Aek din rail ke safar me in Hindi Travel stories by Upasna Siag books and stories PDF | एक दिन रेल के सफर में

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एक दिन रेल के सफर में

एक दिन रेल के सफर में

मैं एक व्यवसायी या कहिये एक सफल व्यवसायी रहा हूँ। अपने जीवन में बहुत रुपया, नाम, इज्ज़त कमाई है। लेकिन कभी बाहर की दुनिया का भ्रमण ही नहीं कर पाया। अब बेटों ने व्यवसाय बहुत अच्छी तरह संभाल लिया है तो दुनिया देखने निकला हूँ या मन की शांति खोजने।

हिंदुस्तान के कई शहरों में घूम चूका हूँ। अब हरिद्वार की तरफ जा रहा हूँ। रेल का सफ़र मुझे हमेशा से पसंद है। हालांकि बड़े बेटे ने गाडी और ड्राइवर साथ ले जाने को कहा था। सारी उम्र गाड़ी और ड्राइवर के साथ ही तो घूमा हूँ मैं। मेरे विचार से जब तक आप दूसरे लोगों के साथ सफ़र ना करो दुनिया का असली रूप नज़र नहीं आता।

सारी उम्र काम में ही उलझा रहा। छोटी उम्र से ही काम का जूनून था। एक दिन सबसे ऊँचा पहुँच जाऊं यह एक जूनून था मेरे अन्दर।मैंने पाया भी बहुत लेकिन बहुत अधिक खोने के बाद।

अपनी सीट पर बैठा हूँ और आने -जाने वालों को ताक रहा हूँ। मेरे साथ यहाँ दो तीन पुरुष ही सहयात्री है । सामने से भी तीन जन चले आ रहे हैं । उनमे पीछे जो आ रहा था, वह कुछ परेशान नज़र आ रहा है ।तभी उसके मोबाइल की घंटी बज गयी।

वह तनिक धीरे पर थोडा सा रोष भरी आवाज़ में बोला, " हाँ बोलो ...! अब ट्रेन पकडूँ या तुम्हारा फोन सुनुं ?ओह ...! अब रोने वाली क्या बात है ? हैं ..! मैं आ तो रहा ही हूँ ...सुबह तक पहुँच जाऊंगा ...अरे भई ...चुप हो जाओ, मैं जोर से नहीं बोल रहा था ..यहाँ तक आने में देर हो गई और ट्रेन छूटने का डर था और ऊपर से तुम फोन पर फोन किये जा रही थी, तुम भी तो कुछ समझा करो। चलो अब मैं बंद करता हूँ, घर आकर सारी शिकायते कर लेना ....."

" किसका फोन था राकेश..." फोन करने वाले का नाम राकेश है ।

"अरे पत्नी जी का है, एक सांस में लग जाएगी फोन करने, अब अगले की भी मजबूरी हो सकती है... कुछ बोलो तो आंसू ढलकने लग जायेंगे !" राकेश ने बात खत्म कर के दोनों हाथों को अंगडाई लेने की तरह फैलाया।

" उनकी भी तो मजबूरी हो सकती है आखिर दस दिन हो गए इंतजार करते हुए ! जरा उनकी जगह खुद रखो " विमल बोला।

उनकी बातों से पता लगा राकेश, विमल और श्री कान्त अपने ऑफिस के किसी काम से दस दिनों के टूर पर आये हुए थे।

श्री कान्त भी खीझा हुआ था बोला, "कोई भी मजबूरी नहीं उनकी, उनको तो इंतजार हैअपने सामान का जो उन्होंने फरमाइश की लिस्ट बना कर दी थी, अब एक भी कम रह जाएगी तो मुहं ही फूल जायेगा।घर में घुसते ही हमारी और ध्यान कम होगा और सामान के बैग पर ज्यादा होगा !"

विमल जोर से हंस पड़ा और उनकी बातों से वह भी सहमत लगा।

अब मेरे सहयात्री जो मेरे साथ पहले ही बैठे थे। वे भी उनकी बातों में शामिल होने को उत्सुक लगे।क्यूंकि उनकी भी हंसी सम्मिलित थी। और संयोग भी है कि हमारे साथ कोई महिला नहीं थी तो आज उनके पास महिलाओं के प्रति भड़ास निकलने का पूरा मौका था।

" महिलाओं को समझना बहुत मुश्किल है, कब क्या फरमाइश कर बैठे, कब किस बात पर खफा हो जाये, और आंसू तो कब ढलक जाये। नहीं कहा जा सकता ...", मेरे पास बैठे व्यक्ति, जिसका नाम नवीन था, बोला।

" मैं तो भैया इन महिलाओं ना आज समझ पाया ना ही तब, जब मास्टर जी ने संस्कृत के एक श्लोक की एक लाइन का मतलब पूछा था।

श्लोक इस प्रकार था, " त्रिया चरित्रम पुरुषस्य भाग्यम "

मैंने जवाब दिया, " सर इसका मतलब है, त्रिया का चरित्र देख कर पुरुष भाग गया ...!"और बस फिर क्या बताऊँ भाई साहब ...! क्लास में क्या ठहाके लगे, मेरे सहपाठी तो टेबल पीट -पीट कर हंसने लगे। सर के चेहरे पर भी हंसी तो आयी पर वो आखिर सर थे।पहले तो सबको चुप रहने को कहा फिर मुझे बस एक थप्पड़ ही नहीं मारा पर सुनाने में कोई कसर भी ना छोड़ी... ! "

"और अब मेरी पत्नी ...! उसे शक के अलावा कुछ सूझता ही नहीं। इतनी देर क्यूँ हो गयी, कहा थे अब तक ....और यह भी, जब कहीं रास्ते में जा रहे हो और सामने से कोई औरत आती दिख जाये तो ...! क्या देख रहे ? एक दिन मैंने भी हार कर, बड़े ही प्यार से कहा, ' प्रिये तुम ऐसा करो, जैसे ताँगे वाले घोड़े की आँखों पर जो बंधा होता है वैसा ही कुछ मेरी ही आँखों के बाँध दो, फिर मैं सीधा -सीधा ही चलूँगा। इस बात पर तो गंगा -यमुना ही बह चली श्रीमती जी की आँखों से...., :

यारो, मुझे एक बात तो तय लगती है, हमारी धरती पर जो तीन तरफ पानी है वो हमारी पत्नियों के आँसुओं से ही बना है और जो दिनों -दिन जल स्तर बढ़ता जा रहा है वो कारण भी ये आंसू ही है ....!" मेरे बिलकुल साथ बैठा विवेक बहुत उत्तेजित हो कर बोला तो हम सब एक बार जोर से हंस पड़े। ऐसा लगा ऐसे मुक्त हो कर हम बेचारे पुरुष बहुत दिनों बाद हँसे हो।

मुकेश चुप हो कर सभी की सुन रहा था। विवेक बोला, "क्यूँ भाई, आप को कोई शिकायत नहीं है क्या ...! सब ठीक -ठाक है।

" अब क्या ठीक है और क्या ठाक है ...! पर एक बात जरुर है इन औरतों के आगे सच की कोई कीमत नहीं है।मैंने अपने पहले प्यार के बार में पत्नी को बता दिया। अपनी तरफ से ईमानदारी ही की थी।पर अब जब भी कभी चुप हो जाऊं या कोई गीत गुनगुनाऊ तो सुनना पड़ता है ' क्यूँ किसी की याद आ रही है क्या?' अब जब पत्नी के साथ सब आराम से निभा रहा हूँ तो उसे ऐतराज़ किस बात है।"मुकेश कुछ चिढ कर बोला।

" सुबह से शाम बस कोल्हू के बैल की तरह लगे रहो।शाम को घर पहुँचो तो कई बार मेम साहिबा सो रही होती है ..जगाओ तो ऐसे देखेगी जैसे किसी अजनबी को देख रही है और फिर से पसर जाएगी ..' अरे अभी तो कमर सीधी की है ....', लो कर लो बात, अब इन्होने सारा दिन क्या किया ...! जो अब आराम फरमा रही है। मैं भी सारा दिन का मारा -मारा भटक कर आया हूँ।" राकेश थोड़ा जोश में आ गया था।

विवेक बोला, " कभी टीवी चला कर बैठ जाओ और कोई सुन्दर सी हिरोइन पर फिल्माया हुआ गीत आ रहा हो तो, फिर तो भी श्रीमती जी की आँखे मुझे पर ही होगी। मन करता है कई बार बोल दूँ ...भई थोडा टीवी की तरफ ही देखो ना, मुझे क्या घूरे जा रही हो ! अरे ...यह शादी तो करनी ही नहीं चाहिए।शिकायत और बस शिकायत ही है इसमें।"

" और नहीं तो क्या ...! उनकी यह शिकायत की हम उनको प्यार ही नहीं करते ...! तो सोचने वाली बात है, फिर किससे प्यार करते हैं ...! सारा दिन उनके लिए ही भागते हैं। नहीं तो हमें क्या चाहिए था। कभी पास बैठती है, कुछ रोमांस करने का मन भी होता है तो इनकी शिकायतें सुन कर ही मन मर जाता है, तो कभी फरमाइशें सुन कर भी।" विमल भी थोडा सा तल्ख़ हो चुका था।

मैं सब की बातें सुन कर सोच रहा हूँ । अपनी जिन्दगी से तुलना कर रहा हूँ । समय कितना बदल गया है ।मैंने तो कभी शिकायत नहीं की अपनी पत्नी की और ना ही मेरी पत्नी ने ही कभी मुझसे की।लेकिन मैंने तो ....

मेरी सोच पर विराम लग गयी। जब श्रीकांत ने मुझसे पूछा, " आपका क्या विचार है हमारे वार्तालाप पर ...? आपके और हमारे समय में आपको अंतर लगा क्या ...! या हम सब गलत हैं।

" मुझे नहीं लगता हम सब गलत हैं, दोनों ही अपनी जगह सही है।बात तो एक दूसरे का मूल्य समझने का और भावनाएँ समझने का है !" मुकेश ने मुझसे पहले ही कहा।

मैंने कहा, " अगर देखा जाये तो आप लोग यानी पुरुष वर्ग गलत नहीं है ...ना ही महिलाएं ।यह तो हर एक की अपनी जिन्दगी है कोई कैसे जीता है। मैं क्या कहूँगा आप लोगों को, जब मुझे ही समझ बहुत देर बाद आयी।

बचपन अभावों में बीता। सोचा एक दिन इतना रुपया कमाऊंगा कि मेरे बच्चों को मेरी तरह मन ना मारना पड़े।और सच में मैंने वही मकाम पाया, जो चाहा था। लेकिन जिन्दगी तो कहीं छूट गयी। जीना क्या होता है, घर का सुख क्या होता है वह मैंने खो दिया।

पत्नी ने कभी शिकायत ही नहीं की।बस चेहरे पर मुस्कान ही बिखेरे रहती।

आज जब आपकी बातें सुन रहा हूँ तो मुझे यह अहसास हो रहा है काश वो भी ऐसे शिकायत करती या मेरे देर से आने पर झगड़ा करती। पर वह तो बस त्याग की मूर्ति बनी सब सहन करती रही। वह बेहद खूबसूरत थी, कमर से भी नीचे लहराते बाल थे उसके। कभी देर से घर पहुँचता तो वह मेरा इंतजार करते-करते सो जाती .घने बालों में उसका चाँद सा पर कुछ मायूस सा चेहरा नज़र आता पर ...... पर मैंने कभी देखा ही नहीं उसकी तरफ और जिस दिन मुझे अहसास हुआ वो दुनिया से जा चुकी थी।

सुबह अपने बिखरे बालों के साथ -साथ अपने आप को भी समेटती हुई फिर से लग जाती घर बच्चे सँभालने में। विवाह की पच्चीसवीं साल गिरह पर एक समारोह किया मैंने। वहां पर किसी ने पूछा सुनीता से ( मेरी पत्नी ) कि उनके इतने सालों के विवाहित जीवन का सबसे यादगार लम्हा क्या था। वह क्या बताती कभी मेरे साथ कोई ख़ुशी का पल बिताया होता तो बताती। लेकिन उसने यहाँ भी ख़ूबसूरती से जवाब दे कर बात को संभाल लिया और मेरे मर्द होने का दर्प बना रहने दिया।

धीरे - धीरे मुझे अहसास होने लगा, मैं गलत हूँ और मैंने बहुत कुछ खोया है । बेटों को कारोबार सँभालने को दे कर मैंने सोचा कि अब सुनीता को सारी खुशियाँ दूंगा। उसके साथ ही रहूँगा, सारा हिंदुस्तान घुमाऊंगा। नई - नई शादी हुई थी तब एक बार उसने जिक्र भी किया था।उसे घूमने का बहुत शौक है।

अगली सुबह जब मेरी आँख खुली तो पास के टेबल पर हमेशा की तरह चाय नहीं थी ना ही उस दिन का अखबार था। मैंने गर्दन घुमाई तो देखा सुनीता अभी तक सो रही थी। बहुत चिंतित हुआ और उसे छुआ तो उसका बदन ठंडा सा लगा मुझे।

वह जा चुकी थी और मैं रोक भी नहीं पाया। अंतिम संस्कार के समय, मेरा मन हो रहा था उसका चेहरा अपने दोनों हाथों में लेकर उसे पुकारूँ कि बस एक बार मेरे लिए वापिस आ जाओ। अब कोई शिकायत नहीं होने दूंगा । लेकिन मैं ऐसा क्यूँ करता भला मर्द था आखिर। उसको जाते देखता रहा अपने चेहरे पर गंभीरता लिए।

अब मैं हर रोज़ पश्चताप में जलता हूँ ...

मैं तो यहीं कहूँगा के जिन्दगी को भरपूर जियो। जो शिकवा -शिकायत है उसे खुल कर कहो मन में ना रखो ....!" कहते -कहते मैंने अपने दोनों हाथ से अपना चेहरा ढक लिया।

मेरी बात सुन कर सभी चुप रहे।

पर विवेक चुप ना रह सका बोला, " देखिये मोहन लाल जी, आपकी बात सही है पर सभी औरतें सुनीता जी की तरह सहन शील भी नहीं होती। मेरी पत्नी को हर बात पर शक होता है घर में घुसते ही ख़ुफ़िया जासूस की तरह सूंघने लगती है कहीं मुझमे कोई किसी और औरत की खुशबू तो नहीं आ रही ...! अब इसका क्या इलाज किया जाये।"

" बीमारी हो या समस्या हर चीज़ का इलाज है, वह भी सिर्फ आपके पास ही।यह आपने सोचना-समझना है और अपने साथी को समझाना है।

अब मुझे इजाजत दीजिये, मेरा गन्तव्य आ गया।" मैंने अपना बैग उठाते हुए अपने सहयात्रियों से विदा ली।

उपासना सियाग

upasnasiag@gmail.con

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