सोनोरल
बुशरा ने जब तीसरी मर्तबा ख़्वाब-आवर दवा सोनूरल की तीन टिकियां खा कर ख़ुदकुशी की कोशिश की तो मैं सोचने लगा कि आख़िर ये सिलसिला क्या है। अगर मरना ही है तो संख्या मौजूद है। अफ़ीम है। इन सुमूम के इलावा और भी ज़हर हैं जो बड़ी आसानी से दस्तयाब हैं, हर बार सोनूरल, ही क्यों खाई जाती है।
इस में कोई शक नहीं कि ये ख़्वाब-आवर दवा ज़्यादा मिक़दार में खाई जाये तो मौत का बाइस होती है लेकिन बुशरा का तीन मर्तबा सिर्फ़ उसे ही इस्तिमाल करना ज़रूर कोई मानी रखता था। पहले मैंने सोचा चूँकि दो मर्तबा दवा खाने से उस की मौत वाक़्य नहीं हुई इस लिए वो एहतियातन उसे ही इस्तिमाल करती है और उसे अपने इक़दाम-ए-ख़ुदकुशी से जो असर पैदा करना होता है, मौत के इधर उधर रह कर कर लेती है। लेकिन मैं सोचता था कि वो इधर उधर भी हो सकती थी। ये कोई सौ फ़ीसद महफ़ूज़ तरीक़ा नहीं था।
तीसरी मर्तबा जब उस ने बत्तीस गोलियां खाईं तो उस के तीसरे शौहर को जो पीडब्ल्यू डी में सब ओवर सैर हैं, सुबह साढ़े छः बजे के क़रीब पता चला कि वो फ़ालिजज़दा भैंस की मानिंद बेहिस-ओ-हरकत पलंग पर पड़ी थी। उस को ये ख़्वाब-आवर दवा खाए ग़ालिबन तीन चार घंटे हो चुके थे।
सब ओवर सैर साहब सख़्त परेशान और लर्ज़ां मेरे पास आए। मुझे सख़्त हैरत हुई, इस लिए कि बुशरा से शादी करने के बाद वो मुझे क़तअन भूल चुके थे। इस से पहले वो हर रोज़ मेरे पास आते और दोनों इकट्ठे बीअर या विस्की पिया करते थे।
उन दिनों वो मफ़्लूकुलहाल थे। साईकल पर दफ़्तर जाते और उसी पर घर वापिस आते। मगर जब उन की बुशरा से दोस्ती हुई और वो उस से शादी करके उसे अपने घर लाए तो नक़्शा ही बदल गया। उन का भी और उन के घर का भी।
अब वो बहुत उम्दा सूट पहनते थे। सवारी के लिए मोटर भी आगई। घर बढ़िया से बढ़िया फ़र्नीचर से आरास्ता होगया। रेस खेलने लगे। देसी रोम के बजाय अब स्काच विस्की के दौर उन के यहां चलते थे। बुशरा भी पीने वाली थी इस लिए दोनों बहुत ख़ुश रहते थे।
सब ओवरसियर क़मर साहब की उम्र पच्चास बरस के लग भग होगी। बुशरा उन से ग़ालिबन पाँच बरस बड़ी थी। किसी ज़माने में शायद उस की शक्ल-ओ-सूरत क़ाबिल-ए-क़बूल हो। मगर इस उम्र में वो बहुत भयानक थी। चेहरे की झुर्रियों वाली गाल पर शोख़ मेकअप, बाल काले किए हुए, बंद बंद ढीला जैसे ओस में पड़ी हुई पतंग, ढलका हुआ पेट, अंगया के क्रेनों से ऊपर उठाई हुई छातियां। आँखों में सुरमे की बदख़त तहरीर। मैंने जब भी उस को देखा वो मुझे निस्वानियत का एक भद्दा कार्टून सा दिखाई दी।
क़मर साहब ने जैसा कि ज़ाहिर है उस में इस के सिवा और क्या ख़ूबी देखी होगी कि वो मालदार थी। उस का बाप पंजाब में एक बहुत बड़ा ज़मींदार था। जिस से विरासत में उस को बहुत ज़मीनें मिली थीं। उन से छः सात सौ रुपया माहवार की मुस्तक़िल आमदन होजाती थी। इस के इलावा बैंक में भी इस का दस, पंद्रह हज़ार रुपया मौजूद था। और क़मर साहब एक मामूली सब ओवर सैर थे। बीवी थी छः बच्चे थे, जिन में दो लड़के थे जो कॉलिज में तालीम हासिल कर रहे थे। उन के घर में अफ़्लास ही अफ़्लास था। वैसे शौक़ीन मिज़ाज थे और शायर भी। शाम को शराब बहुत ज़रूरी समझते थे इस लिए आप ख़ुद ही अंदाज़ा कर सकते हैं कि उन के बाल बच्चों के लिए क्या बचता होगा।
क़मर साहब ने यूं तो ज़ाहिर किया था कि वो बुशरा को शरई तौर पर अपने रिश्त-ए-मुनाकिहत में ला चुके हैं लेकिन मुझे शक था और अब भी है कि ये महज़ एक ढोंग था। क़मर साहब बड़े होशियार और चालाक आदमी हैं। अपनी ज़िंदगी के पच्चास बरसों में न जाने वो कितने पापड़ बेल चुके हैं। सर्द-ओ-गर्म चशीदा हैं। गुर्ग बाराँदीदा हैं। बुशरा से शादी का झंझट पालना कैसे मंज़ूर कर सकते थे।
बुशरा से शादी करके क़मर साहब के घर में हालत बहुत हद तक सुधर चुकी थी। उन की तीन बच्चियां जो सारा दिन आवारा फुर्ती रहती थीं ईसाईयों के किसी स्कूल में दाख़िल करा दी गई थीं। उन की पहली बीवी के कपड़े के साफ़ सुथरे होगए थे। खाना पीना भी अब उम्दा था।
मैं ख़ुश था कि चलो अब ठीक है। दूसरी शादी की है, कुछ बुरा नहीं हुआ। बुशरा को एक ख़ाविंद मिल गया है बा-सलीक़ा और होशियार है और क़मर साहब को एक ऐसी औरत मिल गई जो बदसूरत सही मगर मालदार तो है।
मगर इन का ये सिलसिला ज़्यादा देर तक मुस्तहकम न रहा। क्योंकि एक रोज़ सुनने में आया कि उन के दरमियान बड़े ज़ोरों का झगड़ा हुआ। नौबत यहां तक पहुंची के दोनों ने सोनूरल काफ़ी मिक़दार में खाली। कमरे में फ़र्श पर क़मर साहब बेहोश पड़े थे और उन की अहलिया मुहतरमा पलंग पर लाश की मानिंद लेटी थीं। फ़ौरन दोनों को हस्पताल दाख़िल कराया गया। जहां से वो ठीक ठाक होकर वापस आगए मगर अभी पंद्रह रोज़ बमुश्किल गुज़रे होंगे कि फिर दोनों ने सोनूरल से शगल फ़र्मा लिया। मालूम नहीं वो हस्पताल पहुंचाए गए या घर में उन का ईलाज हुआ बहरहाल बच गए। इस के बाद ग़ालिबन एक बरस तक उन के यहां ऐसा कोई हादिसा पेश न आया। लेकिन एक रोज़ अलस्सुबह मुझे पता चला कि बुशरा ने सोनूरल की बत्तीस टिकियां खाली हैं।
क़मर साहब सख़्त परेशान और लर्ज़ां थे।। उन के हवासबाख़्ता थे। मैंने फ़ौरन हस्पताल टेलीफ़ोन किया और एम्बुलेंस गाड़ी मंगवाई, बुशरा को वहां पहुंचाया गया। हाऊस सर्जन अपने क्वार्टर में थे मैंने उन को वहां से निकाला और सारा माजरा सुना कर जल्दी हस्पताल चलने के लिए कहा। उन पर मेरी उजलत तलब दरख़्वास्त का कोई असर न हुआ। बड़े बेरहम अंदाज़ में कहने लगे। “मंटो साहब मरने दीजिए उस को। आप क्यों घबरा रहे हैं।”
उन को मालूम था कि बुशरा इस से पेशतर दो मर्तबा ज़हर ख़ोरी के सिलसिले में हस्पताल आचुकी है। मैंने उन से बुशरा के बारे में कुछ न पूछा और थोड़ी देर बाद वापस घर चला आया।
मैं ये नहीं कहता कि मुझे बुशरा का हदूद-ए-अर्बा मालूम नहीं था और उस की ज़िंदगी के साबिक़ा हालात मेरे इल्म से बाहर थे। मेरी उस की मुतअद्दिद मर्तबा मुलाक़ात भी होचुकी थी। वो मुझे भाई सआदत कहती थी। उस के साथ कई दफ़ा पीने पिलाने का इत्तिफ़ाक़ भी होचुका था।
उस की एक लड़की परवेज़ थी। उस की तस्वीर मैंने पहली मर्तबा उस रोज़ देखी जब वो क़मर साहब के घर में बहैसियत बीवी आई। नीचे दो कमरों में सामान वग़ैरा सजाया जा रहा था। मैंने देखा एक क़बूलसूरत जवान लड़की का फ़ोटो मामूली से फ्रे़म में मैंटल पीस पर पड़ा है।
जब बीअर का दौर चला तो मैंने बुशरा से पूछा कि ये फ़ोटो किस का है। उस ने मुझे बताया कि उस की लड़की परवेज़ का है। जिस ने ख़ुदकुशी करली थी। मैंने जब उस की वजह दरयाफ़्त की तो मुझे क़मर साहब और बुशरा से जो बातें मालूम हुईं, उन को अगर कहानी के अंदाज़ में बयान किया जाये तो कुछ इस क़िस्म की होंगी।
परवेज़ बुशरा की पहलोठी की लड़की थी जो उस के पहले ख़ाविंद से पैदा हुई। वो भी काफ़ी दौलतमंद ज़मींदार था। वो मर गया।
मुझे दूसरे ज़राए से मालूम हुआ कि बुशरा का ये पहला ख़ाविंद जिस का नाम अल्लाह बख़्श था उस से शादी के चंद बरसों बाद ही सख़्त मुतनफ़्फ़िर होगया था। इस लिए उस की ज़िंदगी ही में बुशरा ने किसी और शख़्स से आँख लड़ाना शुरू करदी थी। नतीजा ये हुआ कि बुशरा को अपने ख़ाविंद की नफ़रत और हक़ारत से बचने के लिए अलाहिदगी इख़्तियार करना पड़ी। मरते वक़्त अल्लाह बख़्श ने बुशरा को एक कोड़ी न दी। लेकिन अपनी बच्ची परवेज़ के लिए कुछ जायदाद अलग करदी।
बुशरा ने दूसरी शादी करली। चूँकि तालीम याफ़्ता और रोशन ख़याल थी इस लिए पिशावर का एक कामयाब बैरिस्टर उस के दाम में गिरफ़्तार होगया। उस से इस के यहां दो लड़के पैदा हुए। मगर इस दूसरे शौहर के साथ भी वो ज़्यादा देर तक जम के न रह सकी। चुनांचे उस से तलाक़ हासिल करली। दरअसल वो आज़ाद ज़िंदगी बसर करना चाहती थी।
ये बैरिस्टर अभी तक ज़िंदा है। दोनों लड़के जो अब जवान हैं उस के पास हैं। ये अपनी माँ से नहीं मिलते। इस लिए कि इस का किरदार उन्हें पसंद नहीं।
ये तो है बुशरा की ज़िंदगी का मुख़्तसर ख़ाका। उस की बेटी परवेज़ की कहानी ज़रा तवील है इस का बचपन ज़्यादा तर देहात की खुली फ़िज़ाओं में गुज़रा। बड़ी नरम-ओ-नाज़ुक बच्ची थी। सारा दिन सरसब्ज़ खेतों में खेलती थी। इस का हमजोली कोई न था। मज़ारों के बच्चों से मेल जोल उस के वालिदैन को पसंद नहीं था। जब वो कुछ बड़ी हुई तो उसे लाहौर के एक ऐसे स्कूल के बोर्डिंग हाऊस में दाख़िल करा दिया गया जहां बड़े बड़े अमीरों के बच्चे पढ़ते थे।
ज़हीन थी। तबईत में जौहर था। जब स्कूल से निकल कर कॉलिज में दाख़िल हुई तो वो एक ख़ूबसूरत दोशीज़ा में तबदील हो चुकी थी। जिस का मुज़्तरिब दिल-ओ-दिमाग़ हर वक़्त आईडीयल की तलाश में रहता था। बहुत सुरेली थी। जब गाती तो सुनने वाले उस की आवाज़ से मस्हूर हो जाते। रक़्स भी उस ने सीखा था। नाचती तो देखने वाले मबहूत होजाते। उस के आज़ा में बला की लोच थी। लोगों का कहना है कि जब वो नाचती तो उस के आज़ा की ख़फ़ीफ़ से ख़फ़ीफ़ हरकत भी देखने वालों से हम-कलाम होती थी।
बहुत भोली भाली थी। उस में वही सादगी और सादा लोही थी जो गांव के अक्सर बाशिंदों में होती है। अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ी थी। कॉलिज में तालीम हासिल की थी। उस की सहेलियों में बड़ी तेज़, शरीर और काईयां लड़कियां मौजूद थीं। मगर वो इन सब से अलग थी। वो बादलों से भी ऊपर उस फ़िज़ा में रहती थी जो बड़ी लतीफ़ होती है। उस को धन दौलत की कोई परवाह नहीं थी। वो एक ऐसे नौजवान के ख़्वाब देखती थी जिस को माबूद बना कर उस की सारी ज़िंदगी इबादत में गुज़र जाये। इशक़-ओ-मुहब्बत की जाएनमाज़ पर वो मुजस्सम सजदा थी।
उस की माँ उसे ऐबट-आबाद ले गई तो वहां मर्दों और औरतों से मिली जुली महफ़िल मुनअक़िद हुई। परवेज़ को मजबूर किया गया कि वो अपना रक़्स दिखाए। उस ने हाज़िरीन पर निगाह दौड़ाई। एक ख़ुशपोश पठान नौजवान दूर कोने में खड़ा था। उस की आँखों में चमक और चेहरे पर दमक थी। एक लम्हे के लिए परवेज़ की नज़रें उस पर रुक गईं। नौजवान ने आँखों ही आँखों में उसे कुछ कहा और परवेज़ जो इनकार करने वाली थी सब कुछ भूल कर बड़े दिलफ़रेब अंदाज़ में रक़्स करने लगी।
इस दौरान में उस ने अपने लचकीले और गुदाज़ जिस्म के भाव और हर रंग से अपनी रूह के अंदर छिपी हुई ख़्वाहिशों को एक एक कर के बाहर निकाला और उस पठान नौजवान की मुहतरम और मस्हूर आँखों के सामने तरतीबवार सजा दिया।
इस नौजवान का नाम यूसुफ़ ग़लज़ई था। अच्छे दौलतमंद क़बीले का होनहार फ़र्द। फ़ारिगुत्तहसील होकर अब बढ़ चढ़ के मुल्की सियासत में हिस्सा ले रहा था। औरत उस के लिए अजूबा नहीं थी। लेकिन परवेज़ ने उसे मोह लिया। नतीजा ये हुआ कि दोनों की शादी बड़े धूम धड़क्के से हुई और वो मियां बीवी बन कर अबेट-आबाद में रहने लगे। परवेज़ बहुत ख़ुश थी। इस क़दर ख़ुश कि उस का जी चाहता था हर वक़्त रक़्सां रहे। हर वक़्त उस के होंटों से सुहाने और समाअत नवाज़ गीत चश्मों की तरह फूटते रहें।
वो यूसुफ़ था। तो परवेज़ उस की ज़ुलेख़ा थी। उस की इबादत में दिन रात मसरूफ़ रहती थी। उस ने अपनी तरफ़ से उस के क़दमों में तमाम नसाइयत का जौहर निकाल कर डाल दिया था। इस से ज़्यादा कोई औरत क्या कर सकती है।
शुरू शुरू में वो बहुत ख़ुश रही, इतनी ख़ुश और मसरूर कि उसे ये महसूस तक न हुआ कि उसे अज़दवाजी ज़िंदगी बसर करते हुए पूरे तीन बरस गुज़र चुके हैं। उस के एक बच्ची हुई मगर वो अपने यूसुफ़ की मुहब्बत में इस क़दर मुसतग़रक़ थी कि कभी कभी उस के वजूद से बिलकुल ग़ाफ़िल होजाती थी।
अजीब बात है कि जब ये लड़की पैदा हुई तो उस ने ये महसूस किया कि उस के पेट से बच्ची के बजाय यूसुफ़ निकला है। उस की मुहब्बत को जन्म दिया है। इस से आप परवेज़ की वालहाना मुहब्बत का अंदाज़ा लगा सकते हैं। लेकिन उस के माबूद के क़दम साबित न रहे। वो तबअन ऐश-परस्त था। वो मिस्री की मक्खी की तरह नहीं बल्कि शहद की मक्खी की तरह बाग़ की हर कली का रस चूसना चाहता था। चुनांचे करवट बदल कर और परवेज़ की मुहब्बत की ज़ंजीरें तोड़ने के बाद वो फिर अपने पहले अश्ग़ाल में मसरूफ़ होगया।
उस के पास दौलत थी, जवानी थी, पुर-कशिश शख़्सियत का मालिक था। मुल्की सियास्यात में सरगर्म हिस्सा लेने के बाइस उस का नाम दिन ब-दिन रोशन हो रहा था। उस को परवेज़ की वालहाना मुहब्बत यकसर जिहालत पर मबनी दिखाई दी। वो उस से उक्ता गया। हर वक़्त की चूमा चाटी, मिनट मिनट की भींचा भांची उस को सख़्त खलने लगी। वो नहीं चाहता था कि परवेज़ उसे मकड़ी की मानिंद अपनी मुहब्बत के जाले में बंद कर दे जहां वो मरन्डा हो जाये। इस के बाद उसे सफ़ूफ़ में तबदील करके निसवार के तौर पर इस्तिमाल करना शुरू करदे।
परवेज़ को जब मालूम हुआ कि यूसुफ़ सालिम का सालिम उस का नहीं तो उसे सख़्त सदमा हुआ। कई दिनों तक वो इस के बाइस गुमसुम और निढाल रही। उस को यूं महसूस हुआ कि उस के आईडीयल को हथौड़ों की ज़ालिम ज़रबों ने चकनाचूर कर के ढेर कर दिया है।
उस ने यूसुफ़ से कुछ न कहा। उस की बे-एतिनाइयों और बे-वफ़ाइयों का कोई ज़िक्र न किया। वो कोई हतमी फ़ैसला करना चाहती थी। तवील अर्से तक तन्हाइयों में रह कर उस ने हालात पर ग़ौर किया। यूसुफ़ से छुटकारा हासिल करना कोई मुश्किल काम नहीं था। लेकिन वो उस की जुदाई बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। उस को माबूद का रुतबा अता करने वाली वो ख़ुद थी। ख़ुदा को उस का बंदा कैसे रद्द कर सकता है। जब कि वो एक बार सिदक़-ए-दिल से उस की ख़ुदाई तस्लीम करचुका हो, उस के हुज़ूर हर वक़्त सजदा रेज़ रहा हो।
उस ने फ़ैसला कर लिया कि वो यूसुफ़ के लिए नहीं सिर्फ़ अपने इस जज़्बे की ख़ातिर, जिस ने यूसुफ़ को ख़ुदाई का रुतबा बख्शा था, हमेशा हमेशा के लिए उस के साथ रहेगी। वो इस के लिए बड़ी से बड़ी क़ीमत देने के लिए भी तैय्यार थी।
कहा जाता है कि इस बेचारी ने यूसुफ़ की आग़ोश के लिए हर उस औरत के लिए आसानियां पैदा कीं जो उस में थोड़ी देर के लिए हरारत महसूस करना चाहती थी। ये बड़ी बेग़ैरती थी। मगर उस ने अपने टूटे फूटे आईडीयल को मुकम्मल शिकस्त-ओ-रेख़्त से बचाने की ख़ातिर फ़रार का ये अजीब-ओ-ग़रीब रास्ता इख़्तियार किया और हर क़िस्म की बे-ग़ैरती बर्दाश्त की।
वो उस की चंद रोज़ा महबूबाओं से बड़े प्यार-ओ-मुहब्बत से पेश आती। उन की ख़ातिर-तवाज़ो करती। उन की इस्मत बाख़्ता तलव्वुन मिज़ाजियों को सर आँखों पर रखती और उन को और अपने ख़ाविंद को ऐसे मौक़ा बहम पहुंचाती कि उस की मौजूदगी उन के ऐश-ओ-इशरत में मुख़िल न हो पाती।
उन औरतों के लिए अपने सीने पर पत्थर रख कर वो क़िस्म क़िस्म के खाने तैय्यार करती, उस का ख़ाविंद इन वाहियात औरतों को ख़ुश रखने के लिए जब इसे हुक्म देता कि नाचे और गाय तो वो ज़ब्त से काम लेकर किसी भी लम्हे बरस पड़ने वाली मस्नूई आँखें ख़ुश दिखाती। ज़ख़्मी दिल पर भाहे लगाती। ग़म-ओ-ग़ुस्से से काँपते हुए होंटों पर मस्नूई मुस्कुराहटें पैदा करती, मुसर्रत-ओ-इंबिसात से भरे हुए गीत गाती और बड़े तर्बनाक अंदाज़ में रक़्स करती। इस के बाद वो तन्हाई में इस क़दर रोती, इस क़दर आहें भर्ती कि उसे महसूस होता कि वो अब नहीं जीएगी। मगर ऐसे तूफ़ान के बाद उस में एक नई क़ुव्वत-ए-बर्दाश्त पैदा होजाती थी और वो यूसुफ़ की दलाली में अपना मुँह काला करना शुरू कर देती थी और ख़ुद को यक़ीन दिलाने की कोशिश करती थी कि ये कालिक नहीं बड़ा ही ख़ुश-रंग ग़ाज़ा है।
इस दौरान में उस की माँ उस से मिलने के लिए कई मर्तबा आचुकी थी। मगर उस ने अपने ख़ाविंद के मुतअल्लिक़ उस से कभी शिकायत नहीं की थी। वो अपने राज़ या दुख में किसी को शरीक नहीं करना चाहती थी। इन हालात में वो अपने ख़ाविंद की ज़ात के साथ किसी और को किसी तरीक़े से भी वाबस्ता देखना पसंद नहीं करती थी। वो ये सोचती कि ख़ाविंद मेरा है। वो दुख भी मेरा है। जो वो मुझे पहुंचा रहा है वो अगर दूसरी औरतों को भी इसी क़िस्म का दुख पहुंचाए तो मुझे हसद होगा। लेकिन वो ऐसा नहीं करता। इस लिए मैं ख़ुश हूँ।
बुशरा इन दिनों फ़ारिग़ थी। यानी उस ने कोई अपना शौहर नहीं क्या हुआ था। उस का वक़्त सैरो तफ़रीह में गुज़र रहा था। दस पंद्रह दिन ऐबट-आबाद परवेज़ के साथ रहती। यूसुफ़ के साथ इधर उधर घूमती फिरती। दोनों एक दूसरे को पसंद करते थे। वो घंटों अलाहिदा कमरे में बैठे ताश खेलने में गुज़ारते और परवेज़ उन की ख़ातिर तवाज़ो में मसरूफ़ रहती। वो चाहती थी कि उस की माँ ज़्यादा देर तक उस के पास ठहरे ताकि सोसाइटी की उन औरतों का जो चकले की रन्डियों से भी बदतर हैं, इस घर में दाख़िला बंद रहे। मगर वो एक जगह बहुत अर्से तक टिक कर नहीं रह सकती थी। जब वो चली जाती तो दूसरे तीसरे रोज़ यूसुफ़ भी अपनी पुरानी डगर इख़्तियार कर लेता। परवेज़ दूसरा रूप धार लेती और अपने ख़ाविंद की नित नई सहेलियों के क़दमों के लिए पाअंदाज़ बन जाती।
उस ने इस ज़िंदगी को आहिस्ता आहिस्ता अपना लिया है। अब उसे ज़्यादा कोफ़्त नहीं होती थी। उस ने ख़ुद को समझा बुझा कर राज़ी कर लिया था कि उसे ज़िंदगी के ड्रामे में यही रोल अदा करना था जो वो कर रही थी। चुनांचे इस से उस के दिल-ओ-दिमाग़ से वो कुदूरत जो पहले पहले बहुत अज़ीयतदेह थी, क़रीब क़रीब धुल गई थी, वो ख़ुश रहती और अपनी नन्ही बच्ची की तरफ़ ज़्यादा तवज्जा देने लगी थी।
एक दिन उसे किसी ज़रूरी काम से अचानक लाहौर जाना पड़ा। दो दिन के बाद लौटी तो शाम का वक़्त था। यूसुफ़ का कमरा बंद था। मगर इस में उस के मख़मूर क़हक़हों की आवाज़ सुनाई दे रहे थी। परवेज़ ने दरवाज़े की एक दर्ज़ से झांक कर देखा तो सर-ता-पा लरज़ गई उस का पियाज़ी रंग एक दम काग़ज़ की मानिंद बे-जान सफेदी इख़्तियार कर गया।
ये सारे वाक़ियात मुझे मोतबर ज़राए से मालूम हुए। बुशरा ने मुझे जो कुछ बताया उस से मुख़्तलिफ़ था उस का बयान है कि दिल ही दिल में कड़ कड़ कर वो अपनी जान से बेज़ार होगई थी उस ने यूसुफ़ की ख़ातिर बड़ी से बड़ी ज़िल्लत क़बूल करना गवारा तो कर लिया था, मगर उस की भी एक हद होती है। एक रात उस ने शराब के नशे में बदमसत अपनी किसी चहेती को आग़ोश में लिए परवेज़ से कहा कि नाचे और नंगी नाचे वो उस के किसी हुक्म को नहीं टालती थी। यूसुफ़ उस का ख़ुदा था, चुनांचे इस ने उस के हुक्म की तामील की। आँखों से आँसू रवां थे और इस का उर्यां बंद रक़्सां था। नाच ख़त्म हुआ तो उस ने ख़ामोशी से कपड़े पहने और बाहर निकल कर ज़हर खा लिया और मर गई।
मालूम नहीं हक़ीक़त क्या थी लेकिन जो कुछ मोतबर ज़राए से मालूम हुआ ये है कि जब परवेज़ ने यूसुफ़ के कमरे में झांक कर देखा तो उसी वक़्त फ़ैसला कर लिया कि वो ज़िंदा नहीं रहेगी, चुनांचे उसी वक़्त वो मोटर में सीधी एक कैमिस्ट की दुकान पर गई और उस ने सोनूरल की पूरी डिबिया तलब की। क़ीमत अदा करने लगी तो उसे मालूम हुआ कि अफ़रा-तफ़री के आलम में वो अपना पर्स वहीं घर पर भूल आई है, चुनांचे उस ने कैमिस्ट से कहा कि मैं मिसिज़ यूसुफ़ ग़लज़ई हूँ। पर्स साथ नहीं लाई। बिल भेजवा दीजिएगा। यूसुफ़ साहब अदा करदेंगे।
घर आ के उस ने ख़ादिमा को डिबिया की सारी गोलियां दें और इस से कहा अच्छी तरह पीस के लाओ। ये सफ़ूफ़ उस ने गर्मगर्म दूध में डाला और पी गई।
थोड़ी देर बाद नौकर आया और उस ने परवेज़ से कहा कि आप की वालिदा आई हैं यूसुफ़ साहब आप को बुलाते हैं। परवेज़ की आँखें बिलकुल ख़ुश्क थीं। मगर इन में ग़नूदगी थी। इस लिए कि ज़हर का असर शुरू हो गया था। मुँह धो कर और बाल संवार कर वो अंदर गई। अपनी माँ से बग़लगीर हुई और यूसुफ़ के साथ क़ालीन पर बैठ गई। माँ से बातें करते करते एक दम परवेज़ को चक्कर आया और वो बेहोश होकर एक तरफ़ लुढ़क गई। माँ ने तशवीश का इज़हार क्या, इस लिए कि उस की बच्ची का रंग नीला हो रहा था। मगर यूसुफ़ ने जो नशे में चोर था, किसी क़िस्म के तरद्दुद का इज़हार न किया और बुशरा से कहा “कुछ भी नहीं हुआ इसे, बन रही है।”
फिर इस ने बड़े ज़ोर से परवेज़ का शाना झंझोड़ा और हाकिमाना कहा “उठ। मुझे ये ऐक्टिंग पसंद नहीं।”
बुशरा ने भी उस को आवाज़ें दीं उस को हिलाया जुलाया। आख़िर डाक्टर को बुलाया गया। मगर वो जब आया तो परवेज़ अल्लाह को प्यारी हो चुकी थी।
परवेज़ की ख़ुदकुशी के मुतअल्लिक़ कई क़िस्से मशहूर हैं। लेकिन उस का जो पहलू मुझे मोतबर ज़राए से मुनकशिफ़ हुआ मेरी समझ में आगया था। इस लिए में ख़ामोश रहा और इंतिज़ार करता रहा कि उस की तसदीक़ कब होती है।
क़मर साहब बुशरा को हस्पताल से वापिस लाए तो में उन से मिला। उन के पास अब मोटर नहीं थी। मैंने इस बारे में इस्तिफ़सार किया तो उन्हों ने शायराना बेएतिनाई इख़्तियार करते हुए जवाब दिया “जिस की थी ले गई” मैंने पूछा। “क्या मतलब?” जवाब मिला। “मतलब ये कि मोटर मेरी कब थी। वो तो उन मुहतरमा की थी। मैंने कुछ अर्सा से उस का इस्तिमाल तर्क कर दिया था। अपनी साईकल पर दफ़्तर जाता और उसी पर वापस आता था। जब उन को ज़रूरत होती तो में ड्राईवर के फ़राइज़ अदा करता था।” मैं कुछ कुछ समझ गया “क्या नाचाक़ी हो गई?”
“हाँ कुछ ऐसा ही समझिए। मैंने उन को तलाक़ दे दी है।”
बाद में मुझे जब क़मर साहब से मुफ़स्सिल गुफ़्तुगू करने का मौक़ा मिला तो उन्हों ने मुझे बताया कि निकाह विकाह कोई नहीं हुआ था। तलाक़ नामा उन्हों ने सिर्फ़ इस लिए लिखा कि लोगों में इस बात की तशहीर न हो कि वो ग़ैर शरई तौर पर उन के साथ क़रीब क़रीब दो बरस रहीं।
मैं ज़्यादा तफ़सील में जाना नहीं चाहता। उन के दरमियान जो फ़ैसलाकुन लड़ाई झगड़ा हुआ उस की वजह ये थी कि बाक़ौल क़मर साहब, उन की मुहतरमा ने हैदराबाद के एक उधेड़ उम्र के मुहाजिर रईस से जिस्मानी रिश्ता क़ायम कर लिया था इस लिए उन के लिए क़मर साहब की ज़ात में वो कशिश ख़त्म होगई थी जो किसी ज़माने में उन को नज़र आती थी। बल्कि यूं कहिए कि जिस को देख कर उन की आँखें चोंधियक गई थीं।
मुझे अफ़सोस हुआ, इस लिए कि बाद में मुझे पता चला कि क़मर साहब ने अपनी तीनों होनहार बच्चियों को स्कूल से उठा लिया है ख़ुद गोल्ड फ्लेक के बदले बगुले के सस्ते सिगरेट पीते हैं पहले तफ़रीह के इतने सामान मुहय्या थे, पर अब शुतरबे महार की तरह बेमतलब इधर उधर चक्कर लगाते रहते हैं।
मुहतरमा बुशरा के मुतअल्लिक़ उन्हों ने मुझे बहुत कुछ बताया लेकिन मैं ये न समझ सका कि जब अलाहिदगी का फ़ैसला होचुका था और हैदराबाद के मुहाजिर रईस साहब ने बुशरा के साथ बाक़ायदा रातें गुज़ारना शुरू कर रखी थीं तो उन को सोनूरल की बत्तीस गोलियां खा कर ख़ुदकुशी की ज़रूरत क्यों महसूस हुई। बज़ाहिर ख़तरनाक फ़ेअल क़मर साहब के इस एतराज़ का रद्द-ए-अमल मालूम होता है जो उन को बुशरा के चाल चलन पर था। लेकिन ईमान की बात है कि मुझे इस के अक़्ब में ऐसा कोई दिल शिकन उंसर नज़र नहीं आता जो इंसान को मौत की गोद में सौ जाने पर मजबूर कर दे। इस पर क़मर साहब भी कोई रोशनी डालने से माज़ूर हैं।
एक दिन बातों बातों में उन से मैं आख़िर पूछ ही बैठा “सोनूरल खाने की रिवायत जो बुशरा की बेटी परवेज़ ने क़ायम की आप ने और बुशरा ने जारी रखी। लेकिन आप ये बताईए कि वो कौनसी वजह थी जिस ने उस ग़रीब को इतने ख़तरनाक इक़दाम के लिए तैय्यार कर दिया। आप कई बार मुझे बता चुके हैं कि परवेज़ अपने शौहर यूसुफ़ ग़लज़ई की हराम कारीयों की आदी हो चुकी थी। बल्कि वो ख़ुद इस मुआमले में उस की मुआवनत करती थी। कोई औरत जब इस हद तक पहुंच कर दाश्ता बन जाये, ख़राबे की इंतिहा को पहुंच कर ज़मीर की निहायत ही ख़ौफ़नाक सूरत इख़्तियार करे, ख़ुदकुशी को वो ज़बूँ तरीन फ़ेअल समझे, उस को कभी इस का ख़याल तक नहीं आसकता।”
मेरा अपना ख़याल है, बल्कि यक़ीन है कि उस की माँ बुशरा ने जिसे आप मुहतरमा कहते हैं यूसुफ़ से ऐसे तअल्लुक़ात पैदा कर लिए थे जिन्हें आम लोग नाजायज़ कहते हैं।
क़मर साहब ने सिर्फ़ इन अल्फ़ाज़ में मेरी तसदीक़ की ये बिलकुल दुरुस्त है। एक दिन शराब के नशे में बुशरा ने इस का इक़रार किया था और बहुत रोई थी।
उस दिन शाम को मालूम हुआ कि हैदराबाद के मुहाजिर रईस साहब ने सोनूरल की चौबीस गोलियां खा ली हैं। बुशरा ने हस्ब-ए-मामूल बत्तीस खाई थीं। दोनों हस्पताल में बेहोश पड़े थे। दूसरे रोज़ रईस साहब अल्लाह को प्यारे होगए। चौबीस ही में उन का काम तमाम होगया मगर बुशरा बच गई।
आजकल वो मरहूम का सोग मना रही है। जिस शख़्स के पास उस ने मोटर बेची थी वो दिन रात उस के पास दिलजोई के लिए मौजूद रहता है।
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