Chakar rakho ji in Hindi Moral Stories by Sapna Singh books and stories PDF | चाकर राखो जी...

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चाकर राखो जी...

चाकर राखो जी...

चारू तुम भी आ रही हो न हमारे साथ ---!’’ लंच ब्रेक में उसकी मेज की ओर आती हुई मालती ने पूछा था ‘‘कहां भाई.......?’’ उठते हुए पूछा उसने ‘‘ल्यो...... इनको कुछ खबर ही नहीं रहती - अरे भई, इस बार अपनी गैंग ने कुल्लू का दशहरा देखने का प्लान किया है--- अभय का कन्फर्म था तो लगा तू भी साथ होगी ---’’

‘‘माने ---?’’ उसने त्योरी चढ़ायी -- ‘‘अभय का कन्फर्म था, तो मेरा कैसे हो गया.....। ’’

‘‘तू........उससे अलग है क्या ---’’

‘‘फिलहाल अलग ही हूं ---’’

‘‘मूड क्यों खराब है देवीजी का --- साथ नही आना चाहती --- प्रायवेसी चाहिए, तो ठीक है --- पर बता तो दो तुम दोनो कहां जा रहे हो --- ?

‘‘मूड खराब है नहीं --- तुम खराब कर रही हो ....... अपनी बातों से ........... मैं कहीं किसी के साथ नहीं जा रही .....?

‘‘छुट्टियां..... यों ही स्पाॅयल करने का इरादा है क्या....?

‘‘नहीं ...... मैं गोरखपुर जा रही हूं

‘‘गोरखपुर ....!’’ ये अभय की चैंकती आवाज थी, जो पास आते हुए उसकी बात सुन चुका था।

‘‘ हां --- दशहरे में पापा हर बार गोरखपुर जाते हैं --- इस बार --- मुझसे भी कहा है... आने के लिए ........। ’’

‘‘गोरखपुर जाओगी तुम.......?’’

‘‘हाँ..., पापा का कहना है.... अभी जब तक मेरी शादी नहीं हुई है... तब तक तो मैं आ ही सकती हूँ।

‘‘पर यार... !’’ अभय के स्वर में निराशा के साथ थोड़ा गुस्सा भी छलक गया,

लंच ब्रेक ओवर हो गया था। गोरखपुर के नाम पर सभी कैसे तुनक गये थे। दरअसल उन्हें चारू का फैसला किसी भी तरह हजम नहीं हो रहा था आखिर वो भी तो उन्हीं की तरह ये मानती आयी थी कि उन्हें अपने पैरेन्ट्स की तरह जिंदगी नहीं गुजारनी। एक अदद नौकरी, शादी, बच्चे, बच्चों का कैरियर, उनकी शादी.... नाती-पोते और जिंदगी खत्म! घूमना, फिरना, दुनिया देखना.... . ये सब स्थगित मोड पर....। पर उन्हेें वैसे नहीं जीना! जीवन आज में स्थित है ! आज की पीढ़ी की तरह वह भी आत्मनिर्भर सोच की लड़की थी। आत्मनिर्भरता की पहली शर्त आर्थिक स्वतंत्रता होती है... उसे बखूबी पता था ! अपने जीवन को चलाने के लिए उसे किसी और पे या फिर किस्मत पे नहीं निर्भर रहना! लिहाजा इस समय वह एक राष्ट्रीय बैंक में कार्यरत थी।

अभय उसके साथ काम करता है। दोनों सहकर्मी, दोस्ती की हद से कुछ आगे बढ़ चुके हैं। वह चार लड़कियाँ एक फ्लैट शेयर करती हॅैं - टू बी.एच.के.। दो-दो लड़कियाँ एक कमरे में! किचन और हाॅल काॅमन.... कई बार चारू अभय के फ्लैट में रह चुकी हैं.... जब कभी उसका दोस्त शहर के बाहर गया होता है। अभय के दोस्त से भी वो परिचित है वह एक दूसरे बैंक में कार्यरत हैं, जल्द ही उसका विवाह होने वाला है। लड़की उसके माँ-बाप की पसंद की है.... एम.एस.सी., बी.एड. है। आजकल उसकी गैंग उसके वुड-बी के लिए यहां के अच्छे स्कूलों में जाॅब ढँूढ़ रही है... इस महानगर में दोनों के काम किये बिना गुजारा भी नहीं।

अभय पिछले बहुत दिनों से उससे बार-बार कह रहा है... . दोस्त की शादी के बाद वह दूसरे फ्लैट में चला जायेगा.... तुम आ जाओ। ’’

‘‘हद हैं.... एैसा कैसे हो सकता है? माना इस महानगर में तमाम लोग एैसे रहते हैं,

पर वह! ठीक है वह दोनों साथ हैं.... दिनभर मैसेज करना, वीकेंड साथ गुजारना ... एक ही बकेट से पाॅपकाॅर्न खाते हुए मूवी देखना और कभी-कभार साथ सो लेना.... पर एक साथ रहना ? उसका मन इसके लिए हामी नहीं भरता.... !

दफ्तर से वह जल्दी निकल गयी थी.... कुछ खरीदारी कर लेगी ! पापा-मम्मी, बाबा-दादी के लिए भी। दशहरे में गोरखपुर जाना चारू के परिवार का नियम था.... पहले बाबा ने और फिर पापा ने यह नियम बनाये रखा। गोरखपुर से तीस किलोमीटर की दूरी पर उनका गाँव था सिर्फ बाबा ही नही बाबा के अन्य भाईयों के परिवार भी आते --- वहाँ। बाबा उ.प्र. सरकार में ही कार्यरत रहें और ज्यादातर बस्ती, गोंडा, मऊ, देवरिया, आजमगढ़ में पदस्थ रहें। सबसे दूरस्थ पदस्थापना उनकी बहराइच जिला था। जबकि पापा प्रायवेट जाॅब में थे और ज्यादातर बड़े शहरों मंे पोस्टेड रहे। बावजूद इसके हम कुछ अपवादों को छोड़कर .... . हर दशहरे में गोरखपुर गये।

हफ्ते भर का प्रोग्राम होता था जिसमें गोरखपुर जाना फिर अष्टमी के दिन गाँव जाना। अष्टमी की रात को गाँव की औरतें दुर्गा जी के थाने जाती थी कढ़ाई चढ़ाने मेला लगता था... लड़कियां, बहुयें हर घर की इकट्ठी होती थीं, नयी दुल्हने देखने में खूब मजा आता था... सोचते हुए चारू के चेहरे पर मुस्कुराहट खिल गई।

चारू के बाबा रिटायरमेंट के बाद गोरखपुर में मकान बनवाकर रह रहे थें... जहाँ से उनका गाँव मात्र 30 कि.मी. पर था, गोरखपुर में ही उनके अन्य भाइयों के परिवार भी थे, कुछ लोग इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली जैसे शहरों में भी बस गये थे। अपने गाँव से कुछ दूरी पर ही, अपनी बुआ द्वारा मिले जमीन के अपने हिस्से पर उन्होने फार्म हाउस बना लिया था, इस जमीन के सात हिस्से हुए थे, तीन भाई उनके और चार चचेरे! सबने अपनी जमीनों पर कुछ न कुछ कर रखा था। किसी ने एकदम सामने सड़क के किनारे दुकानें बनवा लीं, तो किसी ने पोल्ट्री फार्म खोल लिया! ये सारा कुछ इधर के चार-छै वर्षो में डेवलप हुआ। --- पहले इस जमीन पर संयुक्त रूप से गेहूँ की फसल होती थी, अधिया पर --- फिर उसका हिस्सा बंट जाता, शहर वाले अपना हिस्सा बेंच देते। दादी ही जाती थीं ये काम करने... और लौटकर तो पैसा बाबा को नहीं देती थीं - ‘‘इ हमार ह’’

दादी को फार्म हाउस बिल्कुल नहीं सुहाता था.... एतना पइसा लग गइल पर मिलेला कुछु नाही’’ बी.ए. पास दादी ठेठ भोजपुरी में कहतीं...

‘‘पिछले साल एतना आम भइल रहे, पर अचारो डाले के नाहीं पइनी जा... ’’

बाबा को शौक था बागवानी का। जबतक नौकरी में रहे... सरकारी आवास में आगे-पीछे खूब जमीन रहती... चपरासी रहते... तो खूब अपने मन के पेड़-पौधे लगाये...

आलू, प्याज, लहसुन... उगाये... अब गोरखपुर के मकान में कुछ गमलों में फूल पौधे उगाकर उनका जी नहीं भरता... लिहाजा फार्म हाउस बनवा लिए ...! आम, पपीता, भले न खाने को मिले पर तैयार हो रहे सागौन तो बाबा के गर्व का कारण थे ही -

ग्----ग्

गाड़ियों का काफिला गोरखपुर से निकल चुका है --- काफिला मतलब, चारू के पापा की गाड़ी और पापा के तीनो चचेरे भाईयों की गाड़ियां... और क्या पता आगे पीछे और भी पट्टिीदारी के लोगों के गाड़ियाँ मिल जायें --- ज्यादातर लोग अष्टमी को ही तो गाँव पहुंचते

‘‘काका हो -.... अड़सा हो ता त एक जनि के हे में भेज द... जगह बाटै। ’’ सुधीर ताऊ ने बगल से कार निकालते हुए चिल्लाकर कहा - - - वैसे भी चारू को लगता है कि इस फैमिली में सबको खूब चिल्लाकर बात करने की आदत है - - - कोई बाहरी व्यक्ति सुन ले तो सोचे झगड़ा हो रहा है। सचमुच इस गाड़ी में अड़सा तो था ही.... गोलू फौरन उतर कर सुधीर ताऊ की कार में चला गया।

चैमासे का आखिरी पखवारा... हवा में घुली हुई नमी! नौसड़ चैराहे पर इनकी कार पेट्रोल भरवाने रूकी तो बाकी गाड़ियां आगे निकल गयीं।

‘‘चल सभै आगे पीछे पहुंचबे करी... जल्दी का बा ...’’ बाबा सिगरेट सुलगाते हुए बोले .... आगे की बात खांसी में दब गयी

‘‘ बाबा - - - आपको डाॅक्टर ने मना किया ---’’

चारू ठुनकते हुए बोली

‘‘अरे बेटा बहुत कम हो गइल बा --- चार पैकेट से दू पैकेट

‘‘पापा, आप सुचि बुआ के यहां भी जाने को कह रहे थे न ---’’ चारू के पापा ने अपने पापा यानि चारू के बाबा से पूछा -

‘‘हाँ... बहुत बीमार है सुचि दीद्दा...’’ सुचि यानि चारू के बाबा की चचेरी बहन बबुआ के सौतेले बड़े भाइै की छोटी बेटी! तीनो बखरी में इकलौती बेटी थीं तब वो

‘‘पापा, हम भी चलेंगे --- आप लोगों के साथ ’’ चारू ने उत्साह में भरकर कहा था ---

दादी का मुंह बन गया था। सुचि बुआ के नाम पर दादी का बना हुआ मुंह देखने की तो चारू को बचपन से आदत थी

‘‘कल जाइब रउरै - - - आज कहां टाइम मिली?

दादी भुनभुनाई

‘‘अरे तू लोगन के घरे छोड़कर हमनी के निकल जाइब --- शाम तक आ जायेके ---’’

बाबा बोले ---

‘‘हम भी चलेंगे ---’’ चारू ने फिर दोहराया-

‘‘क्यों - तुम भी नहीं चलोगी --- दुर्गा जी के थाने...?

दादी... अपने पोता-पोती से खड़ी हिन्दी ही बोलतीं।

‘‘दादी... कढ़ाई तो रात में चढ़ेगी... तब तक तो हम लोग आ जायेंगे ---!

सुचि यानि सुचिता! चारू के बाबा के बाबा की दो पत्नियां। पहली पत्नी से एक संतान हुई बाबू जगत नारायण --- अंग्रेजों के जमाने के कलेक्टर हुए। जब दस वर्ष के थे तभी माताजी चल बसीं। विमाता से कभी माँ सा स्नेह नहीं मिला हाँ दोनो सौतेले छोटे भाइयों पर और छोटी बहन पर जरूर उनका अपार स्नेह रहा जीवन पर्यन्त। बहन दमयन्ती ने जब अपनी जमीने सगे दोनों भाइयों के नाम करके सौतेलापन जताया तब भी उनके स्नेह में कमी नहीं आयी।

दोनों भाइयों के कुल सात जीते पुत्र थे। कुंवर नारायण के चार और राम नारायण के तीन। इन्हीं रामनारायण के तीन पुत्रों में छोटे पुत्र थे रामरतन सिंह जिनकी पोती थी चारू।

जगतनारायण के दो पुत्र आद्या, विद्या और पुत्री सुचिता थी। नौ भाइयों में अकेली सुचिता का परिवार में बड़ा सम्मान था। बाबू जगत नारायण जी जब अंग्रेजों की कलेक्टरी को ठोकर मार गांव लौटे थे तो दोनों बेटों ओैर बेटी को बनारस हाॅस्टल मंे डाल आये थे।

गर्मी की छुट्टियों में सारे बच्चे फुआ के पास चले जाते। बड़ी जमींदारी थी फुआ की। ससुराल मंे सगा कोई न था पति की मृत्यु साँप के काटने से हो गई थी, कोई बच्चा भी नहीं था..... फुआ का सारा प्यार-दुलार अपने भतीजों-भतीजी पर! फुआ बड़ी व्यवहारीं थीं --- ससुराल में सगा कोई न था --- पर पट्टिदारों से खूब बना कर रखतीं --- हर पट्टिदार यही सोचता फलाना बो उन्हीं की सगी है। उनका हिस्सा तो उन्हें ही मिलेगा।

बड़ी सी हवेली... बड़े-बड़े हाथी दरवाजे ढेर सारे नौकर-चाकर! हवेली के अंदर भी बड़़-बड़े आंगन। फुआ के चचेरे ससुर लोगों का परिवार --- बड़े ससुर के छोटे बेटे का परिवार कलकत्ता में रहता था, छुट्टियों में वो भी आते! उनका बेटा राजकुमार सिंह फुआ को ससुराल में एकमात्र प्रिय व्यक्ति --- आज उन्हीं राजकुमार सिहं के साथ कैसे तो संबंध बताया जाता है सुचि बुआ का। चारू ने घर में दादी और मम्मी या अन्य औरतों के बीच बुदबुदाहटों मंे चलती बातों का सिरा पकड़ने की कितनी तो कोशिशें की हैं --- पर हमेशा नाकामयाब रही है। चारू ने बचपन में राजकुमार बाबा को भी देखा है ---

गोरखपुर वाले घर में ... बाबा से मिलने आते थे कभी-कभार! क्या भव्य रूप था... एैसा गोरा रंग कि घोप दो तो खून बहने लगे --- लेकिन इनके साथ सुचि बुआ का क्या रिश्ता....

सुचि बुआ क्या कम सुन्दर थीं, चारू ने पहले कभी इतनी सुन्दर बूढ़ी औरत नहीं देखी थी अपने जीवन में ... एक आलोैकिक आभा में लिपटा उनका व्यक्तित्व कितनी रहस्यमयता समेटे था! उनका जिक्र आने पर दादी की बुड़बुड़ - ‘‘आपन घर-दुआर, आदमी-बच्चा सब छोड़ इहाँ बइठी है ... अरे कउन आदमी बिना मतलब के केहू अउरत के नामें घर जमीन, बाग-बगीचा लिख दी... अपनी सगी ब्याही स्त्री के नाम तो जल्दी कउना आदमी कुछ लिखने नाहीं... !

बाप, दादा के नाम पर कालिख पोत खुद ए शान से रहत वाली - कुल बोरनी... ’’

हाँ उन्हें कुल बोरनी ही माना जाता था। लड़कियों के कमजोर कंधों पर जो दो घरों की इज्जत का बोझ सवार रहता है सुचि बुआ ने उसे अपने कंधों पर लेने से इंकार कर दिया था’ मान्य परिभाषाओं के तहत न तो वो सुशील बेटी साबित हुई न ही सुलक्षण बहू।

सुचि बुआ के काॅटेज नुमा घर के सामने कार रूक गयी थी। घर से सटा ही स्कूल था।

‘शान्ति देवी मेमोरियल पब्लिक स्कूल’ एक बार चारू ने पूछा था - ‘बाबा ये शान्ति देवी कौन थीं----? रामरतन सिंह ने कोई जवाब नहीं दिया था - वह बताते, ये राजकुमार दादा की माँ का नाम था --- तो चारू और कई सवाल करती --- उनकी माँ के नाम के स्कूल में सुचि बुआ सर्वेसर्वा केैसे! ये स्कूल तो बुआ का है न ---

कन्हाई बाहर ही खड़ा था ---

सुचि बुआ का अनन्य सेवक ---

‘‘अरे बाबू साहेब --- आई --- दीदी बड़ी बेराम बाली --- खटिया से लग गइल हई --- रामरतन सुचि दिद्दा के कमरे की ओर जाते सोच रहे थे --- दिद्दा कितना और चल पातीं --- राजकुमार दादा मई में गुजरे थे -- खबर पाकर वो सीधे दिद्दा को बताने आये दिद्दा ने सुना क्षण भर आँख बंद कर दोनों हाथ जोड़ माथे से लगा लिए थे। उस चेहरे का तेज क्षण मात्र में बिला गया था। उठकर अपने कमरें में जाकर दरवाजा बंद कर लीं थीं। वो बाहर बैठे दरवाजा खुलने का इंतजार करते रहे थे,

दिद्दा हड्डियों का ढांचा मात्र रह गई थीं ---

‘‘आओ रतन --- अच्छा किये आ गये --- हम कन्हाई से संदेशा पठाने वाले थें ---।

‘‘कउनो काम था दिद्दा ---?’’

‘‘अब कउन काम भइया --- अब तो चलने की बेरा है --- बस, अपने हिसाब में किसी का कुछ बचा न रह जाये...

‘‘आप निश्चिंत रहो दिद्दा --- जैसा आप चाहती हैं, सब व्यवस्था हो जायेगी... ।

‘‘बस भइया इ कन्हाई हमें छोड़े के नही तैयार... ‘‘बग श्मशान घाट तक पहुंचा के ही हमार पिंड छोड़ी इ बउरहवा... । ’’

‘‘कन्हांई कहना चाहता था - ‘‘कैसे छोड़ दे साथ... मालिक को वचन दिया था . . दुनिया पलट जाये पर अपने जीते जी सुचि दीदी के साथ न छोड़ब...। मालिक इतनी शान्ति से आंख मंूद लिये... जानते थे उनकी सुचि के साथ कन्हाई है।

चारू, सुचि बुआ की लाइब्रेरी में घुसी थी, इस घर का यूँ तो हर कोना उसे खींचता था पर लाइब्रेरी उसकी सबसे पसंदीदा जगह थी। पापा बाहर बाग-बगीचे और स्कूल की नई बन रही बिल्डिंग देखने में व्यस्त हैं। बाबा और सुचि बुआ जाने कौन सी गूढ़ वार्ता में लगे हैं।

बाप रे! कितनी तो किताबें थीं बुआ के पास! ज्यादातार भाषाओं के क्लासिक्स के हिन्दी या अंग्रेजी अनुवाद।

बिस्तर लगी कृषकाय काया को देख रामरतन सिंह की आँखें भर आयी थी --- कैसा एकांत चुन लिया था दिद्दा! कलेक्टर साहब अपनी बेटी को राजरानी से कम कहाँमानते थे। दिद्दा थीं भी तो तीक्ष्ण बुद्धि और नाजुक मिजाजी की बेजोड़ संगम। नाक पे मक्खी न बैठने देने वाला तेवर आये दिन कोई न कोई मसला खड़ा करता।

अम्मा कपार ठोक लेती - हे ठाकुर जी...इ लड़की के सद्बुद्धि देई ... रउरा दुनिया में कहाँ खपिहे इ बचिया...।

अट्टिदारी - - पट्टीदारी, रिश्तेदारी के जितने भाई लोग थे, वो अपनी बीवियों को उनसे दूर रहने की हिदायत देते - ‘ओकर दिमाग त खराब बटले बा, तू हूँ लोगन अपना दिमाग खराब कई ल ---।

हर गलत बात की मुखालफत करना माने दिमाग खराब होना मान लिया जाता ! अम्मा समझा-समझा के हार गई... क्या जरूरत है, नेतागिरी झारने की... और वो भी घर में ? कभी बड़की अम्मा की बहू को फटकारती - ‘ क्यों आप बड़की अम्मा की बातें चुपचाप सुन लेती हैं --- वो, आपको... आपके सारे खानदान को जब जो चाहे कह दें... आपके मुंह में जबान नहीं दी जो चाहे कह दें... आपके मुंह में जबान नहीं दी ईश्वर ने ... कम से कम विरोध तो कर सकती हैं... कैसी बेटी हैं आप? कोई मेरे अम्मा बाबूजी को एक शब्द तो कहके निकल जाये... मुंह न तोड़ दूँ उसका... ।

एैसी थी सुचि दिद्दा... बरसों बरस हुए उस छूटे हुए वक्त को ...

फुआ का घर, हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी सारे बच्चे वहीं इकट्ठा थे गर्मी की छुट्टियों में। फुआ की बड़ी सी हवेली... और हवेली के भीतर भी कई खण्ड। वो दिन क्या कभी भूल सकते हैं रामरतन सिंह, वो और राजकुमार सिंह फुआ के पास बैठे थे, राजकुमार दादा अपने काॅलेज हाॅस्टल के किस्से सुना रहे थें...और रामरतन बड़ी दिलचस्पी से सुन रहे थें। यों भी राजकुमार दादा की हर बात उन्हें प्रिय थीं, और भी बच्चे थे वही, काई कैरम खेल रहा था तो काई नदी- नहाने चलने का प्लान बना रहा था। सुचि नहीं थी... वो ऊपर कमरे में लेटी कोई किताब पढ़ रही थी...

एकायक सुचि दिद्दा द्वार पे प्रकट हुई थीं, बदहवास, राजकुमार ने अपने बड़े फूफा साहब को तेजी सेे आंगन पार करते बाहर जाते देखा था। सुचि का चेहरा देख... वह दंग था! गुस्सा, अपमान, बेचारगी। बुआ जाने क्या समझी... जो शायद और कोई नहीं समझ पाया... या शायद राजकुमार भी समझ गये... सुचि हकलाते हुए कहने की कोशिश में थीं... बुआ वो ... वो...’’ पर उमड़ पड़ी रूलाई मंे उसकी बात पूरी नहीं हो पा रही थीं... पर फुआ ने ‘आँखें’ ततेर कर उन्हें चुप कराया था ‘बस्स --चोप्प--! खबरदार जो एक शब्द कहा... का जरूरत थी अकेले ऊपर के कमरे में पसरकर किताब पढ़ने की ---’’

जमाना तब भी वही था -- बड़ी सी हवेली ढेरों परिवारजन... उससे ढेरो नौकर-चाकर... पर लड़कियों के लिए तब भी घर के अंदर का एकांत भी वर्जित...

रामरतन सिंह को वो सारी बातें आज भी याद थीं... ये भी कि मंदिर वाले चबूतरे पर अकेले बैठी सुचि दिद्दा कैसे तो तमतमा गयी थीं... बेचारगी में आंखें छलक आयी थीं। राजकुमार दादा ने उनके गुस्से और अपमान से लाल पड़े चेहरे को देखा था और उनके पास बैठ उनके दोनों हाथ थाम लिए ---’’ सिर्फ एक बात सुनों... जीवन में कभी भी गलत बात नहीं सहोगी... किसी की भी नहीं... मुझे यहीं गुस्से वाली तमतमाती सुचि पसंद है... एैसे ही रहना हमेशा।

पर कहाँ रह पायी थीं सुचि दीद्दा वैसे ही उनकी पसंद की सुचि बनकर --- हमेशा। विवाह हुआ जमींदार परिवार में पति, परिवार के सबसे छोटे और सबसे बिगड़े बेटे विवाह की पहली रात सुचि ने पति का जो परिचय पाया वो उसकी परिष्कृत रूचि और नाजुक मिजाजी के लिए ग्राह्य नहीं था! न ही प्रेम... और न ही इज्जत जैसी कोई चीज मन में उगी। जल्द ही ये भी बात खुल गई कि वो सस्ती औरतों से रिश्ता रखता है... और पास के कस्बे में चैराहे पर कमरा लेकर एक-एक रखैल भी रख रखी है। सुचि के चेहरे पर एक चैन बिछ जाता तब वो हफ्तों कोठी पर पड़ा होा। हवेली मेें उसकी खिलखिलाहट मंदिर की घंटियो सी गँूजती। जिठानियों के साथ ठिठोली करती तो कभी बच्चों के साथ उनके खेल में शामिल हो जाती। हवेली के नौकर-चाकर आश्चर्य करते, कैसी बहूरानी है ये --- न श्रृंगार-पटार, न गहनों की लदान फिर भी दिप-दिप करती! पति से मानों कोई वास्ता नहीं... दो बच्चों की माँ बन गयी तब भी नहीं! न उसके लिए कोई चिंता न अपने लिए कोई हीनता बोध। मायके जाती... तो उनकी खामोश आँखों से उनके दिल का हाल पता न लगता, भाभियां हंसी करती’ - सुचि बच्ची तो एकदमै बदल गयीं... कितनी शांत हो गयीं --- कहाँ तो नाक पे मक्खी न बैठने देती थी। ससुराल अच्छे-अच्छों की नकेल कस देती है।

एैसे ही बाईस वर्ष बीत गये। सुचि भरे-पूरे मायके से भरे-पूरे ससुराल आती-जाती रहीं.... बच्चे परिवार के अन्य बच्चों की तरह बोर्डिंग स्कूल भेज दिये गये पढने...

स्कूल से काॅलेज और फिर पढ़ाई खत्म... बेटी की शादी हो गयी। ठाकुर साहब का रवैया पूर्ववत सा... एैसा नहीं था कि, उनकी यशगाथा से सुचि का मायका अछूता हो... पर कौन आदमी एक ही औरत से ताजिंदगी बंधा रहता है... बड़े आदमी के तो ये लक्षण होते हैं...सुचि को तो किसी चीज की कमी नहीं लगती...भरा-पूरा संसार है उसका... एक औरत को और क्या चाहिए...

उस दिन जब ठाकुर साहब कोठी से घर आये तो साथ में सोलह-सतरह वर्ष का एक किशोर भी था! सुचि चैंकी थी... चैंका वो किशोर भी था।

‘इसे काम चाहिए था--- ड्राइवरी आती है... मैं ले आया, मेरी गाड़ी चलायेगा! ‘सुचि को बुआ के यहाँ के ललकू बाबा का छोटा नाती याद आ गया--- छोटा सा वा बच्चा अपनी माँ के साथ आता था, फुआ की हवेली में... उसकी माँ फटकने - बीनने का काम करती या फिर अनाज, गल्ला, धूप में सुखाती उठाती।

‘‘कन्हाई हो न ---! सुचि का चेहरा कांप गया था! कन्हाई को भी सुचि दीदी की याद हो आयी थी! दीदी यहाँ...?!

छोटा था तो जाने कैसे मन मंे बैठ गया था - सुचि दीदी तो राजकुमार भइया की दुलहिन बनेगी! बहुत साल बाद अपनी उस लड़कई की सोच वो बेध्यानी में ठाकुर साहब को भी बता गया --- बहुत बाद में --- बिटिया के ब्याह के बाद... ! तब तक तो कन्हाई छोटे ठाकुर और सुचि दीदी के लिए सबसे जरूरी व्यक्ति हो गया था! छोटे ठाकुर के साथ कन्हाई है तो सुचि भी निश्चिंत है --- और घर वाले भी निश्चिंत है---!’ और सुचि दीदी के सरताज छोटे ठाकुर कन्हाई के लिए देवतुल्य! छोटे ठाकुर भी कन्हाई से स्नेह रखते --- मूड़ में होते तो खूब बतियाते - उस दिन एैसे ही रौ में आकर कन्हाई बताता चला गया । कैसे सुचि दीदी, उनके भाई लोग छुट्टियों में अपनी फूआ के यहाँ जाते थे। सुचि दीदी तो अब पहचानी नहीं जाती तब कैसी अल्हड़, मस्त रहती थीं। तेज सिर्फ चेहरे पर नहीं था, जबान में, चाल में बात में सब में तेज भरा था!’ और हमरे राजकुमार भईया, लाखों में एक! हम सब लरकई में इहै समझते थे कि सुचि दीदी --- हमरे राजकुमार भइया की दुलहिन बनिहे ---! पता नहीं छोटे ठाकुर ने कन्हाई की बातों का क्या मतलब लगाया पर अपनी माननीय पत्नी का मान भंग करने हेतु एक दुखती रग उनके हाथ में आ गयी थी।

उस रात ठाकुर साहब को कमरे में आता देख सुचि चैंकी भी थी परेशान भी हुई थीं! वर्षों से ठाकुर साहब कमरे में नहीं आते थें! प्रकट रूप में ये अपमान जनक था पर सुचि के लिए राहत थी --- बड़ी राहत! शराब के नशे में लड़खड़ाते शरीर को सहना उसे अभी तक पीड़ा से भर देता --- शुक्र था ये पीड़ा कभी-कभार की थी ओर फिर धीरे-धीरे ठाकुर साहब ने ऊपर अपने कमरे मंे आना ही छोड़ दिया था ---

उस रात ठाकुर साहब का आना सामान्य नहीं था। वह दहाड़ते हुए आये थे... बार-बार राजकुमार सिंह का नाम लेते, सुचि के चरित्र पर लांछन लगाते! शोर-शराबा, हंगामा सुन सभी अपने कमरो से बाहर आ गये। घर भर के लिए ये नाम अजनबी था। कन्हाई सुचि के पैरों में गिर पड़ा - दीदी, हमरा के जूता से मारी रउरे, हमसे करियर जीभै से बाबू साहेब के नाम निकल ह ---! सुचि सन्न!!

अब तो ये आये दिन की बात हो गई। जिस पत्नी के देैवीय और गर्वीली चितवन ने पहली ही रात उन्हें पराजित कर दिया था और इस सच से साक्षात्कार भी कि दुनिया इधर की उधर हो जाये पर सात फेरों में बाँधकर वह जिसे अपनी पत्नी बनाकर लाये हैं, वह उनकी हवेली की छोटी बहू तो बन गयी है पर सात जनम वह उसके हृदय कपाट को खोल नहीं पायेंगे। अजीब सी बात थी न वह कुछ कहती न उनकी किसी बात का विरोध करती थी! बिस्तर से लेकर कमरे के बाहर वह उनके हर कहे को शिरोधार्य करती रही। कभी अपनी इच्छा अतिच्छा कुछ जाहिर नहीं किया। विवाह में जो गहने इधर से चढ़े या उधर से मिले... उन गहनों के अलावा पिछले पच्चीस वर्षों में शायद उसने अपने लिए एक अंगूठी भी नहीं बनवाई! सास, जिठानियाँ, ननदें जब कपड़ा-लत्ता खरीदतीं उसके लिए भी खरीद लिया जाता, जिठानियों को अपनी देवरानी पर लाल, हरा सजता लगता --- तो वे वही ले आतीं --- सास को लगता - उनकी छोटकी बहू तो पीले रंग में सोने सी दमकती है, तो वे पीला ले आतीं। ननदों को गुलाबी भाता तो गुलाबी आ जाता । गरज ये कि, अलमारी में हर रंग थे... पर किसी को नहीं पता था कि सुचि को दरअसल कौन सा रंग पसंद है।

उस दिन शाम से ही अधियाये हुए थे छोटे ठाकुर - ‘‘रंडी... कहीं की - महतारी बाप दलाली करते थे बेटी से धंधा कराते थे! आंगन में चीख-चीख कर कहे जा रहे शब्द सुचि के कानों में अंगारे बरसा रहे थे!

कन्हाई हाथ जोड़कर मुनहार कर रहा था - बाबू साहेब, कमरा में चलीं...! पर बाबू साहेब तो उन्मत्त हाथी की तरह चीघाड़ रहे थे, कमरें में बैठी सुचि का चेहरा पत्थर की तरह कठोर हो गया था। उसी दिन आधी रात के बाद हवेली से दो छायायें निकली थीं, सिर पर सुचि का संदूक लादे कन्हाई और उसके साथ दुबली सी एक स्त्री छाया!

महज चालीस - पैंतालीस किलोमीटर दूर था कन्हाई का गाँव... याने फूआ का गाँव ---यानि --- राजकुमार सिंह का गाँव --- तीन दिन लगे थे पहुँचने में... रात-रात चलते थे दोनों, सड़क से दूर खेतों-खेतों... किसी अमराई या खण्डहर में दिन गुजारते... कन्हाई खाने-पीने की व्यवस्था करता सत्तू, गुड़ जैसी चीजें...! सुचि मन से टूटी हुई... तन भी बीमार --- ठंड लग गयी... बुखार चढ़ गया... राजकुमार सिंह की बड़ी सी हवेली... के बगल वाली गली में थें, दोनों... सुचि धक्क रसे रह गयी --- ये हवेली, ये घर, ये गली, सब पहचाने हुए --- हवेली के आगे बड़ा सा अहाता मंदिर --- फिर बांध ---- बांध की चढ़ाई चढ़ते सुचि हांफ गयी... इसी बांध पर कैसे दौड़ते हुए चढ़ जाया करती थी ---!

दीदी जी भेर होने को है --- बाबू साहेब अभी कुछ देर में आयेंगे... टहलने...!’’ कन्हाई ने कहा... सुचि अंधेरे में देखने की कोशिश कर रही थी... सामने राप्ती बह रही थी अपनी पूरी रवानी से,

‘‘आप इध बइठे...’’ कन्हाई ने नदी की तरफ उतार पर एक पेड़ के नीचे कपड़ा बिछा दिया। सुचि वहीं पर गुड़ी-मुड़ी होकर पड़ गयी... कुछ-कुछ अचेत सी --- इसके बाद उसे होश आया तो इस खण्डहर नुमा घर में ---

राजकुमार सिंह रोजना की तरह बाँध पर टहलने आये थे--- ये उनका नियम था ---! कन्हाई को देख और उसके साथ बुखार में अचेत पड़ी महिला---

‘‘कोन है ये ---’’ शाल से बाहर निकले हाथ पैरों की कोमलता देख किसी बड़े घर की महिला दिखी... कन्हाई के साथ कैसे ---

‘‘दाऊ... सुचि दीदी --- हैं ---!’’

‘‘सुचि ---?’’ राजकुमार सिंह को लगा, कुछ गलत सुन लिया है उन्होने --- न समझने के अंदाज में उन्होंने कन्हाई को देख और उधर बढ़ गये थे, जिधर सुचि पड़ी थी।

‘‘अरे इसे तो बहुत तेज बुखार है---!’’ सुचि सन्निपात की हालत में थी---! क्या करें--- हवेली में ले जाना क्या ठीक रहेगा---? नहीं... फिर...

‘‘जा देख --- कोई नाव हो --- आस-पास कन्हाई दौड़ गया देखने... कुछ देर में ही वापस आ गया --- नाविक भी साथ था --- नदी के उस पार उनकी छावनी थी...

राजकुमार सिंह के बाबा वहीं रते थे --- अब वो घर खण्डहर सा हो गया था --- खेती बारी का काम देखने राजकुमार सिंह, वहाँ आते-जाते रहते थे--- सुचि को वहीं भेजना होगा ---। नदी के उस पार था वा गांव पर जिला दूसरा हो जाता था - देवरिया--- इस पार का गांव गोरखपुर में पड़ता था---

कन्हाई सोच में डूबा था --- नाव तक कैसे पहुंचाये सुचि दीदी को--- वो तो बेहोश है... ‘‘सुचि --- सुचि---!’’

एक पल को सोचा था राजकुमार सिंह ने और फिर सुचि को अपनी बाहों में उठा किनारे की ओर बढ़ गये थे ---! सुचि की कमजोर काया को बाहों में उठाये,, उस क्षण उन्हें ये महसूस हुआ --- इसे इस तरह उठाकर तो वो सारी जिंदगी चल सकते हैं...

नाव उस पार चली गयी थी... लौटकर उन्होने जीप निकाली थी --- पास ही के कस्बे के पी.एस.सी. के अस्पताल में पदस्थ रामरतन सिंह के पास पहुँचे थे, उन्हें लेकर वापस वही राप्ती के तट पर आये थे - जीप सहित नाव से नदी पार कर --- छावनी पर पहुँचे थे --- उनके बाबा के जमाने का ये घर, खपरैल का था--- दो चार कमरे ही ठीक हालत में थे --- उन्हीं में से एक में कन्हाई ने सुचि को लिटाया था---! बुखार में बेसुध सुचि को देख रामरतन भी सन्न रह गये ---

कन्हाई ने सारी कहानी सुनाई ---।

‘‘पर तूने उनकी बात मानी क्यों --- क्यों साथ चला आया ---’’

‘‘बाबूजी --- दीदी सन्निपात की हालत में थीं --- साथ न आता तो कुछ कर बैठती ---’’ कन्हाई रूआंसा हो गया ---

रामरतन ने फौरन दो-तीन इंजेक्शन लगाये --- सिरहाने बैठे सुचि का सिर सहलाते रहे--- राजकुमार सिहं बाहर आराम कुर्सी पर बैठे सिगार फूंकते सोच में गुम---

रात तक में सुचि का बुखार उतरा था--- वो चैतन्य होकर बैठ गयी थी।

‘‘दिद्दा अब कैसी हो ---? रामरतन ने पूछा था।

‘‘ठीक हूँ --- भइया --- राजकुमार जी को बुला दो ---

‘‘यही हैं --- बुलाता हूँ ---। ’’ बहकर रामरतन बाहर बैठै राजकुुमार सिंह को बुला लाये--- राजकुमार आकर उसी कुर्सी पर बैठ गये--- जिसपर रामरतन बैठे थे--- कितना समय बीत गया --- पर क्या कभी अपनी स्मृति से ओझल कर पाये थे वो सुचि को। दुबली-पतली ये प्रौढ़ा --- धंसी हुई आँखें, पीला चेहरा --- उलझे बाल।

‘‘‘सुचि ---’’ उनकी आवज टूट गयी थी --- और मानों कोई बांध सा टूट गया हो --- सुचि बिलक-बिलक कर रो पड़ी थी उनका हांथ पकड़कर लगभग उस हाथ पर झुकी हुई। इतना करूण रूदन ---! कन्हाई बाहर बरामदे में जाकर सिसक उठा था! रामरतन को लगा उसे कुछ होे न जाये --- पहले ही बुखार में पस्त है --- पर राजकुमार सिंह ने आँख के इशारे से उन्हें रोक दिया था, वह रूक गये थे पर राजकुमार सिंह पर उन्हें खीज हो आई थी --- कैसे तो निश्चल बैठे हैं --- बुत, जैसे --- क्या वह सुचि दिद्दा को सांत्वना के दो बोल भी नहीं कह सकते --- दिद्दा भी कहाँ लौ लगा बैठीं ---?

कुछ देर बार दीदी स्वयं चुप हो गयीं ---

‘‘पानी पियोगी ---? राजकुमार सिंह ने पूछा था ---

उन्होंने हाँ में सिर हिलाया --- राजकुमार ने सिरहाने रखे लोटे से गिलास में पानी डालकर दिया उन्हें। एक सांस में गुटक गयी थीं, सुचि दिद्दा गिलास भर पानी! और जब बोली तो आवाज साफ संयत थी-

‘‘कुछ मागूंगी तो दोगे--- मुझे---!’’

‘‘कुछ---भी--- तुम कहो...!’’ राजकुमार ंिसंह की आवाज में दृढ़ता थी।

‘‘मुझे, अपनी रखैल बना लो ---’’ सीधे उनकी आँखों में देख रही थीं--- दिद्दा---! रामरतन आज भी उस दिन को याद कर सिहर उठते हैं ---

‘‘बोलो --- दोगे मुझे ये ओहदा --- राजा हो--- तुम्हारे लिए क्या मुश्किल है --- मेरे नाम जमीन, मकान करना, बगीचा, तालाब करना ---। ’’ मैं वादा करती हूं --- मरने तक तुम्हारी रखैल कहलाउंगी--- पर तुम भी एक वादा करो--- कभी कुछ भी हो जाये --- मुझसे मिलने मत आना--- कर पाओगे ये घाटे का सौदा ---’’

‘‘दिद्दा, पागल हो गई हो क्या --- होश भी है क्या कह रही हो ---’’ रामरतन चीख उठे थे --- राजकुमार सिंह ने एक बार भरपूर नजर से सुचि को देखा था और कमरे से बाहर निकल आये थे।

अगली बार जब वो आयें थे तो--- वो मकान--- जमीन जाने कितने बीघा खेत--- मकान से सटा बगीचा सब सुचि के नाम कर --- कागज थमाने --- स्कूल का काम शुरू करवाने की पूरी योजना --- और स्कूल की मैनेजर सुचि दिद्दा---! उसके बाद फिर कभी राजकुमार सिंह उस गाँव में नहीं देखे गये --- पर अफवाहों का क्या --- सुचि --- उस पूरे क्षेत्र में राजकुमार सिंह की रखैल जानी जाने लगीं। ---

बस्स, यही इतनी ही तो कहानी थी सुचि बुआ की --- हर बार गाँव आने पर चारू मन ही मन संकल्प लेती --- इस बार लौटकर पहली कहानी, सुचि बुआ पर ही लिखनी है --- पर हर बार कलम साथ छोड़ देती ---! एक बार सुचि बुआ ने कहा था- ‘बिट्टी जीवन में एक भी एैसा व्यक्ति पा सको जो तुम्हारे होने पर बिना कोई प्रश्नचिन्ह किये विश्वास कर ले, तो जान लेना तुम्हारी रईसी कोई नहीं छीन सकता --- मैने तो एैसे तीन व्यक्ति पाये --- इसी जीवन में --- तुम्हारे बाबा --- कन्हाई और राजकुमार सिंह ---

चारू का मन हुआ था पूछे --- बुआ इतना बड़ा निर्णय ले लिया --- कभी अपनी संतान के बारे में नहीं सोचा। इस तरह का जीवन चुनने से पहले अपनी विवाहित बेटी के विषय मेें नहीं सोचा! नैहर के जरा से कलंक से बेटियों के सिर ससुराल में हमेशा नीचे रहते हैं --- फिर, अपनी माँ का ये अपयश उनकी बेटी ने किस तरह संभाला होगा ---

चारू ये सवाल सुचि बुआ से तो नहीं पूछ पायी थी, पर वर्षों बाद उनकी बेटी से मिलने पर ये सवाल करने से खुद को नहीं रोक पाई थी।

अंजली बुआ, उसके ब्याह में आई थी --- पहली बार उन्हें चारू देख रही थी --- उनकी हंसी देखकर कोई भी कह सकता था, वो सुचि बुआ की ही लड़की है --- चारू जानती थी --- ये शायद उनकी पहली और आखिरी मुलाकात हो! वो अमेरिका में रहती थीं... संजोग से इस समय यहाँ थीं। चारू ने सारा संकोच त्याग अकेले में उनसे पूछ ही लिया - आपको अपनी ससुराल में कभी किसी ने --- बुआ को लेकर कोई तंज नहीं कसा? अंजली मुस्कुरा दी थी - ‘बिट्टो - ससुराल और पति बड़ी टेढ़ी चीज होते हैं’- पत्नी का मान उसका पति बनाता है। शुरू शुरू में तुम्हारे फूफा साहब ने भी अम्मा को लेकर कुछ हल्की ओछी बातें करके मुझे नीचा दिखाना चाहा।

मैने एक दिन अच्छे से समझा दिया,’’ आगे फिर कभी मेरी माँ कि लिए इस लहजे में बात करने से पहले एक बात जान लो --- मैं भी उसी माँ की बेटी हूँ... एैसा न हो वही कहानी इस घर में भी दोहरायी जाये ---’ तुम्हारे फूफा साहब डिप्लोमेट थे, बड़े-बड़े राजनीतिक मसलों में कब कौन सी नीति अपनानी है भली-भांति जानने वाले--- अपने घर के मसले पर कैसे चूक होती उनसे--- वो दिन और आज का दिन कभी माँ को लेकर कोई हल्की बात नहीं कहीं उन्होंने ---’’

चारू आश्चर्यचकित सी सोच रही थीं काश आज सुचि बुआ जिंदा होती --- काश वो जान पाती- उनकी जात का भरोसा सिर्फ तीन लोग नहींे करते थे --- उनका अपना खून --- उनकी अपने बेटी भी शामिल थी उन भरोसा करने वालो में --- सच कितनी रईस थीं सुचि बुआ!

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