सिगरेट और फाउन्टेन पेन
“मेरा पारकर फिफ्टी वन का क़लम कहाँ गया।”
“जाने मेरी बला ”
“मैंने सुबह देखा कि तुम उस से किसी को ख़त लिख रही थीं अब इनकार कर रही हो”
“मैंने ख़त लिखा था मगर अब मुझे क्या मालूम कि वो कहाँ ग़ारत होगया।”
“यहां तो आए दिन कोई न कोई चीज़ ग़ारत होती ही रहती है मैंटल पीस पर आज से दस रोज़ हुए मैंने अपनी घड़ी रख्खी सिर्फ़ इस लिए कि मेरी कलाई पर चंद फुंसियां निकल आई थीं दूसरे दिन देखा वो ग़ायब थी।”
“क्या मैंने चुरा ली थी।”
“मैंने ये कब कहा सवाल तो ये है कि वो गई कहाँ तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैंने ये घड़ी वहीं रख्खी है उस के साथ ही दस रुपय आठ आने थे वो तो रहे लेकिन घड़ी जिस की क़ीमत दो सौ पछत्तर रुपय थी वो ग़ायब होगई। तुम पर मैंने चोरी का इल्ज़ाम कब लगाया?”
“एक घड़ी आप की पहले भी गुम होगई थी।”
“हाँ ”
“मैं तो ये कहती हूँ कि आप ने ख़ुद उन्हें बेच खाया है”
“बेगम तुम ऐसी बे-हूदा बातें न किया करो मुझे वो दोनों घड़ियां बहुत अज़ीज़ थीं। जिस के इलावा उन को बेचने का सवाल ही कहाँ पैदा होता था तुम जानती हो कि मेरी आमदनी अल्लाह के फ़ज़ल से काफ़ी है बैंक में उस वक़्त मेरे दस हज़ार से कुछ ऊपर रुपय जमा हैं घड़ियां बेचने की ज़रूरत मुझे कैसे पेश आसकती थी।”
“किसी दोस्त को दे दी होगी”
“क्यों मुझे उन की ज़रूरत नहीं थी। मैं तो घड़ी के बग़ैर रह ही नहीं सकता।”
“ऐसा महसूस होता है कि मैं ऐसा छकड़ा हूँ जिस में कोई पहिया नहीं वक़्त का कुछ पता नहीं चलता घर में क्लाक है मगर वो तुम्हारी तरह नाज़ुक मिज़ाज है ज़रा मौसम बदले तो जनाब बंद हो जाते हैं फिर जब मौसम उन के मिज़ाज के मुवाफ़िक़ हो तो चलना शुरू कर देते हैं।”
“यानी मैं क्लाक हूँ ”
“मैंने सिर्फ़ तशबीह के तौर पर कहा था। क्लाक तो बहुत काम की चीज़ है”
“और मैं किसी काम की चीज़ नहीं। शर्म नहीं आती आप को ऐसी बातें करते।”
“मैंने तो सिर्फ़ मज़ाक़ के तौर पर ये कह दिया था तुम ख़्वाह-मख़्वाह नाराज़ होगई हो।”
“मैं आज तक कभी आप से ख़्वाह-मख़्वाह नाराज़ हुई हूँ आप ख़ुद ऐसे मौक़े देते हैं कि मुझे नाराज़ होना पड़ता है।”
तो चलिए अब सुलह हो जाये।”
“सुलह वुलह के मुतअल्लिक़ मैं कुछ नहीं जानती इन बरसों में आप से में पंद्रह हज़ार मर्तबा सुलह-सफ़ाई कर चुकी हूँ मगर नतीजा क्या निकला है। वही ढाक के तीन पात”
“ढाक के तीन पातों को छोड़ो तुम मुझे मेरा पारकर क़लम ला के दे दो मुझे चंद बड़े ज़रूरी ख़त लिखने हैं।”
“मुझे क्या पता है कि वो कहाँ है? ले गया होगा कोई उठा कर अब मैं हर चीज़ का ध्यान तो नहीं रख सकती।”
“तो फिर तुम किस मर्ज़ की दवा हो”
“मैं नहीं जानती लेकिन इतना ज़रूर जानती हूँ कि आप मेरी ज़िंदगी का सब से बड़ा रोग हैं”
“तो ये रोग दूर करो हर रोग का कोई न कोई ईलाज मौजूद होता है”
“ख़ुदा ही बेहतर करेगा ये रोग ये किसी हकीम या डाक्टर से दूर होने वाला नहीं”
“अगर तुम्हारी यही ख़्वाहिश है कि मर जाऊँ तो मैं इस के लिए तैय्यार हूँ मेरे पास इत्तिफ़ाक़ से उस वक़्त क़ातिल ज़हर मौजूद है मैं खा कर मर जाता हूँ।”
“मर जाईए।”
“इस के लिए तो में तैय्यार हूँ ताकि रोज़ रोज़ की बकबक और झुक झुक ख़त्म हो जाये।
“आप तो चाहते हैं कि अपने फ़राइज़ से छुटकारा मिले। बीवी बच्चे जाएं भाड़ में, आप आराम से क़ब्र में सोते रहें लेकिन मैं आप से कहे देती हूँ कि वहां का अज़ाब यहां के अज़ाब से हज़ार गुना ज़्यादा होगा।”
“हुआ करे मैंने जो फ़ैसला किया है उस पर क़ायम हूँ।”
“आप कभी अपने फ़ैसले पर क़ायम नहीं रहे”
“ये सब झूट है मैं जब कोई फ़ैसला करता हूँ तो इस पर क़ायम रहता हूँ अभी पिछले दिनों मैंने फ़ैसला किया था कि मैं सिगरेट नहीं पियूंगा चुनांचे अब तक इस पर क़ायम हूँ ”
“पाख़ाने में सिगरेट के टुकड़े कहाँ से आते हैं।”
“मुझे क्या मालूम तुम पीती होगी।”
“मैं मुझे तो उस चीज़ से सख़्त नफ़रत है”
“होगी मगर सवाल ये पैदा होता है कि आख़िर पाख़ाना भी कोई ऐसी माक़ूल जगह है जहां पर सिगरेट पीए जाएं।”
“चोरी छुपे जो पीना हुआ पाख़ाने के इलावा और मौज़ूं-ओ-मुनासिब जगह किया हो सकती है आप मेरे साथ फ़राड नहीं कर सकते। मैं आप की रग रग को पहचानती हूँ।”
“ये तुम ने मुझ से आज ही कहा कि मैं पाख़ाने में छुपछुप कर सिगरेट पीता हूँ”
“मैंने इस लिए इस का ज़िक्र आप से नहीं किया था। आप चूँकि तंबाकू के आदी हो चुके हैं इस लिए सिगरेट नोशी आप तर्क नहीं कर सकते लेकिन ये बहर-हाल बेहतर है कि आप दो एक सिगरेट दिन में पी लेते हैं जहां आप पच्चास के क़रीब फूंकते थे।”
“मैंने ढाई बरस में एक सिगरेट भी नहीं पिया। भंगी पीता होगा।”
“भंगी गोल्ड फ्लेक और क्रेयॉन अ नहीं पी सकता।”
“हैरत है”
“किस बात की हैरत तो मुझे है कि आप साफ़ इनकार कर रहे हैं मुझे बना रहे हैं”
“नहीं मैं सोच रहा हूँ कि ये सिगरेट वहां कौन पीता है”
“आप के सिवा और कौन पी सकता है मुझे तो इस के धुएं से खांसी हो जाती है मुझे तो इस से सख़्त नफ़रत है मालूम आप लोग किस तरह धूवां अपने अंदर खींचते हो।”
“ख़ैर इस को छोड़ो मेरा पार कर क़लम मुझे दो ”
“मेरे पास नहीं है”
“तुम्हारे पास नहीं है तो क्या मेरे पास है आज सुबह तुम ख़ुदा मालूम किसे ख़त लिख रही थीं तुम्हारी उंगलियों में मेरा ही क़लम था।”
“था। लेकिन मुझे क्या मालूम कहाँ गया। मैंने आप के मेज़ पर रख्खा होगा। और आप ने उठा कर किसी दोस्त को दे दिया होगा। आप हमेशा ऐसा ही करते हैं।”
“देखो बेगम मैं ख़ुदा की क़सम खा कर कहता हूँ कि क़लम मैंने किसी दोस्त को नहीं दिया हो सकता है कि तुम ने अपनी किसी सहेली को दे दिया हो”
“मैं क्यों इतनी क़ीमती चीज़ किसी सहेली को देने लगी। वो तो आप हैं कि हज़ारों अपने दोस्तों में लुटा देते हैं।”
“अब सवाल ये है कि वो क़लम है कहाँ मुझे चंद ज़रूरी ख़त लिखने हैं जाओ मेरी जान ज़रा थोड़ी सी तकलीफ़ करो मुम्किन है ढ़ूढ़ने से मिल जाये।”
“नहीं मिलेगा आप फ़ुज़ूल मुझे तकलीफ़ देना चाहते हैं”
“तो ऐसा करो दवात और पिन होल्डर ले आओ।”
“दवात तो सुबह आप की बच्ची ने तोड़ दी पिन होल्डर भांजे के बेटे ने”
“इतने पन होल्डर थे कहाँ गए।” “आप ही इस्तिमाल करते हैं”
“मैंने आज तक पिन होल्डर कभी इस्तिमाल नहीं क्या कभी कभी तुम क्या करती हो।”
“आप की बच्चियां आफ़त की पुतलियां हैं वही तोड़ फोड़ के फेंक देती होंगी।”
“तुम ध्यान क्यों नहीं देतीं”
“किस किस चीज़ का ध्यान रखों मुझे घर के काम काज से फ़ुर्सत नहीं है”
“इसी लिए तो मेरी दो घड़ियां ग़ायब हो गईं। जब देखो लेटी रहती हो। ख़ुदा मालूम घर का काम काज लेटे लेटे करती हो।”
“घर का सारा काम तो आप करते हैं”
“मैं इस का दावा नहीं करता बहर-हाल जो कुछ मैं कर सकता हूँ करता रहता हूँ”
“क्या करते हैं आप?”
“हफ़्ते में एक दो दफ़ा मार्किट जाता हूँ मुर्ग़ी और मछली ख़रीद कर लाता हूँ अंडे भी कोइले का परमिट भी हासिल करता हूँ घी का बंद-ओ-बस्त करता हूँ अब मैं और क्या कर सकता हूँ।”
“मसरूफ़ आदमी हूँ दफ़्तर में जाता हूँ वहां न जाऊं तो महीना ख़त्म होने के बाद सात सौ रुपय कैसे आ सकते हैं।”
“इन सात सौ रूपों में से आप मुझे कितने देते हैं”
“पूरे सात सौ रुपय”
“ठीक है लेकिन आप अपना गुज़ारा किस तरह करते हैं?”
“अल्लाह बेहतर जानता है”
“रिश्वत लेते हैं और क्या वर्ना सारी तनख़्वाह मुझे देने के बाद आप पाँच सौ पचपन के सिगरेट नहीं पी सकते।”
“मैंने सिगरेट पीने तर्क कर दिए हैं”
“आप झूट क्यों बोलते हैं।”
“मैं बहस नहीं करना चाहता। तुम मेरा पारकर क़लम ज़रा ढूंढ के निकालो”
“मैं आप से कह चुकी हूँ कि मेरे पास नहीं है।”
“तो और किस के पास है”
“मुझे क्या मालूम मैंने सुबह ख़त लिख कर सेंटल पीस पर रख दिया।”
“वहां तो उस का नाम-ओ-निशान नहीं”
“आप ने किसी दोस्त को बख़्श दिया होगा ग्यारह बजे आप के चंद दोस्त आए थे।”
“मेरे दोस्त कहाँ थे। सिर्फ़ मुलाक़ात करने आए थे। मैं तो उन का नाम भी नहीं जानता।”
“मेरा नाम भी आप भूल गए होंगे बताईए किया है।”
“तुम्हारा नाम लेकिन बताने की ज़रूरत ही किया है तुम तुम हो बस ?”
“इन पंद्रह बरसों में आप को मेरा नाम भी याद नहीं रहा मेरी समझ में नहीं आता आप किस किस्म के इंसान हैं।”
“क़िस्में पूछोगी तो हैरान रह जाओगी एक करोड़ से ज़्यादा होंगी अब जाओ मेरा क़लम ढूंढ़ो।”
“मैं नहीं जानती कहाँ है।”
“ये क़मीस तुम ने नई सिलवाई है”
“हाँ ”
“गिरेबान बहुत ख़ूबसूरत है अरे ये इस में तो मेरा क़लम अटका हुआ है”
“सच्च मैंने यहां उड़स लिया होगा। माफ़ कीजिएगा।”
“ठहरो मैं ख़ुद निकाल लेता हूँ। मुम्किन है तुम क़मीस फाड़ डालो”
“ये क्या गिरा है”
“ये किया है अरे ये तो पाँच सौ पचपन सिगरटों का डिब्बा है कहाँ से आगया है।”
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