जैसे काटती हुई चलती हैं.... ख़ूब दिन थे। फ़िज़ा में जो वो जलियांवाला बाग़ के ख़ूनीं हादिसे का उदास ख़ौफ़ समोया रहता था। उस वक़्त बिलकुल मफ़क़ूद था। अब उस की जगह एक बेख़ौफ तड़प ने ले ली थी.... एक अंधा धुंद जस्त ने जो अपनी मंज़िल से ना-वाक़िफ़ थी।
लोग नारे लगाते थे, जलूस निकालते थे और सैंकड़ों की तादाद में धड़ाधड़ क़ैद हो रहे थे। गिरफ़्तार होना एक दिलचस्प शगल बिन गया था। सुबह क़ैद हुए। शाम छोड़ दिए गए, मुक़द्दमा चला। चंद महीनों की क़ैद हुई, वापिस आए, एक नारा लगाया, फिर क़ैद हो गए।
ज़िंदगी से भरपूर दिन थे। एक नन्हा सा बुलबुला फटने पर भी एक बहुत बड़ा भंवर बिन जाता था। किसी ने चौक में खड़े हो कर तक़रीर की और कहा। हड़ताल होनी चाहिए, चलिए जी हड़ताल होगई.... एक लहर उठी कि हर शख़्स को खादी पहननी चाहिए ताकि लंका शाइर के सारे कारख़ाने बंद हो जाएं.... बिदेशी कपड़ों का बाईकॉट शुरू हो गया और हर चौक में अलाव जलने लगे, लोग जोश में आकर खड़े खड़े वहीं कपड़े उतारते और अलाव में फेंकते जाते, कोई औरत अपने मकान के शहि नशीन से अपनी नापसंदीदा साड़ी उछालती तो हुजूम तालियां पीट पीट कर अपने हाथ लाल कर लेता।
मुझे याद है कोतवाली के सामने टाउन हाल के पास एक अलाव जल रहा था.... शैख़ू ने जो मेरा हम-जमाअत था जोश में आकर अपना रेशमी कोट उतारा और बिदेशी कपड़ों की चिता में डाल दिया। तालियों का समुंद्र बहने लगा। क्योंकि शैख़ू एक बहुत बड़े “टोडी बच्चे” का लड़का था, उस ग़रीब का जोश और भी ज़्यादा बढ़ गया, अपनी बोसकी की क़मीज़ उतार वो भी शालों की नज़र करदी, लेकिन बाद में ख़्याल आया कि इस के साथ सोने के बटन थे।
मैं शैख़ू का मज़ाक़ नहीं उड़ाता, मेरा हाल भी उन दिनों बहुत दिगरगूं था। जी चाहता था कि कहीं से पिस्तौल हाथ में आजाए तो एक दहश्त पसंद पार्टी बनाई जाये। बाप गर्वनमैंट का पैंशनख़ार था। इस का मुझे कभी ख़याल न आया। बस दिल-ओ-दिमाग़ में एक अजीब क़िस्म की खुद बुद रहती थी। बिलकुल वैसी ही जैसी फ्लाश खेलने के दौरान में रहा करती है।
स्कूल से तो मुझे वैसे ही दिलचस्पी नहीं थी मगर इन दिनों तो खासतौर पर मुझे पढ़ाई से नफ़रत होगई थी........ घर से किताबें लेकर निकलता और जलियांवाला बाग़ चला जाता, स्कूल का वक़्त ख़त्म होने तक वहां की सरगर्मीयां देखता रहता या किसी दरख़्त के साय तले बैठ कर दूर मकानों की खिड़कियों में औरतों को देखना और सोचता कि ज़रूर इन में से किसी को मुझ से इश्क़ हो जाएगा........ ये ख़याल दिमाग़ में क्यों आता। इस के मुतअल्लिक़ में कुछ कह नहीं सकता।
जलियांवाला बाग़ में ख़ूब रौनक थी। चारों तरफ़ तन्बू और कनातें फैली हुई थीं, जो ख़ेमा सब से बड़ा था, उस में हर दूसरे तीसरे रोज़ एक डिक्टेटर बनाके बिठा दिया जाता था। जिस को तमाम वालटियर सलामी देते थे। दो तीन रोज़ या ज़्यादा से ज़्यादा दस पंद्रह रोज़ तक ये डिक्टेटर खादी पोश औरतों और मर्दों की नमस्कारें एक मस्नूई संजीदगी के साथ वसूल करता। शहर के बनियों से लंगर ख़ाने के लिए आटा चावल इकट्ठा करता और दही की लस्सी पी पी कर जो ख़ुदा मालूम जलियांवाला बाग़ में क्यों इस क़दर आम थी, एक दिन अचानक गिरफ़्तार हो जाता। और किसी क़ैदख़ाने में चला जाता।
मेरा एक पुराना हम-जमाअत था। शहज़ादा ग़ुलाम अली, उस से मेरी दोस्ती का अंदाज़ा आप को इन बातों से हो सकता है कि हम इकट्ठे दो दफ़ा मैट्रिक के इमतिहान में फ़ेल हो चुके थे और एक दफ़ा हम दोनों घर से भाग कर बंबई गए, ख़्याल था कि रूस जाऐंगे मगर पैसे ख़त्म होने पर जब फुटपाथों पर सोना पड़ा तो घर ख़त लिखे, माफियां मांगीं और वापिस चले आए।
शहज़ादा ग़ुलाम अली ख़ूबसूरत जवान था। लंबा क़द, गोरा रंग जो कश्मीरीयों का होता है। तीखी नाक, खलनडरी आँखें, चाल ढाल में एक ख़ास शान थी जिस में पेशावर ग़ुंडों की कजकुलाही की हल्की सी झलक भी थी।
जब वो मेरे साथ पढ़ता था तो शहज़ादा नहीं था। लेकिन जब शहर में इन्क़िलाबी सरगर्मीयों ने ज़ोर पकड़ा और उस ने दस पंद्रह जलसों और जलूसों में हिस्सा लिया तो नारों गेंदे के हारों, जोशीले गीतों और लेडी वालंटियरज़ से आज़ादाना गुफ़्तुगूओं ने उसे एक नीम रस इन्क़िलाबी बना दिया, एक रोज़ उस ने पहली तक़रीर की। दूसरे रोज़ मैंने अख़बार देखे तो मालूम हुआ कि ग़ुलाम अली शहज़ादा बन गया है।
शहज़ादा बनते ही ग़ुलाम अली सारे अमृतसर में मशहूर हो गया। छोटा सा शहर है, वहां नेक नाम होते या बदनाम होते देर नहीं लगती। यूं तो अमृतसरी आम आदमीयों के मुआमले में बहुत हर्फ़गीर हैं। यानी हर शख़्स दूसरों के ऐब टटोलने और किरदारों में सूराख़ ढ़ूढ़ने की कोशिश करता रहता है। लेकिन सयासी और मज़हबी लीडरों के मुआमले में अमृतसरी बहुत चश्मपोशी से काम लेते हैं। उन को दरअसल हरवक़्त एक तक़रीर या तहरीक की ज़रूरत रहती है। आप उन्हें नीली पोश बना दीजीए या स्याह पोश, एक ही लीडर चोले बदल बदल कर अमृतसर में काफ़ी देर तक ज़िंदा रह सकता है। लेकिन वो ज़माना कुछ और था। तमाम बड़े बड़े लीडर जेलों में थे और उन की गद्दियां ख़ाली थीं। उस वक़्त लोगों को लीडरों की कोई इतनी ज़्यादा ज़रूरत न थी। लेकिन वो तहरीक जो कि शुरू हुई थी उस को अलबत्ता ऐसे आदमीयों की अशद ज़रूरत थी जो एक दो रोज़ खादी पहन कर जलियांवाला बाग़ के बड़े तन्बू में बैठें। एक तक़रीर करें और गिरफ़्तार हो जाएं।
उन दिनों यूरोप में नई नई डिक्टेटर शिप शुरू हुई थी हिटलर और मसोलीनी का बहुत इश्तिहार हो रहा था। ग़ालिबन इस असर के मातहत कांग्रस पार्टी ने डिक्टेटर बनाने शुरू कर दिए थे। जब शहज़ादा ग़ुलाम अली की बारी आई तो इस से पहले चालीस डिक्टेटर गिरफ़्तार हो चुके थे।
जूंही मुझे मालूम हुआ कि........ इस तरह ग़ुलाम अली डिक्टेटर बन गया है तो में फ़ौरन जलियांवाला बाग़ में पहुंचा। बड़े ख़ेमे के बाहर वालंटियरों का पहरा था। मगर ग़ुलाम अली ने जब मुझे अंदर से देखा तो बुला लिया........ ज़मीन पर एक गदैला था। जिस पर खादी की चांदनी बिछी थी। उस पर गाव तकीयों का सहारा लिए शहज़ादा ग़ुलाम अली चंद खादी पोश बनियों से गुफ़्तुगू कर रहा था जो ग़ालिबन तर्कारियों के मुताल्लिक़ थी। चंद मिनटों ही में उस ने ये बातचीत ख़त्म की और चंद रज़ाकारों को अहकाम दे कर वह मेरी तरफ़ मुतवज्जा हुआ। उस की ये ग़ैरमामूली संजीदगी देख कर मेरे गुदगुदी सी हो रही थी। जब रज़ाकार चले गए तो मैं हंस पड़ा।
“सुना बे शहज़ादे।”
मैं देर तक उस से मज़ाक़ करता रहा। लेकिन मैंने महसूस किया कि ग़ुलाम अली में तबदीली पैदा होगई है। ऐसी तबदीली जिस से वो बाख़बर है। चुनांचे उस ने कई बार मुझ से यही कहा “नहीं सआदत........ मज़ाक़ न उड़ाओ। मैं जानता हूँ मेरा सर छोटा और ये इज़्ज़त जो मुझे मिली है बड़ी है.... लेकिन मैं ये खुली टोपी ही पहने रहना चाहता हूँ।”
कुछ देर के बाद उस ने मुझे दही की लस्सी का एक बहुत बड़ा गिलास पिलाया और मैं उस से ये वाअदा करके घर चला गया कि शाम को उस की तक़रीर सुनने के लिए ज़रूर आऊँगा।
शाम को जलियांवाला बाग़ खचाखच भरा था। मैं चूँकि जल्दी आया था। इस लिए मुझे प्लेटफार्म के पास ही जगह मिल गई.... ग़ुलाम अली तालियों के शोर के साथ नुमूदार हुआ.... सफ़ैद बेदाग़ खादी के कपड़े पहने वो ख़ूबसूरत और पुर-कशिश दिखाई दे रहा था.... वो कजकुलाही की झलक जिस का में इस से पहले ज़िक्र कर चुका हूँ। उस की इस कशिश में इज़ाफ़ा कर रही थी।
तक़रीबन एक घंटे तक वो बोलता रहा। इस दौरान में कई बारे रोंगटे खड़े हुए और एक दो दफ़ा तो मेरे जिस्म में बड़ी शिद्दत से ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि मैं बम की तरह फट जाऊं। उस वक़्त मैंने शायद यही ख़याल किया था कि यूं फट जाने से हिंदूस्तान आज़ाद हो जाएगा।
ख़ुदा मालूम कितने बरस गुज़र चुके हैं। बहते हुए एहसासात और वाक़ियात की नोक-ए-पलक जो उस वक़्त वक़्त थी, अब पूरी सेहत से बयान करना बहुत मुश्किल है। लेकिन ये कहानी लिखते हुए मैं जब ग़ुलाम अली की तक़रीर का तसव्वुर करता हूँ तो मुझे सिर्फ़ एक जवानी बोलती दिखाई देती थी, जो सियासत से बिलकुल पाक थी........ इस में एक ऐसे नौजवान की पुर-ख़ुलूस बेबाकी थी जो एक दम किसी राह चलती औरत को पकड़ले और कहे “देखो मैं तुम्हें चाहता हूँ।” और दूसरे लम्हे क़ानून के पंजे में गिरफ़्तार हो जाये इस तक़रीर के बाद मुझे कई तक़रीरें सुनने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है। मगर वो ख़ादिम दीवानगी, वो सरफिरी जवानी, वो अल्हड़ जज़्बा, वो बेरेश-ओ-बुरूत ललकार जो मैंने शहज़ादा ग़ुलाम अली की आवाज़ में सुनी। अब उस की हल्की सी गूंज भी मुझे कभी सुनाई नहीं दी। अब जो तक़रीरें सुनने में आती हैं। वो ठंडी संजीदगी, बूढ़ी सियासत और शायराना होशमन्दी में लिपटी होती हैं।
उस वक़्त दरअसल दोनों पार्टीयां खामकार थीं। हुकूमत भी और रियाया भी। दोनों नताइज से बेपर्वा, एक दूसरे से दस्त-ओ-गरीबां थे। हुकूमत क़ैद की एहमीयत समझे बग़ैर लोगों को क़ैद कर रही थी और जो क़ैद होते थे। उन को भी क़ैद ख़ानों में जाने से पहले क़ैद का मक़सद मालूम नहीं होता था।
एक धांदली थी मगर इस धांदली में एक आतिशीं इंतिशार था। लोग शोलों की तरह भड़कते थे, बुझते थे, फिर भड़कते थे। चुनांचे इस भड़कने और बुझने, बुझने और भड़कने ने गु़लामी की ख़्वाबीदा उदास और जमाइयों भरी फ़िज़ा में गर्म इर्तिआश पैदा कर दिया था।
शहज़ादा ग़ुलाम अली ने तक़रीर ख़त्म की तो सारा जलियांवाला बाग़ तालियों और नारों का दहकता हुआ अलाव बन गया। उस का चेहरा दमक रहा था। जब मैं उस से अलग जा कर मिला और मुबारकबाद देने के लिए उस का हाथ अपने हाथ में दबाया तो वो काँप रहा था ये गर्म कपकपाहट उस के चमकीले चेहरे से भी नुमायां थी। वो किसी क़दर हांप रहा था। उस की आँखों में पुर-जोश जज़्बात की दमक के उलावा मुझे एक थकी हुई तलाश नज़र आई। वो किसी को ढूंढ रही थीं। एक दम उस ने अपना हाथ मेरे हाथ से अलाहिदा किया और सामने चम्बेली की झाड़ी की तरफ़ बढ़ा।
वहां एक लड़की खड़ी थी। खादी की बेदाग़ साड़ी में मलबूस।
दूसरे रोज़ मुझे मालूम हुआ कि शहज़ादा ग़ुलाम अली इश्क़ में गिरफ़्तार है। वो उस लड़की से जिसे मैंने चम्बेली की झाड़ी के पास बाअदब खड़ी देखा था। मोहब्बत कर रहा था। ये मोहब्बत यकतरफ़ा नहीं थी क्योंकि निगार को भी इस से वालहाना लगाओ था। निगार जैसा कि नाम से ज़ाहिर है एक मुस्लमान लड़की थी। यतीम! ज़नाना हस्पताल में नर्स थी और शायद पहली मुस्लमान लड़की थी जिस ने अमृतसर में बेपर्दा होकर कांग्रेस की तहरीक में हिस्सा लिया।
कुछ खादी के लिबास ने कुछ कांग्रस की सरगर्मीयों में हिस्सा लेने के बाइस और कुछ हस्पताल की फ़िज़ा ने निगार की इस्लामी-ख़ू को, इस तीखी चीज़ को जो मुस्लमान औरत की फ़ित्रत में नुमायां होती है थोड़ा सा घुसा दिया था जिस से वो ज़रा मुलाइम होगई थी।
वो हसीन नहीं थी। लेकिन अपनी जगह निस्वानियत का एक निहायत ही दीदा-चश्म मुनफ़रिद नमूना था। इन्किसार, ताज़ीम और परसतिश का वो मिला जुला जज़्बा जो आदर्श हिंदू औरत का ख़ास्सा है निगार में उस की ख़फ़ीफ़ सी आमेज़ी ने एक रूह परवर रंग पैदा कर दिया था। उस वक़्त तो शायद ये कभी मेरे ज़हन में न आता। मगर ये लिखते वक़्त मैं निगार का तसव्वुर करता हूँ तो वो मुझे नमाज़ और आरती का दिलफ़रेब मजमूआ दिखाई देती है।
शहज़ादा ग़ुलाम अली की वो परसतिश करती थी और वो भी उस पर दिल-ओ-जान से फ़िदा था जब निगार के बारे में उस से गुफ़्तुगू हुई तो पता चला कि कांग्रस तहरीक के दौरान में इन दोनों की मुलाक़ात हुई और थोड़े ही दिनों के मिलाप से वो एक दूसरे के हो गए।
ग़ुलाम अली का इरादा था कि क़ैद होने से पहले पहले वो निगार को अपनी बीवी बना ले। मुझे याद नहीं कि वो ऐसा क्यों करना चाहता था। क्योंकि क़ैद से वापस आने पर भी वो उस से शादी कर सकता था। उन दिनों कोई इतनी लंबी क़ैद नहीं थी। कम से कम तीन महीने और ज़्यादा से ज़्यादा एक बरस। बाज़ों को तो पंद्रह बीस रोज़ के बाद ही रिहा कर दिया जाता था ताकि दूसरे क़ैदीयों के लिए जगह बन जाये। बहरहाल वो इस इरादे को निगार पर भी ज़ाहिर कर चुका था और वो बिलकुल तैय्यार थी। अब सिर्फ़ दोनों को बाबा जी के पास जा कर उन का आशीर्वाद लेना था।
बाबा जी जैसा कि आप जानते होंगे बहुत ज़बरदस्त हस्ती थी। शहर से बाहर लख-पती सर्राफ हरी राम की शानदारी कोठी में वो ठहरे हुए थे। यूं तो वो अक्सर अपने आश्रम में रहते जो उन्हों ने पास के एक गांव में बना रखा था मगर जब कभी अमृतसर आते तो हरी राम सर्राफ ही की कोठी में उतरते और उन के आते ही ये कोठी बाबा जी के शैदाइयों के लिए मुक़द्दस जगह बन जाती। सारा दिन दर्शन करने वालों का तांता बंधा रहता। दिन ढले वो कोठी से बाहर कुछ फ़ासले पर आम के पेड़ों के झुंड में एक चोबी तख़्त पर बैठ कर लोगों को आम दर्शन देते, अपने आश्रम के लिए चंदा इकट्ठा करे। आख़िर में भजन वग़ैरा सुन कर हर रोज़ शाम को ये जल्सा उन के हुक्म से बर्ख़ास्त हो जाता।
बाबा जी बहुत परहेज़गार, ख़ुदातरस, आलम और ज़हीन आदमी थे। यही वजह है कि हिंदू, मुस्लमान, सिख और अछूत सब उन के गरवीदा थे और उन्हें अपना इमाम मानते थे।
सियासत से गो बाबाजी को बज़ाहिर कोई दिलचस्पी नहीं थी मगर ये एक खुला हुआ राज़ है कि पंजाब की हर सयासी तहरीक उन्ही के इशारे पर शुरू हुई। और उन्ही के इशारे पर ख़त्म हुई।
गर्वनमैंट की निगाहों में वो एक उक़्दा-ए-ला-यनहल थे, एक सयासी चीसतां जिसे सरकार-ए-आलीया के बड़े बड़े मुदब्बिर भी न हल कर सकते थे। बाबा जी के पतले पतले होंटों की एक हल्की सी मुस्कुराहट के हज़ार मानी निकाले जाते थे मगर जब वो ख़ुद इस मुस्कुराहट का बिलकुल ही नया मतलब वाज़ेह करते तो मरऊब अवाम और ज़्यादा मरऊब हो जाते।
ये जो अमृतसर में सिविल नाफ़रमानी की तहरीक जारी थी और लोग धड़ा धड़ क़ैद हो रहे थे। इस के अक़्ब में जैसा कि ज़ाहिर है बाबा जी ही का असर कारफ़रमा था। हर शाम लोगों को आम दर्शन देते वक़्त वो सारे पंजाब की तहरीक-ए-आज़ादी और गर्वनमैंट की नित नई सख़्त गीरियों के मुतअल्लिक़ अपने पोपले मुँह से एक छोटा सा.... एक मासूम सा जुमला निकाल दिया करते थे, जिसे फ़ौरन ही बड़े बड़े लीडर अपने गले में तावीज़ बना कर डाल लेते थे।
लोगों का बयान है कि उन की आँखों में एक मक़नातीसी क़ुव्वत थी, उन की आवाज़ में एक जादू था और उन का ठंडा दिमाग़........ इन का वो मुस्कुराता होता दिमाग़ जिस को गंदी से गंदी गाली और ज़हरीली से ज़हरीली तन्ज़ भी एक लहज़े के हज़ारवें हिस्से के लिए बरहम नहीं कर सकती थी। हरीफ़ों के लिए बहुत ही उलझन का बाइस था।
अमृतसर में बाबा जी के सैंकड़ों जुलूस निकल चुके थे मगर जाने क्या बात है कि मैंने और तमाम लीडरों को देखा। एक सिर्फ़ इन ही को मैंने दूर से देखा न नज़दीक से। इसी लिए जब ग़ुलाम अली ने मुझ से उन के दर्शन करने और उन से शादी की इजाज़त लेने के मुतअल्लिक़ बातचीत की तो मैंने उस से कहा कि जब वो दोनों जाएं तो मुझे भी साथ लेते जाएं।
दूसरे ही रोज़ ग़ुलाम अली ने तांगे का इंतिज़ाम किया और हम सुबह सवेरे लाला हरी राम सर्राफ़ की आलीशान कोठी में पहुंच गए।
बाबा जी ग़ुसल और सुबह की दुआ से फ़ारिग़ हो कर एक ख़ूबसूरत पंडितानी से क़ौमी गीत सुन रहे थे। चीनी की बेदाग़ सफ़ैद टाइलों वाले फ़र्श पर आप खजूर के पत्तों की चटाई पर बैठे थे। गाव तकिया उन के पास ही पड़ा था। मगर उन्हों ने इस का सहारा नहीं लिया था।
कमरे में सिवाए एक चटाई के जिस के ऊपर बाबा जी बैठे थे और फ़र्नीचर वग़ैरा नहीं था। एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक सफ़ैद टायलें चमक रही थीं। उन की चमक ने क़ौमी गीत गाने वाली पंडितानी के हल्के पियाज़ी चेहरे को और भी ज़्यादा हसीन बना दिया था।
बाबा जी गो सत्तर बेहत्तर बरस के बुढढे थे मगर इन का जिस्म (वो सिर्फ़ गेरवे रंग का छोटा सा तहमद बांधे थे) उम्र की झड़ियों से बेनयाज़ था। जिल्द में एक अजीब क़िस्म की मलाहत थी। मुझे बाद में मालूम हुआ कि वो हर रोज़ अश्नान से पहले रोगन ज़ैतून अपने जिस्म पर मलवाते हैं।
शहज़ादा ग़ुलाम अली की तरफ़ देख कर वह मुस्कुराए मुझे भी एक नज़र देखा और हम तीनों की बंदगी का जवाब उसी मुस्कुराहट को ज़रा तवील करके दिया और इशारा किया कि हम बैठ जाएं।
मैं अब ये तस्वीर अपने सामने लाता हूँ तो शऊर की ऐनक से ये मुझे दिलचस्प होने के इलावा बहुत ही फ़िक्र ख़ेज़ दिखाई देती है। खजूर की चटाई पर एक नीम बरहना मुअम्मर जोगियों का आसन लगाए बैठा है। उस की बैठक है, इस के गंजे सर से, उस की अधखुली आँखों से, उस के साँवले मुलाइम जिस्म से, उस के चेहरे के हर ख़त से एक पुर-सुकून इत्मिनान, एक बे-फ़िक्र तयक़्क़ुन मुतरश्शेह था कि जिस मुक़ाम पर दुनिया ने उसे बिठा दिया है। अब बड़े से बड़ा ज़लज़ला भी उसे वहां से नहीं गिरा सकता........ इस से कुछ दूर वादी-ए-कश्मीर की एक नौख़ेज़ कली, झुकी हुई, कुछ इस बुज़ुर्ग की क़ुरबत के एहतिराम से, कुछ क़ौमी गिरयत के असर से कुछ अपनी शदीद जवानी से जो उस की खुरदुरी सफ़ैद साड़ी से निकल कर क़ौमी गीत के इलावा अपनी जवानी का गीत भी गाना चाहती थी, जो इस बुज़ुर्ग की क़ुरबत का एहतिराम करने के साथ साथ किसी ऐसी तंदरुस्त और जवान हस्ती की भी ताज़ीम करने की ख़्वाहिशमंद थी जो उस की नर्म कलाई पकड़ कर ज़िंदगी के दहकते हुए अलाव में कूद पड़े। उस के हल्के पियाज़ी चेहरे से, उस की बड़ी बड़ी स्याह मुतहर्रिक आँखों से, उस के खादी के खुरदरे बीलाउज़ में ढके हुए मुतलातिम सीने से इस मुअम्मर जोगी के ठोस तयक़्क़ुन और संगीन इत्मिनान के तक़ाबुल में एक ख़ामोश सदा थी कि आओ, जिस मुक़ाम पर मैं इस वक़्त हूँ। वहां से खींच कर मुझे या तो नीचे गिरा दो या इस से भी ऊपर ले जाओ। इस तरफ़ हट कर हम तीन बैठे थे। मैं, निगार और शहज़ादा ग़ुलाम अली........ मैं बिलकुल चुग़द बना बैठा था। बाबा जी की शख़्सियत से भी मुतास्सिर था और इस पंडितानी के बेदाअग हुस्न से भी। फ़र्श की चमकीली टाइलों ने भी मुझे मरऊब किया था। कभी सोचता था कि ऐसी टाइलों वाली एक कोठी मुझे मिल जाये तो कितना अच्छा हो। फिर सोचता था कि ये पंडितानी मुझे और कुछ न करने दे, एक सिर्फ़ मुझे अपनी आँखें चूम लेने दे। उस के तसव्वुर से बदन में थरथरी पैदा होती तो झट अपनी नौकरानी का ख़याल आता जिस से ताज़ा ताज़ा मुझे कुछ वो हुआ था। जी में आता कि इन सब को, यहां छोड़कर सीधा घर जाऊं........ शायद नज़र बचा कर उसे ऊपर ग़ुसलख़ाने तक ले जाने में कामयाब हो सकूं, मगर जब बाबा जी पर नज़र पड़ती और कानों में क़ौमी गीत के पुरजोश अल्फ़ाज़ गूंजते तो एक दूसरी थरथरी बदन में पैदा होती और मैं सोचता कि कहीं से पिस्तौल हाथ आजाए तो सिविल लाईन में जा कर अंग्रेज़ों को मारना शुरू करदूँ।
इस चुग़द के पास निगार और ग़ुलाम अली बैठे थे। दो मोहब्बत करने वाले दिल, जो तन्हा मोहब्बत में धड़कते धड़कते अब शायद कुछ उकता गए थे और जल्दी एक दूसरे में मोहब्बत के दूसरे रंग देखने के लिए मुदग़म होना चाहते थे। दूसरे अल्फ़ाज़ में वो बाबा जी से, अपने मुस्लिमा सयासी रहनुमा से शादी की इजाज़त लेने आए थे और जैसा कि ज़ाहिर है इन दोनों के दिमाग़ में उस वक़्त क़ौमी गीत के बजाय उन की अपनी ज़िंदगी का हसीनतरीन मगर उन सुना नग़्मा गूंज रहा था।
गीत ख़त्म हुआ बाबा जी ने बड़े मुशफ़िक़ाना अंदाज़ से पंडिताई को हाथ के इशारे से आशीर्वाद दिया और मुस्कुराते हुए निगार और ग़ुलाम अली की तरफ़ मुतवज्जा हुए। मुझे भी उन्हों ने एक नज़र देख लिया।
ग़ुलाम अली शायद तआरुफ़ के लिए अपना और निगार का नाम बताने वाला था मगर बाबा जी का हाफ़िज़ा बला का था। उन्हों ने फ़ौरन ही अपनी मीठी आवाज़ में कहा। “शहज़ादे अभी तक तुम गिरफ़्तार नहीं हुए?”
ग़ुलाम अली ने हाथ जोड़ कर कहा। “जी नहीं।”
बाबा जी ने क़लमदान से एक पैंसिल निकाली और उस से खेलते हुए कहने लगे। “मगर मैं तो समझता हूँ। तुम गिरफ़्तार हो चुके हो।”
ग़ुलाम अली इस का मतलब न समझ सका। लेकिन बाबा जी ने फ़ौरन ही पंडितानी की तरफ़ देखा और निगार की तरफ़ इशारा करके। “निगार ने हमारे शहज़ादे को गिरफ़्तार कर लिया है।”
निगार मह्जूब सी होगई। ग़ुलाम अली का मुँह फरत-ए-हैरत खुला का खुला रह गया और पंडितानी के पियाज़ी चेहरे पर एक दुआइया चमक सी आई। उस ने निगार और ग़ुलाम अली को कुछ इस तरह देखा जैसे ये कह रही है। “बहुत अच्छा हुआ।”
बाबा जी एक बार फिर पंडितानी की तरफ़ मुतवज्जा हुए। “ये बच्चे मुझ से शादी की इजाज़त लेने आए हैं........ तुम कब शादी कर रही हो कमल?”
तो उस पंडितानी का नाम कमल था। बाबा जी के अचानक सवाल से वो बौखला गई। उस का पियाज़ी चेहरा सुर्ख़ होगया। काँपती हुई आवाज़ में उस ने जवाब दिया। “मैं तो आप के आश्रम में जा रही हूँ।”
एक हल्की सी आह भी इन अल्फ़ाज़ में लिपट कर बाहर आई। जिसे बाबा जी के होशयार दिमाग़ ने फ़ौरन नोट किया। वो उस की तरफ़ देख कर जोगियाना अंदाज़ में मुस्कुराए और ग़ुलाम अली और निगार से मुख़ातब हो कर कहने लगे। “तो तुम दोनों फ़ैसला कर चुके हो।”
दोनों ने दबी ज़बान में जवाब दिया। “जी हाँ।”
बाबा जी ने अपनी सियासत भरी आँखों से उन को देखा। “इंसान जब फ़ैसले करता है तो कभी कभी उन को तबदील कर दिया करता है।”
पहली दफ़ा बाबा जी की बा-रोब मौजूदगी में ग़ुलाम अली ने उन्हें उस की अल्हड़ और बे-बाक जवानी से कहा। “ये फ़ैसला अगर किसी वजह से तबदील हो जाये तो भी अपनी जगह पर अटल रहेगा।”
बाबा जी ने आँखें बंद करलीं और जिरह के अंदाज़ में पूछा। “क्यों?”
हैरत है कि ग़ुलाम अली बिलकुल न घबराया। शायद इस दफ़ा निगार से जो उसे पुर-ख़ुलूस मोहब्बत थी वो बोल उठी। “बाबा जी हम ने हिंदूस्तान को आज़ादी दिलाने का जो फ़ैसला किया है, वक़्त की मजबूरियां उसे तबदील करती रहीं। मगर जो फ़ैसला है वो तो अटल है।”
बाबा जी ने जैसा कि मेरा अब ख़्याल है कि इस मौज़ू पर बेहस करना मुनासिब ख़याल न किया चुनांचे वो मुस्कुरा दिए........ इस मुस्कुराहट का मतलब भी उन की तमाम मुस्कुराहटों की तरह हर शख़्स ने बिलकुल अलग अलग समझा। अगर बाबा जी से पूछा जाता तो मुझे यक़ीन है कि वो इस का मतलब हम सब से बिलकुल मुख़्तलिफ़ बयान करते।
ख़ैर........ इस हज़ार पहलू मुस्कुराहट को अपने पतले होंटों पर ज़रा और फैलाते हुए उन्हों ने निगार से कहा। “निगार तुम हमारे आश्रम में आ जाओ........ शहज़ादा तो थोड़े दिनों में क़ैद हो जाएगा।”
निगार ने बड़े धीमे लहजे में जवाब। “जी अच्छा।”
इस के बाद बाबा जी ने शादी का मौज़ू बदल कर जलियांवाला बाग़ कैंप की सरगर्मीयों का हाल पूछना शुरू कर दिया। बहुत देर तक ग़ुलाम अली, निगार और कमल गिरफ़्तारीयों, रिहाइयों, दूध, लस्सी और तर्कारीयों के मुतअल्लिक़ बातें करते रहे और जो मैं बिलकुल चुग़द बना बैठा था। ये सोच रहा था कि बाबा जी ने शादी की इजाज़त देने में क्यों इतनी मैन-मीख़ की है। क्या वो ग़ुलाम अली और निगार की मोहब्बत को शक की नज़रों से देखते हैं?........ क्या उन्हें ग़ुलाम अली के ख़ुलूस पर शुबा है?
निगार को उन्हों ने किया आश्रम में आने की इस लिए दावत दी कि वहां रह कर वो अपने क़ैद होने वाले शौहर का गम भूल जाएगी?.... लेकिन बाबा जी के इस सवाल पर कमल तुम कब शादी कर रही हो। कमल ने क्यों कहा था कि मैं तो आप के आश्रम में जा रही हूँ?.... आश्रम में क्या मर्द औरत शादी नहीं करते?.... मेरा ज़हन अजब मख़मसे में गिरफ़्तार था। मगर इधर ये गुफ़्तुगू हो रही थी कि लेडी वालंटियरज़ क्या पाँच सौ रज़ाकारों के लिए चपातियां वक़्त पर तैय्यार कर लेती हैं? चूल्हे कितने हैं? और तवे कितने बड़े हैं? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि एक बहुत बड़ा चूल्हा बना लिया जाये और इस पर इतना बड़ा तिवा रखा जाये कि छः औरतें एक ही वक़्त में रोटियां पका सकें?
मैं ये सोच रहा था कि पंडितानी कमल किया आश्रम में जा कर बाबाजी को बस क़ौमी गीत और भजन ही सुनाया करेगी। मैंने आश्रम के मर्द वालंटियर देखे थे। गर वो सब के सब वहां के क़वाइद के मुताबिक़ हर रोज़ अश्नान करते थे, सुबह उठ कर दांतन करते थे, बाहर खुली हवा में रहते थे। भजन गाते थे। मगर उन के कपड़ों से पसीने की बू फिर भी आती थी, इन में अक्सर के दाँत बदबूदार थे और वो जो खुली फ़िज़ा में रहने से इंसान पर एक हश्शाश-बश्शाश निखार आता है। इन में बिलकुल मफ़क़ूद था।
झुके झुके से, दबे दबे से.... ज़र्द चेहरे, धंसी हुई आँखें, मरऊब जिस्म.... गाय के नचड़े हुए थनों की तरह बेहिस और बेजान.... मैं इन आश्रम वालों को जलियांवाला बाग़ में कई बार देख चुका था.... अब मैं ये सोच रहा था कि क्या यही मर्द जिन से घास की बू आती है। इस पंडितानी को जो दूध, शहद और ज़ाफ़रान की बनी है। अपनी कीचड़ भरी आँखों से घूरें गे। क्या यही मर्द जिन का मुँह इस क़दर मुतअफ़्फ़िन होता है। इस लोबान की महक में लिपटी हुई औरत से गुफ़्तुगू करेंगे?
लेकिन फिर मैंने सोचा कि नहीं हिंदूस्तान की आज़ादी शायद इन चीज़ों से बालातर है। मैं इन शायद को अपनी तमाम हुब्बुलवतनी और जज़्बा-ए-आज़ादी के बावजूद न समझ सका। क्योंकि मुझे निगार का ख़याल आया जो बिलकुल मेरे क़रीब बैठी थी और बाबा जी को बता रही थी कि शलजम बहुत देर में गलते हैं.... कहाँ शलजम और कहाँ शादी जिस के लिए वो और ग़ुलाम अली इजाज़त लेने आए थे।
मैं निगार और आश्रम के मुतअल्लिक़ सोचने लगा। आश्रम मैंने देखा नहीं था। मगर मुझे ऐसी जगहों से जिन को आश्रम, विद्दयाला जमात ख़ाना, तकिया, या दरसगाह कहा जाये हमेशा से नफ़रत है। जाने क्यों?
मैंने कई अंध विद्दयालों और अनाथ आश्रमों के लड़कों और उन के मनतिज़मों को देखा है। सड़क में क़तार बांध कर चलते और भीक मांगते हुए। मैंने जमात ख़ाने और दरस गाहें देखी हैं। टखनों से ऊंचा शरई पाएजामा, बचपन ही में माथे पर महिराब, जो बड़े हैं उन के चेहरे पर घनी दाढ़ी.... जो नोख़ेर हैं उन के गालों और ठुड्डी पर निहायत ही बदनुमा मोटे और मुहीन बाल.... नमाज़ पढ़ते जा रहे हैं लेकिन हर एक के चेहरे पर हैवानियत.... एक अधूरी हैवानियत मसल्ले पर बैठी नज़र आती है।
निगार औरत थी। मुस्लमान, हिंदू, सिख या ईसाई औरत नहीं.... वो सिर्फ़ औरत थी, नहीं औरत की दुआ थी जो अपने चाहने वाले के लिए या जिसे वो ख़ुद चाहती है सिदक़-ए-दिल से मांगती है।
मेरी समझ में नहीं आता था कि ये बाबा जी के आश्रम में जहां हर रोज़ क़वाइद के मुताबिक़ दुआ मांगी जाती है। ये औरत जो ख़ुद एक दुआ है। कैसे अपने हाथ उठा सकेगी।
मैं अब सोचता हूँ तो बाबाजी, निगार, ग़ुलाम अली, वो ख़ूबसूरत पंडितानी और अमृतसर की सारी फ़िज़ा जो तहरीक-ए-आज़ादी के रोमान आफ़रीन कैफ़ में लिपटी हुई थी। एक ख़्वाब सा मालूम होता है। ऐसा ख़्वाब जो एक बार देखने के बाद जी चाहता है आदमी फिर देखे। बाबा जी का आश्रम मैंने अब भी नहीं देखा मगर जो नफ़रत मुझे इस से पहले थी अब भी है।
वो जगह जहां फ़ित्रत के ख़िलाफ़ उसूल बना कर इंसानों को एक लकीर पर चलाए जाये मेरी नज़रों में कोई वक़अत नहीं रखती। आज़ादी हासिल करना बिलकुल ठीक है! इस के हुसूल के लिए आदमी मर जाये, मैं इस को समझ सकता हूँ, लेकिन इस के लिए अगर उस ग़रीब को तरकारी की तरह ठंडा और बेज़रर बना दिया जाये तो यही मेरी समझ से बिलकुल बालातर है।
झोनपड़ों में रहना, तन आसानियों से परहेज़ करना, ख़ुदा की हम्द गाना, क़ौमी नारे मारना........ ये सब ठीक है मगर ये किया कि इंसान की उस हिस्स को जिसे तलब-ए-हुस्न कहते हैं आहिस्ता आहिस्ता मुर्दा कर दिया जाये। वो इंसान किया जिस में ख़ूबसूरत और हंगामों की तड़प ना रहे। ऐसे आश्रमों, मदरसों, विद्दयालों और मूलियों के खेत में क्या फ़र्क़ है।
देर तक बाबा जी, ग़ुलाम अली और निगार से जलियांवाला बाग़ की जुमला सरगर्मीयों के मुतअल्लिक़ गुफ़्तुगू करते रहे। आख़िर में उन्हों ने उस जोड़े को जो कि ज़ाहिर है कि अपने आने का मक़सद भूल नहीं गया था। कहा कि वो दूसरे रोज़ शाम को जलियांवाला बाग़ आयेंगे और इन दोनों को मियां बीवी बना देंगे।
ग़ुलाम अली और निगार बहुत ख़ुश हुए। इस से बढ़ कर उन की ख़ुशनसीबी और क्या हो सकती थी कि बाबा जी ख़ुद शादी की रस्म अदा करेंगे। ग़ुलाम अली जैसा कि उस ने मुझे बहुत बाद में बताया इस क़दर ख़ुश हुआ था कि फ़ौरन ही से इस बात का एहसास होने लगा था कि शायद जो कुछ उस ने सुना है ग़लत है। क्योंकि बाबा जी के मनहनी हाथों की ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश भी एक तारीख़ी हादिसा बन जाती थी। इतनी बड़ी हस्ती एक मामूली आदमी की ख़ातिर जो महज़ इत्तिफ़ाक़ से कांग्रस का डिक्टेटर बन गया है। चल के जलियांवाला बाग़ जाये और उस की शादी में दिलचस्पी ले। ये हिंदूस्तान के तमाम अख़बारों के पहले सफ़े की जली सुर्ख़ी थी।
ग़ुलाम अली का ख़याल था बाबा जी नहीं आयेंगे। क्योंकि वो बहुत मसरूफ़ आदमी हैं लेकिन उस का ये ख़याल जिस का इज़हार दरअसल उस ने नफ़्सियाती नुक़्त-ए-निगाह से सिर्फ़ इस लिए किया था कि वो ज़रूर आएं, उस की ख़्वाहिश के मुताबिक़ ग़लत साबित हुआ.... शाम के छः बजे जलियांवाला बाग़ में जब रात की रानी की झाड़ियां अपनी ख़ुशबू के झोंके फैलाने की तैय्यारीयां कर रही थीं और मुतअद्दिद रज़ाकार दूलहा दुल्हन के लिए एक छोटा तन्बू नस्ब करके उसे चमेली, गेंदे और गुलाब के फूलों से सजा रहे थे। बाबा जी उस क़ौमी गीत गाने वाली पंडितानी, अपने सैक्रेटरी और लाला हरी राम सर्राफ के हमराह लाठी टेकते हुए आए। उस की आमद की इत्तिला जलियांवाला बाग़ में सिर्फ़ उसी वक़्त पहुंची, जब सदर दरवाज़े पर लाला हरी राम की हरी मोटर रुकी।
मैं भी वहीं था। लेडी वालंटियरज़ एक दूसरे तन्बू में निगार को दुल्हन बना रही थीं। ग़ुलाम अली ने कोई ख़ास एहतिमाम नहीं किया था। सारा दिन वो शहर के कांग्रेसी बनियों से रज़ाकारों के खाने पीने की ज़रूरीयात के मुतअल्लिक़ गुफ़्तुगू करता रहा था। इस से फ़ारिग़ हो कर उस ने चंद लमहात के लिए निगार से तख़लीए में कुछ बातचीत की थी। इस के बाद जैसा कि मैं जानता हूँ, उस ने अपने मातहत अफ़िसरों से सिर्फ़ इतना कहा था कि शादी की रस्म अदा होने के साथ ही वो और निगार दोनों झंडा ऊंचा करेंगे।
जब ग़ुलाम अली को बाबा जी की आमद की इत्तिला पहुंची तो वो कुवें के पास खड़ा था। मैं ग़ालिबन उस से ये कह रहा था। “ग़ुलाम अली तुम जानते हो ये कुँआं, जब गोली चलती थी लाशों से लबालब भर गया था........ आज सब इस का पानी पीते हैं........ इस बाग़ के जितने फूल हैं। इस के पानी ने सींचे हैं। मगर लोग आते हैं और इन्हें तोड़ कर ले जाते हैं.... पानी के किसी घूँट में लहू का नमक नहीं होता। फूल की किसी पति में ख़ून की लाली नहीं होती.... ये क्या बात है?”
मुझे अच्छी तरह याद है मैंने ये कह कर अपने सामने, उस मकान की खिड़की की तरफ़ देखा जिस में कहा जाता है कि एक नौ उम्र लड़की बेठी तमाशा देख रही थी और जनरल डावर की गोली का निशाना बन गई थी। उस के सीने से निकले हुए ख़ून की लकीर चूने की उम्र रसीदा दीवार पर धुँदली हो रही थी।
अब ख़ून कुछ इस क़दर अर्ज़ां होगया कि इस के बहने बहाने का वो असर ही नहीं होता। मुझे याद है कि जलियांवाला बाग़ के ख़ूनीं हादिसे के छः सात महीने बाद जब में तीसरी या चौथी जमात में पढ़ता था। हमारा मास्टर सारी क्लास को एक दफ़ा इस बाग़ में ले गया। उस वक़्त ये बाग़ बाग़ नहीं था। उजाड़, सुनसान और ऊंची नीची ख़ुशक ज़मीन का एक टुकड़ा था जिस में हर क़दम पर मिट्टी के छोटे बड़े ढीले ठोकरें खाते थे। मुझे याद है मिट्टी का एक छोटा सा ढीला जिस पर जाने पान की पैक के धब्बे या किया था, हमारे मास्टर ने उठा लिया था और हम से कहा था। देखो इस पर अभी तक हमारे शहीदों का ख़ून लगा है।
ये कहानी लिख रहा हूँ और हाफ़िज़े की तख़्ती पर सैंकड़ों छोटी छोटी बातें उभर रही हैं मगर मुझे तो ग़ुलाम अली और निगार की शादी का क़िस्सा बयान करना है।
ग़ुलाम अली को जब बाबा जी की आमद की ख़बर मिली तो इस ने दौड़ कर सब वालंटियर इकट्ठे किए जिन्हों ने फ़ौजी अंदाज़ में उन को सेलूट किया। इस के बाद काफ़ी देर तक वो वो ग़ुलाम अली मुख़्तलिफ़ कैम्पों का चक्कर लगाते रहे। इस दौरान में बाबा जी ने जिन की मज़ाहीया हिस बहुत तेज़ थी। लेडी वालंटियरज़ और दूसरे वर्करज़ से गुफ़्तुगू करते वक़्त कई फ़िक़रे चुसत किए।
इधर उधर मकानों में जब बत्तियां जलने लगीं और धुँदला अंधेरा सा जलियांवाला बाग़ पर छा गया तो रज़ाकार लड़कीयों ने एक आवाज़ हो कर भजन गाना शुरू किया। चंद आवाज़ें सुरीली, बाक़ी सब कुन सूरी थीं। मगर इन का मजमूई असर बहुत ख़ुशगवार था। बाबा जी आँखें बन्द किए सुन रहे थे। तक़रीबन एक हज़ार आदमी मौजूद थे। जो चबूतरे के इर्द-गिर्द ज़मीन पर बैठे थे। भजन गाने वाली लड़कीयों के इलावा हर शख़्स ख़ामोश था।
भजन ख़त्म होने पर चंद लम्हात तक ऐसी ख़ामोशी तारी रही जो एक दम टूटने के लिए बे-क़रार हो। चुनांचे जब बाबा जी ने आँखें खोलीं और अपनी मीठी आवाज़ में कहा। “बच्चो, जैसा कि तुम्हें मालूम है। मैं यहां आज आज़ादी के दो दीवानों को एक करने आया हूँ।” तो सारा बाग़ ख़ुशी के नारों से गूंज उठा।
निगार दुल्हन बनी चबूतरे के एक कोने में सर झुकाए बैठी थी। खादी की तिरंगी सारी में बहुत भली दिखाई दे रही थी। बाबा जी ने इशारे से उसे बुलाया और ग़ुलाम अली के पास बिठा दिया। इस पर और ख़ुशी के नारे बुलंद हुए।
ग़ुलाम अली का चेहरा ग़ैरमामूली तौर पर तिमतिमा रहा था। मैंने ग़ौर से देखा। जब उस ने निकाह का काग़ज़ अपने दोस्त से ले कर बाबा जी को दिया तो उस का हाथ लरज़ गया।
चबूतरे पर एक मौलवी साहब भी मौजूद थे। उन्हों ने क़ुरआन की वो आयत पढ़ी जो ऐसे मौक़ों पर पढ़ा करते हैं। बाबा जी ने आँखें बंद करलीं। ईजाब-ओ-क़बूल ख़त्म हुआ तो उन्हों ने अपने मख़सूस अंदाज़ में दूल्हा दूल्हन को आशीर्वाद दी और जब छोहारों की बारिश शुरू हुई तो उन्हों ने बच्चों की तरह झपट झपट कर दस पंद्रह छोहारे इकट्ठे करके अपने पास रख लिए।
निगार की एक हिंदू सहेली ने शर्मीली मुस्कुराहट से एक छोटी सी डिबिया ग़ुलाम अली को दी और उस से कुछ कहा। ग़ुलाम अली ने डिबिया खोली और निगार की सीधी मांग में सींदूर भर दिया। जलियांवाला बाग़ की ख़ुनुक फ़िज़ा एक बार फिर त्यालयों की तेज़ आवाज़ से गूंज उठी।
बाबा जी इस शोर में उठे। हुजूम एक दम ख़ामोश होगया।
रात की रानी और चमेली की मिली जुली सोंधी सोंधी ख़ुशबू शाम की हल्की फुल्की हवा में तीर रही थी। बहुत सुहाना समां था। बाबा जी की आवाज़ आज और भी मीठी थी। ग़ुलाम अली और निगार की शादी पर अपनी दिली मुसर्रत का इज़हार करने के बाद उन्हों ने कहा। “ये दोनों बच्चे अब ज़्यादा तनदही और ख़ुलूस से अपने मुल्क और क़ौम की ख़िदमत करेंगे। क्योंकि शादी का सही मक़सद मर्द और औरत की पुर-ख़ुलूस दोस्ती है। एक दूसरे के दोस्त बन कर ग़ुलाम अली और निगार यक-जहती से स्वराज के लिए कोशिश कर सकते हैं। यूरोप में ऐसी कई शादियां होती हैं जिन का मतलब दोस्ती और सिर्फ़ दोस्ती होता है। ऐसे लोग क़ाबिल-ए-एहतिराम हैं जो अपनी ज़िंदगी से शहवत निकाल फेंकते हैं।”
बाबा जी देर तक शादी के मुतअल्लिक़ अपने अक़ीदे का इज़हार करते रहे। उन का ईमान था कि सही मज़ा सिर्फ़ उसी वक़्त हासिल होता है जब मर्द और औरत का तअल्लुक़ सिर्फ़ जिस्मानी न हो। औरत और मर्द का शहवानी रिश्ता उन के नज़दीक इतना अहम नहीं था जितना कि आम तौर पर समझा जाता है। हज़ारों आदमी खाते हैं। अपने ज़ाइक़े की हिस को ख़ुश करने के लिए। लेकिन इस का ये मतलब नहीं कि ऐसा करना इंसानी फ़र्ज़ है। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो खाते हैं ज़िंदा रहने के लिए। असल में सिर्फ़ यही लोग हैं। जो ख़ुर्द-ओ-नोश के सही क़वानीन जानते हैं। इसी तरह वो इंसान जो सिर्फ़ इस लिए शादी करते हैं कि उन्हें शादी के मुतह्हिर जज़्बे की हक़ीक़त और इस रिश्ते की तक़दीस मालूम। हक़ीक़ी माअनों में अज़दवाजी ज़िंदगी से लुत्फ़ अंदोज़ होते हैं।
बाबा जी ने अपने इस अक़ीदे को कुछ इस वज़ाहत कुछ ऐसे नरम-ओ-नाज़ुक ख़ुलूस से बयान किया कि सुनने वालों के लिए एक बिलकुल नई दुनिया के दरवाज़े खुल गए। मैं ख़ुद बहुत मुतअस्सिर हुआ। ग़ुलाम अली जो मेरे सामने बैठा था। बाबा जी की तक़रीर के एक एक लफ़्ज़ को जैसे पी रहा था। बाबा जी ने जब बोलना बंद किया तो उस ने निगार से कुछ कहा। इस के बाद उठ कर उस ने काँपती हुई आवाज़ में ये ऐलान किया।
“मेरी और निगार की शादी इसी क़िस्म की आदर्श शादी होगी, जब तक हिंदूस्तान को स्वराज नहीं मिलता। मेरा और निगार का रिश्ता बिलकुल दोस्तों जैसा होगा.... ”
जलियांवाला बाग़ की ख़ुनुक फ़िज़ा देर तक तालियों के बेपनाह शोर से गूंजती रही। शहज़ादा ग़ुलाम अली जज़्बाती होगया। उस के कश्मीरी चेहरे पर सुर्खियां दौड़ने लगीं। जज़्बात की इसी दौड़ में उस ने निगार को बुलंद आवाज़ में मुख़ातब किया। “निगार! तुम एक ग़ुलाम बच्चे की माँ बनो.... क्या तुम्हें ये गवारा होगा?”
निगार जो कुछ शादी होने पर और कुछ बाबा जी की तक़रीर सुन कर बौखलाई हुई थी। ये कड़क सवाल सुन कर और भी बौखला गई। सिर्फ़ इतना कह सकी। “जी?.... जी नहीं।”
हुजूम ने फिर तालियां पीटीं और ग़ुलाम अली और ज़्यादा जज़्बाती होगया। निगार को ग़ुलाम बच्चे की शर्मिंदगी से बचा कर वो इतना ख़ुश हुआ कि वो बहक गया और असल मौज़ू से हट कर आज़ादी हासिल करने की पेचदार गलीयों में जा निकला। एक घंटे तक वो जज़्बात भरी आवाज़ में बोलता रहा। अचानक उस की नज़र निगार पर पड़ी। जाने क्या हुआ.... एक दम उस की क़ुव्वत-ए-गोयाई जवाब दे गई। जैसे आदमी शराब के नशे में बग़ैर किसी हिसाब के नोट निकालता जाये और एक दम बिटवा ख़ाली पाए। अपनी तक़रीर का बिटवा ख़ाली पा कर ग़ुलाम अली को काफ़ी उलझन हुई। मगर उस ने फ़ौरन ही बाबा जी की तरफ़ देखा और झुक कर कहा। “बाबा जी........ हम दोनों को आप का आशीर्वाद चाहिए कि जिस बात का हम ने अह्द किया है, इस पर पूरे रहें।”
दूसरे रोज़ सुबह छः बजे शहज़ादा ग़ुलाम अली को गिरफ़्तार कर लिया गया। क्योंकि इस तक़रीर में जो उस ने स्वराज मिलने तक बच्चा पैदा न करने की क़सम खाने के बाद की थी। अंग्रेज़ों का तख़्ता उलटने की धमकी भी थी।
गिरफ़्तार होने के चंद रोज़ बाद ग़ुलाम अली को आठ महीने की क़ैद हुई और मुल्तान जेल भेज दिया गया। वो अमृतसर का इक्कियालिसवां डिक्टेटर था और शायद चालीस हज़ारवां सयासी क़ैदी। क्योंकि जहां तक मुझे याद है। इस तहरीक में क़ैद होने वाले लोगों की तादाद अख़बारों ने चालीस हज़ार ही बताई थी।
आम ख़याल था कि आज़ादी की मंज़िल अब सिर्फ़ दो हाथ ही दूर है। लेकिन फ़रंगी सियासतदानों ने इस तहरीक का दूध उबलने दिया और जब हिंदूस्तान के बड़े लीडरों के साथ कोई समझौता हुआ तो ये तहरीक ठंडी लस्सी में तबदील होगई।
आज़ादी के दीवाने जेलों से बाहर निकले तो क़ैद की सऊबतें भूलने और अपने बिगड़े हुए कार-ओ-बार संवारने में मशग़ूल हो गए। शहज़ादा ग़ुलाम अली सात महीने के बाद ही बाहर आगया था। गो उस वक़्त पहला सा जोश नहीं था। फिर भी अमृतसर के स्टेशन पर लोगों ने उस का इस्तिक़बाल किया। उस के एज़ाज़ में तीन चार दावतें और जलसे भी हुए। मैं इन सब में शरीक था। मगर ये महफ़िलें बिलकुल फीकी थीं। लोगों पर अब एक अजीब क़िस्म की थकावट तारी थी जैसे एक लंबी दौड़ में अचानक दौड़ने वालों से कह दिया गया था। ठहरो, ये दौड़ फिर से शुरू होगी। और अब जैसे ये दौड़ने वाले कुछ देर हांपने के बाद दौड़ के मुक़ाम-ए-आग़ाज़ की तरफ़ बड़ी बेदिली के साथ वापस आरहे थे।
कई बरस गुज़र गए........ ये बे-कैफ़ थकावट हिंदूस्तान से दूर न हुई थी। मेरी दुनिया में छोटे मोटे कई इन्क़िलाब आए। दाढ़ी मोंछें उगी, कॉलिज में दाख़िल हुआ। एफ़ ए में दुबारा फ़ेल हुआ........ वालिद इंतिक़ाल कर गए, रोज़ी की तलाश में इधर उधर परेशान हुआ। एक थर्ड क्लास अख़बार में मुतर्जिम की हैसियत से नौकरी की, यहां से जी घबराया तो एक बार फिर तालीम हासिल करने का ख़याल आया। अलीगढ़ यूनीवर्सिटी में दाख़िल हुआ और तीन ही महीने बाद दिक़ का मरीज़ हो कर कश्मीर के देहातों में आवारागर्दी करता रहा। वहां से लोट कर बंबई का रुख़ किया। यहां दो बरसों में तीन हिंदू मुस्लिम फ़साद देखे। जी घबराया तो दिल्ली चला गया। वहां बंबई के मुक़ाबले में हर चीज़ सस्त रफ़्तार देखी। कहीं हरकत नज़र भी आई तो उस में एक ज़नाना पन महसूस हुआ। आख़िर यही सोचा कि बंबई अच्छा है। क्या हुआ साथ वाले हमसाए को हमारा नाम तक पूछने की फ़ुर्सत नहीं। जहां लोगों को फ़ुर्सत होती है। वहां रिया कारीयां और चालबाज़यां ज़्यादा पैदा होती हैं। चुनांचे दिल्ली में दो बरस ठंडी ज़िंदगी बसर करने के बाद सदा मुतहर्रिक बंबई चला आया।
घर से निकले अब आठ बरस हो चले थे। दोस्त अहबाब और अमृतसर की सड़कें गलियां किस हालत में हैं। इस का मुझे कुछ इल्म नहीं था किसी से ख़त-ओ-किताबत ही नहीं थी। जो पता चलता। दरअसल मुझे इन आठ बरसों में अपने मुस्तक़बिल की तरफ़ से कुछ बे-पर्वाई सी होगई थी........ कौन बीते हुए दिनों के मुतअल्लिक़ सोचे। जो आठ बरस पहले ख़र्च हो चुका है। उस का अब एहसास करने से फ़ायदा?.... ज़िंदगी के रुपय में वही पाई ज़्यादा अहम है जिसे तुम आज ख़ुरचना चाहते हो या जिस पर कल किसी की आँख है।
आज से छः बरस पहले की बात कर रहा हूँ। जब ज़िंदगी के रुपय और चांदी के रुपय से जिस पर बादशाह सलामत की छाप होती है। पाई ख़ारिज नहीं हुई थी। मैं इतना ज़्यादा क़ल्लाश नहीं था। क्योंकि फोर्ट में अपने पांव के लिए एक क़ीमती शो ख़रीदने जा रहा था।
आर्मी ऐंड नेवी स्टोर के सिर्फ़ हारनबी रोड पर जूतों की एक दुकान है जिस की नुमाइशी अलमारीयां मुझे बहुत देर से इस तरफ़ खींच रही थी। मेरा हाफ़िज़ा बहुत कमज़ोर है चुनांचे ये दुकान ढ़ूढ़ने में काफ़ी वक़्त सर्फ़ होगया।
यूं तो मैं अपने लिए एक क़ीमती शू ख़रीदने आया था मगर जैसा कि मेरी आदत है दूसरी दुकानों में सजी हुई चीज़ें देखने में मसरूफ़ होगया। एक स्टोर में सिगरेट केस देखे, दूसरे में पाइप इसी तरह फुटपाथ पर टहलता हुआ जूतों की एक छोटी सी दुकान के पास आया और उस के अन्दर चला गया कि चलो यहीं से ख़रीद लेते हैं, दुकानदार ने मेरा इस्तिक़बाल किया और पूछा। “क्या मांगता है साहब।”
मैंने थोड़ी देर याद किया कि मुझे क्या चाहिए। “हाँ.... क्रेप सोल शू।”
“इधर नहीं रखता हम।”
मोनसून क़रीब थी। मैंने सोचा गम बूट ही ख़रीद लूं। “ग़म बूट निकालो।”
“बाबू वाले की दुकान से मिलेंगे........ रबड़ की कोई चीज़ हम इधर नहीं रखता।”
मैंने ऐसे ही पूछा। “क्यों?”
“सेठ की मर्ज़ी।”
ये मुख़्तसर मगर जामि जवाब सुन कर मैं दुकान से बाहर निकलने ही वाला था कि एक ख़ुशपोश आदमी पर मेरी नज़र पड़ी जो बाहर फुटपाथ पर एक बच्चा गोद में उठाए फल वाले से सनगतरा ख़रीद रहा था। मैं बाहर निकला और वो दुकान की तरफ़ मुड़ा....। “अरे.... ग़ुलाम अली....” “सआदत” ये कह कर उस ने बच्चे समेत मुझे अपने सीने के साथ भींच लिया। बच्चे को ये हरकत नागवार मालूम हुई। चुनांचे उस ने रोना शुरू कर दिया। ग़ुलाम अली ने उस आदमी को बुलाया। जिस ने मुझ से कहा था कि रबड़ की कोई चीज़ इधर हम नहीं रखता और उसे बच्चा दे कर कहा “जाओ इसे घर ले जाओ।” फिर वो मुझ से मुख़ातब हुआ। “कितनी देर के बाद हम एक दूसरे से मिले हैं।”
मैंने ग़ुलाम अली के चेहरे की तरफ़ ग़ौर से देखा........ वो कजकुलाही, वो हल्का सा गंडापन जो उस की इम्तियाज़ी शान था। अब बिलकुल मफ़क़ूद था.... मेरे सामने आतिशीं तक़रीरें करने वाले खादी पोश नौजवान की जगह एक घरेलू क़िस्म का आम इंसान खड़ा था.... मुझे उस की वो आख़िरी तक़रीर याद आई। जब उस ने जलियांवाला बाग़ की ख़ुनुक फ़िज़ा को उन गर्म अल्फ़ाज़ से मुर्तइश किया था। “निगार.... तुम एक ग़ुलाम बच्चे की माँ बनो.... क्या तुम्हें ये गवारा होगा........ ” फ़ौरन ही मुझे उस बच्चे का ख़याल आया। जो ग़ुलाम अली की गोद में था। मैं उस से ये पूछा। “ये बच्चा किस का है?” ग़ुलाम अली ने बग़ैर किसी झिजक के जवाब दिया। “मेरा.... इस से बड़ा एक और भी है.... कहो, तुम ने कितने पैदा किए।”
एक लहज़े के लिए मुझे महसूस हुआ जैसे ग़ुलाम अली के बजाय कोई और ही बोल रहा है। मेरे दिमाग़ में सैंकड़ों ख़याल ऊपर तले गिरते गए। क्या ग़ुलाम अली अपनी क़सम बिलकुल भूल चुका है। क्या उस की सयासी ज़िंदगी उस से क़तअन अलाहिदा हो चुकी है। हिंदूस्तान को आज़ादी दिलाने का वो जोश, वो वलवला कहाँ गया। इस बेरेश-ओ-बुरूत ललकार का क्या हुआ.... निगार कहाँ थी?.... क्या उस ने दो ग़ुलाम बच्चों की माँ बनना गवारा किया.... शायद वो मर चुकी हो। हो सकता है। ग़ुलाम अली ने दूसरी शादी करली हो।
“क्या सोच रहे हो.... कुछ बातें करो। इतनी देर के बाद मिले हैं।” ग़ुलाम अली ने मेरे कांधे पर ज़ोर से हाथ मारा।
मैं शायद ख़ामोश होगया था। एक दम चौंका और एक लंबी “हाँ” करके सोचने लगा कि गुफ़्तुगू कैसे शुरू करूं। लेकिन ग़ुलाम अली ने मेरा इंतिज़ार न किया और बोलना शुरू कर दिया। ये दुकान मेरी है। दो बरस से मैं यहां बंबई में हूँ। बड़ा अच्छा कार-ओ-बार चल रहा है। तीन चार सौ महीने के बज जाते हैं। तुम क्या कर रहे हो। सुना है कि बहुत बड़े अफ़्साना नवीस बन गए हो। याद है हम एक दफ़ा यहां भाग के आए थे........ लेकिन यार अजीब बात है। उस बंबई और इस बंबई में बड़ा फ़र्क़ महसूस होता है। ऐसा लगता है वो छोटी थी और ये बड़ी है।
इतने में एक गाहक आया। जिसे टेनिस शो चाहिए था। ग़ुलाम अली ने उस से कहा, “रबड़ का माल उधर नहीं मिलता। बाज़ू की दुकान में चले जाईए।”
गाहक चला गया तो मैंने ग़ुलाम से पूछा। “रबड़ का माल तुम क्यों नहीं रखते मैं भी यहां क्रेप सोल शू लेने आया था।”
ये सवाल मैंने यूंही किया था। लेकिन ग़ुलाम अली का चेहरा एक दम “बे-रौनक हो गया।”
धीमी आवाज़ में सिर्फ़ इतना कहा। “मुझे पसंद नहीं।”
“क्या पसंद नहीं?”
“यही रबड़........ रबड़ की बनी हुई चीज़ें।” ये कह कर उस ने मुस्कराने की कोशिश की। जब नाकाम रहा तो ज़ोर से ख़ुश्क सा क़हक़हा लगाया। “मैं तुम्हें बताऊंगा। है तो बिलकुल वाहीयात सी चीज़, लेकिन........ लेकिन मेरी ज़िंदगी से इस का बहुत गहिरा तअल्लुक़ है।”
तफ़क्कुर की गहराई ग़ुलाम अली के चेहरे पर पैदा हुई। उस की आँखें जिन में अभी तक खलनडरा पन मौजूद था। एक लहज़े के लिए धुँदली हुईं। लेकिन फिर चमक उठीं। “बकवास थी यार वो ज़िंदगी.... सच्च कहता हूँ सआदत मैं वो दिन बिलकुल भूल चुका हूँ। जब मेरे दिमाग़ पर लीडरी सवार थी। चार पाँच बरस से अब बड़े सुकून में हूँ। बीवी है बच्चे हैं, अल्लाह का बड़ा फ़ज़ल-ओ-करम है।”
अल्लाह के फ़ज़ल-ओ-करम से मुतअस्सिर हो कर ग़ुलाम अली ने बिज़नेस का ज़िक्र शुरू कर दिया कि कितने सरमाए में उस ने काम शुरू किया था। एक बरस में कितना फ़ायदा हुआ। अब बंक में उस का कितना रुपया है। मैंने उसे दरमयान में टोका और कहा। “लेकिन तुम ने किसी वाहीयात चीज़ का ज़िक्र किया था। जिस का तुम्हारी ज़िंदगी से गहरा तअल्लुक़ है।”
एक बार फिर ग़ुलाम अली का चेहरा बे-रौनक होगया। उस ने एक लंबी हाँ की और जवाब दिया। “गहिरा तअल्लुक़ था.... शुक्र है कि अब नहीं है........ लेकिन मुझे सारी दास्तान सुनानी पड़ेगी।”
इतने में उस का नौकर आगया। दुकान इस के सपुर्द कर के वो मुझे अंदर अपने कमरे में ले गया। जहां बैठ कर उस ने मुझे इत्मिनान से बताया कि उसे रबड़ की चीज़ों से क्यों नफ़रत पैदा हुई।
“मेरी सयासी ज़िंदगी का आग़ाज़ कैसे हुआ। इस के मुतअल्लिक़ तुम अच्छी तरह जानते हो। मेरा कैरेक्टर कैसा था। ये भी तुम्हें मालूम है। हम दोनों क़रीब क़रीब एक जैसे ही थे। मेरा मतलब है हमारे माँ बाप किसी से फ़ख़्रिया नहीं कह सकते थे कि हमारे लड़के बे-ऐब हैं। मालूम नहीं मैं तुम से ये क्यों कह रहा हूँ। लेकिन शायद तुम समझ गए हो कि मैं कोई मज़बूत कैरेक्टर का मालिक नहीं था। मुझे शौक़ था कि मैं कुछ करूं। सियासत से मुझे इसी लिए दिलचस्पी पैदा हुई थी। लेकिन मैं ख़ुदा की क़सम खा कर कहता हूँ कि मैं झूटा नहीं था। वतन के लिए मैं जान भी दे देता। अब भी हाज़िर हूँ। लेकिन मैं समझता हूँ........ बहुत ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि हिंदूस्तान की सियासत, इस के लीडर सब नापुख़्ता हैं। बिलकुल उसी तरह जिस तरह मैं था। एक लहर उठती है। उस में जोश, ज़ोर, शोर सभी होता है। लेकिन फ़ौरन ही बैठ जाती है। इस की वजह जहां तक मेरा ख़याल है कि लहर पैदा की जाती है, ख़ुदबख़ुद नहीं उठती........ लेकिन शायद मैं तुम्हें अच्छी तरह समझा नहीं सका।”
ग़ुलाम अली के ख़यालात में बहुत उलझाओ था। मैंने उसे सिगरट दिया। उसे सुलगा कर उस ने ज़ोर से तीन कश लिए और कहा। “तुम्हारा क्या ख़याल है। क्या हिंदूस्तान की हर कोशिश जो उस ने आज़ादी हासिल करने के लिए की है। ग़ैर फ़ित्री नहीं.... कोशिश नहीं........ मेरा मतलब है इस का अंजाम क्या हर बार ग़ैर फ़ित्री नहीं होता रहा.... हमें क्यों आज़ादी नहीं मिलती.... क्या हम सब नामर्द हैं? नहीं, हम सब मर्द हैं। लेकिन हम ऐसे माहौल में हैं कि हमारी क़ुव्वत का हाथ आज़ादी तक पहुंचने ही नहीं पाता।”
मैंने उस से पूछा। “तुम्हारा मतलब है आज़ादी और हमारे दरमियान कोई चीज़ हाइल है।” ग़ुलाम अली की आँखें चमक उठीं। “बिलकुल.... लेकिन ये कोई पक्की दीवार नहीं है। कोई ठोस चट्टान नहीं है। एक पतली सी झिल्ली है........ हमारी अपनी सियासत की, हमारी मस्नूई ज़िंदगी की जहां लोग दूसरों को धोका देने के इलावा अपने आप से भी फ़रेब करते हैं।”
उस के ख़यालात बदस्तूर उलझे हुए थे। मेरा ख़याल है वो अपने गुज़श्ता तजुर्बों को अपने दिमाग़ में ताज़ा कर रहा था। सिगरट बुझा कर उस ने मेरी तरफ़ देखा और बुलंद आवाज़ में कहा। “इंसान जैसा है ऐसे वैसा ही होना चाहिए नेक काम करने के लिए ये क्या ज़रूरी है कि इंसान अपना सर मुंडाए, गेरवे कपड़े पहने या बदन पर राख मले, तुम कहोगे। ये उस की मर्ज़ी है। लेकिन मैं कहता हूं उस की इस मर्ज़ी ही से उस की इस निराली चीज़ ही से गुमराही फैलती है। ये लोग ऊंचे हो कर इंसान की फ़ित्री कमज़ोरीयों से ग़ाफ़िल हो जाते हैं। बिलकुल भूल जाते हैं कि उन के किरदार। उन के ख़यालात और अक़ीदे तो हवा में तहलील हो जाऐंगे। लेकिन उन के मुंडे हुए सर, उन के बदन की राख और उन के गीरदे कपड़े सादा लौह इंसानों के दिमाग़ में रह जाऐंगे।” ग़ुलाम अली ज़्यादा जोश में आगया। “दुनिया में इतने मुसल्लेह पैदा हुए हैं। उन की तालीम तो लोग भूल चुके हैं। लेकिन सलीबें, धागे, दाढ़ियां, कड़े और बग़लों के बाल रह गए हैं.... एक हज़ार बरस पहले जो लोग यहां बस्ते थे। हम उन से ज़्यादा तजरबाकार हैं। मेरी समझ में नहीं आता। आज के मुसल्लेह क्यों ख़याल नहीं करते कि वो इंसान की शक्ल मस्ख़ कर रहे हैं। जी में कई दफ़ा आता है। बुलंद आवाज़ में चिल्लाने शुरू करदूं.... ख़ुदा के लिए इंसान को इंसान रहने दो। उस की सूरत को तुम बिगाड़ चुके हो, ठीक है.... अब उस के हाल पर रहम करो.... तुम उस को ख़ुदा बनाने की कोशिश करते हो, लेकिन वो ग़रीब अपनी इंसानियत भी खो रहा है........ सआदत, मैं ख़ुदा की क़सम खा कर कहता हूँ। ये मेरे दिल की आवाज़ है। मैंने जो महसूस किया है। वही कह रहा हूँ। अगर ये ग़लत है तो फिर कोई चीज़ दुरुस्त और सही नहीं है........ मैंने दो बरस, पूरे दो बरस दिमाग़ के साथ कई कुश्तियां लड़ी हैं। मैंने अपने दिल, अपने ज़मीर, अपने जिस्म, अपने रोएं रोएं से बहस की है। मगर इसी नतीजे पर पहुंचा हूँ कि इंसान को इंसान ही रहना चाहिए। नफ़्स हज़ारों में एक दो आदमी मारें। सब ने अपना नफ़्स मार लिया तो मैं पूछता हूँ ये कुशता काम किस के आएगा?” यहां तक कह कर उस ने एक और सिगरट लिया और उसे सुलगाने में सारी तीली जला कर गर्दन को एक ख़फ़ीफ़ सा झटका दिया। “कुछ नहीं सआदत। तुम नहीं जानते। मैंने कितनी रुहानी और जिस्मानी तकलीफ़ उठाई है। लेकिन फ़ित्रत के ख़िलाफ़ जो भी क़दम उठाएगा। उसे तकलीफ़ बर्दाश्त करनी ही होगी........ मैंने उस रोज़.... तुम्हें याद होगा वो दिन.... जलियांवाला बाग़ में इस बात का ऐलान करके कि निगार और मैं ग़ुलाम बच्चे पैदा नहीं करेंगे एक अजीब क़िस्म की बर्क़ी मुसर्रत महसूस की थी.... मुझे ऐसा लगा था कि इस ऐलान के बाद मेरा सर ऊंचा हो कर आसमान के साथ जा लगा है। लेकिन जेल से वापिस आने के बाद मुझे आहिस्ता आहिस्ता इस बात का तकलीफ़देह.... बहुत ही अज़ीयत रसाँ एहसास होने लगा कि मैंने अपने जिस्म का अपनी रूह का एक बहुत ही ज़रूरी हिस्सा मफ़लूज कर दिया है.... अपने हाथों से मैंने अपनी ज़िंदगी के बाग़ का सब से हसीन फूल मसल डाला है........ शुरू शुरू में इस ख़याल से मुझे एक अजीब कटिस्म का तसल्लीबख़्श फ़ख़्र महसूस होता रहा कि मैंने ऐसा काम किया है जो दूसरों से नहीं हो सकता। लेकिन धीरे धीरे जब मेरे शुऊर के मुसाम खुलने लगे तो हक़ीक़त अपनी तमाम तल्ख़ियों समेत मेरे रग-ओ-रेशे में रचने लगी........ जेल से वापिस आने पर में निगार से मिला........ हस्पताल छोड़ कर वो बाबा जी के आश्रम में चली गई थी........ सात महीने के क़ैद के बाद जब में उस से मिला तो उस की बदली हुई रंगत, उस की तबदील शूदा जिस्मानी और दिमाग़ी कैफ़ीयत देख कर मैंने ख़याल किया। शायद मेरी नज़रों ने धोका खाया है। लेकिन एक बरस गुज़रने के बाद.... एक बरस उस के साथ....” ग़ुलाम अली के होंटों पर ज़ख़्मी मुस्कुराहट पैदा हुई। “हाँ एक बरस इस के साथ रहने के बाद मुझे मालूम हुआ कि उस का ग़म भी वही है जो मेरा है........ लेकिन वो मुझ पर ज़ाहिर करना चाहती है, न मैं इस पर ज़ाहिर करना चाहती हूँ....हम दोनों अपने अह्द की ज़ंजीरों में जकड़े हुए थे।
एक बरस में सयासी जोश आहिस्ता आहिस्ता ठंडा हो चुका था। खादी के लिबास और तिरंगे झंडों में अब वो पहली सी कशिश बाक़ी न रही थी........ इन्क़िलाब ज़िंदाबाद का नारा अगर कभी बुलंद होता भी था तो इस में वो शान नज़र नहीं आती थी........ जलियांवाला बाग़ में एक तन्बू भी नहीं था.... पुराने कैम्पों के खूंने कहीं कहीं गढ़े नज़र आते थे.... ख़ून से सियासत की हरारत क़रीब क़रीब निकल चुकी थी.... मैं अब ज़्यादा वक़्त घर ही में रहता था, अपनी बीवी के पास........ ” एक बार फिर ग़ुलाम अली के होंटों पर वही ज़ख़्मी मुस्कुराहट पैदा हुई और वो कुछ कहते कहते ख़ामोश होगया। मैं भी चुप रहा। क्योंकि मैं उस के ख़यालात का तसलसुल तोड़ना नहीं चाहता था
चंद लमहात के बाद उस ने अपनी पेशानी का पसीना पोंछा और सिगरेट बुझा कर कहने लगा। “हम दोनों एक अजीब क़िस्म की लानत में गिरफ़्तार थे........ निगार से मुझे जितनी मोहब्बत है। तुम इस से वाक़िफ़ हो.... मैं सोचने लगा। ये मोहब्बत किया है?........ मैं उस को हाथ लगाता हूँ तो क्यों उस के रद्द-ए-अमल को अपनी मेराज पर पहुंचने की इजाज़त नहीं देता.... मैं क्यों डरता हूँ कि मुझ से कोई गुनाह सरज़द हो जाएगा.... मुझे निगार की आँखें बहुत पसंद हैं। एक रोज़ जब कि शायद में बिलकुल सही हालत में था, मेरा मतलब है जैसा कि हर इंसान को होना चाहिए था। मैंने उन्हें चूम लिया........ वो मेरे बाज़ूओं में थी........ यूं कहो कि एक कपकपी थी जो मेरे बाज़ूओं में थी। क़रीब था कि मेरी रूह अपने पर छुड़ा कर फड़फड़ाती हुई ऊंचे आसमान की तरफ़ उड़ जाये कि मैंने .... कि मैंने उसे पकड़ लिया और क़ैद कर दिया........ इस के बाद बहुत देर तक........ कई दिनों तक अपने आप को यक़ीन दिलाने की कोशिश की कि मेरे इस फ़ेअल से........ मेरे इस बहादुराना कारनामे से मेरी रूह को ऐसी लज़्ज़त मिली है जिस से बहुत कम इंसान आश्ना हैं........ लेकिन हक़ीक़त ये है कि मैं इस में नाकाम रहा और इस नाकामी ने जिसे में एक बहुत बड़ी कामयाबी समझना चाहता था........ ख़ुदा की क़सम ये मेरी दिली ख़्वाहिश थी कि मैं ऐसा समझूं मुझे दुनिया का सब से ज़्यादा दुखी इंसान बना दिया........ लेकिन जैसा कि तुम जानते हो। इंसान हीले बहाने तलाश कर लेता है, मैंने भी एक रास्ता निकाल लिया। हम दोनों सोच रहे थे........ अंदर ही अंदर हमारी तमाम लताफ़तों पर पड़ी जम रही थी........ कितनी बड़ी ट्रेजिडी है कि हम दोनों एक दूसरे के लिए ग़ैर बन रहे थे....। ने सोचा........। बहुत दिनों के ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद हम अपने अह्द पर क़ायम रह कर भी........ मेरा मतलब है कि निगार ग़ुलाम बच्चे पैदा नहीं करेगी।” ये कह कर उस के होंटों पर तीसरी बार वो ज़ख़्मी मुस्कुराहट पैदा हुई। लेकिन फ़ौरन ही एक बुलंद क़हक़हे में तबदील होगई। जिस में तकलीफ़देह एहसास की चुभन नुमायां थी। फिर फ़ौरन ही संजीदा हो कर वह कहने लगा। “हमारी अज़दवाजी ज़िंदगी का ये अजीब-ओ-ग़रीब दौर शुरू हुआ.... अंधे को जैसे एक आँख मिल गई.... मैं एक दम देखने लगा लेकिन ये बसारत थोड़ी देर ही के बाद धुँदली होने लगी.... पहले पहल तो यही ख़याल था।” ग़ुलाम अली मौज़ूं अल्फ़ाज़ तलाश करने लगा। “पहले पहल तो हम मुतमइन थे। मेरा मतलब है शुरू शुरू में हमें इस का क़तअन ख़याल नहीं था कि थोड़ी ही देर के बाद हम ना-मुतमइन हो जाऐंगे........ यानी एक आँख तक़ाज़ा करने लगी किदूसरी आँख भी हो........ आग़ाज़ में हम दोनों ने महसूस किया था जैसे हम सेहत मंद हो रहे हैं, हमारी तंदरुस्ती बढ़ रहे.... निगार का चेहरा निखर गया था। उस की आँखों में चमक पैदा हो गई थी। मेरे आज़ा से भी ख़ुश्क सा तनाव दूर होगया था जो पहले मुझे तकलीफ़ दिया करता था। लेकिन आहिस्ता आहिस्ता हम दोनों पर अजीब क़िस्म की मुर्दनी छाने लगी........ एक बरस ही में हम दोनों रबड़ के पुतले से बन गए........ मेरा एहसास ज़्यादा शदीद था........ तुम यक़ीन नहीं करोगे, लेकिन ख़ुदा की क़सम उस वक़्त जब में बाज़ू का गोश्त चुटकी में लेता तो बिलकुल रबड़ मालूम होता........ ऐसा लगता था कि अंदर ख़ून की नसें नहीं हैं........ निगार की हालत मुझ से, जहां तक मेरा ख़याल है मुख़्तलिफ़ थी। उस के सोचने का ज़ावीया और था, वो माँ बनना चाहती थी.... गली में जब भी किसी के हाँ कोई बच्चा पैदा होता तो उसे बहुत सी आहें छुपछुप कर अपने सीने के अंदर दफ़न करना पड़ती थीं। लेकिन मुझे बच्चों का कोई ख़याल नहीं था, बच्चे न हुए तो किया है। दुनिया में लाखों इंसान मौजूद हैं जिन के हाँ औलाद नहीं होती.... ये कितनी बड़ी बात है कि मैं अपने अह्द पर क़ायम हूँ.... इस से तसकीन तो काफ़ी हो जाती थी मगर मेरे ज़हन पर जब रबड़ का महीन महीन जाला तनने लगा तो मेरी घबराहट बढ़ गई........ मैं हरवक़त सोचने लगा और इस का नतीजा ये हुआ कि मेरे दिमाग़ के साथ रबड़ कॉलम्स चिमट गया। रोटी खाता तो लुक़्मे दाँतों के नीचे कचकचाने लगते।” ये कहते हुए ग़ुलाम अली को फरेरी आगई। “बहुत ही वाहीयात और ग़लत चीज़ थी........ उंगलीयों में हरकत जैसे साबुन सा लगा है........ मुझे अपने आप से नफ़रत होगई। ऐसा लगता था कि मेरी रूह का सारा रस निचुड़ गया है और उस छिलका सा बाक़ी रह गया है, इस्तिमाल शूदा........ इस्तिमाल शूदा........ ” ग़ुलाम अली हँसने लगा। “शुक्र है कि वो लानत दूर हुई........ लेकिन सआदत, किन अज़ीयतों के बाद........ ज़िंदगी बिलकुल सूखे हुए छीछड़े की शक्ल इख़्तियार करगई थी........ सारी हसीं मुर्दा होगई थीं। लेकिन लम्स की हिस ग़ैर फ़ित्री हद तक तेज़ होगई थी.... तेज़ नहीं.... इस का सिर्फ़ एक रुख़ हो गया था.... लकड़ी में, शीशे में, लोहे में, काग़ज़ में, पत्थर में हर जगह रबड़ की वो मुर्दा, वो उबकाई भरी मुलाइमी!!.... ये अज़ाब और भी शदीद हो जाता जब मैं उस की वजह का ख़याल करता........ मैं दो उंगलीयों से इस लानत को उठा कर फेंक सकता था, लेकिन मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी। मैं चाहता था मुझे कोई सहारा मिल जाये। अज़ाब के इस समुंद्र में मुझे एक छोटा सा तिनका मिल जाये जिस की मदद से में किनारे लग जाऊं.... बहुत देर तक में हाथ पांव मारता रहा। लेकिन एक रोज़ जब कोठे पर धूप में एक मज़हबी किताब पढ़ रहा था, पढ़ क्या रहा था। ऐसे ही सरसरी नज़र देख रहा था कि अचानक मेरी नज़र एक हदीस पर पड़ी.... ख़ुशी से उछल पड़ा.... सहारा मेरी आँखों के सामने मौजूद था। मैंने बार बार वो सतरें पढ़ीं। मेरी ख़ुश्क ज़िंदगी जैसे सराब होने लगी........ लिखा था कि शादी के बाद मियां बीवी के लिए बच्चे पैदा करने लाज़िम हैं.... सिर्फ़ उसी हालत में उन की पैदाइश रोकने की इजाज़त है। जब वालिदैन की ज़िंदगी ख़तरे में हो.... मैंने दो उंगलीयों से इस लानत को उठाया और एक तरफ़ फेंक दिया।”
ये कह वो बच्चों की तरह मुस्कराने लगा मैं भी मुस्कुरा दिया। क्योंकि उस ने दो उंगलीयों से सिगरेट का टुकड़ा उठा कर एक तरफ़ ऐसे फेंका था जैसे वो कोई निहायत ही मकरूह चीज़ है।
मुस्कुराते मुस्कुराते ग़ुलाम अली दफ़अतन संजीदा होगया। “मुझे मालूम है सआदत.... मैंने जो कुछ तुम से कहा है तुम इस का अफ़्साना बना दोगे........ लेकिन देखो मेरा मज़ाक़ मत उड़ाना.... ख़ुदा की क़सम मैंने कुछ महसूस किया था वही तुम से कहा है.... मैं इस मुआमले में तुम से बेहस नहीं करूंगा। लेकिन मैंने जो कुछ हासिल किया है। वो ये है कि फ़ित्रत की ख़िलाफ़वरज़ी हरगिज़ हरगिज़ बहादुरी नहीं.... ये कोई कारनामा नहीं कि तुम फ़ाक़ाकशी करते करते मर जाओ, या ज़िंदा रहो.... क़ब्र खोद कर उस में गड़ जाना और कई कई दिन उस के अंदर दम साधे रखना, नोकीली कीलों के बिस्तर पर महीनों लेटे रहना, एक हाथ बरसों ऊपर उठाए रखना, हत्ता कि वो सूख सूख कर लकड़ी हो जाये........ ऐसे मदारी पने से ख़ुदा मिल सकता है न स्वराज...... और मैं तो समझता हूँ। हिंदूस्तान को स्वराज सिर्फ़ इस लिए नहीं मिल रहा कि यहां मदारी ज़्यादा हैं और लीडर कम........ जो हैं वो क़वानीन-ए-फ़ित्रत के ख़िलाफ़ चल रहे हैं........ ईमान और साफ़ दिली का बर्थ कंट्रोल करने के लिए उन लोगों ने सियासत ईजाद करली है और यही सियासत है जिस ने आज़ादी के रहम का मुँह बंद कर दिया है..... ”
ग़ुलाम अली इस के आगे भी कुछ कहने वाला था कि उस का नौकर अंदर दाख़िल हुआ। उस की गोद में शायद ग़ुलाम अली का दूसरा बच्चा था। जिस के हाथ में एक खुश रंग बैलून था। ग़ुलाम अली दीवानों की तरह उस पर झपटा.... पटाख़े की सी आवाज़ आई.... बैलून फट गया और बच्चे के हाथ में धागे के साथ रबड़ का एक छोटा सा टुकड़ा लटकता रह गया। ग़ुलाम अली ने दो उंगलीयों से उस टुकड़े को छीन कर यूं फेंका जैसे वो कोई निहायत ही मकरूह चीज़ थी।
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