Aek Achchha-bhala din in Hindi Motivational Stories by Pritpal Kaur books and stories PDF | एक अच्छा-भला दिन

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एक अच्छा-भला दिन

एक अच्छा-भला दिन

अशोका रोड पर ठीक बीजेपी मुख्यालय के सामने से वह गुज़र रही थी. उसको लग ही रहा था कि ट्रैफिक सिग्नल की लाइट हरी से पीली में बदलने वाली है. उसके आगे गाड़ियों का एक लम्बा सा रेला हरी बत्ती की हरियाली रोशनी में निकल कर उस पार जा रहा था. वो दिल ही दिल में मना रही थी कि बस उसकी गाडी भी इसी रेले में निकल जाए.

हर ट्रैफिक सिग्नल पर जहाँ भी वह गाड़ियों के रेले में शामिल होती है, यही दुआ करती हुयी क्लच और एक्सलेटर के बीच संतुलन बनाते हुए, स्टीयरिंग व्हील को दम साधे साधते हुए, दायें-बाएं की अश्लील गाड़ियों के छू लेने के इरादों से बचती हुयी, बेदाग़ निकल जाने की कोशिश करती है.

आज भी यही हाल था जब उसने पीली लाइट देख ली थी, लेकिन जाने क्या बात हुयी कि पीली लाइट होते ही रुक जाने की शरीफाना आदत होने के बावजूद आज उसने एक्सेलेटर पर दबाव बढ़ा दिया और ठीक लाल लाइट के धमकाते हुए इशारे के नीचे से निकल कर उस पार तो आ गयी लेकिन ये खुशी चंद पलों की ही साबित हुयी थी.

सामने ही ट्रैफिक पुलिस की कड़क यूनिफार्म में सजा एक सजीला नौजवान हाथ में चालान मशीन लिए उसे रुकने का इशारा करता हुआ उसका इंतज़ार कर रहा था. उसकी खुशी पल में ही अफ़सोस में बदल गयी. ज़िन्दगी में पहली बार जिद की और खामियाजा भुगतना पड़ रहा है.

ऐसा उसके साथ ही क्यों होता है? समझ नहीं पाती. लोग ज़माने भर की गुस्ताखियाँ करते हैं, रेड लाइट जम्प करते हैं, ओवर स्पीडिंग करते हैं, कोई नहीं पकड़ता, कोई चालान नहीं होता. उसने आज पहली दफा सुस्ती की, ब्रेक नहीं लगाई, धैर्य नहीं रखा, रुक कर लाइट के फिर से हरी होने का. तो उसका चालान काटने को ये हरयाणवी जवान मौजूद है.

उसने गाडी सडक के किनारे लगाई और खिड़की का शीशा नीचे किया.

“मैडम जी.” वो मुस्कुरा रहा था, अपने सुर्ख चेहरे पर सजी काली मूंछों के बीच, लम्बा ऊंचा नौजवान.

“लाइट पीली थी जी.” अब झूठ बोलने के सिवा चारा क्या था?

वह मुस्कुराता रहा. उसका भी डर कुछ कम हुआ. लेकिन अभी मुकरने की गुन्जायिश मन में बनी हुयी थी. एक बार और अपनी बात दोहराई. लेकिन पुलिस वाले के चेहरे पर मुस्कान बनी हुयी थी.

“मैडम जी. आप को भी पता है आपने रेड लाइट जम्प की है.” उसकी मुस्कान चौडी और मधुर हो गयी थी.

अब और झूठ बोलने का कोई फायदा नहीं था. ट्रैफिक पुलिस के जवान का जलवा और ठसक अपना जादू चला चुकी थी.

“अब क्या बताऊँ? मैंने देखा ही नहीं. मेरे आगे की गाडी निकल गयी तो मैं भी निकल गयी.” उसकी हंसी में खासी झेंप मिली हुयी थी.

“मैडम जी. ये तो न कहो जी. आगे वाला ईस्ट दिल्ली जाएगा आपको वेस्ट में जाना हो तो क्या तब भी उसके पीछे लग जाओगे?” एक ठहाका उसने लगाया तो वह भी हंस पडी.

दोनों के बीच का तनाव तब तक छंट चुका था. जल्दी वाली बात तो तभी ख़त्म हो गयी थी जब उसे रुकना पडा था. अब देरी तो हो ही चुकी थी. थोड़ी और सही. आज मीटिंग से पहले या बाद में मौका देखते ही बॉस की डांट पड़नी तय थी. अक्सर पड़ती है. घर और बच्चों की दोहरी ज़िम्मेदारी निभाती सिंगल माँ के लिए हर रोज़ एक नया इम्तिहान ही तो लेती है ज़िन्दगी.

और फिर दिल्ली की ज़िन्दगी तो मानो करेला और नीम चढ़ा. दिन हो या रात या शाम या सुबह, सड़कों पर यही जाम. सब तरफ बस गाड़ियाँ ही गाड़ियां. कई बार सोचा उसने कि मेट्रो में आना जाना करे, लेकिन उसका तो काम दिन भर घूमने फिरने का है. हर जगह के लिए मेट्रो नहीं और फिर मेट्रो स्टेशन तक पहुँचने के लिए ऑटो वालों के नखरे कौन से कम हैं?

"सो अब सहो सदा आपकी सेवा में तत्पर दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के नखरे, जानेमन.” खुद को ही कहा और फिर उस हैण्डसम जवान की तरफ मुखातिब हुयी.

“तो अब आप ही बताओ क्या करूँ?” जब आपके पत्ते कमज़ोर हों तो शो कर देना ही बेहतर होता है. ये उसने ज़िन्दगी के हाथों मात खाते-खाते सीख लिया था.

“मैडम जी, आप लाइसेंस दिखा दो. फिर देखते हैं.” अब उसकी मुस्कान कुछ दब सी गयी थी.

“हाँ, ज़रूर.” कह कर उसने पर्स खोल कर अंदर की पॉकेट से अपना ड्राइवर्स लाइसेंस निकाल कर उसकी आगे बढ़ी हुयी हथेली पर रख दिया.

उसने लाइसेंस लिया और पढ़ने लगा.

“अच्छा. कविता सिंह. आप इधर किधर आते हो मैडम जी? आप की गाडी तो मैं रोज ही देखता हूँ इस सड़क पर.”

आसमानी रंग की गाडी लेते वक़्त तो नहीं सोचा था. लेकिन आज लगा वाकई उसकी गाडी के रंग की वजह से वह दूर से ही पहचान ली जाती है. ये अच्छा है या बुरा. तय नहीं कर पाई.

“हाँ. इधर हमारा क्लब है. आयडब्ल्यूपीसी. पांच विंडसर प्लेस. इधर हम अक्सर लंच के लिए आते हैं.” दबे स्वर में उसने बताया.

“हाँ जी. हाँ जी. अरे आप तो पत्रकार हो मैडम जी. हमारे साब भी जाते हैं आपके क्लब में. यतीन्द्र शर्मा है जी उनका नाम. आप तो जानते होगे.” उसके स्वर में फिर से अपनापा सा आ गया था. मुस्कान भी लौट आयी थी.

जानती तो नहीं थी. याद नहीं पड़ता. लेकिन क्लब में मेम्बर्स के गेस्ट आते रहते हैं. उनमें पुलिस अधिकारी भी होते हैं, कभी कभी. सो इनको भी देखा ही होगा कभी. इनकार क्यों करे?

“हाँ. अक्सर आते हैं, आप के साब.” दिल को कुछ तसल्ली हुयी थी. उसका दोस्ताना रवैया अब भला सा लगने लगा था.

“तो क्या करें मैडम जी? रेड लाइट तो आपने जम्प की है. चालान काटें क्या? आप ही बोलो जी.”

अब वो क्या बोलती? जो बोला वही तो बोलती.

“छोडो ना. मेरा कभी चालान नहीं हुआ. मेरे लाइसेंस पर धब्बा लग जायेगा. रहने दो न आप.” लग रहा था बन्दा पिघल जायेगा.

“पर देखो न जी, कविता सिंह जी. आप को छोड़ा तो आप के पीछे वाली दोनों गाड़ियों को छोड़ना पड़ेगा.”

तभी उसका ध्यान गया पीछे दो गाड़ियाँ और रुकी हुयी थीं चालान के इंतजार में.

अब तो कविता ने खुल कर अपना दिल्ली वाला दांव खेला.

“रहने दो न रोहित जी. वो भी आप को दुआ देंगे. जैसे मैं दूंगी.”

रोहित जी की मुस्कान चौड़ी हो गयी थी. कविता के उसका नाम पढ़ कर उसे नाम से बुलाने से या अफसर की कथित दोस्त होने की सम्भावना से, दोस्ताना बात करने से या इतने सारे लोगों की दुआओं के मिलने की आशा से.

बहरहाल रोहित अच्छे मूड में था. कविता का लाइसेंस लौटाते हुए इतना ही बोला, "तो आप के सिंह साहिब क्या करते हैं मैडम जी?”

“सिंह साहिब नहीं है.” लाइसेंस वापिस पर्स में रख के ज़िप बंद करते हुए ही कविता ने कहा था.

मुस्कान गायब हो चुकी थी अब दोनों चेहरों से.

“ओहो जी. तो बच्चे? कितने हैं जी?”

“दो.”

“लड़का कि बिटिया, जी?”

“एक लड़का एक लडकी.”

“अच्छा जी! आप तो बहुत हिम्मत वाले हो जी. अकेले ही पाल रहे हो. जाओ जी. जय हिन्द जी. हैव अ नाईस डे.”

और कविता ने शीशा बंद किये बिना गाडी आगे बढ़ा दी थी. मगर उससे पहले रोहित की आँखों में छाई एक अजीब सी, धुंधली सी मुस्कान को ज़रूर देख लिया था और अपने दायें हाथ से उसे सलाम भी ठोक दिया था.

जानती है कविता, महिला होने का कई बार फायदा भी मिलता है दिल्ली में. कुछ साल पहले तक तो कुछ ज्यादा इज्ज़त होती थी औरतों की दिल्ली की सड़कों पर, दफ्तरों में. बदलते वक़्त के साथ ये कम हो गया है. बराबरी का हक अभी उतना नहीं मिला, लेकिन इज्ज़त और ख़ास रियायत जो सिर्फ स्त्री होने के नाते मिल जाती थी, वो अब काफी कम होती जा रही है.

इसकी कई वजहें हैं. पहली तो यही की आबादी बेतहाशा बढ़ रही है दिल्ली की. हर रोज़ हजारों लोग दिल्ली की आबादी में जुड़ जाते हैं. सड़कें और घर लोगों से अटे पड़े हैं. अब ऐसे में आधी आबादी का ख़ास ख्याल कैसे रखा जा सकता है? इसके अलावा यह आधी आबादी अब कंधे से कन्धा मिला कर हर तरह के काम के लिए घर से बाहर भी तो निकलती है.

इन्हीं कुछ वजहों के रहते कुछ लोग तो औरतों के खिलाफ एक अजीब सी दुर्भावना मन में रखने लगे हैं, जो अक्सर ज़ाहिर भी हो जाती है. इन लोगों का मानना है कि औरतों ने मर्दों के वर्चस्व वाले क्षेत्रों में जब से कदम रखने शुरू किये हैं, पुरुषों के लिए रोज़गार के मौके कम हो गए हैं. पुरुषों के काम औरतों ने उनसे छीन लिए हैं. जिससे मर्दों में बेरोजगारी बढ़ गयी है.

इस बढ़ती हुयी बेरोजगारी और असंतोष के लिए ये लोग औरतों को ज़िम्मेदार मानते हैं. पिछले पच्चीस साल से दिल्ली में बसी हुयी कविता ने धीरे-धीरे दिल्ली के मिजाज़ में आ रहे इस बदलाव को अपनी आँखों से देखा है और झेल भी रही है.

बस ऐसे इक्के-दुक्के कोई रोहित जैसे पुरुष मिल जाते हैं जो उसके औरत होने और अपने दम पर अकेले इस दुनिया में सर उठा के जीने के जज्बे की इज्ज़त करते हैं, तो दिल को सुकून मिलता है कविता के. मन चाहता है ऐसे मर्दों की तादाद बढ़े. लेकिन जानती है कि अहिस्ता-अहिस्ता इस जात के मर्द भी विलुप्त हो जायेंगे दिल्ली के पटल से, क्योंकि दिल्ली का दस्तूर और मिजाज़ बड़ी तेज़ी से बदल रहा है.

दिल्ली जो कभी मुगलों की राजधानी थी, विभाजन के बाद पाकिस्तान के पंजाब, मुल्तान और दूसरे सूबों से आये शरणार्थियों के रंग में रंगी, ऐसी रंगी कि इसका मिजाज़ ही पंजाबी हो गया. नयी दिल्ली में इनका वर्चस्व यूँ भी हुआ कि पहली बात तो ये कि ये कड़े जीवट वाले लोग रहे. दूसरे इनके पास लौटने का ठिकाना नहीं बचा था. तो इन्होनें दिल्ली को अपना स्थायी घर बना कर पंजाबियत को एक नया आयाम दिया.

कॉलेज स्कूल के ज़माने में दिल्ली आते-जाते कविता ने महसूस किया था अक्सर कि दफ्तरों और सड़कों पर और दूसरी सार्वजानिक जगहों पर अगर आप पंजाबी बोल लें तो आपकी राह आसान हो जाती थी.

फिर जब पच्चीस साल पहले कविता ने स्थाई तौर पर दिल्ली में बसने का इरादा किया तो जाना कि दिल्ली की पंजाबियत अपना खांटीपन खो रही थी. हिंदी यहाँ आसमान से बरस रही थी मूसलधार बारिश की तरह, ठेठ देसी अंदाज़ में.

अँगरेजी, उर्दू और पंजाबी सलाहियत वाली दिल्ली तेज़ी से हिंदी के लिए अपने दफ्तरों और घरों में जगह बना रही थी. इसके साथ ही हो रहा था इजाफा दिल्ली की आबादी में, बहुत तेज़ी के साथ.

दिल्ली से लगते उत्तर प्रदेश और हरयाणा में भी उन मध्यवर्गीय लोगों ने घर बसा लिए थे जो काम के लिए रोज़ाना सुबह दिल्ली आते थे और शाम को लौट जाते थे. दिल्ली चारों तरफ फैल रही थी. आग की तरह, खरपतवार की तरह. इस क़दर तेज़ी से कि कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ती उसने उन सालों में देखी हैं, जब उसने पढ़ाई पूरी करने के बाद दिल्ली में रहना शुरू किया ही था.

देर रात घर जाती महिला पत्रकार की हत्या होती सुनी. बार गर्ल के शराब का पेग न बनाने पर उसकी हत्या होते देखी. लोधी रोड पर एक नहीं, कई बार अंधाधुंध चलती महंगी तेज़ गाड़ियों के नीचे कुचलते लोगों की चीत्कार सुनीं.

सत्ता और ताकत की ऊंची अटारियों में हो रहे अपार धन की धुआंधार बारिश के बीचोंबीच निहायत गरीब झुग्गी वाले के बच्चे को ट्रैफिक सिग्नल के किनारे मैले-कुचैले कपड़ों में मौसम की परवाह किये बगैर बाजीगरी कर के भीख मांगते देखा. और इस गिरोह के सरगना को इन बच्चों की कमाई में से अपना बड़ा सा हिस्सा झपटते भी देखा.

यही नहीं, गरीब मजलूम बेईमानी को इमानदारी में ही सेंध लगाते भी देखा. एकाध गर्भवती औरत को घेर कर सड़क पर संभावित उसके प्रसव का डर दिखा कर गाडी वाले 'अमीरों' से जबरन पैसा उगाहते दबंग औरतों के गिरोह को भी झेला.

अशोका रोड से निकल कर देखा तो इंडिया गेट पर बहुत तगड़ा जाम लगा है. कविता समझ गयी है आज तीन बजे वाली मीटिंग में समय से पहुंचना संभव ही नहीं. दो बजे निकली थी. जल्दी के चक्कर में रोहित भाई से मुलाकात हो गयी. पन्द्रह मिनट वहां खर्च हो गए.

ढाई बजने वाले हैं और अभी तिलक मार्ग के मोड़ तक ही पहुँच पायी है. गाड़ियाँ चींटी की चाल से रेंग रही हैं. इस हिसाब से डिफेन्स कॉलोनी पहुँचने में पैंतालीस मिनट और लगेंगे. शायद वीआयपी रूट हैं कहीं सेंट्रल दिल्ली में.

अब आम आदमी के लिए दिल्ली के दरवाजे तो खुल गए हैं, लेकिन आम आदमी के लिए दिल्ली की सड़कें नहीं बची हैं. अगर आप आम हैं तो घर बैठें या फिर मेट्रो में सफर करें. मगर मेट्रो में भी सफर करें तो बस या ऑटो का सहारा तो लेना ही पड़ता है. और सड़कों का तो बस यही हाल.

कविता ने अपने बॉस कुंदन मिश्र को फ़ोन मिलाया ताकि बता सके कि वह लेट है. लेकिन कॉल नहीं लगी. सड़कों की तरह फ़ोन लाइन्स भी बिजी हैं. हार कर उसी रेंगती हुयी गाड़ियों की कतार में अपना दिल बहलाने की कोशिश में रेडियो ऑन किया तो रेनबो ऍफ़एम् पर समाचार आ रहे थे. चैनल बदल दिया लेकिन सभी जगह शोर मचाने वाले कान फोडू गाने. हार कर रेडियो बंद कर दिया.

रेंगती जाती गाडी में शांति भी दम घोटूं हो रही थी. कविता ने एक हाथ से ग्लोव बॉक्स में से एक सीडी निकाल कर प्लेयर में डाली तो लता की मधुर आवाज़ में इस घनघोर शोर और उकताहट के बीच सुकून का एक समंदर कविता की गाडी में लहरा गया.

"हमने देखी हैं उन आँखों की महकती खुशबु......." इस गीत में संगीत, गाने के बोल और लता की आवाज़, इन तीनों में से क्या चीज़ बेहतर है. इस बात पर शिशिर से कई बार बहस होती थी, शिशिर कहता था लता की आवाज़ और कविता को लगते थे गुलज़ार के बोल और दोनों इसी पर बहस करते-करते हंस पड़ते थे. फैसला कभी नहीं हो सका.

अब तो कभी हो भी नहीं सकेगा. शिशिर तो चला गया. सब कुछ उस पर छोड़ कर. ये गीत सुनती है तो टीस के साथ उसे याद करती है. यही तो कर सकती है. अब तो रोना भी छोड़ दिया है. अब हंस कर उसकी याद करती है. अंदर एक जगह एक दर्द होता है, उसे पी जाती है. बच्चों के साथ बातों में अक्सर पापा की बात होती है, तो रो कर उन्हें तो नहीं दिखा सकती अपनी कमजोरी. उन्हें तो चट्टान की तरह ही दिखाना है खुद को. बन भी गयी है कविता, एक मज़बूत चट्टान.

तभी कुंदन मिश्र का फ़ोन आ गया.

"हेल्लो, कविता. मैं देर से तुम्हें फ़ोन कर रहा था. आज की मीटिंग कैंसिल है. ट्रैफिक में फंसा हुआ हूँ. नहीं पहुँच पाऊँगा. "

"जी सर मैं भी फ़ोन कर रही थी. मैं भी एंडिया गेट पर ही हूँ. यहाँ भी यही हाल है. बहुत धीरे सरक रही हैं गाड़ियां. क्लाइंट को कह दिया न आपने?" कविता ने राहत की सांस ली. पत्रकार रही कविता अब एक फिटनेस कंपनी में मीडिया एडवाइजर है.

"हाँ, वो लोग खुद गुडगाँव से आ रहे हैं. एन. एच. एट पर भी जाम है. आज लगता है पूरी दिल्ली का ही चक्का जाम है. " बॉस का ठहाका सुन कर कविता को कुछ और राहत मिली.

"जी सर, मेरा तो अभी चालान होते होते बचा है, जल्दी के चक्कर में और अब यहाँ फँस गयी हूँ."

कुंदन मिश्र फिर हँसे.

"यू रिलैक्स कविता. आराम से निकलो जैम से. आज का दिन एन्जॉय करो. वैसे ऐसे जाम में क्या एन्जॉय करोगे डिअर. मैं तो यहाँ से यू टर्न ले कर घर जा रहा हूँ."

"थैंक यू सर. मैं आज हॉस्पिटल चली जाती हूँ. आप को बताया था शिशिर के मामाजी एडमिट हैं. आर. एम. एल. में. अब यहाँ सेंट्रल दिल्ली में हूँ, तो उनसे मिल लेती हूँ. "

"श्योर, डू दैट. सी यू टुमारो इन ऑफिस." कह कर उन्होंने फ़ोन काट दिया था.

कविता को समय रहते ये बात याद आ गयी थी. कई दिनों से टाल रही थी. मामाजी का हिप रिप्लेसमेंट हुआ था. पिछले एक हफ्ते से हॉस्पिटल में थे. सभी लोग मिल आये थे बस कविता ही नहीं जा पाई थी. दो बार मामीजी का फ़ोन भी आ गया था कि वे मिलना चाहते हैं. आज सही वक़्त है. मिल लिया जाए. अब वो इंडिया गेट का चक्कर लगा कर वापिस अशोका रोड की तरफ आ रही थी.

वापसी में बाराखम्बा रोड पर मॉडर्न स्कूल से दोनों बच्चों को भी शाम की कोचिंग के बाद छह बजे लेते हुए घर साकेत चली जायेगी. एकाएक अपनी मैनेजिंग क्षमता पर कविता का दिल खुश हो गया. पहले वो चालान वाला किस्सा और अब ये ट्रैफिक जाम में फसी हुयी कविता का दिन आखिरकार ठीक-ठाक हो ही गया था.

गाडी शाहजहाँ रोड की रेड लाइट पर रुकी थी, 40 सेकंड के लिए. इसी का फायदा उठा कर बेटे के फ़ोन पर मेसेज कर दिया कि शाम को दोनों बच्चे रौनक और नेहा उसकी वेट करें, वो आयेगी उनको लेने.

आजकल दसवीं के बाद बच्चों के स्कूल में फ़ोन ले जाने पर उस तरह की पाबंदी नहीं है. बस क्लास के वक़्त उन्हें फ़ोन को ऑफ कर देना होता है. सो आसानी रहती है, बच्चों के साथ संपर्क बनाये रखने में. कविता जैसी अकेली माओं के लिए यह बहुत सुविधा जनक हो गया है. कई बार सोचती है कि आज के बच्चे इतना कुछ निभा ले जाते हैं, ये सब इन्टरनेट और मोबाइल फ़ोन से ही हो पाया है. इनके बिना उसके समय में कितना बंधन रहता था. इनके नुक्सान तो हैं लेकिन फायदे भी बहुत हैं.

बाबा खडक सिंह मार्ग पर हॉस्पिटल पहुँच कर गाडी पार्क की और मामीजी को फ़ोन लगाया. वे फ़ौरन बाहर आ गयीं. उसे देख कर परेशान और थकी हुयी अधेड़ मामीजी खुश हो गयी थीं. पता लगा दिन में वे रहती थीं मामाजी के पास. रात में उनकी बेटी किरण.

मामीजी उसे लेकर कैफ़े में बैठ गयीं. थोड़ी देर की बातचीत के बाद कविता ने ही प्रस्ताव रखा कि वे कुछ देर यहीं बैठें, कुछ खा पी लें, रिलैक्स कर लें और कविता उनके गेट पास से अंदर जा कर मामाजी से मिल भी लेगी और कुछ देर बैठ भी लेगी. मामीजी इस प्रताव से खुश हो गयीं.

मामाजी तो उसे देख कर खिलखिला ही उठे. मिलनसार मामाजी के घर पार्टियां अक्सर होती हैं और हर पार्टी में कविता बुलाई जाती है. शिशिर था तो वे चारों जाते थे. शिशिर के जाने के बाद कविता बहुत कम जा पाती है. लेकिन बुलावा हर बार आता है. मामाजी ख़ास दिल्ली वाले हैं. खाने-पीने के शौक़ीन, दोस्ती-यारी के पाबंद और हद दर्जे के पार्टीबाज़. यही नाम रखा था शिशिर ने उनका. अब कभी-कभी खुद ही कहते हैं खुद को पार्टी-बाज़ और आँख नम कर लेते हैं.

आज कविता को देखा तो लेटे-लेटे ही बाहें फैला कर उसे गले से लगा लिया. "आ गयी मेरी बच्ची पार्टीबाज़ से मिलने? देख तो कैसा बाँध के रख दिया है मेरे जैसे गबरू जवान को इन लोगों ने?"

कविता ने रुलाई रोकी और हंस कर कहा, "गबरू जवान कहाँ रुकने वाला है यहाँ? जल्दी चलो घर. अबकी पार्टी में मैं न आऊँ तो मेरा नाम बदल देना. रौनक और नेहा भी बहुत याद करते हैं आप को. घर पहुँचो जल्दी, हम एक पूरा दिन आपको जम के तंग करने वाले हैं."

मामाजी से छुपा कर उसने अपनी आँखें पोंछ ली थीं और मुंह घुमाने के इसी दौरान कविता ने उन्हें देखा था. मामाजी के ट्विन शेयरिंग कमरे में दूसरे बेड पर एक और बुज़ुर्ग थे. उनके पैंताने जो एक आदमी बैठा उनके पैर हलके-हलके दबा रहा था, वह उनका रिश्तेदार तो कत्तई नहीं लगता था.

वे एक लम्बे-चौड़े गोरे-भट्ट गुलाबी गालों वाले, नारंगी साफा बांधे हुए सरदार जी थे और वह था छोटे कद का सांवला सा जीन्स और टीशर्ट में सजा दुबला पतला नौजवान. शायद उनका ड्राईवर था या घरेलु खिदमतगार. यहाँ इस महानगर में सब अपने अपने काम में फंसे हुए रहते हैं. बच्चों के पास वक़्त कहाँ और पत्नी शायद खुद बीमार हों या हो ही ना. खैर!

मामाजी से बातें करते करते उसे लगा कि वे थके हुए हैं. ज़ाहिर है ऑपरेशन हुआ है. कविता ने उन्हें ज्यादा बोलने नहीं दिया. थोड़ी देर में लगा वे ऊंघने लगे हैं. दवाओं का असर भी तो होगा. ये सोच कर वह भी चुपचाप उनका एक हाथ जिसमें ड्रिप नहीं लगी थी, अपने हाथ में ले कर बैठ गयी.

अभी चार ही बजे थे. सोचा कुछ देर और रुके यहीं, मामाजी को भी अच्छा लग रहा है. मामीजी रिलैक्स कर लेंगीं. और बच्चों को स्कूल से लेने में भी अभी वक़्त था. यहाँ से पन्द्रह मिनट की ही ड्राइव होगी. उम्मीद थी कविता को कि तब तक जाम भी छट जाएगा.

मामाजी गहरी नींद में थे. दवाओं के असर वाली बेहोशी जैसी नींद. इसका कोई तोड़ नहीं. कविता उसी तरह मामाजी का हाथ लिए बैठी रही. अन्दर शायद उनको एहसास हो कि वह वहां बैठी है.

इस घनघोर शांति में उसे एक कराह सुनायी दी. सामने वाले सरदार जी की नींद शायद टूटी थी. वही दवाओं वाली बेहोशी जैसी नींद. टूटी तो उनके दर्द भी जाग उठे थे. कराह उन्हीं की थी, जो बेशर्म हो कर होठों तक उतर आयी थी. वे आहिस्ता-आहिस्ता नींद से जाग रहे थे और शायद दर्द भी आहिस्ता-आहिस्ता उठान पर था.

वे फिर कराहे. इस बार उनकी कराह के साथ ही उसमें एक दर्दनाक 'हाय' भी शामिल हो गया. नींद धीरे-धीरे उनकी बेहोशी से दामन छुड़ा रही थी और ज़ाहिर है दर्द बढ़ रहा था. इसके साथ ही उनकी लगातार होने वाली 'हाय' का सिलसिला भी चल निकला. उनका रिश्तेदार जैसा नहीं लगता सहायक घबराहट में उनके पैर जोर जोर से दबाने लगा. लेकिन सरदार जी की तड़प से उसका दिल भी दुःख रहा था, ये उसके चेहरे से साफ़ ज़ाहिर हो रहा था.

आखिरकार उसकी बेबसी ने उससे कहलवा डाला, "दार जी, बोलो राम राम, सीते सीते. हिम्मत मिलेगी."

दारजी ने जैसे ही ये सुना उनके तन बदन में आग लग गयी हो जैसे. उस एक पल में वे ऑपरेशन के भयंकर दर्द के ऊपर हो गए. तमक कर बोले, "ओये मैंने अमृत चख्या होया है. मूरख, मैं राम राम बोलूं? तेरी मत मारी गयी है? हाय ! हाय! हाय ओ रब्बा! वाहे गुरु! वाहे गुरु!........ "

बेचारा सहायक चुप हो कर मुंह नीचे कर के तल्लीनता से उनके पैर दबाने में मशगूल हो गया. कविता ने अपनी हंसी दबाई. आहिस्ता से मामाजी के हाथ को बिस्तर पर रखा. वे वैसे ही चैन से सोते रहे. सरदार जी के बेड के पास जा कर उसने बेल बजाई. उन्होंने उसे देख कर थैंक्स कहा, लेकिन उनका थैंक्स 'वाहे गुरु तेरा ही आसरा' की टेक के बीच 'हाय' की पुकार में डूब गया था.

सहायक ने कविता को कृतज्ञता से देखा और बोला, "दार जी का ऑपरेशन कल ही हुआ है. छोटे साब जी, दार जी के बेटे ... अभी आने वाले हैं. मैं इनका ड्राईवर हूँ जी. मुझे बहुत प्यार करते हैं."

कविता ने उसके कंधे को थपथपाया, "आप भी तो कितनी सेवा कर रहे हो दार जी की. प्यार तो करेंगे ही."

तब तक नर्स आ गयी थी. उसने दार जी की कराह सुनी और उनकी ड्रिप चेक की. पेनकिलर वाली दवा की ड्रिप ख़त्म हो गयी थी. उसने उसे बदला और कुछ देर वहीं उनके पास खड़ी उनकी जांच करती रही. टेम्परेचर देखा. उनका माथा सहलाया. दार जी को कुछ सुकून मिलता लग रहा था. कविता वापिस मामाजी के पास आ कर बैठ गयी थी. वे वैसे ही बेसुध सो रहे थे. उसने फिर से उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया.

लेकिन उसकी नज़रें सामने के बेड पर ही टिकी थीं. दिल्ली ने अपने इतिहास और वर्तमान की एक खूबसूरत छोटी सी कहानी उसकी आँखों के सामने चंद मिनटों में ही लिख डाली थी.

इसके किरदार सिर्फ तीन ही थे. कभी शरणार्थी हो कर दिल्ली की शरण में आये होंगे और फिर दिल्ली हो गए पंजाबी दार जी का रह-रह कर उभरता दर्द, बिहार से हिंदी की ठाठ के साथ आया और दार जी को मोहब्बत से देखता, उनके पैर दबाता उनका ड्राईवर सहायक.

और दार जी की जांच कर रही केरल से नर्सिंग की ट्रेनिंग ले कर आयी एक खूबसूरत छरहरी नाजनीन. जिसे न तो पंजाबी आती थी, न उर्दू और न ही हिंदी. वो उस अंग्रेज़ी भाषा से अपना काम चलाती है जो अब हम सब की राष्ट्र भाषा जैसा कुछ बन गयी है. जिसके मालिकों को हमने अपने देश से खदेड़ कर निकाल दिया था और जो जाते-जाते हमें कई टुकड़ों में बाँट गए थे.

तभी कविता के फ़ोन पर मेसेज आया तो उसने अहिस्ता से मामाजी का हाथ बिस्तर पर रख कर पढ़ा. रौनक कह रहा था कि वे दोनों आधे घंटे में फ्री हो जायेंगे. वह उन्हें लेने के लिए स्कूल पहुँच जाए.

उसने नज़र उठा कर देखा, मामाजी गहरी नींद में थे. आहिस्ता से अपना बैग उठाया, उनसे विदा लिए बिना निकल ही रही थी कि देखा दार जी उसकी तरफ देख रहे थे.

वह उनकी तरफ गयी तो उन्होंने हाथ उठा कर उसे आशीर्वाद देना चाहा. उसने अपना सर उनके आगे झुका दिया. उन्होंने उसके सर पर हाथ फेरा. उसी पल कविता को ट्रैफिक पुलिस वाला नौजवान रोहित याद आ गया. आज का दिन वाकई अच्छा रहा था.

प्रितपाल कौर

Phone : 91 - 9911278721, 9811278721