पीताम्बरी
मीना पाठक
(5)
आज सुबह से ही पीतो बेटे की प्रतीक्षा कर रही थी, अंशुमन का फोन आ गया था कि वह घर आ रहा है | बाहर जीप रुकने की आवाज सुन कर पीतो बाहर की ओर दौड़ी | अंशुमन जीप से उतर कर उसकी तरफ़ बढ़ रहा था उसे वर्षों पहले वाले आशुतोष याद आ गए, बिल्कुल वैसी ही चाल, लम्बाई, रंग-रूप ! बिल्कुल अपने पिता पर गया था अंशुमन | पीतो के मन में एक टीस उठती है, ह्रदय वेदना से कराह उठता है |
माँ के पाँव छू कर बोले अंशुमन – “माँ ! क्या सोच रही हो ?”
“कुछ नहीं |” एकदम से जैसे होश में आ गई पीतो, वह बेटे को झुकने को कहती है और उसका का माथा चूमती है |
“अब आप को मेरे साथ रहना होगा, बस् बहुत हो गया यहाँ की देखभाल, अब जल्दी से एक बहू ले आओ और आराम से उस पर हुक्म चलाओ |” अंशुमन और पीतो दोनों जोर से हँस पड़े |
अंशुमन दिल्ली में एक मल्टीनेशनल कम्पनी में इंजीनियर था, कम्पनी की तरफ से उसे गाड़ी और फ़्लैट मिला हुआ था | उसने कई बार माँ को बुलाया पर पीतो घर छोड़ने को तैयार नहीं थी | इधर कुछ दिनों से आशुतोष की तबीयत खराब रहने लगी थी, उसी लिए पीतो ने बेटे को फोन कर के बुलाया था कि उन्हें दिल्ली ले जा कर किसी बड़े डॉक्टर से दिखा दे | कहते हैं ना कि होनी कभी भी एक करवट नहीं रहती, उसकी आदत होती है करवट बदलने की, एक बार फिर से होनी अपना करवट बदलने वाली थी |
*
फोन की घंटी बज रही थी, पीतो ने गैस बंद किया और तेजी से चलती हुई जा कर फोन उठा लिया |
“हेल्लो”
“अरे इंदू ! कैसी हो ? घर में सब ठीक ना ?
“नहीं, कोई आराम नहीं मिला अभी तक, हाँ-हाँ आओ, बहुत दिन हुए तुमसे मिले हुए, अंशुमन भी आया है, तुम्हें याद कर रहा है, वह भी बहुत खुश हो जायेगा तुमसे मिल कर, खुश रहो |” पीतो ने फोन रख दिया |
ना जाने क्यूँ पीतो की आँखों से दो बूँद आँसू लुढ़क पड़े, बहन से मिलने की खुशी थी या आशुतोष की बीमारी का दुःख, उसने अपने आँचल में समेट लिया उसे फिर से रसोई में आ कर आशुतोष के लिए दलिया बनाने लगी |
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“दीदी ! आखिर कब तक यूँ ही मन ही मन घुटती रहोगी; अब भूल जाओ उस बात को और जीजा जी भी तो भीतर ही भीतर पाश्चाताप की आग में जल रहे हैं, बरसों बीत गए उस बात को, शायद होनी को यही मंजूर था, इसमें उन दोनों का कोई दोष नहीं, समय और परिस्थितियों का दोष है | इतनी बहादूरी से उन परिस्थितियों का सामना की हो; तो अब बड़ा दिल कर के उन्हें भी क्षमा कर दो, शायद तुम्हारी माफ़ी उन्हें स्वस्थ कर दे |” पीतो का हाथ थामे इंदू उसे समझा रही थी और पीतो के जख्म एक बार फिर से फूट पड़े थे; वह पीड़ा से सिसक पड़ी |
“एक बार जी भर कर रो लो दीदी, मन हल्का हो जायेगा, अपना दुःख कह कर रो लेने से दिल पर दुःख का बोझ कम हो जाता है, वो तो मुझे रूपा ने बता दिया नहीं तो आप ने तो अपने होठ ही सी लिए थे, आप की दी हुई कसम के कारण मैंने भी अपना मुँह नहीं खोला किसी से |”
“मौसी....!”
चौंक कर दोनों ने देखा, अंशुमन उन्हीं की तरफ आ रहा था | जल्दी से दोनों ने अपने आँसू पोंछे | इंदू ने बढ़ कर उसे गले लगा लिया |
*
आशुतोष की तबियत बिगड़ती जा रही थी, वह कुछ भी खाते तुरंत उल्टी हो जाती, दिन पर दिन सेहद गिरती जा रही थी | यहाँ इलाज चल रहा था; पर कुछ भी समझ नहीं आ रहा था | ऐसा नहीं था कि पीतो उनकी सेवा नहीं कर रही थी, वह हर तरह से उनका ख्याल रख रही थी; पर कुछ था, जिसके कारण एक साथ रहते हुए भी दूर थे दोनों |
*
दिल्ली आए हुए एक सप्ताह हो गया था पीतो को, आशुतोष के सारे टेस्ट हो गए थे,
दो-चार दिन बाद रिपोर्ट आनी थी, डाक्टरों को खाने वाली नली में कैंसर होने का अंदेशा था पर रिपोर्ट आने के बाद ही वो कुछ कह सकते थे | अंशुमन ने अपने ऑफ़िस से छुट्टी बढवा ली थी | पीतो आशुतोष के साथ हस्पताल में दिन रात एक कर रही थी और अंशुमन बाहर; पर उनकी हालत बिगड़ती ही जा रही थी |
रात के करीब दो बज रहे थे, आशुतोष को उल्टी होने वाली थी, पीतो ने जल्दी से उठकर उन्हें सहारा दे कर उठाया, जरा सा लिबलिबा सा पदार्थ निकला, उनका मुँह पोंछ कर उसने फिर से उन्हें लिटा दिया और सफाई करने के लिये उठने ही वाली थी कि आशुतोष ने उसका हाथ पकड़ लिया | उसने मुड़ कर देखा, आशुतोष बिना बोले ही हाथ के इशारे से उसे बैठने को कह रहे थे, वह चुप-चाप बैठ गई, आशुतोष ने दोने हाथ जोड़ दिया और कमजोर आवाज में बोले -
“पीतो..अब शायद मेरे पास समय नहीं है..इस लिए एक बार तो मुझसे कुछ कहो..कहो कि मैंने तुम्हारे साथ बहुत बुरा किया..तुम्हें धोखा दिया..तुम्हारा विश्वास तोड़ा..तुम्हारा जीवन नर्क बना दिया..मुझे भला बुरा कहो पीतो..मुझसे शिकायत करो..कुछ तो कहो..ताकि मैं सुकून से मर सकूँ |”
कहते-कहते आशुतोष हाँफने लगे थे, उनकी आँखों से आँसुओं की धार फूट पड़ी थी | पीतो भी फफक कर रो पड़ी आशुतोष के सीने से लग कर, बरसों का दर्द उमड़ कर बह रहा था, आशुतोष उसे सीने से लगाए क्षमा भी मांगते जा रहे थे |
आशुतोष की इस हालत ने फिर से एक बार पीतो को तोड़ दिया था, आशुतोष की दशा देख कर वह घबरा रही थी लेकिन हिम्मत किये हुए थी; पर आज इस तरह से उन्हें गिड़गिड़ाते हुए देख नहीं सकी वह | पति को सुला कर वह भी लेट गई पर आँखों से नींद कोसो दूर थी | आज बरसों बाद पति के सीने से लगी थी | सच ही तो कहा था इंदू ने कि दोष इंसान का नहीं, परिस्थितियों का होता है | शायद आज भी अगर ये इस हाल में ना होते तो क्या मैं इस तरह इनके सीने से लगी होती ? बरसों की दूरी परिस्थियों ने एक पल में मिटा दी थी | उसने उठ कर देखा आशुतोष को, उनके चेहरे पर एक अजीब सी शान्ति थी, शायद वह भी बरसों के बाद चैन की नींद सो रहे थे | उसने उठ कर उनका कम्बल सही किया और आ कर खुद भी सोने का प्रयास करने लगी; पर आँखों से नींद कोसों दूर थी |
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सुबह हो गई थी, आशुतोष को सोता छोड़ कर पीतो ने अपने कपड़े लिए और बाथरूम की ओर चली गई, जब वह लौटी तो अंशुमन को चुप-चाप पापा के पास बैठे देखा, पास आ कर धीरे से बोली -
“रात भर सो नहीं पाए हैं, सोने दो अभी |”
“मैं आप के लिए चाय ले कर आता हूँ |” अंशुमन उठ कर बाहर चला गया |
पीतो वहीँ बैठ कर सोते हुए आशुतोष को निहारती रही, न जाने क्यों उसका जी घबरा रहा था, न जाने क्या रिपोर्ट आने वाली थी आशुतोष की ! अचानक उसका मोबाइल बज उठा जो अंशुमन ने उसे दिया था | वह जल्दी से उठ कर बाहर निकल आई, इंदू का फोन था | गाँव में सभी आशुतोष की तबीयत को ले कर परेशान थे | इंदू को रात की सारी बात बताई पीतो ने और कहा कि इस समय सो रहे हैं वो |
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डॉक्टर के आने का समय हो चुका था | वार्ड में हर मरीज के एक-एक रिश्तेदार को छोड़ कर सभी को बाहर कर दिया गया था | आशुतोष अब भी सो रहे थे | डॉक्टर साहब आ गए थे | आशुतोष की कलाई थामते हुए उन्होंने नर्स से उनकी रिपोर्ट मांगी पर ये क्या ! कलाई थमते ही वह चौंक पड़े, उन्होंने उनकी आँखे खोल कर देखी, धड़कन देखी, कुछ भी नहीं था | आशुतोष चैन की नींद सो गए थे | घबराई हुई पीतो डॉ० को देख रही थी, ज्यूँ ही डॉ० ने कम्बल से आशुतोष का चेहरा ढंका, पीतो बेहोश हो कर गिरने को हुई कि नर्स ने उसे सम्भाल लिया |
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होनी ने करवट बदल ली थी | आशुतोष इस दुनिया से जा चुके थे | गाँव का सब कुछ बेच कर अंशुमन माँ को ले कर शहर में रह रहे थे; पर गाँव का घर पीतो ने बेचने नहीं दिया था | अंशुमन का कहना भी ठीक था कि वह अकेला कहाँ–कहाँ देख रेख करेगा वह तो घर भी बेच देना चाहता था; पर पीतो ने सख्त मना कर दिया कि “जब तक मैं जिन्दा हूँ घर नहीं बिकेगा |” उस घर से पीतो की यादें जुड़ी थीं, पूरा जीवन उसने उसी घर में बिताया था, कैसे बिकने देती वो घर !
अंशुमन के साथ रहते हुए उसे दो-तीन वर्ष व्यतीत हो चुके थे | अब उसकी भी तबीयत ठीक नहीं रहती थी, अंशुमन की ढेरों शादियाँ आ रही थी; पर एक जगह आ कर बात रुक जाती थी | वह बेटे की शादी गाँव वाले घर से ही करना चाहती थी | अंशुमन को भी माँ की इच्छा का ख्याल था |
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पीतो के घर बड़ी धूम-धाम थी | सभी रिश्तेदार आ गए थे इंदू अपनी बेटियों के साथ आई थी, उसकी तीनों ननदें, नंदोई और भी दूर-दूर के रिश्तेदार आए हुए थे | अंशुमन का ब्याह बड़ी धूम-धाम से हो रहा था, रूपा के घर भी न्योता भेजा गया था; पर वह अभी तक नहीं आई थी | पीतो ने तय किया था कि सभी शगुन का काम रूपा ही करेगी; वह खुद कोई शगुन का काम नहीं करना चाहती थी, अंशुमन और इंदू ने बहुत जिद्द की; पर पीतो नहीं मानी | बारात से दो दिन पहले ही रूपा आ गई, आते ही दौड़ कर पीतो के गले लग गई, आँखों से आँसू झरने लगे |
“दीदी..मैंने अनजाने में ही तुम्हारे जीवन में जो अस्थिरता ला दी..उसके लिए क्षमा जैसा शब्द तो बहुत छोटा है..मैं तो आप से नज़र भी नहीं मिला सकती..आप का मौन रह-रह कर ह्रदय में जो वेदना उत्पन्न करता है..वो मैं ही जानती हूँ..किसी से कुछ कह नहीं सकती..अपनी ही दृष्टि में अपराधिनी बन गयी हूँ..आपने जीवन भर सब को खुशियाँ दी और अपने हिस्से में सिर्फ दुःख लिया..कभी किसी से कुछ नहीं कहा..आज अपने मुख से एक बार अपनी इस बहन को कह दो कि ‘रूपा तुझे क्षमा किया’ तो बाकी का जीवन मैं चैन से गुजार सकूँगी नहीं तो हर वक्त हृदय पर बोझ लिए फिरती हूँ |” रूपा सिसक पड़ी |
पीतो ने उसके पीठ पर हाथ फेरा और अपने कमरे की तरफ बढ़ गई |
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आज इतिहास खुद को दोहरा रहा था जिस घर में उसे ब्याह कर एक दिन लाया गया था उसी घर में बेटा बहू को ब्याह कर ला रहा था | गाड़ी दरवाजे पर आ गई | सभी महिलाएँ गीत गाते हुए बहू उतारने के लिए आगे बढ़ गईं |
खुद पितो एक तरफ किनारे सिमट गई, उसकी परछाई भी नई सुहागन पर ना पड़े, क्यों कि उसका पूरा जीवन काँटो की सेज पर बीता था | रूपा सबसे आगे अपनी बिअहुती ओढ़े सिन्होरा के पीले सिन्दूर से बहू की मांग बहोर रही थी |
बहू का परिछन करते हुए रूपा के चेहरे की खुशी को मापने की कोशिश कर रही थी पीतो | उसके रोम-रोम से खुशी छलक रही थी, बहू के पाँव अक्षत वाली डलिया में रखवाते हुए भीतर लाया जा रहा था | औरते गा रहीं थीं -
“तेरे पायलों की लम्बी आवाज
बहू रानी धीरे चलो,
सासुरानी सुनिहें ससुर जी से कहिहें
ससुर जी करें परचार
बहू रानी धीरे चलो ...|”
कोहबर में सभी ने बहू को घेर रखा था, पासा खेलने की रस्म हो रही थी; पर किसी को जरा भी भान नहीं था कि इसी घर की एक बहू घर का कोई कोना ढूढ रही है, अपने बिखरे वजूद को समेटने के लिए; पर वह भी उसे नसीब नहीं हो रहा है | हर तरफ़ चहल-पहल, हँसते-खिलखिलाते लोग और तमाम तोहफों से भरा हुआ घर !
बेटे का ब्याह कर खुश तो पीतो भी बहुत थी, फिर भी कही न कहीं वह टूट कर बिखर गई थी आज | जीवन का एक लंबा हिस्सा खुद को संभाले हुए जी गई थी अब तक; पर अब उसका काम पूरा हुआ था | उसका शरीर पत्ते की तरह थर-थर काँप रहा था | इतने सारे अपनों की भीड़ में भी वह अकेली थी | आँखों के सामने अन्धेरा छाने लगा | उसे बड़की अम्मा की दी हुयी सीख याद आ रही थी जो उसकी बिदाई के समय उन्होंने उसे दिया था --
“बेटी ! हमार ई बात गाँठ बाँधि ला..अब तोहरी हाथ में दूनो घर के लाज बा..अइसन रहिहा कि दूनो परिवार के सम्मान बनल रहे..ईहे एक बेटी अउर पतोह के धरम ह-अ |”
पीतो फूट-फूट कर रो पड़ी | इंदू उसे ढूँढते हुए वहाँ आई | उसे उस हाल में देख कर उसकी आँखें भी छलक पड़ीं | पीतो को अपनी बाँहों में भर कर गले से लगाने को हुई इंदू कि एकाएक वह उसकी बाहों में झूल गई और इंदू जोर से चीख पड़ी |
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