Muththi bhar sukh ke liye in Hindi Moral Stories by Rajesh Bhatnagar books and stories PDF | मुट्ठी भर सुख के लिए

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मुट्ठी भर सुख के लिए

6 - मुट्ठी भर सुख के लिए

आज अजीब-सी बेचैनी प्रकाष के दिल में दिन भर कुलबुलाती रही । ना लंच किया, ना किसी से बात और ना ही कोई फाईल ही निपटाई । बस शून्य मस्तिष्क लिये सिगरेट के धुंएॅ को निगलता रहा । रोज़-रोज़ देर से ऑफिस आना और जल्दी चले जाना कहां तक सम्भव है । और अब तो बूढ़ी मां की तबियत भी उसका परिवार संभालते-संभालते बिगड़ने लगी है । उसे दिन भर लगता रहा जैसे ऑफिस की दीवारों से उसके बीमार बच्चे की कराहने की आवाज़ें फूट-फूटकर उसके कानों में हथौड़े-सी बज रहीं हों । हर फाईल पर उसके बुखार से तपते बच्चे का चेहरा उभरता रहा । कनपटियों पर बच्चे की तेज़ चलती नब्ज़ की धमक सुनाई देती रही । कानों में हवा में बहती उसकी आवाज़ -पापा ! मम्मी को बुला दो......।

मम्मी......! आज मम्मी की कितनी आवष्यकता है उसके बेटे को । वह सोचने लगा आखिर उसने क्यों अपनी पत्नी को अपने बेटे से इतनी दूर कर दिया है । डाक्टर भी यही कहने लगा है, “मिस्टर प्रकाष ! बच्चे की दिमागी हालत खराब होने के कारण ही बुखार नहीं उतर रहा, वरना अब तक तो.....। षायद इसे कोई दुःख अन्दर ही अन्दर सालता है । एक चोट इसके ज़हन में बैठी है जो इसे ठीक नहीं होने दे रही.......।”

प्रकाष ने बेचैन होकर घड़ी पर नज़र डाली । चार बज चुके थे, अभी एक धण्टा और शेष था । मगर उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी । पूरे कमरे में बच्चे की कराहट उसे महसूस होने लगी थी । हवा की सांसों में भारीपन और बेटे के बुखार की तपन महसूस कर रहा था वह । मगर आज उसमें अधिकारी के समक्ष जल्दी जाने की अनुमती लेने का साहस नहीं भर पा रहा था सो वह उदास मन और बोझिल आवाज़ में अपने साथी से बोला, “यार, मेरी तबियत ठीक नहीं है । मुझसे बैठा भी नहीं जा रहा है । मैं घर जा रहा हूं । साहब पूछें तो तुम्हीं कह देना कि......।”

“अरे ! तो छुट्टी क्येां नहीं ले लेता दो-चार दिन की ?”

“पहले ही बहुत छुट्टियां ले चुका हूं, अब एक-दो छुट्टी ही बची हैं यार इसीलिए...।” कहता हुआ टिफिन उठाकर वह ऑफिस से बाहर निकल गया ।

उसने ऑफिस से बाहर निकलकर आसमान को ताका । पूरा आसमान घने बादलों से भरा था और ठीक उसके मन जैसी उमस चारों ओर वातावरण में फैेली थी । उसे याद आया ऐसे मौसम को देखकर कभी उसका मन कितना प्रफुल्लित होता था । ऑफिस से घर पहुंचते ही शैला को अपनी बाहों मंे भरकर वह कह उठता था, “जॉनी ! क्या मौसम है....। आज जमकर बारिष होने के आसार लगते हैं.....। आज तो हम भी......।”

वह शर्म से नहा जाती । पलकें झुकाकर उसके सीने से लिपटी पूछ बैठती, “आज तो....आज तो क्या...?”

“आज तो हम भी बरसेंगे जमकर.....। बादल बनकर छा जायेगें तुम पर और....।” कहते-कहते उसके अगं-अंग को चूमकर जल से भरी बदली बना डालता उसे ।

प्रकाश ने अपने मन को झटका । आंखों में शैला का गेंहुआं मांसल बदन भर आया था । उसे लगा शैला आज भी उसका उसी तरह इन्तज़ार कर रही होगी.....। मगर कल्पनाओं के सागर से उभर कर उसने जेब से स्कूटर की चाबी निकाली और स्कूटर में किक मारकर घर की ओर चल दिया । बदन में हवा लगी तो बड़ी राहत महसूस हुई । शैला के ज़रा से ख्याल ने उसे रोमांचित कर पसीने से सराबोर कर दिया था । स्कूटर के साथ-साथ उसके दिमाग में भी शैला, उसके बेटे, मां, घर-परिवार के बारे में तेज़ी से विचार आते रहे और उसे पता भी न चला कि वह कब अपने घर के नुक्कड़ वाले नीम के पेड़ तक पहुंच गया । अनायास ही उसे शैला की फिर याद हो आई । सुबह घूमने जाते वक्त वह पेड़ के नीचे रूककर उसे एक दांतुन तोड़नंे का आग्रह कर बैठती थी तब वह खुद ना तोड़कर उसे एक दांतुन तोड़ने के लिये प्रेरित करता और मौका पाकर उसे अपनी गोद में उठाकर ऊंचा कर देता । वह छुईमुई-सी शरमाकर उसकी गोद में सिमटकर रह जाती । किसी के देख लेने के भय से उसका भोला चेहरा पीला पड़ जाता और नज़रें ज़मीन में गढ़कर रह जातीं । फिर झुंझलाकर उसके सीने पर मुट्ठियों का हल्का प्रहार कर मारती, “गन्दे कहीं के ! कोई देख लेता तो.....।”

शैला की यादों को ना जाने कैसे धकेला और स्कूटर के ब्रेेक अनायास ही उसके घर के आगे लग गये । उसने स्कूटर बाहर ही खड़ा किया और सीध उसके बेटे के पास पहुंचा । वह सो रहा था । उसने उसके गालों को हाथ लगाकर छुआ । बुखार अभी भी था । उसकी बचैनी फिर बढ़ गई । मां ने उसे बताया, “अपनी मां को याद कर-करके सो गया । ना कुछ खाया, ना ही दूध पिया । हां, अपनी परीक्षाओं की चिंता कर रहा था ।”

आज उसे मां की तबियत भी कुछ भारी लग रही थी । आखिर वह भी कब तक सम्भाले बच्चे को । यह भी कोई उम्र है बच्चे खिलाने की.....। उसे महसूस हुआ कि मां उससे कुछ कहती नहीं, मगर शैला की कमी उन्हें बहुत अखरती है । आज शैला होती तो मां इतनी परेषान थोड़े ही होती.........।

वह कुछ देर यूं ही चिंता में डूबा बैठा रहा । अपने मासूम बेटे के कुम्हलाये चेहरे को निहारता रहा । फिर उसे याद आई सब्ज़ी, आटे का पीपा और बेटे की दवाईयां.....। और हां ! पड़ौस वाले शर्मा जी के बेटे को एप्लीकेषन और मेडीकल सर्टिफिकेट भी तो देना है । फिर घर की सफाई, कपड़े.....उफ्.....। शैला होती तो.......। इतना दुःखी तो वह कभी नहीं हुआ था शैला के बिना । वह उठा और स्कूटर लेकर घर से निकल गया ।

अब आसमान पर घने बादलों ने और अधिक डेरा जमा लिया था । चारों ओर घनघोर घटा के साथ ठण्डी हवा चलने लगी थी । चारों ओर अंधेरा-सा छाने लगा था । प्रकाष ने जल्दी-जल्दी सब्ज़ी, दवाईयां और आटे का पीपा लिया और लौट पड़ा घर पर । कहीं बारिष शुरू हो गई तो बत्ती गुल हो जायेगी फिर उसे शर्मा जी के भी तो जाना था ।

उसने शर्मा जी के दरवाज़े पर स्कूटर खड़ा किया और एक नज़र मकान पर डाली । लम्बे समय से मरम्मत के अभाव में जर्जरित मकान की एक-एक ईंट अपने दांत दिखा रही थी । बिना रंग-रोगन का बबूल की लकड़ी का दरवाज़ा जो बारिष और धूप से टेढ़ा-मेढ़ा हो गया था । शर्मा जी उसके पड़ौसी ही नहीं सहकर्मी भी हैं सो उसने बेहिचक ज़ोर से आवाज़ लगा दी, “षर्मा जी ...!”

अन्दर से किसी स्त्री की पायल बजी और दरवाज़े तक आकर रूक गई । दरवाज़े की कुण्डी खुल गई । सामने शर्मा जी की पत्नी सूती, घिसी धोती में लिपटी खड़ी थी । प्रकाष ने दोनों हाथ नम्रता से जोड़ दिये, “भाभी जी नमस्कार !”

“आईये ना, अन्दर आईये ।” एक मुस्कराहट के साथ उनका गेंहुआ मुलायम चेहरा खिल उठा । प्रकाष अन्दर पहुंचा तो देखा घर के आंगन में ही शर्मा जी लुंगी लपेटे उघाड़े बदन खाट पर पसरे हैं । उसे देखकर चहक उठे, “अरे आओ प्रकाष भाई ! आज हमारे ग़रीब के घर कैसे आना हुआ ?”

प््राकाष ने बैठने के लिए इधर-उधर देखा । एक ओर बिल्कुल टूटा मूढ़ा पड़ा था जिस पर बैठता तो शायद उसके नुकीले सरकंडे उसकी पेंट फाड़कर कूल्हों को लहुलुहान कर डालते । सो वह शर्मा जी के पास ही खाट पर बैठ गया । खाट के पास ही आंगन में बने ईंटों के चूल्हे पर शर्मा जी की पत्नी चाय बनाने का प्रयोजन करने लगी । प्रकाष ने एक नज़र पूरे घर पर मारी । सीलन भरे अंधेरे कमरे, मगर साफ......। गोबर से लिपा आंगन और उसी में अनार और अमरूद के पेड़ । एक ओर लगे गेंदे, मोगरे और गुलाब की मिलीजुली गंध नाक में पड़ी तो लगा फूलों के बाग में बैठा हो । यह शर्मा जी का पुष्तैनी मकान है जिसकी देखभाल शर्मा जी अपने अभावों और चार-पांच बच्चों के होते नहीं कर पाते । उसने अचानक ही पूछ लिया, “बच्चे कहां हैं ?”

“खेल रहे होंगे बाहर । अभी ऑफिस से आया । मौसम अच्छा था सो आपकी भाभी से आंगन की खुली हवा में गप्पें मारने लगा । वैसे भी इतने बच्चों में कम ही मौका लगता है......। फिर आंख मारकर प्रकाष को रंगीले अंदाज़ में शर्मा जी ने लम्बी आह भरकर कहा, “फिर मौसम भी तो मस्ताना है ....। और तुम सुनाओ कैसे आना हुआ ? बच्चा कैसा है ?”

अपने बेटे की बात निकलते ही उसका नासूर फूट पड़ा, “यार बच्चा ठीक ही नहीं हो रहा है । बराबर डाक्टर की दवाई चल रही है । बच्चे की अर्द्धवार्षिक परीक्षाएं अलग शुरू होने को हैं । बेचारा चिंता कर रहा था इसीलिए मैंने सोचा मुझे तो वक्त नहीं मिल पा रहा, आपके बच्चे के हाथ ही उसकी एप्लीकेषन और मेडीकल भिजवा दूं ।” कहते हुये प्रकाष ने दोनों कागज़ शर्मा जी को थमा दिये । तब तक शर्मा जी की पत्नी ने चाय के प्याले हाथ में थमा दिये और खुद भी चाय लेकर वहीं खाट के पास ज़मीन पर बैठ गई । शर्मा जी ने चाय की चुस्की भरते हुये कहा “अरे यार प्रकाष के लिये कुछ नमकीन वगैरह...।”

“बस...बस ! यही काफी है ।” कहकर प्रकाष चुपचाप चाय के घूंट भरने लगा । कुछ देर यूं ही तीनों चाय की चुस्कियां लेते रहे । तभी शर्मा जी की पत्नी ने मधुर स्वर में शर्मा जी से पूछ लिया, “सुनो जी क्या बनाऊं ? अभी से बता दो फिर बारिष के आसार हो रहे है।”

“अरे बेगम कुछ भी बना लो, तुम्हारे हाथ का तो हम गोबर भी खा लेंगे ।” कहकर शर्मा जी ने ज़ोरों का ठहाका लगाकर प्रकाष की जांघ पर एक धौल जमा दी । और शर्मा जी की पत्नी “धत्त” कहकर लजाती-सी उठ बैठीं और खाना बनाने का प्रयोजन करने लगीं मगर प्रकाष जैसे कहीं खो गया । शैला जो उसके ज़हन में फिर से छा गई थी ।

“अरे यार कहां खो गये ?” शर्मा जी ने मस्ती में फिर एक धौल उसकी जांघ पर दे मारी । यूं मारना शर्मा की आदत-सी है ।

“कहीं नहीं । बस चलूं । आपको तो अभी पकी-पकाई भाभी के हाथ की मिल जायेगी मगर मुझे तो.....।” कहते हुये एक लम्बी आह भरकर प्रकाष उठ खड़ा हुआ ।

रास्ते भर उसके दिमाग में शर्मा जी, उनकी पत्नी और खुषी भरा वह माहौल घूमता रहा । वह सोचता रहा शर्मा जी इतने अभावों में भी अपने परिवार के साथ कितने खुष हैं । कितना संतोष और प्रफुल्लता छाई थी शर्मा जी के मुख-मण्डल पर...। और एक मैं हूं जिसने पैसे के पीछे अपना सुख-चैन, शांति-आराम और यहां तक कि शैला को भी ......। उसे अपने आप पर, अपने हालातों और अपने किये पर इतनी झुंझलाहट हुई कि आंखों में आंसू भर आये और कण्ठ कुण्ठा से अवरूद्ध-सा हो गया । मानो वह फूट-फूटकर रोना चाहता था मगर रो नहीं पा रहा था । अनायास ही एक ठण्डी मोटी आसमान से टपकी बूंद ने जो उसकी नाक पर फिसलती हुई उसकी शर्ट में समा गई थी उसे इस छटपटाहट से उबारा । उसने नज़रें उठाई तो घनघोर घटा से छिटक कर एक काला बादल तेज़ गति से आसमान में तैरता हुआ दूर जाता दिखाई दिया । उसे लगा जैसे ठीक उसी बादल की भांति ही शैला को भी उसने अपने से दूर .....बहुत दूर कर दिया है जो उसके पास ना होकर भी हर पल जबरन उसका ख्याल बनकर चली आती है उसके पास और छा जाती है काले बादलों की घटा बनकर उसके मन-मस्तिष्क में ।

उसे पता भी ना पड़ा कि वह तेज़ स्कूटर चलाता शैला के ख्यालों में बारिष में भीगता कब घर पहुंच गया । उसने सबसे पहले गीले हाथों को पोंछकर अपने बेटे को छुआ । बुखार से वह अब भी अचेत था । मां भी शॅाल ओढ़े खांसती-सी उठ बैठी थी, “ला बेटा, ले आया सब्जी़ ? बड़ी देर लगा दी तूने । तू जानता है बारिष में मेरे जोड़ दुखने लगते हैं और अंधेरे में कुछ दिखता भी नहीं।”

“मां वो चिंटू (उसके बेटे) की एप्लीकेषन और सर्टिफिकेट।” फिर कहते-कहते रूक गया । उसने मां को छूकर देखा तो चौंक पड़ा, “अरे मां ! तुम्हें भी बुखार है ? चलो चलो लेट जाओ कुछ नहीं करने दूंगा तुम्हें अब ।” कहते हुये पकड़कर उन्हें जबरन उनके कमरे में पलंग पर लिटा दिया और स्वयं गैस पर दूध गर्म कर एक बुखार की गोली मां को दूध के साथ जबरन खिला दी, “लो मां, ये खा लो । अभी दो मिनट में बुखार उतर जायेगा । कुछ खाओ तो बना दूं ?”

“नहीं रे, सुबह से भूख नहीं लग रही । बस बदन टूट रहा है । मगर तू...तू क्या खायेगा ? तेरे लिये तो बना....।”

“तुम चुपचाप लेटी रहो मां । मैं बाज़ार में खाकर आया हूं ।” कहते हुये मां को गोली देकर प्रकाष स्वयं के कमरे में लौट गया ।

आज भूख-प्यास उससे कोसों दूर भाग चुकी थी । अनायास ही तेज़ बादल गर्जना के साथ ज़ोरों की बारिष शुरू हो गई । उसने उठकर खिड़की बंद कर दी और पुनः पलंग पर लेट गया । लेटा-लेटा कमरे की एक-एक चीज़ को घूरने लगा । कमरे में रंगीन टी.वी., फ्रीज़, खिड़की में लगा कूलर । एक कोने में रखी गोदरेज की ऑलमारी, आलीषान डबल बैड, सोफा और फर्ष पर बिछी मंहगी कालीन को देखते-देखते उसकी नज़र टी.वी. के शो केस पर रखी शैला और उसकी तस्वीर पर जाकर ठहर गई । उसके मन में फिर शैला की पुरानी स्मृतियां जाग उठीं । आज उसके पास आधुनिक वैभव की सब वस्तुएं हैं मगर शैला ।

वह शैला की तस्वीर को एकटक निहारता रहा । कैसी कमसिन थी शैला.। लम्बे घंुघराले बाल...बड़ी-बड़ी चंचल नीली आंखें ....पतले गुलाबी होंठ और नर्म कोमल कलाईयां । वही कलाईयां जिन्हें जबरन मकान की सीढ़ी पर पकड़ लिया था उसने-

“आई लव यू शैला ।”

“बट आई डोन्ट ।” शैला ने घबराते हुये उससे कहा था ।

“तुम....तुम बहुत सिली हो प्रकाष ।”

“मैं ?”

“हां तुम ।”

“क्यों ?”

“प्यार करते हो मगर मेरी कलाई को इतनी बेरहमी से दबा डाला । देखो नील पड़ गया है ।” तब प्रकाष ने अनायास ही उसकी कलाई छोड़ दी थी और देखा था तो बस देखता ही रह गया था । उसकी कठोर अंगुलियों के निषान उसकी गोरी नर्म कलाई पर छप गये थे । “सॉरी” कहकर प्रकाष ने उसके नर्म हाथों को चूम लिया था और तब शैला “आई लव यू टू ” कहकर अनायास ही सीढ़ियों से उतर गई थी और प्रकाष एक सपने की भांति यह सब ताकता रह गया था ।

एक मकान में किरायेदार से दोनों प्रेमी और प्रेमी के बाद समाज, जाति, परम्पराओं की परवाह किये बगैर ना जाने कब पति-पत्नी बन गये थे । शैला ईसाई होते हुये भी एक कुषल हिन्दु पत्नी साबित हुई थी प्रकाष के लिये । समाज, जाति के झूठे बंधनों से अलग हटकर दोनों का जीवन सतरंगी रंगों में डूब गया था । सुबह-षाम शैला के प्यार की बरसात में भीगते ना जाने कब एक बेटे का बाप बन गया था प्रकाष । फिर स्कूल से तबादला, दूसरा शहर नये लोग । मकान की परेषानी...गृहस्थी का खर्च और मंहगाई...। प्रदेष की राजधानी का शहर....उंचे लोग, ऊंचा रहन-सहन, शान-षौकत और प्रकाष की छोटी-सी तनख्वाह । घर का गुज़ारा चलाने के लिये सुबह ट्यूषन, स्कूल की नौकरी फिर ट्यूषन...। मगर फिर भी वही तंगी.। वही हालात...। मगर शैला के प्रेम और सेवा में कभी कोई कमी नहीं । बच्चे के साथ-साथ सास की सेवा अपनी मां की तरह करती । थके मांदे प्रकाष की थकान को अपनी कोमल बाहों से सहला, प्यार भरी बातों और स्नेहिल व्यवहार से मिटाने का प्रयास करती । उसके लिये प्रकाष ही उसकी अमानत, उसका सब कुछ था । उसे और कुछ नहीं चाहिये था । ना धन-दौलत, ना ऐषो-आराम और ना ही कोई नाम...।

मगर प्रकाष अपने आप में ना जाने कैसी हीन भावना महसूस करने लगा था । इतनी मेहनत के बावजूद नये घर में चार कुर्सी तक नहीं खरीद सका था और इसी बात की कुण्ठा उसके मन में भरती चली गई जो उस दिन उसके दोस्त-यारों की ड्रिंक्स पार्टी में अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई जब दोस्तों ने उसका पार्टी में मज़ाक उड़ाया था । एक दोस्त बोला था, “सुनो । आदमी हो तो प्रकाष जैसा महान् । एक तो भाई ने समाज के बंधनों से हटकर प्रेम विवाह किया । फिर प्रेम विवाह के चक्कर में दहेज नहीं लिया और अब अपना खून-पसीना एक कर ईमानदारी से सादा जीवन बिता रहा है । दिन भर ट्यूषन । मगर दोस्तों, ऐसी मंहगाई में इतना कमाने के बाद भी बेचारा एक बार भी दोस्त-यारों की इस तरह दावत नहीं कर पाता । आखिर शराब है भी तो मंहगी चीज़....। मगर यार अगली बार तो प्रकाष के घर ही पार्टी लेंगे । ज़्यादा से ज़्यादा देा ट्यूषन ना पढ़ाई .....। इससे ज़्यादा तो खर्चा करवायेंगे नहीं...।” कहते हुये उसने प्रकाष को तिरछी नज़रों से ताका । तभी दूसरा बोला था, “अरे यार ! अपने को तो दहेज में स्कूटर, टी.वी., फ्रीज़ वाषिंग मषीन और एक लाख कैष मिला था । अपुन ने तो पहले ही सोच लिया था कि जिससे इष्क लड़ाई उससे शादी तो कभी करेंगे ही नहीं । मज़े लो और छोड़ दो ।”

तभी तीसरा बोल पड़ा था, “भैये अपुन भी प्रकाष की माफिक कड़का और भोला-भाला था । मगर अपुन तो समय से चेत गया । बीवी को बी.एड. कराया और टीचर बना दिया । उसके लगते ही सारी ग़रीबी दूर....। आखिर सोसाइटी में बैठने के वास्ते स्टेैण्डर्ड तो मेनटेन करना ही पड़ता है ना, और आजकल के ज़माने में एकले की पगार से क्या होता है...।”

उन सबकी बातें सुनकर प्रकाष जैसे शराब में मिले ज़हर की चुस्कियां लेता रहा था । और वास्तव में अपने आपको उनमें बहुत बोना महसूस कर रहा था । उसके दोस्त-यार सभी के पास अच्छा पैसा था । किसी की ऊपरी कमाई थी तो किसी की बीवी भी नौकरी में थी । उसे लगा वास्तव में वे सच कह रहे हैं । उसे इस तरह उनसे शराब पीने, उनके साथ गुलछर्रे उड़ाने का कोई हक़ नहीं है ...। तभी से उसके अन्दर अपने आपको उनके स्तर तक लाने और आज के माहौल में जीने लायक बना लेने की लालसा भड़क उठी थी जो पार्टी से पीकर घर पहुंचते-पहुंचते बढ़ती गई थी ं

लड़खड़ाती जु़बान में उसने शैला को पुकारा था । दरवाज़ा खोलते ही शैला उसे देख चौंक पड़ी थी । धीरे से उससे बोली थी, “आज तो बहुत देर कर दी ? और इतनी ज़्यादा पीकर आये हो....? देखो ना पान की पीक थूक-थूकर अपनी सारी शर्ट खराब कर ली ।”

“तो....? तो तुझे क्या....? चल हट । बड़ी चिन्ता लगी है शर्ट की । अरे अपने पैसे से बनवाई है....। अगर इतनी ही चिन्ता है तो चार पैसे कमा, जैसे आजकल की पढ़ी-लिखी बीवियां कमाती हैं और सिलवा दे दो-चार सूट.....। सबकी बीवियां अपने आदमी के कंधे से कंधा मिलाकर उसका बोझ हल्का करती हैं । सब तेरी तरह नहीं जो बैठे-बैठे टुकड़े तोड़ती है.....।” कहते-कहते पलंग पर गिर गया था प्रकाष । और उसके जूते उतारते हुये रो पड़ी थी शैला । शैला को लगा था जैसे उसके सीने पर किसी ने पूरी ताकत से घूंसा दे मारा हो.... जैसे किसी ने उसकी आत्मा को गाली दी हो....। आंखों में आंसू, मन में गुबार और तन की टूटन लिये प्रकाष के कदमों में वहीं बैठ गई थी । मगर प्रकाष नषे में बड़बड़ाता रहा था, “सारा दिन मेहनत करता हूं....। काष मैं इष्क के चक्कर में ना पड़के किसी नौकरी-पेषा लड़की से शादी....।” उसकी लड़खड़ाती जु़बान कहते-कहते बन्द हो गई थी । वह नषे में बेहोष-सा शांत पड़ गया था मगर शैला के मन में तूफान उठ खड़ा हुआ था । रात के सन्नाटे में उसकी सिसकियां अंधेरे में घुलने लगीं थीं । कमरे की हवा शैला के निर्मल आंसुओं से भीगकर भारी हो चली थी । हर कोना जैसे शैला की बेकसूर सिसकियेां के साथ सिसक रहा था । जैसे-जैसे रात चढ़ती जा रही थी वैसे-वैसे शैला का गुबार समुद्र के उफा़न की भांति उसके सीने में बढ़ता जा रहा था । दिल के दर्द से रात में आये इस हृदय विदारक भावना के भूकम्प का लावा निकलकर उसके कंठ में जमा होने लगा था । वह मन ही मन सोचती रही थी- मेरे प्यार के देवता ने अपनी घुटन बताई भी तो ऐसे....। काष...! मुझे दिल का गुबार पहले ही बता दिया होता तो.....। नौकरी क्या, मैं तो उसके लिये मर भी जाती....। और रात के लम्बे सफ़र की भांति ही उसकी सिसकियां भी थककर थम गई थीं और वैसे ही प्रकाष के कदमों में सिर रखे ना जाने निद्रा देवी ने कब अपनी दया का पात्र बना उसे अपने आगोष में सुला लिया था ।

जब प्रकाष की आंख खुली तो सुबह हो चुकी थी । प्रकाष ब्रष कर रहा था । उसने तुरन्त उठकर प्रकाष के हाथ में गर्म-गर्म चाय थमा दी । प्रकाष उसके सूजे पपोटों को घूरता रह गया था मगर कुछ कहने का साहस प्रकाष में शायद नहीं था । उसे तो रात उसने शैला से क्या-क्या कहा वह भी अच्छी तरह याद नहीं आ रहा था । प्रकाष तैयार होकर स्कूल चला गया था और शैला अखबार लेकर नौकरी का विज्ञापन ढूंढने लगी थी । शाम को प्रकाष के आते ही प्रकाष से पूछ बैठी थी, “पब्लिक स्कूल मं अनट्रेण्ड टीचर की वेकेन्सी निकली है भर दूं क्या ?”

“इसमें पूछने की क्या बात है ? अच्छा है चार पैसे आयेंगे तो....।” प्रकाष ने झट से कह दिया था ।

“मगर चिन्टू......?”

“उसे मां सम्भाल लेगी । ” बड़ी बेरूखाई से प्रकाष ने कहा था ।

फिर शैला ने अपने दिल पर जैसे पत्थर रख लिया था । उसका चयन तुरन्त अग्रंेज़ी अध्यापिका के रूप में कर लिया गया था । फिर स्कूल..... घर....बच्चा । और कुछ नहीं रह गया था शैला के जीवन में । प्रकाष का उसके प्रति प्यार कम और कमाने के प्रति ज़्यादा बढ़ता गया । शैला की लगन और मेहनत रंग लाती गई । वह प्राईवेट स्कूल से सरकारी स्कूल में तृतीय श्रेणी अध्यापिका और फिर स्कूल व्याख्याता तक सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ती चली गई ।

घर में स्कूटर, रंगीन टी.वी. फिर फ्रीज़...वाषिंग मषीन...सोफा, कूलर, फर्नीचर.... और अन्ततः घर का मकान....। धीरे-धीरे वैभव की चीज़ें बढ़ने लगीं मगर शैला का प्यार कम होता चला गया । घर, स्कूल और बच्चे की व्यस्तता में छटपटाती वह प्रकाष के प्यार के लिये तिल-तिल तरसने लगी थी । वह घर जो कभी पति-पत्नी के प्यार से महकता था वही घर अब सराय की भांति साथ खाने और सोने के आश्रय के अलावा कुछ नहीं रह गया था । दिन-ब-दिन खामोषी की छाया उस पर अपना प्रभुत्व जमाने लगी थी । स्वास्थ्य गिरता गया और फूल की तरह सदैव महकने वाली शैला कुम्हलाकर सूखने लगी थी ।

और उस दिन और भी वज्रपात हुआ था उस पर जब उसका ट्रांसफर दूसरे शहर कर दिया गया । प्रकाष स्वयं उसे छोड़ने और सारी व्यवस्था के लिये उसके साथ गया था । उस दिन वह कितना रोई थी प्रकाष से लिपटकर । लगा था जैसे आंसू नहीं हृदय का नासूर फूट पड़ा हो । अश्रुभरे नेत्रों से पहले उस किराये के कमरे को घूरा था जहां उसके अलावा उसके प्यार का कोई प्रतीक नहीं था । खामोष दीवारें उसे घूरती महसूस हुई थीं । लगा था जैसे कह रहीं हों- यहां से चली जाओ शैला, हमारे सन्नाटे से तुम्हारा दम घुट जायेगा...। कमरे की खामोषी से उसकी आंखें पथरा गईं थीं । आंखों में पांच साल के मासूम बेटे चिन्टू का चेहरा छलछला आया था जिसे अब अपनी दादी और पापा के पास ही रहना था । वह उसे किस तरह दिल पर पत्थर रखकर छोड़ आई थी यह वही जानती थी । उसने प्रकाष से विनम्र विनती की थी, “प्रकाष ! मुझे चिन्टू को ले जाने दो, अभी बहुत छोटा है मेरे बिना वह नहीं रह पायेगा और मेरा भी इसके बिना वहां मन.....। कम से कम तुम ना होओगे तो चिन्टू में ही तुम्हें.......।”

“क्या बच्चों जैसी बातें करती हो ? डोंट बी इमोषनल । हम हैं ना । मैं हूं, उसकी दादी है और फिर तुम्हें कौनसा ज़िंदगी भर वहां रहना है । जल्दी ही कोषिष करके वापस ट्रांसफर .......।”

प्रकाष की बस का समय हो गया था सो प्रकाष ने उसे झिंझोड़ा था, “ए शैल ! कहां खो गईं ....?” वह चौंक पड़ी थी और फिर ना चाहते हुये भी चिन्टू के ख्याल से वर्तमान में लौट आई थी । पपोटों पर बहते आंसुओं को अपनी पतली मुलायम अंगुलियों से पोंछ डाला था । बहुत कुछ कहने का मन कर रहा था उसका मगर कण्ठ जैसे अवरूद्ध हो गया था । थूक निगलकर गले को गीला करने की कोषिष करती हुई उसने निगाहें झुकाकर प्रकाष से कहा था, “प्रकाष ! क्या तुम वही हो जो घण्टों-घण्टों मेरे छत पर आने का खड़े होकर इन्तज़ार करते थे ...? ऑफिस से लंच में भाग-भागकर मुझसे मिलने चले आते थे और पूछने पर मुझे अपनी गोद में उठाकर कहते थे, “डार्लिंग क्या करूं ज़्यादा देर तुम्हें देखे बिना रहा नहीं जाता.....। क्या तुम वही हो जो चिन्टू के गर्भ में होने पर मुझे एक लोटा तक नहीं उठाने देते थेे ....? क्या तुम वही हो जो जरा सी मेरी स्लीपर घिस जाने पर तुरन्त बाज़ार से मेरे लिये नया स्लीपर ले आते थे ? पूछने पर कहते- पुराना हो गया था, कहीं उससे फिसलकर मेरी शैल गिर जाती तो.....? मैं तो मर ही जाता ना....। प्रकाष ! लाख दिल को समझाने पर भी मुझे विष्वास नहीं होता कि तुम वही हो.....। तुम नहीं जानते तुम्हें नहीं खोने के लिये मैंने अपना क्या-क्या खो दिया है.....। आज जब तुम चले जाओगे तब.....तब मेरा इस शहर में कोई नहीं होगा । मैं अकेली इन खामोष कमरे की दीवारों में घुट जाऊंगी....। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती प्रकाष......।” और शैला प्रकाष के सीने पर अपना सिर रखकर रो पड़ी थी ।

प्रकाष के पास शैला को जवाब देने लायक कोई शब्द ही नहीं बचे थे सो वह शैला को अपने सीने से लगाये कुछ पल को खामोष रह गया था । फिर उसे अपने सीने से लगाये ही उसके बालों में अपनी अंगुलियां फंसाते हुये बोला था, “षैला, इतनी नर्वस क्यों होती हो ? यहां सब इन्तज़ाम कर तो दिया है तुम्हारा । तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होगी । रहा मेरा, मैं खुद हर छुट्टी में चिन्टू को लेकर तुम्हारे पास आ जाया करूंगा । पांच घण्टे का सफ़र ही तो है । अब देखो ना, तुम्हारे नौकरी करने से आज हम.....।” शैला ने प्रकाष के मुंह पर अपना हाथ रख दिया था, “प्रकाष मैंने कब तुमसे इन सब चीज़ों के लिये षिकायत की थी । मुझे कुछ नहीं चाहिये था.....। मुझे सिर्फ शांति, चैन और मेरा वह पहले वाला घर-संसार चाहिये जिसमें हमने अपने प्यार का पौधा रोपा था।”

शैला प्रकाष से और ज़ोर से लिपटकर फूट पड़ी थी । मगर कुछ देर बाद ही प्रकाष अपनी दलीलें देकर लौट आया था उसे अकेला छोड़कर । मन ही मन सोचता रहा था जाकर किसी तरह षिक्षा मंत्री जी की सिफारिष से शैला का शीघ्र ही ट्रांसफर करा लेगा ।

मगर आज शैला को चार साल हो गये उसी शहर में नौकरी करते । ट्रांसफर तो दूर की बात रही, अर्द्धवार्षिक परीक्षाओं के कारण उसे चिन्टू को देखने जाने तक के लिये उसकी प्रिंसीपल ने छुट्टी नहीं दी है इस बार । वह कई बार प्रकाष के पत्र उसे बताकर गिड़गिड़ा चुकी है । मगर उसने बिना अनुमति मुख्यालय छोड़ने तक पर सख्त कार्यवाही करने की चेतावनी देते हुये कह भी दिया है, “षैला, अगर आपसे नौकरी नहीं होती तो त्याग-पत्र क्यों नहीं दे देती.....?” मगर यदि उसे प्रकाष की इच्छाओं का ख्याल ना होता तो वह तुरन्त त्याग-पत्र देकर चली आती चिन्टू के पास....।

अनायास ही प्रकाष की यादों का तूफान बर्फ़-सा जम गया । चिन्टू नींद में ही “मॅम्मी ....आ जाओ.....मम्मी.........मुझे तुम्हारी याद आती है... मम्मी प्लीज...।” बड़बड़ाया । प्रकाष ने उसे देखकर झिंझोड़ा, “चिन्टू...! बेटा चिन्टू...। क्या हुआ...?” मगर वह बड़बड़ाकर पुनः बुखार के कारण अचेत हो गया ।

आज प्रकाष का हृदय चिन्टू की हालत देखकर रो पड़ा । उसे लगा उसने चिन्टू के साथ ही नहीं, शैला के साथ भी बहुत बड़ी नाइन्साफ़ी की है । मुट्ठी भर सुख के लिये उसने अपनी हंसती-खेलती गृहस्थी को तिनके-तिनके बिखेर डाला । एषो-आराम की इन तुच्छ भौतिक तस्तुओं के लिये उसने शैला को कितना दुखाया है । उसे घृणा हो उठी अपने आप से ही । अपने किये पर प्रायष्चित कर जैसे उसकी आत्मा रो पड़ी । अनायास ही शर्मा जी का ख्याल हो आया जो इतने अभावों के साथ भी अपने परिवार में कितने खुष थे आज....।

और तभी उसने मन ही मन फेैसला कर लिया कि अब और शैला को नहीं दुखायेगा । एक मां से उसके बेटे को कभी अलग नहीं रखेगा और अपनी नेक पत्नी की भावनाओं की कद्र कर उसकी नौकरी तुरन्त छुड़वाकर ले आयेगा अपने घर और तिनके-तिनके बिखरे घर को अपनी ही मेहनत से सजायेगा । भूल जायेगा उन दोस्त यारों की बातें जो पष्चिमी सभ्यता के घिनोने रंग में रंग चुकी हैं।

शैला से जाकर मिलने और उसे सीने से लगाकर इतने दिनों अपने से दूर रखने का प्रायष्चित आंसू बहा-बहाकर धो देने के ख्याल में ना जाने कब तक करवटें बदलता रहा । फिर उसने उठकर खिड़की खोल दी । बाहर बारिष थम चुकी थी । ठीक उसकी भावनाओं के तूफ़ान की तरह ही मौसम शांत हो चला था । मौसम जैसी ही ठंडक उसे अब अपने दिल में महसूस हो रही थी ।

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