इंद्रधनुष सतरंगा
(12)
धरमू की बात
दोपहर को मौलाना साहब जब लौटकर आए तो धरमू उनके तख़त पर पाँव पसारे सो रहा था। यह तख़त मौलाना साहब की यह ख़ास आरामगाह थी। जाड़ा छोड़कर वह बाक़ी दिनों में यहीं लेटते थे। दो कमरों की संधि पर पड़े होने के कारण तख़त के दोनों तरफ दीवारें थीं। सामने आँगन की कच्ची ज़मीन पर नीम का पेड़ लगा था, जिसका साया पूरे बरामदे को ठंडा रखता था। तख़त के एक तरफ किताबें, रेडियो और सामने स्टूल पर पानी और ब्लड प्रेशर की दवाइयाँ रखी रहती थीं। नीचे सुराही, वजू़ का लोटा और चप्पलें होती थीं।
अपने तख़त पर धरमू को सोया देख मौलाना साहब को बुरा लगा। सामने ज़ीने का दरवाज़ा भी खुला हुआ था। उन्होंने धरमू को झिंझोड़ा। धरमू हड़बड़ाकर आखें मलता हुआ खड़ा हो गया।
‘‘यहाँ क्या कर रहे थे?’’ मौलाना साहब ने हल्की नाराज़गी जताते हुए पूछा।
‘‘साहब, ग़लती हो गई,’’ धरमू खिसियाकर हाथ जोड़ता हुआ बोला, ‘‘कल दिन भर की थकन थी। झपकी आ गई।’’
‘‘मेरे ख़्याल से अपने कमरे में तुम ज़्यादा चैन से सो सकते थे। ----और यह ज़ीना कैसे खुला है?’’ मौलाना साहब ने पूछा।
‘‘साहब, आज धूप दिखी थी। इसलिए माल छत पर फैला दिया था। कल की बारिश में नम हो गया था।
मौलाना साहब का ग़ुस्सा थोड़ा ठंडा पड़ा।
‘‘साहब, माफ करना आप से पूछा नहीं। लेकिन क्या करता, साहब? धूप न दिखाता तो बड़ा नुकसान हो जाता। हम ठहरे ग़रीब आदमी। भरपाई मुश्किल हो जाती।’’
मौलाना साहब शेरवानी के बटन खोलते हुए कमरे की ओर बढ़ चले। पीछे-पीछे धरमू भी हाथ जोड़े बढ़ आया।
‘‘साहब, आप बहुत अच्छे इंसान हैं। ग़रीब-दुखियों का दर्द समझते हैं। इसीलिए यह हौसला कर लिया। पता था आप बुरा नहीं मानेंगे।’’
मौलाना साहब को लगा कि पीछे-पीछे धरमू भी कमरे में दाखि़ल हो जाएगा, तो वहीं चौखट पर ठहर गए और बोले, ‘‘ठीक है, ठीक है। अब अपने कमरे में जाओ।’’
धरमू घबराकर वहीं ठिठक गया।
‘‘इत्मीनान रखो, मुझे बुरा नहीं लगा।’’ मौलाना साहब अंदर से बोले और दरवाज़ा उढ़का लिया।
थोड़ी देर बाद वह कपड़े बदलकर बाहर निकले तो धरमू तख़त के पास बैठा तमाखू मल रहा था। उन्हेें देखते ही वह उठकर खड़ा हो गया। मौलाना साहब दीवार की टेक लेकर बैठ गए। थकन से उन्होंने आंखें बंद कर लीं। दो-एक पलों तक सन्नाटा छाया रहा।
‘‘साहब पाँव चाप दूँ? बहुत थक गए लगते हैं,’’ थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद धरमू बोला।
‘‘अरे नहीं,’’ मौलाना साहब एकाएक जाग्रत होकर बोले, ‘‘यह जुलाई-अगस्त के महीने बड़ी मसरूफियत के होते हैं। लड़कों के दाखि़ले, नए क्लास, नया टाइम-टेबिल, नए रजिस्टर----सब काम नए सिरे से करने पड़ते हैं---। अच्छा, यह सब छोड़ो। आज कहीं फेरी पर निकले?’’ मौलाना साहब ने उल्टा हाथ मुँह पर रखकर जमुहाई ली।
‘‘कहाँ साहब?’’ धरमू शुरू हो गया, ‘‘एक तो सफर की थकान, ऊपर से माल भी नम हो गया था। दो-एक घंटा जमकर धूप निकल आती तो काम बन जाता। देखिए साहब, अगर आदमी पैसा देगा तो माल चोखा ही चाहेगा।’’
धरमू की बातें सुनते-सुनते मौलाना साहब ऊँघने लगे।
‘‘साहब आप थके हैं। सो जाइए।’’
मौलाना साहब जैसे फिर से चैतन्य हो उठे। बोले, ‘‘अरे कहाँ, अभी तो नमाज़ भी पढ़नी रह गई है। हाँ, तुम क्या कह रहे थे?’’
‘‘साहब एक बात हमने देखी यहाँ।’’ धरमू फिर से शुरू हो गया, ‘‘आप लोगों में मेल-जोल बहुत है। बड़ा अच्छा लगता है देखकर।’’
‘‘हाँ, सब अल्लाह की रहमत है।’’ मौलाना साहब ने फिर जमुहाई ली।
‘‘साहब, यह जो आप के साथ गाड़ी पर आते-जाते हैं, कौन हैं?’’
मौलाना साहब हँस पड़े, ‘‘वह----वह तो मोबले हैं। बेचारे भले आदमी हैं। अपना स्कूटर है पर चलाने से डरते हैं।’’
‘‘पर मुझे तो बहुत चालाक---।’’ धरमू की भूरी आँखें चमक उठीं।
‘‘क्या बकते हो----?’’ मौलाना साहब ग़ुस्से में चीख़े।
‘‘कुछ नहीं साहब, ग़लती हो गई। माफ कर दीजिए।’’ धरमू ने सिर झुका लिया।
दो-एक पल सन्नाटे में बीते। फिर धरमू उठ खड़ा हुआ और कपड़ों की धूल झाड़ता हुआ बोला, ‘‘चलूँ साहब अब अपने ठिये पर। आप भी अब आराम करिए।’’
‘‘रुको----’’ मौलाना साहब माथे पर बल लिए बोले, ‘‘तुम अभी कुछ कह रहे थे।’’
‘‘कुछ नहीं साहब, ज़बान फिसल गई थी,’’ धरमू सिर झुकाकर बोला।
‘‘डरो नहीं, कहो।’’
धरमू की भूरी आँखों में फिर से चमक आ गई। उसने एक निगाह उठाकर मौलाना साहब के चेहरे के भाव पढ़े फिर बोला, ‘‘साहब, अगर उनके पास भी गाड़ी है तो वे उससे क्यों नहीं जाते?’’
‘‘उन्हें अभी ठीक से चलाना नहीं आता, इसलिए।’’
‘‘या तेल का रुपया खर्च होगा और बारिश में गाड़ी ख़राब होगी इसलिए?’’ धरमू ने धीरे से कहा।
‘‘ठीक है-ठीक है, तुम जाओ। मुझे अब नमाज़ पढ़नी है,’’ मौलाना साहब ने छोटे आदमी के मुँह लगना ठीक नहीं समझा।
धरमू कमरे की ओर चला गया। मौलाना साहब ने वजू़ का लोटा उठाया और नल की ओर बढ़ चले।
नमाज़ पढ़ते वक़्त मौलाना साहब के दिमाग़ में धरमू की ही बातें घूमती रहीं।
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