Domnik ki Vapsi - 6 in Hindi Love Stories by Vivek Mishra books and stories PDF | डॉमनिक की वापसी - 6

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डॉमनिक की वापसी - 6

डॉमनिक की वापसी

(6)

दीपांश के जाते ही हरि नैटियाल ने हमसे सीधा सवाल किया, ‘यह यहाँ कैसे?’

मैंने और अजीत ने लगभग एक साथ ही पूछा ‘आप इसे जानते हैं?’

उन्होंने बड़े विश्वास से हाँ में सिर हिलाते हुए कहा, ‘हाँ, मैं इसे जानता हूँ’

हम दोनो उनको बड़े ध्यान से देख रहे थे। उनका नाटकों से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था पर उनको देखके लग रहा था कि वह दीपांश को अच्छे से जानते हैं। हमें लगा शायद उनके पास उसकी कहानी का वो सिरा है जिसे हम दोनों ही जानना चाहते थे।

आज पहली बार हमारे कमरे पर हरि नौटियाल जो हमारे बीच इकलौते नियमित कामगार आदमी थे और एक प्राइवेट बैंक की, दिन भर की, तन-मन को थका देने वाली नौकरी करके देर से कमरे पर लौटते थे और हमारे किस्सों से हमेशा एक दूरी बनाए रखते थे, एक किस्सागो हो गए थे और हम सब श्रोता...

‘यह देबू है, हरिकिशन डबराल का बेटा। ये खंजड़ी बहुत अच्छी बजाता था, गाता भी खूब था। बाल-दाड़ी, बगैरह बढ़ा के कैसा हो गया ये? बहुत सुंदर था ये। उत्तरांचल की अलग मांग को लेके छिड़ी लड़ाई ने हमारे यहाँ के कई बच्चों का भविष्य खराब कर दिया। आज राज्य तो अलग हो गया पर क्या मिला किसी को, फिर वही ढाक के तीन पात। जो इसमें कूदे सबका भविष्य खराब ही हुआ। यह भी रात दिन अलग प्रान्त की मांग के लिए लोगों का समर्थन जुटाने के लिए गाँव-गाँव गीत गाता फिरता था। कला तो थी लड़के में पर दिशा नहीं थी। मैंने तो कितनों को समझाया ‘राज्य क्या, यहाँ कुछ भी बना लो, कुछ बदलने वाला नहीं, इस देश का कुछ नहीं हो सकता। ऐसे क्रान्तियाँ नहीं हुआ करतीं। सबको रोजगार चाहिए, ... दो वक़्त की रोटी। हर आदमी नौकरी की तलाश में शहरों की ओर भागा जा रहा था। खेत-जंगल खाली हो रहे थे। जो उनके सहारे वहाँ रुक गए थे उनका उतने में गुज़ारा नहीं हो पा रहा था। बस समझ लो कि पहाड़ों पे हर दूसरे घर में चूल्हा बाहर से आने वाले मनी ऑर्डरों से जल रहा था। हम सब शान्ति पसंद लोग हैं, झंझट-झमले से दूर रहने वाले पर इसके बौज्यू, मेरा मतलब है पिता, बिलकुल अलग ही धुन के आदमी थे और ऊपर से इसकी माँ। उन्हें न जाने क्या रट थी कि अपने पति और बेटे को शहर नहीं भेजेंगे। अपने हक़ के लिए लड़ेगें, संघर्ष करेंगे, यहीं अपने लिए और साथी गाँव वालों के लिए सारी सुविधाएं लेकर आएंगे। इसके पिता वो गाना गाते थे, क्या था वो … ‘साथी हाथ बढ़ाना साथी रे।’’ बहुत बुरा हुआ उन लोगों के साथ। कौन हाथ बढ़ाता है…आज के समय में। उसी समय ये देबू, क्या नाम है इसका, हाँ, दीपांश किसी लड़की के प्रेम-व्रेम के चक्कर में भी पड़ गया था। पहले पढ़ने-लिखने की उम्र में आंदोलन, ऊपर से कच्ची उमर का प्रेम।’

वे कुछ देर रुक कर दिमाग़ पर थोड़ा ज़ोर डालते हुए बोले, ‘हिमानी, पूरा नाम था- हिमानी श्रीवस्तव। पहाड़ों की नहीं थी पर वह अपने ताऊजी के पास रहकर कोटद्वार के कॉलेज में पढ़ रही थी। उसके पिता अखिलेश कुमार श्रीवस्तव, उर्फ ए.के. श्रीवास्तव, उर्फ अक्खू। हाँ और…एक नाम था उनका ‘एकेस’ जो उन्हें केवल हिमानी की माँ, बीना जी ही कहती थीं। वह सेन्ट्रल रेल्वे के झाँसी डिवीजन में रेल्वे के डी.आर.एम ऑफिस में हैड क्लर्क, यानी बड़े बाबू थे। जिनका कुछ ही दिनों पहले भोपाल डिवीजन में तबादला हो गया था। पहले कुछ दिनों तक वह इस तबादले से बड़े परेशान रहे पर बाद में वह इसे एक मौके के रूप में देखने लगे थे क्योंकि वहाँ पहुँचते ही उन्हें सेन्ट्रल रेल्वे के भोपाल भर्ती बोर्ड में प्रवेश परीक्षा विभाग में बहुत महत्वपूर्ण सीट मिल गई थी..

वह अक्सर ही सपत्नीक छुट्टियों में हिमानी से मिलने कोटद्वार अपने बड़े भाई के पास आया करते थे। पर अपनी भोपाल पोस्टिंग के बाद जब वह आए तो हिमानी ने उन्हें ताऊजी से कहते सुना था कि पिछले दो सालों में, मेरठ के वाधवा साहब ने इसी सीट पर रहते हुए लाखों पीट लिए थे हालाँकि अब पिछले पाँच महीनों से वाधवा और उनके चार साथी निलम्बित चल रहे थे और उनके ख़िलाफ़ जाँच बैठी थी। वह अपने बड़े भाई यानी हिमानी के ताऊजी को आश्वस्त करते हुए कह रहे थे कि वह इस पोस्टिंग पर बहुत प्रैक्टीकल तरीके से काम करेंगे। उन्हें उस जगह के पोटेन्सियल के बारे में पता चल गया है और अब वह अपना सही टेलेन्ट वहाँ दिखाएंगे जिसका कि भरपूर अवसर उन्हें उनके अनुसार अभी तक नहीं मिला था। हालाँकि अभी तक वह आर्थिक उदारीकरण की हवा में शेयर, डिवेन्चर्स, म्युचुअल फंड आदि को मैनेज करने में अपना हुनर दिखाते रहे थे पर यह सब करके भी वह अपने से बहुत ज्यादा संतुष्ट नहीं थे।

वह बार-बार यह भी कह रहे थे कि बस यहाँ दो ढाई साल रह गए तो हिमानी की शादी भी आसानी से निपट जाएगी। यहाँ पर कई अच्छे पढ़े-लिखे लड़के नौकरी के लिए उनके विभाग के चक्कर लगाते रहते हैं। हिमानी की माँ, बीना जी भी उसके पिता की बातों को खासे उत्साह से सुनकर सहमति में सिर हिला रही थीं। वह अन्त में वही बात दोहराने लगे थे जो अकसर ही हिमानी और उसकी माँ से कहते थे, ‘जानते हैं लोग जिस विषय को सबसे ज्यादा उपेक्षा से देखते हैं, नीरस समझते हैं, वही विषय जीवन को समझने के लिए, उसे क़ायदे से जीने के लिए सबसे जरूरी है और वह है, अर्थशास्त्र- इकॉनॉमिक्स’। यह बात वह अपने जीवन में बहुत पहले समझ गए थे। इसीलिए उन्होंने कॉमर्स वर्ग से इन्टर पास करने के बाद सीधे इकॉनॉमिक्स आनर्स में एडमीशन ले लिया था। वह तो और भी बहुत आगे जाते और उन्हें रेल्वे की इस मामूली नौकरी में न बंधना पड़ता, अगर बी.ए. के आखिरी साल में उनका और हिमानी की माँ, बीना जी का प्यार परवान न चढ़ा होता। इसी वजह से वह एम.ए. में एडमिशन नहीं ले सके थे। इसके लिए वह मन ही मन अपने बड़े भाई को भी दोषी मानते थे, जिनके कहने पर पिता जी ने उन्हें मनीऑर्डर भेजना बंद कर दिया था पर अब वह इन सब बातों को सोचकर निराश नहीं होते थे। उनके भीतर का अर्थशास्त्री अपनी पत्नी के नाम से ली गई कई बीमा एवं निवेश की एजेन्सियों के माध्यम से कमीशन के धन्धों में सक्रिय था। वह अकसर कहते कि वह तो बस दिखाने के लिए रेल्वे की यह बाबूगिरी किए जा रहे हैं, इसमें उनके लिए कुछ नहीं रक्खा पर आखिरकार अब इस नौकरी में भी उन्हें कमाने का सही अवसर मिल गया था।

इसके बाद हिमानी के ताऊजी और पिता के बीच हिमानी को लेकर भी कुछ ऐसी बातें हुई थीं जो हिमानी को नहीं बताई गई थीं पर हिमानी ने उन बातों को घर की हवा में सूंघ लिया था। उसके परिवार में उसे बिना कुछ बताए उसके विवाह की योजना बननी शुरू हो गई थी।

‘पर आप यह सब कैसे जानते हैं?’ अजीत ने हरिकिशन नौटियाल को बीच में ही रोक के पूछा था।

‘क्योंकि मैं भी उन दिनो बेरोजगार था, उम्र बढ़ती जा रही थी, शहर गए भाइयों ने पैसे भेजने बंद कर दिए थे। सामने बूढ़े माँ-बाप थे और उजड़े हुए खेत। वे चाहते थे मैं पहाड़ों पर ही रहकर खेती करूँ। खेती न मेरे बस की थी और न ही उसमें मेरा गुजारा हो सकता था। एक अदद नौकरी की मुझे सख्त जरूरत थी और उसके मिलने की कोई संभावना कहीं से नहीं दिख रही थी। उन्हीं दिनों किसी ने मुझे बताया कि ए.के. श्रीवास्तव, हिमानी के पिता मुझे रेल्वे में नौकरी दिला सकते हैं। उन दिनों भोपाल भर्ती बोर्ड में पैसे देकर नौकरी पाने के किस्से मध्य प्रदेश ही नहीं अन्य राज्यों के बेरोजगारों में भी आम थे। लोग बिना किसी योग्यता के धड़ाधड़ नौकरियाँ पा रहे थे। मैं भी उनसे मिलकर कतार में जा लगा पर जितनी रकम की मांग उन्होंने की थी उतनी रकम का इन्तज़ाम तो किसी बेरोगार के लिए असंभव ही था। ख़ैर मेरी किस्मत अच्छी थी, मेरा काम कहीं और बन गया। आंदोलन-वांदोलन के झमेलों से मैं पहले ही दूर था। नहीं तो जीवन ख़राब ही होना था।’ उन्होंने पूरी समस्या और समय से ख़ुद को अलग करके, अपने को थोड़ा ऊपर उठाते हुए कहा।

सिबाय हरि नौटियाल के वहाँ उपस्थित सभी लोग एक बात मेहसूस कर रहे थे कि कई बार इंसान कितनी चालाकी से अपने स्वार्थ और कांईएपन से हासिल की गई चीज़ों के आधार पर ख़ुद को विजेता साबित कर देता है।

वह रॉ में बोले जा रहे थे, ‘बस उन्हीं दिनों मेरा हिमानी के ताऊ जी के पास जाना होता था। मुझे आज भी याद है- कैसा कोहराम मचा था हिमानी के घर में जब उसके पिता को पता चला कि वह देबू मतलब तुम्हारे इस दीपांश से मिलती है। और कुछ प्यार-व्यार जैसा कोई चक्कर है।

कोटद्वार से थोड़ी दूर नदी के पास एक चर्च है। उसी से आगे ढलान उतरने पर एक मन्दिर है। ये दोनो अक्सर इन्हीं दो जगहों पर मिलते थे। उन दिनों हिमानी के ताऊजी नौकरी दिलवाने का लालच देकर कई नौजवानों से, कई तरह की बेगारी कराते थे। उसी समय उन्होंने मुझे दीपांश के बारे में पता करने का काम भी सौंपा था। एक दिन उसके कुछ एक दोस्तों से बात करके जो कुछ भी पता चल सका था, वह बताने मैं हिमानी के ताऊजी के पास गया था। पर उस दिन उनके घर का सीन बदला हुआ था’……अब हम हरि नॉटियाल की आँखों से हिमानी के ताऊ जी के चार कमरों, एक बड़े बरामदे और उसके सामने एक बड़े लॉन वाले घर के ड्राइंग रुम कहे जाने वाले कमरे में झाँक रहे थे…

वहाँ गोरे चिट्टे, क्लीन शेव्ड, तौंद तक चढ़ा के जीन्स और जबरन ख़ुद को ठांस कर छोटी टीशर्ट पहनकर, सदा रस ले-लेकर बिहारी के दोहों का भावार्थ बताने वाले ताऊजी, किसी ख़ाप पंचायत के लम्बी रौबीली मूंछों वाले ताऊ में बदल गए थे और उनके सामने खड़े ए.के. श्रीवास्तव जो एक ऐसे पिता थे जिन्होंने बचपन से लेकर अब तक अपनी बेटी की सारी इच्छाएं पूरी की थीं और इसी कारण हिमानी में शुरू से ही अपने साथ पढ़ती लड़कियों से अलग एक आत्मविश्वास था। पर उससे यह समझने में चूक हो गई थी कि उसके भीतर कुछेक चुनिंदा छोटी-छोटी इच्छाएं बड़ी सफ़ाई से रोपी गई थीं और जिस आत्मविश्वास को वह अपना समझ रही थी, वह आरोपित था। दरसल आज उसे आभास हो रहा था कि उसकी शादी उसके पिता के लिए एक सोच-समझ के किया जाने वाला सौदा थी जिसमें उसकी इच्छा कहीं शामिल नहीं थी। इसीलिए सदा चटखारे लेकर अपनी प्रेम कहानी सुनाने वाले पिता आज एक व्यापारी की तरह बतिया रहे थे।

वे कह रहे थे कि जात, पात, धर्म ये सब वह नहीं मानते पर शिक्षा और स्टेटस की ऊँच-नीच तो देखनी ही पड़ती है। वे कई तरह के तर्क देकर गैर बराबरी वालों से संबध जोड़ने के फायदे-नुकशान बता रहे थे। उन्होंने हिमानी के आगे कल्पना और यथार्थ, भावना और तर्क की बैलेन्स सीट तैयार करके रख दी थी। उसके प्रेम को भावुकता में की जा रही नासमझी सिद्ध कर दिया था जिसके लिए वह जीवन भर पछताने वाली थी। उनके लिए सच्चा प्रेम और उससे मिला सुख कोरी कल्पना ही थी जो जवानी के दिनों में सभी कभी न कभी कर ही बैठते हैं। वह जोश में यह भी कह गए थे कि यदि अपने जवानी के दिनों में उन्होंने प्रेम जैसी भूल और फिर उसमें पड़कर शादी की जल्दबाजी न की होती तो वे आज पता नहीं कहाँ होते। उनकी यह बात उनकी पत्नी जो उन्हें प्यार से एकेस कहती थीं, को बहुत नगवार लगी थी और उनकी कई साल पुरानी मिस्टर ए.के. श्रीवास्तव के लव से लेकर लवमेरिज तक पहुँचने वाली रुमानी कहानी जिसे वह हुलस-हुलस कर अपनी सहेलियों को सुनाती रही थीं, अचानक ही उनके भीतर रेशा-रेशा बिखर गई थी। वह कहानी जिस पर उनका वज़ूद और उनकी सहेलियों के हिसाब से उनके चेहरे का ग्लो दोनो ही टिके हुए थे झूठी साबित हो गई थी। उनके ‘माईडियर एकेस’ के एक वाक्य से उनका वह भ्रम भी टूट गया था कि उनके पति बहुत प्रेक्टीकल होते हुए भी उनके बारे में बहुत रोमांटिक हैं, बहुत सेन्टीमेन्टल हैं। इसी भ्रम के चलते ही तो वह उनकी सारी कारगुज़ारियाँ सहती थीं। यह सुनने के तुरन्त बाद ही वह तेज़ी से जवान होती लड़कियों की सहेली नहीं बल्कि बुढ़ापे की दहलीज़ पर पैर रख चुकी एक प्रोड़ महिला और दो बेटियों की माँ लगने लगी थीं। पर चूँकि यहाँ मामला बेटी के भविष्य का था और उसका भला-बुरा केवल श्रीवास्तव जी और उनके बड़े भाई ही अच्छे से समझते थे। इसलिए वह चुप ही रहीं। पर अपने प्रेम विवाह को श्रीवस्तव जी एक गलती मानते हैं इस बात ने उन्हें अचानक ही कमजोर कर दिया था और यह जानने के बाद वह किसी बहाने से धीरे से भीतर चली गई थीं।

हिमानी के चेहरे से ‘आत्मविश्वास की पर्त’ और ‘पिता के उसके मन की हर बात समझने की गलत फ़हमी से पैदा होने वाला इत्मीनान’ दोनो गायब हो गए थे।

अब वह डरी, सहमी, संशय ग्रस्त स्त्री थी।

उसने सहारे के लिए एक दूसरी स्त्री, अपनी माँ की तरफ़ देखना चाहा पर वह वहाँ नहीं थीं। माँ थोड़ी देर पहले जिस विश्वास के सहारे वहाँ खड़ी थी अब वहाँ अचानक उतार लिए गए विश्वास का केंचुल भर पड़ा था। इसके अलावा घर में जो अन्य स्त्रियाँ थीं, उनमें एक उसकी छोटी बहिन जो भोपाल में पिताजी और माँ के साथ ही रहती थी और इस खास मौके पर उनके साथ यहाँ आई थी और दूसरी उसकी ताईजी ही थीं। उन दोनो के पास आधुनिक परिधानों से सजे चेहरे और महंगे और ट्रेण्डी कहे जाने वाले वस्त्रों और आभूषणों से लदे शरीर तो थे पर अपनी कोई आवाज़ नहीं थी। उनके मुँह से पिता और ताऊ की कही बातें ही लिंग बदल कर प्रतिध्वनित होती थीं। वैसे वे कभी इस बारे में ज्यादा सोचती भी नहीं थीं। वे जैसी भी थीं अपने आप को अपने आस-पास की महिलाओं से अलग और बेहतर समझती थीं। उनकी इस निर्द्वन्द्वता की समय-समय पर हिमानी के पिता और ताऊ तारीफ़ भी करते थे। इसलिए उन दोनो का भी इस मामले में वही मत था जो पिता और ताऊ का था। इसलिए हिमानी उस घर में मदद के लिए या तो अपने भीतर झाँक सकती थी या दूसरे विकल्प के रूप में अपने पिता की ओर देखकर याचना में हाथ जोड़ सकती थी।

उसने पहले पिता की ओर देखा।

पिता का चेहरा किसी वैधानिक चेतावनी-सा सपाट और सख़्त था। उस पर लिखा था कि प्रेम एक प्रकार की आत्महत्या है। बिना कुछ कहे-सुने ही उसे पता चल गया था कि उसे इस जीवन में प्यार करने की अनुमति नहीं है। उसकी पसंद-नापसंद सब पिताजी की मर्ज़ी से तय होगी और वह जानती थी कि पिताजी की मर्ज़ी का काँटा नफ़ा-नुकशान तोलकर ही हिलेगा।

उसने सहम कर अपनी आँखें पिता के चेहरे से हटाकर सामने लगे आदमक़द शीशे पर लगा दीं। उसने पहली बार देखा उसके मनकूप में गहरे बैठा पिता का डर उसकी आँखों के पानी में काँपने लगा था। वह ठीक-ठीक अपने आपको ही शीशे में देखकर पहचान नहीं पा रही थी। उसने अपने भीतर उस प्रेम का सिरा बड़ी मुश्किल से ख़ोज कर टटोला जिसके सहारे वह अभी तक अपने पिता और ताऊ के सामने खड़ी थी। उस भयाक्रान्त अवस्था में भी उसे ढपली की थाप पर दीपांश की आवाज़ में एक लोकगीत सुनाई दिया। वह ऐसे बोली जैसे उसके गले से उसी लोकगीत के बोल फूट पड़े हों।

उसने लगभग काँपती आवाज़ में कहा, ‘आप उसे ठीक से जानते नहीं, दीपांश बहुत अच्छा लड़का है.’

‘नाम मत लो उसका मेरे सामने। अच्छा लड़का है! करेगा क्या? खाएगा क्या? कैसे खड़ा होगा मेरे सामने? ढपली लेकर?’

‘वो बहुत अच्छा कलाकार है...’

‘ऐसे कलाकार शहरों में फुटपाथ पर खड़े होकर भीख मांगते हैं, अगर सही में चाहता है तुम्हें तो करे पाँच लाख का इन्तज़ाम, मैं नौकरी दिलाता हूँ, रेल्वे में..’ यह कहते हुए एक रिश्वतखोर कर्मचारी और एक सधे हुए दलाल ने अखिलेश कुमार श्रीवास्तव के भीतर के पिता को पूरी तरह ढक लिया था। उनकी हर बात से अंधेरा झर रहा था।

धीरे-धीरे पूरा दृश्य अंधेरे में डूब गया। ……या शायद हिमानी को ही ऐसा लगा। क्योंकि उसके ठीक बाद हिमानी की आँखें बन्द होती चली गईं..

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