Banjh in Hindi Classic Stories by Mirza Hafiz Baig books and stories PDF | बाँझ

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बाँझ

बांझ
1.
शाम. . .

खिड़की से बाहर देखते हुए, अपनी आत्मा के दर्द को महसूस करना जैसे उसके जीवन का ढर्रा बन गया था। शाम, रात में बदलने लगी थी। उसने एक गहरी सांस के साथ महसूस किया कि उसकी जिंदगी में भी ऐसा ही कुछ जारी है। कुछ देर में अंधेरा छा जाएगा और वह उसी खिड़की पर खड़ी हुई एक अभिशप्त प्रेत छाया सी नज़र आती होगी। फिर वही रात, लम्बी रात, करवटें और छटपटाहट। गहरी उदासी और ठंडी आहें। अपने ही दिल की धड़कन का संगीत सुनना। किसी करवट चैन नहीं, किसी करवट चैन नहीं..... और उन शब्दों का क्या जो कानो में सीसे की तरह पिघलते रहते हैं। जो सिर पर हथौड़े की तरह बरसते रहते हैं और आपके अस्तित्व को ही कुचलते रहते हैं।nji
शब्द ! ये शब्द भी क्या हथियार हैं? आप एक बार चला दो और फिर मासूम बन जाओ और वे शब्द सारी जिंदगी आपके दुश्मन को लहूलुहान करते रहते हैं। आज बरसो तक वह भी इसी तरह लहूलुहान होती रही; लेकिन कभी कभी पासे भी उल्टे पड़ जाते हैं। आपको घायल करने वाले हथियार ही कभी आपकी ढाल बन जाएं तो . . .
बांझ!
इस शब्द में अब वो बात नही रही; बल्कि रचना के लिए ये शब्द अब अपने मायने ही बदल चुके हैं। ये शब्द; ज़हर बुझे शब्द; हकीकत में शब्द नहीं गालियां थीं। मुसलसल जिन शब्दों से बरसों बरस घायल होती रही; आज वही शब्द उसका हथियार बन गए। लेकिन यह सब कोई खुशी की बात तो नहीं है। इस जीत में जो हार छुपी है, उसका दर्द सारी जिंदगी बर्दाश्त करना है। हां, मुझे ही बर्दाश्त करना है . . . सोचते हुए उसके आंसू निकल आये।
सात साल हुए थे शादी को और साल डेढ़ साल बाद ही ताने शुरू हो गए। सास के छुपे दबे तानो के तीर कब खुल्लमखुल्ला आरोप बन गए समझ ही नही आया। और अब समझ आने का कोई मतलब भी नही रहा। बांझ ! बांझ !! बांझ !!! कैसा लगता है यह आरोप? और इस बात को मां-बाप से छुपाने की वो मशक्कत। जीवन की सारी ऊर्जा इसी में समाप्त हो जाती है। सेहत कब तक टिकती ? और माँ-बाप से कोई बात कब तक छिपी रह सकती है। अपने दर्द को तो बर्दाश्त भी कर लें। इस उम्र में मा-बाप को दर्द देना . . . सारी जिंदगी तो उनकी संघर्ष में गुज़री है; यह समय उनके लिए निश्चिंत होकर जीने का समय था। लेकिन ससुराल की कलह मायके तक पहुंच ही जाती है। माँ-बाप के चेहरे पर उभरती चिंता की लकीरें जैसे अपने अंतर्मन पर उभर आती हैं। रचना अंदर ही अंदर घुट कर रह जाती।
कितनी बार ही पति अभिलाष से रिक्वेस्ट कर ली; चेकअप करवा लें। आज कल कोई इलाज असम्भव नहीं। जल्दी क्या है? कहकर टाल देते रहे। कितना आसान है; जल्दी क्या है कहकर टालना? क्योंकि बांझ शब्द तो मर्दो के लिए बना ही नही है न। अगर यही शब्द तुम्हे सुनना पड़े अभिलाष, तो क्या तब भी तुम्हारा यही रिएक्शन होता?
बाहर रात ने अपने पंख फैला दिए थे। सड़क पर आती जाती गाड़ियां रौशनी की एक लकीर सी खीचती हुई गुज़र जाती है। लेकिन उसके जीवन मे सिर्फ रात का अंधेरा ही है। कब कोई रौशनी की लकीरें मुझे मयस्सर होंगी। वह खिड़की पर एक प्रेत की भांति खड़ी है। कमरे में अंधेरा है। वह जानबूझ कर रौशनी नही करती। क्या फायदा इस झूटी रौशनी का। उसे अब अंधेरे से डर नहीं लगता। पहले वह डरती थी। अंधेरे से बहुत डरती थी। तब वह ममा पापा की लाडली बिटिया थी न। कभी अंधेरे में नही रही, क्योंकि लाडली बिटिया को अंधेरे से डर जो लगता है। ममा पापा ने कभी अंधेरे में नहीं सुलाया और खुद भी रात भर रौशनी में सोए . . . हमारी बिटिया को डर लगता है न?
क्यों, ममा पापा क्यों? क्यों आपने अपनी बिटिया को हमेशा रौशनी में रखा। क्यों उसे अंधेरे का आदी नहीं बनाया? क्या आप मेरी तकदीर लिख सकते थे? नहीं? तो फिर क्यों? क्या आप मेरी तकदीर के अंधेरे दूर कर सकते थे? नहीं न? तो फिर क्यों? क्यों ममा पापा? क्यों?
मां- बाप को क्यों दोष दूँ। दुनिया मे किसी मा-बाप का कलेजा इतना बड़ा नही कि अपनी बेटी के लिए अंधेरा चुने। नहीं यह अंधेरा आपका दिया हुआ नही है, ममा पापा। यह अंधेरा आप का दिया हुआ हरगिज़ नहीं है। आपका बस चलता तो मेरे दहेज में सूरज, चांद सितारे दे देते। यह अंधेरा तो और ही कुछ है; और मुझे इससे लड़ना है। ममा पापा, मुझे लड़ना है। लेकिन जिसे मेरे हर संघर्ष में साथ देना चाहिये. . .
अभिलाष ! मेरे पति देव !! क्या यह अंधेरा तुम्हारा दिया हुआ नहीं है। तुम्हे इलाज करवाने से डर क्यों था? क्या मैं नहीं समझती। तुम्हे डर था, तुम्हारी कमज़ोरी ज़माने के सामने आ जायेगी। और इस डर को छिपाने तुमने क्या क्या करतब नहीं दिखाए? दुनियां मुझे बांझ कहती रही और तुम उनका मुंह बंद करने के बजाए चुप रहे। क्योंकि यह शब्द कभी तुम्हारे लिए नहीं था न? खूब साथ निभाया तुमने अपनी पत्नि का। यही थी तुम्हारी मर्दानगी? यही था तुम्हारा पौरुष?
रचना का रोआं रोआं नफरत से सिहर गया।
सास तो फिर सास होती है। उसे किसी पराई लड़की पर दया क्यों आये? मुहल्ला पड़ोस हर जगह बदनाम कर दिया। बांझ ! बांझ !!
कैसा लगता है जब हर कोई आप को तरह तरह की सलाह दे; तरह तरह के टोटके बताता रहे। कैसा लगता है जब छोटे बड़े, अनपढ़ गंवार तक आपको तरह तरह की नसीहतें दें? आपके आत्मसम्मान की तो धज्जियां उड़ जाती हैं। और यह सब किस लिए? सिर्फ इस लिये कि, आपकी पूज्यनी सासूमाँ आप को बांझ घोषित कर देती है। इसके बाद तो वह दौर भी शुरू हो गया जिसकी चिंता में, ममा पापा रात दिन सूखे जा रहे थे। दूसरी शादी की धमकी।
अभिलाष को समझाने का कोई फायदा नहीं था। वह तो उल्टे रचना को ही धैर्य रखने की सलाह देता। फिर धीरे धीरे अपनी माँ के सुर में सुर मिलाने लगा। और इसी में उसकी खैर भी थी। बीवी की तरफदारी करने से तो खुद के अयोग्य कहलाने का खतरा जो नज़र आता है। जब तक डाक्टर से न मिलें आप कैसे मान सकते हो कि कमी किसमे है? फिर दूसरी लड़की देखना और लड़की के घर वालों की दौलत देखकर फिसलना। मार पीट, घर से निकालने की धमकियों के बीच भी सब कुछ सहकर रहती रही क्यों . . . ?
आखिर मां-बाप पर बोझ नहीं डालना चाहती थी। कौन से माँ-बाप होंगे जो सारी जिंदगी बेटी का बोझ उठाएंगे। बुढापे मे अब अपना बोझ तो उठाना मुश्किल होता है; फिर . . .
लेकिन जब तलाक का केस डाल ही दिया, और मार पीटकर आधी रात को घर से बाहर निकाल दिया; फिर कहाँ जाती। वह बरसाती अंधेरी आधी रात एक अकेली औरत के लिए क्या अनुभव लेकर आती है; तुम्हे इसका अहसास भी है पतिदेव? फिर किस मुंह से चले आये सुलह करने तुम? तुम्हे शर्म क्यों नहीं आई? इसके बावजूद भी कि मैंने वह बात बताई; तुम्हे शर्म नहीं आई.... मैं समझती हूं। खूब समझती हूँ अभिलाष। अब कोर्ट में मुझे बांझ कैसे साबित करोगे? अपनी ही थू थू करवाओगे।
तुम कौन होते हो मुझे अबॉर्शन से रोकने वाले? क्यों दूसरी शादी की इच्छा मर गई? क्यों उसके धन दौलत की आस छूट गई खूब समझती हूँ।
पता नही कितनी देर से वह खिड़की पर यूँ ही खड़ी है। बिल्कुल अंधेरे में। सहसा खटके की आवाज़ से उसके विचारों की लड़ियाँ बिखर सी गई।
"ममा . . . ।" लेकिन आवाज़ गले मे फसकर ही रह गई।
"बेटा, रचना . . . ऐसे अंधेरे में क्यों खड़ी है मेरी बच्ची।" माँ आवाज़ देती है और बटन दबाकर रौशनी कर देती है।
"क्यो बेटे क्यों ऐसे अंधेरे में खड़ी है?"
"बस, यों ही ममा ! अब अंधेरे से डर नही लगता।"
"हां, मेरी बच्ची बड़ी जो हो गई है अब।"
'नही बल्कि अंधेरा अब उसका मुकद्दर बन गया है शायद इस लिए डर नही लगता।' लेकिन वह कहती नहीं। ममा के दिल पर क्या बीतेगी।
"हां, अब अंधेरे उजालों को शायद समझने लगी हूं।" वह माँ से कहती है।
"सयानी हो गई है मेरी बिटिया।" मां ने प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। मां ने पलंग पर बैठते हुए रचना को अपने साथ बैठा लिया और एक टक उसके चेहरे को निहारने लगी।
"ममा" कहकर रचना ने अपना सिर मां की गोद मे रख दिया जैसे सारी मुसीबतों सारी तकलीफों से छुप गई हो। यहाँ शायद उसे कोई ढूंढ नहीं पायेगा। माँ धीरे धीरे उसके सिर में हाथ फेरती है; बड़ी सावधानी से जैसे बेटी को उसके हाथों से चोट न लग जाये।
"बेटा, समझदारी से काम लेना . . .," मां कहती है।
यकायक चौंक उठती है रचना। 'क्या कह रही हो मां' वह कहना चाहती है; लेकिन कहती नहीं। वह चुप है कहीं मां के दिल को ठेस न लगे . . .
"बिटिया, कल वे लोग आ रहे हैं; सुलह के लिए। अपनी गलती मान रहे हैं और अब वह सब नहीं होगा ये वादा कर रहे हैं। चार लोगों को साथ लाएंगे गवाह के बतौर। और क्या चाहिये? अब वे लोग इतना झुक रहे हैं तो बेटा हमे भी समझदारी से काम लेना चाहिए। ऐसा मौका बार बार तो नही आता।"
वह चुप है; कहना तो चाहती है पर कह नही सकती। क्या गुज़रेगी इन पर। ज़बान पर ताला लगा है; क्या करे।
"देख बेटा, मां-बाप कब तक साथ दे सकते हैं? हम भी तो अब तेरे भाई-भाभी के मोहताज हैं। वे अब तक चुप हैं लेकिन वे भी अपनी गृहस्थी पर एक और बोझ नहीं पालना चाहते। उनकी बातों से समझ आता है . . ."
"लेकिन ममा, घर तो आप लोगों का है . . ." वह आश्चर्य से पूछती है।
"लेकिन बेटे गृहस्थी तो उनकी है न। सबको अपनी अपनी गृहस्थी की पड़ी होती है।"
"लेकिन यह ठीक नहीं है ममा !" वह एतराज़ करती है; हालांकि इस एतराज़ में आत्मविश्वास की कमी साफ झलकती है।
"यही होता है बेटा ! हमने भी यही किया। सबके लिए अपनी गृहस्थी ही सबसे ऊपर होती है।"
"और जिसकी गृहस्थी न हो?"
"इसीलिए तो चाहते हैं, तेरी भी गृहस्थी फिर से ठीक हो जाये।"
"लेकिन मां, एक भाई ही आप की संतान नहीं; मैं भी आपकी सन्तान हूँ। इस घर पर मेरा भी तो हक़ है।"
"बेटा, हमने तेरे दहेज दान पर कितना खर्च किया? भाई को तो कुछ नही दिया। उसने कभी मुंह नहीं खोला, लेकिन हमारा भी तो फ़र्ज़ बनता है न? चल हम इस मकान में तुझे हिस्सा देदें; इस एक कमरे से तेरी ज़िन्दगी तो नही चल जाएगी।"
रचना चुप है। ममा सही कहती है। क्या वापस उसी शख्स के साथ गृहस्थी बसा लूं। इतने निर्लज्ज और बेशर्म शख्स के साथ? उसकी हक़ीक़त समझने के बाद क्या मैं रह सकूँगी उसके साथ। अभिलाष काश तुमने अपना असली रूप न दिखाया होता। काश अपनी नामर्दी का अहसास न कराया होता। मेरे लिए सब कुछ कितना आसान होता। मै सारी जिंदगी तुम्हे देवता समझती रहती। ममा पापा परेशान है। उनकी चिंता अपनी जगह सही है। भाई भाभी अपनी गृहस्थी पर आने वाले बोझ की आशंका से डरे हुए हैं। वे कुछ कहते नहीं पर अपनी जगह वे भी सही है।
तो क्या इन सब के चलते यह कड़वा घूँट पी लूं? अपना आत्मसम्मान बेच दूँ . . . ? वह कोई फैसला नही कर पाती है और न रात में उसे नींद आती है।

2.
दूसरे दिन. . .

अभिलाष अपनी माँ और कुछ मध्यस्तों के साथ आया है। बेशर्मी की हद होती है. . . ये तो यूँ बैठे हैं जैसे कोई एहसान करने आये हों। आत्मविश्वास तो देखो जैसे किला फतह ही समझो। रचना फिर एकबार वितृष्णा से भर उठती है। शायद ये समझते हैं मुझे इनका एहसान मानना चाहिए। ये मुंह और मसूर की दाल?
और ममा पाप को क्या पड़ी है? क्यों इनके आगे बिछे जाते हैं? पापा तो फिर भी चुप हैं; ममा तो बस जैसे बिछी जाती है। भाई भाभी क्यों खुशामदों में लगे हैं? मैं सबके लिए इतना बड़ा बोझ हूँ क्या? पापा आप सच कहते थे मुझे अपने पैरों पे खड़ा होने की सोचना चाहिए था न कि शादी का सोचना। देखो कैसे बेशर्मो की तरह खातिर करवा रहे हैं। जिन्हें पता नही अभी जो बिजली गिरने वाली है . . .
"चलो बहू, अब चलने की तैयारी करो।" सास कहती है।
"अरे, तैयार क्या होना; तैयार ही है।" ममा ने सुर में सुर मिलाया। ममा आप से यह उम्मीद न थी।
"हमारा डायवोर्स का केस अभी कोर्ट में है।" रचना ने बड़े नपे तुले अंदाज़ में अपना एतराज़ जाहिर किया।
"वो तो हम सेटलमेंट कर लेंगे। केस अपने आप खत्म हो जाएगा।" अभिलाष ने कहा।
"लेकिन मैं तैयार नही हूँ। तुमने मुझे बांझ बताकर डाइवोर्स मंगा था। लेकिन अब कोर्ट में मैं तुम्हे बांझ बताकर डाइवोर्स मांगने वाली हूं।" रचना ने सपाट लहज़े में कहा। सभी हत्प्रभ ! अभिलाष बगलें झांकने लगा। भैया भाभी सहम से गये।
"ह. . . अ. . . हम इस मामले को आपस मे निपट लेंगे। प्लीज़ . . . " अभिलाष हकलाने लगे।
"अरे भई, ये क्या बात हुई ?" सुरेश अंकल जो मध्यस्थ बनकर आये थे, बोले, "रचना, अब जब भगवान ने तुम्हें खुशियां दी है। तुम लोग मा बाप बनाने जा रहे हो। अभिलाष तुमसे माफी मांग रहा है। अब इस तरह फसाद खड़े करना कोई अक्लमन्दी तो नहीं। और तुम तो एक अक्लमंद और समझदार बच्ची हो; ज़रा समझदारी से काम लो। इस तरह बदले लेने से परिवार नही चलता।"
"असली बात आप नहीं जानते अंकल। यह व्यक्ति मेरे लिए नहीं आया है। यह अपनी पत्नी के लिए नही आया है; बल्कि इस बच्चे के लिए आया है। यह सिर्फ इस लिए आया है कि इसे मुफ्त में मर्दानगी का सर्टिफिकेट मिल जाये।"
"बेटी, अगर वह बच्चे के लिए आया है तो इसमें गलत क्या है। बच्चा तो पति पत्नी के रिश्ते में और मिठास लाता है। बच्चा तो पति पत्नी के रिश्ते को और प्रगाढ़ बनाता है। फिर तुम क्यों इस बच्चे से पीछा छुड़ाना चाहती हो?" सुरेश अंकल ने पूछा ।
"वह आप इन्ही से पूछिए. . ." रचना बिफरकर रोने लगी। सब सिर झुकाए बैठे थे और सुरेश अंकल सबके चेहरों को बारी बारी देखने लगे। सब चुप थे। कोई कुछ बोलता नहीं। आखिर सुरेश अंकल ने रचना से ही पूछा- "तुम ही कुछ बताओ बेटी, मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा . . ."
"बताइये, पतिदेव अब बताइये . . ." रचना ने कांपती आवाज़ में कहा, "बताइये उस रात की बात बताइये जब आपने मुझे बांझ कहकर आधी रात, भरी बरसात में मुझे घर से निकाल दिया। गरजते बादल, कड़कती बिजलियाँ और बरसते पानी मे एक अकेली स्त्री शरण ढूंढती,दर दर भटकती औरत होने के मायने जानते हैं आप? कैसे जानेंगे? एक संवेदनहीन इंसान इसका मतलब कैसे जान सकता है। कैसे जान सकता है मैं अकेली बरसाती अंधेरी रात मे आसरा ढूंढती फिरती रही..... बरसात रुकी तो मैंने अपने आप को एक अंधेरी गली में पाया। कुत्तों का एक झुंड मुझे घेरकर भौंकने लगा तब मुझ असहाय घबराई औरत पर क्या बीत रही होगी? इसे जानते है आप? हर पल यही लगता कि वे कुत्ते अब झपटेंगे और मेरी बोटी बोटी नोच डालेंगे . . ." वह रुक कर सिसकती रही। अभिलाष सिर झुकाए बैठा रहा। सास ने नफरत से चेहरा दूसरी ओर फेर लिया। पिता शर्म से गड़े जाते थे। भाई घबराकर अंदर दूसरे कमरे में चला गया। माँ ने रचना के कंधे को मजबूती से थाम लिया और इससे रचना को आत्मबल मिला।
"बस वे कुत्ते मुझे फाड़कर खा ही जाते कि तभी किसी तरफ से फरिश्तों की तरह कुछ लोग आए और मुझे उन कुत्तों से बचाया . . ." रचना इसके बाद सिसकती रही। उसका पूरा शरीर कांपने लगा। कंधे लगातार थरथराते रहे जिन्हें ममा ने मज़बूती से थामे रखा, "फिर. . . फिर वे फरिश्ते खुद कुत्ते बन गए और मेरे आत्मसम्मान को तार तार करते रहे। तब आप कहाँ थे पति परमेश्वर? तब मुझे आप की ज़रूरत थी और आप मुझे उस नरक में धकेलकर नई बीवी के सपनो में खोए थे। और जब उस नरक की ज्वाला मेरी कोख में धधक उठी तो चले आये कि यह ज्वाला न बुझने दूँ? यह जानते हुए भी के यह आपका हो ही नहीं सकता। और उस रात की सारी बात बताने के बाद भी उसे अपनाने तैयार हो गए? सिर्फ इसलिए न कि आपको पिता का तमगा मिल जाये और कभी योग्यता पर उंगली न उठे। और मैं आपके इस खोखलेपन को छिपाने के लिए इस नरक की आग को हर पल हर दिन सारी उम्र झेलती रहूँ। यह आग जिसकी एक एक धड़कन मुझे अपनी बेबसी अपनी तार तार आबरू और चिथड़े चिथड़े आत्मसम्मान का अहसास दिलाती है? . . . मैं तुम्हारी ज़िम्मेदारी थी, मेरी सुरक्षा तुम्हारी ज़िम्मेदारी थी; फिर भी तुम अगर अपनी पत्नी के लिये आते, मेरा दर्द बांटने आते, शर्मिंदा होकर आते या मुझे निःशर्त अपनाने आते तो शायद मैं आपको देवता समझती लेकिन तुम तो एक मक्कार, मतलबी, नीच और निर्लज्ज, पौरुषहीन मर्द निकले। कोई स्त्री ऐसे पुरुष के साथ एक पल नही गुज़ार सकती और आप सब चाहते हैं मैं इस व्यक्ति के साथ सारा जीवन व्यतीत करूँ? छि: . . ."
स्तब्धता छा गई। सिर्फ रचना की सिसकियां गूंजती रही; और किसी मे हिम्मत नहीं थी कि उठ कर रचना के आंसू पोछ सके।

3.
कुछ दिन बीते एक शाम . . .
रचना उसी खिड़की पर खड़ी थी। अबॉर्शन को एक सप्ताह गुज़र चुका है। रचना को लगता है जैसे जीवन का एक अध्याय समाप्त हो गया हो, लेकिन अगला अध्याय क्या होगा? कुछ पता नहीं चलता। जीवन के रंगमंच का अगला दृश्य क्या है? कुछ नज़र नही आता सिवाय अंधकार के। अस्तित्व के भीतर गहराई तक अंधकार समाया है। अब तो अपना जैसा भी कोई नही लगता। कमरे में अंधेरा हो तो भी ममा नहीं पूछती बेटी अंधेरा क्यों है? डर नहीं लगता?.... शायद सबको सदमा लगा है कि बैठे बिठाये की एक मुसीबत गले पड़ गई। अब तो सब जैसे नज़रे चुराने लगे हैं। उसका खुद का हाल भी वैसा ही है। कोई खाने कहे तो खाले। नहाने कहे तो नहा ले। न कुछ करने की हिम्मत होती है, न कुछ कहने की। बस निगाहों में अंधेरा ही अंधेरा है। बाहर अंधेरा है भीतर अंधेरा। कमरे में भी अंधेरा ही छाया है और वह जानती है, आज कोई नहीं आने वाला रौशनी करने को।
खिड़की पर खड़ी वह प्रेतछाया सी प्रतीत हो रही है। वह बाहर सड़क पर अंधेरे में गुज़रती हुई गाड़ियों को देख रही है जो रौशनी की एक लकीर सी खीचती हुई गुज़र जाती है। उसके मन के अंधेरी सड़क को रौशनी की एक लकीर की भी आशा नहीं। वह दूर से अंधेरी सड़क पर खिंची आती रौशनी की एक लकीर को देखती है जो खिंचती खिंचती उसकी खिड़की के ठीक नीचे ही टूट गई।
'कोई आया है' एक विचार मन मे उभरता है। शायद भाई का कोई दोस्त होगा। खैर अब कोई आये कोई जाये उसे क्या। उसके लिए अब कौन आने वाला है। वह विचारों में खोई अंधेरे में खड़ी है। कितना समय गुज़र गया उसे अनुमान नहीं।
अचानक दरवाज़े पर एक आहट और खट की एक आवाज़ से कमरा रौशनी में नहा उठा। यह ममा है।
"बेटी अभिलाष आये हैं।"
हैरानी ! सख्त हैरानी !! हैरानी की तो बात है। कोर्ट में केस लगा हुआ है। फिर यहां क्यों? अब तो सुलह समझौते की कोई वजह नही रही। अबॉर्शन भी हो चुका है। उसे मुझसे क्या हासिल हो सकता है अब?
"यहाँ क्यों आया है? उससे कह दो, जो कहना सुनना है, कोर्ट में कहे सुने।"
"बहुत कहा। नहीं मान रहा। कहता है एक बार बात सुनले फिर शक्ल नही दिखायेगा।"
"मुझे उसकी बात नहीं सुननी. . ."
"बेटी, उसकी हालत ठीक नहीं लग रही। शायद आखरी बार ही हो। कुछ खास बात हो। कहीं ऐसा न हो कि बाद में मन मे कोई पछतावा रह जाये कि, काश एक बार बात सुन लेती तो . . ."
ममा की इस बात ने मन को सिहरन से भर दिया। एक अंजाना सा डर मन मे सिर उठाने लगा। लेकिन क्यों? यह डर किसलिये? जब उससे कोई रिश्ता ही नहीं, कोई लगाव ही नहीं; फिर उसके लिये दिल मे कोई अहसास क्यों? क्या मेरा दिल मुझे धोखा दे रहा है? नहीं मुझे उसकी चिंता नहीं करनी चाहिये। आखिर वह मेरा है कौन? मुझे कमज़ोर नही पड़ना चाहिये। सिर से झड़ा हुआ बाल अब घूरे मे जाये या नाली मे. . . . हू केयर्स? लेकिन, ममा की बात मे शायद कोई जादू था। वह न चाहकर भी नीचे चली आई। कहीं ऐसा न हो बाद मे मन मे कोई पछतावा रह जाये. . .।
रचना नीचे बैठक में पहुंची तो, एक दुबले पतले कमज़ोर से शख्स को उसकी ओर पीठ किये खड़े देख चौंक उठी।
"कौन?" रचना के प्रश्न पर वह घूमा। यह वही था; या शायद उसकी छाया। बस आधा ही रह गया है। अपना ध्यान तो रखना चाहिए न? लगा एकाएक लपक कर पूछ लें- तबियत तो ठीक है? या डांटे कि खाना ठीक से नही खा रहे हो क्या? लेकिन अपने आप को संयत करते हुए बोली, "यहां क्या लेने आये हो?"
"कुछ नहीं। कुछ लेने कुछ मांगने का मुझे कोई अधिकार ही नहीं।" अभिलाष ने कहा तो रचना हैरान थी। यह अभिलाष की आवाज़ है? इतनी थकी हुई, इतनी दूर से आती हुई लगने वाली आवाज़। यह तुम नही हो अभिलाष, तुम नहीं हो। तुम्हारी एक छवि थी मन मस्तिष्क पर; उसे टूटते देखना मुझे बर्दाश्त नहीं। अब उस छवि को तुम क्यों तोड़ रहे हो। और मुझे क्या हो रहा है? मैं क्यों इस शख्स से सहानुभूति रखने लगी। यह भावना क्यों मेरे अंतर में जागृत होती है। यह एक नीच, गिरा हुआ चरित्रहीन व्यक्ति है। मेरे कितने ही दुखों और अपमान का जिम्मेदार। लेकिन इसकी हालत देख कर आज क्यों इसके संग बिताए अच्छे पल भी स्मृति पर हावी होते हैं। यह कैसा अहसास है? यह अंतरसंबंधों की कौनसी उलझी हुई पहेली है।
"उस दिन से पहले मुझे कभी यह अहसास ही नहीं था कि मैं तुम्हारे साथ क्या अत्याचार कर रहा हूं। तुमने मेरे अंदर के सोये हुए अहसास को जगाया तब मैंने जाना मैं तो सचमुच पति कहलाने लायक ही नहीं। तुमने सारे दुख और प्रताड़नाएं अकेले ही झेली। अपने हिस्से की, और मेरे हिस्से की भी। और मैं अपने सुरक्षा घेरे से तुम्हे सब कुछ सहते देखता रहा। यह तो न्याय नहीं था। तुम्हारे हर सुख और हर दुख में मेरा बराबर का हिस्सा था; लेकिन तुमने अकेले सहे। आज, तुम्हारे दुखो में से मेरा हिस्सा मांगने आया हूं। तुम्हारी सुरक्षा मेरी ज़िम्मेदारी थी और मैंने तुम्हें खुद ही प्रताड़ना के दलदल में धकेल दिया। इसकी सज़ा दुनियां की कोई अदालत नहीं दे सकती। मैं, तुमसे इसकी सज़ा मांगने आया हूँ। मैं तुमसे माफी नहीं मांगता, क्योंकि मैं माफी के लायक ही नही हूं। मैं बस इतना चाहता हूं कि तुम्हारा हर दुख मैं तुमसे छीन लूं; तुम्हें इतनी खुशियां दूँ, कि हर दुख हर प्रताड़ना की स्मृतियां, तुम्हारे स्मृतिपटल से मिट जाए। अब तो तुम्हे कोई बांझ नहीं कहेगा। अब तो लोग मेरी ही क्षमता पर सवाल उठाएंगे और मैं कोई सफाई नहीं देना चाहता। मैं कोई इलाज करवाऊंगा न चेकअप, मैं सारी गालियां सारी प्रताड़नाएं अकेले झेलने को तैयार हूं। बस आप से एक मौका चाहता हूं; सच्चा पति बनने का। एक मौका, सिर्फ एक मौका . . ."
अभिलाष बोलता जारहा था; लेकिन क्या कह रहा हूं, खुद नहीं समझ पा रहा था। रचना हतप्रभ सी सुनती रही। शुरू की कुछ बातें तो समझ आई फिर वह उसके हिलते हुए होठ और बोलती हुई आंखों को देखती रही। उसके कान कुछ नही सुन रहे लेकिन आंखे बहुत कुछ सुन रही थी। पता नहीं दोनो की आंखे क्या कहती सुनती रही। रचना सोंचती रही क्या मैं इसी क्षण के इंतज़ार में थी? और जवाब भी उसके पास न था। लेकिन पहले उसकी आंखें डबडबाई, फिर उमड़ घुमड़ कर बरस पड़ी। अभिलाष भी अपने आंसुओं पर काबू न रख सका।
वैसे भी पति पत्नी के बीच की बातें कोई तीसरा नहीं समझ सकता। रचना को अचानक अहसास हुआ कि शाम रात में बदल चुकी है। बाहर सड़क पर गाड़ियां अब भी रौशनी की लकीर सी खीचती गुज़र रही हैं। हाँ, आज उसके मन की अंधेरे में डूबी सड़क पर भी रौशनी की एक लकीर खींच गई है . . .

4.
उत्तरगाथा. . .

बहुत समय बीते . . .
जीवन भी अजीब पहेली है। जीवन, कभी नरक सा लगता है कभी स्वर्ग सा। जिन्होंने जीवन जिया है वे जानते है कि इसे कभी समझा नही जा सकता। जीवन की इन्ही भूल भुलैया गलियों में भटकते हुए, मैंने एक दिन उन दोनों को किसी गार्डन की बेंच पर बैठे देखा। वे दोनों एक दूसरे से बिल्कुल यूँ सटकर बैठे थे, कि हवा भी दोनों के बीच से पार नहीं हो सकती। अरे ! ये तो मेरी कहानी के किरदार हैं। मैं तुरन्त उन्हें पहचान गया। लेकिन उन दोनों की गोद मे एक खूबसूरत स्वस्थ बच्चा बैठा था। बच्चा यूँ बैठा था कि दोनों की ही गोद मे बराबर समाया था। उनकी बेंच के सामने कुछ परिंदे फुदक रहे थे; जिन्हें देखकर बच्चा प्रसन्नता से किलकारियां भर रहा था। वे तीनों ही एक दूसरे की उपस्थिति को महसूस करके प्रफुल्लित थे। लगता था जैसे वे तीनों एक दूसरे की संगत का उत्सव मना रहे हों। ओह! एक आदर्श परिवार!! मैं ठगा सा खड़ा उन्हें देखता रह गया। नर्म पहाड़ी हवाएं उन्हें सहलाती गुज़र रही थीं; जिससे उनके चेहरे और खिल उठे थे। सूरज की किरणें उनके खिले खिले चेहरों को इस कदर दमका रही थी कि मुझे शक हुआ कि इनके चेहरे कहीं शीशे के तो नहीं बने हैं। मैं ऐसे किसी दृश्य की कल्पना स्वर्ग के बारे मे ही कर सकता था। सच में जीवन कभी कभी स्वर्ग सा भी प्रतीत होता है।
मैं इस स्वप्निल दृश्य को भंग नहीं करना चाहता था; लेकिन उनकी गोद मे मौजूद वह बच्चा मेरी जिज्ञासा में उत्तरोत्तर वृध्दि कर रहा था।
"तो . . . ? बच्चा गोद ले लिया?" मैंने उनके पास जाकर सवाल दागा ।
"नहीं, हमारा अपना है।" दोनों एक साथ बच्चे को अपानी तरफ और अधिक समेटते हुए एक साथ बोल उठे। बोले नहीं, लगभग चीख ही उठे। स्पष्टतः उनके स्वर में अप्रसन्नता थी।
"अच्छा !! लगता है, इलाज करवाया है?" मैंने पूछा ।
"ज़रूरत नही पड़ी।" अभिलाष ने कहा, "चेकअप करवाया था। दोनो में कोई प्रॉब्लम नही थी।"
"फिर प्रॉब्लम क्या थी?" मैंने पूछा।
"संयोग !" उसने कहा।
"संयोग?" मैंने पूछा, "वह कैसे?"
"देखिये," उसने किसी विशेषज्ञ जैसे अंदाज़ में कहना शुरू किया, "जैसे सिक्के के दो पहलू होते हैं, लेकिन कितने बार सिक्के को उछलेंगे कि उसके दोनों पहलू प्रगट हो जाएं; यह दो बार मे भी हो सकता है या सौ बार भी उछालना पड़ सकता है। संयोग की बात है न ! डॉक्टर ने बतलाया कई बार ऐसा होता है कि पति पत्नी दोनों के सक्षम होने पर भी देर होती है, संयोग की बात होती है। ऐसे में हमे धैर्य पूर्वक इंतज़ार करना चाहिए। बस !"
मैं मुस्कुराए बिना न रह सका।
जीवन कितनी अजीब चीज़ है न? हैरान करने वाली चीज़ . . . .
लेखक- मिर्ज़ा हफीज़ बेग.
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