Aao ghar lout chalo in Hindi Motivational Stories by Rajesh Bhatnagar books and stories PDF | आओ घर लौट चलो

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आओ घर लौट चलो

7 - आओ घर लौट चलो

आज अचानक रष्मि की असामयिक मृत्यु का समाचार सुनकर वह हतप्रभ रह गया था । एक बार तो उसे अपने कानों पर विष्वास भी न हुआ था । रष्मि जो उसी के ऑफिस में उसके साथ काम करती थी । अभी कल ही तो उसने उसे जबरन बैठाकर चाय पिलाई थी । वह मन में अनजानी आषंका लिये सोच में डूबी चाय के घूंट भरती रही थी । तब वह उसके चेहरे पर झलकती परेषानियों और उदासी का कारण पूछ बैठा था । वह चाहकर भी कुछ नहीं कह पाई थी । बस होंठ फड़फड़ाकर रह गये थे उसके । फिर वह “थैंक्स” कहकर थके कदमों से जा बैठी थी अपनी सीट पर । उसे भी क्या पता था कि यह उसकी आखिरी मुलाक़ात है ।

ऑफिस के सभी साथी आपस में कानाफूसी कर रहे थे- “ये तो सरासर हत्या है । आखिर एक मर्द को क्या अधिकार है स्त्री के जीवन से यूं खेलने का....?”

“ऐसे आदमी को तो सज़ा होनी चाहिये...।”

“बेचारी कैसी सौम्य, शालीन और सहनषील थी...।” ये आवाज़ मिसेज़ कपूर की थी । किसी महिला के मुंह से उसने ऐसा भी सुना “मैं होती तो सोनोग्राफी के बाद अबॉर्षन कतई नहीं कराती, बल्कि मुझे मज़बूर करने वाले आदमी को ही जेल की हवा खिलाती और स्वयं त्याग देती उसे...। बेचारी रष्मि ने तो बेकार ही अपने आपको उत्सर्ग कर दिया... ।”

वह यह सब सुनकर मानो ज़मीन में गढ़ता चला गया था । रष्मि के दाह संस्कार से लौटने के बाद वह अपने कमरे में आकर उदास-सा लेट गया था । उसकी आंखों में रष्मि की दोनेां बिलखती नन्हीं बच्चियेां का चेहरा छलछला आया था । आत्मा कराह उठी थी उन अनाथ हुई बच्चियों का हृदय विदारक रूदन सुनकर । आज उसे अपनी एक-एक ग़लती का अहसास होने लगा था । माता-पिता, समाज और अपनी खुद की संकीर्ण मानसिकता के कारण क्या उसने भी रष्मि के पति से भी बद्तर अपराध नहीं किया है ...?

रष्मि की मौत ने उसे अन्दर तक झकझोर दिया था । मानो वह प्रायष्चित करने पर मज़बूर हो गया था । एक प्रष्न चिन्ह् लगा दिया था रष्मि की मौत ने उसके सामने....। ष्मषान में उसकी खामोष जलती चिता भी जैसे चीख-चीखकर उसे सबक दे रही थी । जैसे धिक्कार रही थी उसे- “राजन तुम भी मेरे पति से कम नहीं...। तुमने तो अपनी पत्नी को जीते-जी ही मार डाला....तुम्हारे जैसे कठोर पुरूषों की ज़िद का सबब हम औरतों की मौत है......। कब तक जलाते रहोगेे कब तक ढाते रहोगे जु़ल्म.....।”

वह घबरा उठा था । रष्मि की जलती चिता में उसे उसकी पत्नी माला की चीखें सुनाई पड़ने लगीं थीं । वह चिता से दूर आंखों में प्रायष्चित से भर आये आंसुओं का सैलाब लिये नीम के पेड़ के नीचे बनी चबूतरी पर जा बैठा था । उसकी आत्मा ग्लानि में डूबकर रह गई थी । और फिर रष्मि के अंतिम संस्कार के बाद वह डूबे दिल और भारी मन से घर आकर नहा-धोकर अपने कमरे में तकिये में मुंह छिपाकर फूट-फूटकर रो पड़ा था । आज उसे माला की एक-एक अच्छाई याद आने लगी थी ।

वास्तव में माला के घर में पैर रखते ही जैसे प्रकाषमान हो गया था उसका घर और मन । सारे घर में उल्लास और खुषियां लेकर प्रविष्ट हुई थी माला । उसका सामिप्य पाकर जैसे वह निहाल हो गया था । हर दिन होली और रात दीवाली लगने लगे थे । वाकई माला उसकी पत्नी ही नहीं, घर की लक्ष्मी बनकर आई थी जिसने उसकी खटारा गृहस्थी की गाड़ी को अपनी मेहनत से उसकी मंज़िल तक पहुंचा दिया था । अपनी तनख्वाह से एक-एक पैसा जोड़कर, अपने अरमानों का गला घोंटकर उसने अपनी दोनों ननदों के हाथ पीले कर दिये थे । गिरवीं पड़े मकान को छुड़ाने के लिए उसने अपने सारे जे़वर साहूकार की भेंट चढ़ा दिये थे । और ये सब ज़िम्मेदारियां निभाते वह दो लड़कियों की मां बन गई थी । वह तब भी खुष थी, मगर उसकी खुषियांे में जैसे ज़हर उसी दिन से घुलना शुरू हो गया था जब राजन की मां उसके कान भरने लगी थी । वह आये दिन राजन को भाषण झाड़ती “लड़कियों से कोई वंष चलता है जो दो-दो लड़कियां मेरी जान को डाल दीं । वंष तो लड़के से ही चलता है । पुत्र ही पितृ-ऋण से मुक्त कराता है । मुझे तो एक पोता चाहिये ।” और बस इसी बात को लेकर घर में कलह कर बैठता वह ।

माला इस सबके लिये तैयार न थी । उसने हर बार यही कहा था “राजन ज़्यादा परिवार बढ़ाने से क्या लाभ ? क्या ज़्यादा बच्चों की तुम और मैं वो परवरिष कर पायेंगे जो अभी इन दो नन्हीं कलियों की हो सकती है ? फिर इक्कीसवीं सदी में भी तुम पुत्र और पुत्री में भेद रखना चाहिते हो ? देखा नहीं किस तरह ससुरजी ने गृहस्थी की गाड़ी को खींचा । तिल-तिल करकेे खुद भी जले और औलादें भी । आज तुम और मैं न कमाते होते तो क्या दोनों दीदियों का ब्याह इतनी आसानी से हो पाता......? क्या गिरवीं रखा मकान हम छुड़ा पाते....? देखी नहीं गंगाधर की हालत...? किस तरह जोड़-तोड़ से अपने पांच-पांच बच्चे पाल रहा है बेचारा...? न बच्चों को उच्च षिक्षा दे सकता है और न ही अच्छा भोजन । किस तरह हीन भावना भर गई है उसके बच्चों में । और भी न जाने कितने ऐसे लोग होंगे जो बाद में अपने किये पर पछताते हैं । क्या उनकी तरह ही अपना जीवन भी नरक बनाना चाहते हो.....?”

“नरक तो तुमने बना डाला है मेरा जीवन....। दो-दो लड़कियेां का बाप बना डाला मुझे । जब लोगों को देखता हूं तो तुम्हें क्या पता कैसी हीन भावना भर जाती है मुझमेें । हर आदमी यही कहता है, एक लड़का तो होना ही चाहिये । और फिर क्या हम तीन बच्चे भी नहीं पाल सकते ? आखिर दोनों जो कमाते हैं ...।”

“और यदि इस बार भी लड़की ही पैदा हो तो.....?”

“मेडीकल साइंस इतनी तरक्की किसलिए कर गया है ? हम सोनोग्राफी करवा लेंगे ।”

“और यदि सोनोग्राफी में लड़की निकली तो......?”

राजन ने सहजता से कह दिया था “तो......तो क्या ! अबार्षन करवा लेना ।”

माला यह सुनकर बिफर पड़ी थी “आखिर तुमने औरत को समझा क्या है ? क्या औरत का खुद के जीवन पर भी कोई अधिकार नहीं...? कोई खिलौना तो नहीं हूं मैं । मेरे अन्दर भी जान है । तुम्हारे विचारों पर मुझे तरस आता है राजन । नौकरी करूं, बच्चे पालंू, घर का काम करूं...तुम्हारी गांलियां और मां के ताने भी सुनंू और एक लड़के के लिये तुम मुझे बच्चे पैदा करने की मषीन बना देना चाहते हो....? वो भी सिर्फ़ पुत्र प्राप्ति के लिये ? गर्भपात करवाना एक नारी के लिये इतना आसान नहीं होता राजन जितना पुरूष के लिये नारी को प्रताड़ित करना । मुझे तुमसे घृणा हो रही है । मैंने अपना जीवन किस तरह गृहस्थी में खपा डाला है । तुम्हारे कंधे से कंधा मिलाकर हर सुख-दुःख उठाये हैं । अपने सारे अरमानों को जला डाला और तुम्हें मेरी जरा भी परवाह नहीं....? अतिजनसंख्या और मंहगाई के इस दौर में तुम जैसे पढ़े-लिखे और समझदार लोग अपनी संकीर्ण मानसिकता कब छोड़ पायेंगे यह मैं नहीं जानती मगर तुमने आज मेरी आत्मा को बहुत दुखाया है और यह साबित कर दिया है कि मेरा मूल्य, त्याग, बलिदान तुम्हारी नज़रों में कुछ नहीं । मैं इस तरह मेडिकल साइंस का दुरूपयोग नहीं होने दूंगी । इस तरह तो हज़ारों, लाखों स्त्रियों का जीवन एक पुत्र प्राप्ति के लिए मर्द दांव पर लगाते रहेंगे । सोनोग्राफी जैसी जांच स्त्रियों की सुरक्षा, सुविधा के लिए बनी है, न कि तुम्हारे पुत्र प्राप्ति के मंसूबों के लिए....?”

“तो फिर निकल जाओ मेरे घर से । मुझे तुम जैसी घमण्डी और ज़्यादा समझदार औरत की ज़रूरत भी नहीं...।” बड़ी निष्ठुरता से कह दिया था राजन ने और माला को हाथ पकड़ कर धकेल दिया था बाहर की ओर ।

और तब वह चली गई थी अपनी मां के पास....। तब से आज तक माला ने राजन से मिलने की कभी कोषिष नहीं की । करती भी तो कैसे...? प्रत्येक व्यक्ति में आत्म- स्वाभिमान होता है । और उसका तो घोर अपमान कर डाला था राजन ने । आज माला को मां के पास रहते तीन वर्ष बीत चुके हैं । उसके न होने पर ही उसे माला के होने का महत्व पता चला है । उसके आदर्ष, उसकी समझ-बूझ वह आज महसूस कर पाया है ।

उसे लगा जैसे माला दरवाज़े पर खड़ी उससे पूछ रही है, “क्यों उदास हो राजन.....? आओ न, खाना कभी का लगा दिया है ....।” उसने तकिये से मुंह निकाल कर अनायास ही दरवाज़े की ओर ताका, सामने देखा तो वहां मां दरवाज़े पर खड़ी उससे कह रही थी, “बेटा ! यूं अकेला कब तक ज़िंदगी घसीटेगा...? वो तो चली गई तुझे अकेला छोड़, क्या कभी उसने पीछे मुड़कर भी देखा....। उसके लच्छन तो मुझे पहले ही खराब लगते थे । मैं कहती हूं हां कर दे तो तेरी शादी चटपट करवा दूं...।”

वह अनायास ही मां पर झल्लाकर चीख उठा “बस करो मां...। उसके लिये कुछ भी कहा तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा । उसका कोई कसूर नहीं । वो नहीं गई अपने आप । तुम्हारी और मेरी साजिषों और अवहेलनाओं ने उसे मज़बूर किया था जाने को । और आज के बाद मुझसे शादी का नाम भी मत लेना । मेैं तुम्हारी और लोगों की बातों में आकर रास्ते से भटक गया था । आज मुझे ज्ञात हुआ कि माला एक साधारण स्त्री नहीं, साक्षात् लक्ष्मी थी जिसके चले जाने से मेरा जीवन ही सूना हो गया है । मुझे नहीं चाहिये लड़का....। ना जाने मैं तुम्हारी बातों में कैसे आकर उसका दिल दुखाता रहा । मेरी दोनों लड़कियां ही मेरे लिये सब कुछ हैं...। मुझे इस जीवन का सुख चाहिये बस, और कुछ नहीं । और वह सुख सिवाय माला के और कोई नहीं दे सकती । इसलिए मैं जा रहा हूं उसके पास, उसे लेने....। मुझे विष्वास है वह मुझे ज़रूर माफ़ कर देगी और लौट आएगी मेरे साथ...।” कहते हुए आंखों में आंसुओं का सैलाब लिये वह घर से निकल पड़ा ।

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