इंद्रधनुष सतरंगा
(11)
सस्ता क़ालीन
‘‘साहब, यह देखिए, असली सूती क़ालीन। सबसे महँगा। विलायत में बड़ी क़ीमत में बिकता है।’’ बानी कर्तार जी को अपने क़ालीन दिखा रहा था।
‘‘सचमुच, बड़ा सुंदर है!’’ कर्तार जी उसे छूकर देखते हुए बोले।
‘‘इसमें गुन भी बहुत हैं, साहब। जब इसे फर्श पर बिछाएँगे इसकी ख़ूबियाँ तब पता चलेंगी। हर मौसम में आरामदायक है--जाड़ा हो या गर्मी। रंग भी पक्का है। ऊनी क़ालीन दिखने में भले ही चमक-दमक वाले होते हैं, पर गर्मियों में तकलीप़फ़ देते हैं।’’
‘‘क़ीमत क्या है?’’
‘‘क़ीमत जान कर क्या करेंगे, साहब। आपको अच्छा लगा हो तो रख लीजिए मेरी तरफ से तोहप़फ़ा समझकर।’’
‘‘नहीं--नहीं!’’ कर्तार जी एकदम उछलकर बोले, ‘‘बिना पूरी क़ीमत चुकाए इसे छुऊँगा भी नहीं।’’
‘‘ऐसी बात है तो जो मजऱ्ी आए दे दीजिएगा।’’
‘‘नहीं, दाम बताओ।’’
‘‘अच्छा चलिए, सिर्फ लागत दे दीजिए--दो हज़ार रुपए। वैसे तो इसे पाँच हज़ार में बेचते हैं।’’
‘‘ठीक है, अब यह क़ालीन हमारा हुआ। इसे बैठक में बिछा दो। लोग देखें तो सही कि महाराज कर्तार सिंह के जलवे अब भी कम नहीं हुए हैं।’’ कर्तार जी मूछों पर ताव देते हुए मज़ाकि़या अंदाज़ में बोले।
बानी क़ालीन लपेटकर उठ खड़ा हुआ। पर बैठक की ओर जाते-जाते ठहरकर बोला, ‘‘लेकिन सरकार, आपसे हाथ जोड़कर एक प्रार्थना है।’’
‘‘क्या?’’
‘‘अगर कोई क़ालीन की क़ीमत पूछे तो पाँच हज़ार से कम न बताइगा।’’
‘‘ए लो जी,’’ कर्तार जी हँसकर बोले, ‘‘पूछने वाला कोई बाहर से आएगा? अपने ही यार-दोस्त होंगे। उनसे क्या छिपाना?’’
‘‘नहीं सरकार, धंधे का सवाल है।’’ बानी ने हाथ जोड़ लिए।
कर्तार जी गंभीर हो गए। जैसे ख़ुद से बुदबुदाते हुए बोले, ‘‘---लेकिन मैंने अपने दोस्तों से आज तक झूठ नहीं बोला है।’’
‘‘साहब, रोज़ी-रोटी का सवाल है। चार पैसों के लिए ही घर छोड़ा है। सबको लागत पर ही बेचने लगा तो कमाऊँगा क्या? घर लौटता हूँ तो बच्चे इंतज़ार करते हैं कि पिता जी कमाकर ला रहे होंगे। उन्हें क्या मुँह दिखाऊँगा।’’ बानी हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा।
कर्तार जी कुछ पलों तक खड़े सोचते रहे फिर बोले, ‘‘अच्छा ठीक है---’’
बानी चला गया। कर्तार जी खड़े सोचते रह गए। आज जीवन में पहली बार उन्होंने दोस्तों से कोई बात छिपाने की सोची थी।
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