इंद्रधनुष सतरंगा
(7)
प्रार्थना-सभा
जून ख़त्म होने को था। पर आसमान से जैसे आग बरस रही थी। बादलों का नामोनिशान तक न था। सुबह होती तो सूरज आग के गोले की तरह आ धमकता। किरणें तीर जैसी चुभने लगतीं। लोग गर्मी से त्रहि-त्रहि कर उठते।
एक दिन कर्तार जी घर के पिछवाड़े बैठे कुछ बुदबुदा रहे थे। उसी समय मौलाना साहब वहाँ पहुँच गए। कर्तार जी को मगन देखकर वह एक ओर चुपचाप खड़े हो गए। कर्तार जी कपड़ों से बनी गुड्डा-गुडि़या लिए गुनगुना रहे थे--
‘‘वर-वर बदला चिट्टिया,
मैं गुड्डा-गुड्डी पिट्टिया,
वर-वर बदला कालिया,
मैं गुड्डा-गुड्डी पिट्टिया।’’
मौलाना साहब से आखि़र नहीं रहा गया। वह टोकते हुए बोले, ‘‘तौबा-तौबा, सरदार जी ये लड़कियों वाला खेल कब से शुरू कर दिया?’’
कर्तार जी एक पल को सिटपिटा गए। फिर सामान्य होते हुए बोले, ‘‘अरे मौलाना साहब, आप कब आए?’’
‘‘बस अभी-अभी। पर आप ये गुड्डा-गुडि़या लिए क्या कर रहे हैं?’’
‘‘रब जी से प्रार्थना कर रहा था,’’ कर्तार जी थोड़ा खिसियाते हुए बोले।
‘‘गुड्डे-गुडि़या की शादी की?’’ मौलाना साहब हँसे।
‘‘नहीं, बारिश की?’’ कर्तार जी गहरी साँस लेते हुए बोले, ‘‘जुलाई शुरू होने को है। पर बादलों का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं है। हर बंदा परेशान है। बारिश नहीं हुई तो रब जाने क्या होगा।’’
‘‘लेकिन इस बारिश से तुम्हारे गुड्डा-गुडि़या का क्या ताल्लुक?’’
कर्तार जी यादों में खो गए। थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया। मौलाना साहब चुप बैठे कर्तार जी के चेहरे पर बदलते रंगों की झाँकी देखते रहे। कर्तार जी डबडबाई आँखे लिए बोले, ‘‘कुछ नहीं, बस अपना बचपन याद कर रहा था। जब हम लोग छोटे-छोटे थे और बारिश नहीं होती थी तो गाँव के सब लड़के-लड़कियाँ मिलकर गुड्डी फूँकते थे और बारिश के लिए भगवान से प्रार्थना करते थे--वर-वर बदला चिट्टिया-----’’ कर्तार जी यादों में खो गए, ‘‘लेकिन मौलाना साहब, एक बात थी। उस समय रब हमारी सुनता ख़ूब था। ऐसा कभी नहीं हुआ कि हमने गुड्डी फूँकी हो और बारिश न हुई हो। भले बूँदा-बाँदी ही क्यों न हुई हो।’’
‘‘अल्लाह हमेशा मासूम दिलों की आवाज़ सुनता है।’’ मौलाना साहब ने ठंडी आह भरी।
तभी पीछे से किसी के हँसने की आवाज़ सुनाई दी। कोई कह रहा था, ‘‘ये लो, ये दोनों यहाँ छिपे हुए हैं और हम कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ आए!’’
पीछे पलटकर देखा तो पटेल बाबू और घोष बाबू खड़े हुए थे।
‘‘सब ख़ैरियत तो है?’’ मौलाना साहब ने पूछा।
‘‘ख़ैरियत तो आप लोग बताइए जो यहाँ मुँह लटकाए गुमसुम खड़े हैं।’’ पटेल बाबू बोले।
‘‘अरे कुछ नहीं, सब ठीक है। हम लोग तो बस यूँ ही बातें कर रहे थे। पर आप लोग हमें क्यों ढूँढ रहे थे?’’ कर्तार जी ने पूछा।
‘‘दरअसल, हम लोग आज बारिश न होने के कारण एक प्रार्थना-सभा का आयोजन कर रहे हैं, रात नौ बजे पार्क में । तब तक तो रात की नमाज़ से भी फुर्सत हो जाती है, क्यों मौलाना साहब?’’
‘‘हाँ, यह तो बड़ी अच्छी बात है। हम लोग वक़्त पर पहुँच जाएँगे।’’ मौलाना साहब ने कर्तार जी की तरफ देखते हुए कहा।
‘‘सिर्फ पहुँचने से काम नहीं बनेगा। आपके पास जो दरियाँ और चटाइयाँ हैं वह भी भिजवा दीजिएगा।’’
‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं। चलिए, अभी उठवा लीजिए।’’
‘‘वह शाम को ले लूँगा। अभी तो सबको सूचना पहुँचानी है। आप लोग भी चलिए।’’
घोष बाबू मौलाना साहब और कर्तार जी का हाथ पकड़कर अपने साथ खींच ले गए।
शाम को सभी पार्क में इकट्ठा हो गए। हवा ठप थी। पत्ती तक नहीं डोल रही थी। वातावरण में उमस थी। लोग पसीने से तर-बतर हो रहे थे। सारे लोग मौजूद थे। बस, मौलाना साहब का इंतज़ार था।
थोड़ी देर बाद मौलाना साहब नमाज़ पढ़कर लंबे-लंबे क़दमों से आते दिखाई दिए।
‘‘लो, मौलाना साहब भी आ गए।’’ गुप्ता जी बोले।
‘‘देर तो नहीं हुई?’’ मौलाना साहब ने हाँफते हुए पूछा।
‘‘मौलाना साहब साहब, एक बात पूछूँ?’’ घोष बाबू ने मौलाना साहब को पसीने में तर-बतर देखकर कहा।
मौलाना साहब समझ गए कि घोष बाबू को कोई मज़ाक़ सूझा है।
‘‘यह बताइए, आपको इस शेरवानी में गर्मी नहीं लगती?’’ घोष बाबू ने पूछा।
मौलाना साहब को घोष बाबू की बात अच्छी नहीं लगी। वह बोले, ‘‘घोष बाबू, आप अपनी आदत से बाज़ नहीं आते। हर वक्त मज़ाक़ अच्छा नहीं होता।’’
‘‘चलो-चलो, अब विलंब मत करो,’’ पंडित जी ने कहा।
सब लोग बैठ गए। प्रार्थना-सभा में सारा मुहल्ला जुटा था।
सभा समाप्त हुई तो गुप्ता जी की तरफ से सबको ठंडा शरबत पिलाया गया। लोग हैरान थे कि अपनी आदत के विपरीत गुप्ता जी ने कैसे ख़र्च कर दिया।
लोग जब अपने-अपने घरों को लौट रहे थे तो दूर क्षितिज पर अँधेरे आसमान में एक काली रेखा खिंचने लगी थी और पेड़ों की फुनगियाँ हल्के-हल्के डोलने लगीं थीं।
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