Domnik ki Vapsi - 1 in Hindi Love Stories by Vivek Mishra books and stories PDF | डॉमनिक की वापसी - 1

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डॉमनिक की वापसी - 1

डॉमनिक की वापसी

(1)

वो गर्मियों की एक ऐसी रात थी जिसमें देर तक पढ़ते रहने के बाद, मैं ये सोच के लेटा था कि सुबह देर तक सोता रहूँगा। पर एन उस वक़्त जब नींद सपने जैसी किसी चीज से टेक लगाकर रात काटना शुरू करती है....

फोन की घन्टी बजी। अजीत का फोन था।

कुछ हड़बड़ाया हुआ, ‘भाई, दीपांश का पता चल गया। वो मध्य प्रदेश में शिवपुरी के पास एक छोटे से कसबे, क्या नाम था…, हाँ, नरवर में था’

मैंने आँखें मलते हुए पूछा, ‘था मतलब?’

‘मतलब, अब शिवपुरी के जिला अस्पताल में है। घायल है। वहाँ के ब्यूरो चीफ़ ने फोन किया था। उसने बताया कि वहाँ सब उसे उसके नाटक के किरदार ‘डॉमनिक’ के नाम से ही जानते हैं। वहाँ भी कुछ नुक्कड़ नाटक बगैरह करता था। मैंने शायद इसके बारे में कहीं पढ़ा भी था पर ध्यान नहीं दिया कि इसके पीछे ‘डॉमनिक की वापसी’ वाला डॉमनिक, अपना दीपांश होगा!’

अजीत की बात सुनकर डॉमनिक का किरदार निभाता दीपांश, उसकी बड़ी-बड़ी आँखें, जैसे सामने आकर खड़ी हो गईं। उसके बाद अजीत ने और भी कुछ बोला पर मुझे सुनाई नहीं दिया।

दीपांश का सालभर पहले अचानक गायब हो जाना दिल्ली में रंगमंच की दुनिया की बड़ी घटना थी। जो लोग दीपांश को करीब से जानते थे, वह यह भी जानते थे कि पहाड़ के एक नमालूम से गाँव से चलकर कर उसके दिल्ली आने, नाटकों में अभिनय करने, सफल होने और अचानक यहाँ से चले जाने तक उसकी ज़िन्दगी कभी भी सीधी नहीं रही थी। उससे जुड़ी हर घटना के बारे में सभी अपनी ही तरह की अटकलें लगाते रहे थे। पर सच्चाई कोई नहीं जानता था। अब अचानक उसके मध्य प्रदेश के एक कसबे- नरवर में यूँ नमूदार होने और घायल होकर शिवपूरी के जिला अस्पताल पहुँचने की ख़बर से उसकी लगभग ख़त्म हो चुकी कहानी एक नया मोड़ लेकर हमारे सामने खड़ी थी।

मैं सोच रहा था कि यह बात जो अचानक हम तक पहुँची है, क्या उससे जुड़े रहे और लोगों तक भी पहुँची होगी? और उनमें से कितने लोग इसे सुनकर उसे देखने पहुँचेंगे। मेरे सामने हिमानी, इति, शिमोर्ग और रेबेका के चेहरे एक साथ घूम गए। इस बारे में मेरा और अजीत का एक ही निर्णय था कि कोई पहुँचे, या न पहुँचे, हमें जाना होगा…

दिन चढ़ते-चढ़ते हम किसी तरह ग्वालियर पहुँच गए और वहाँ से हमने शिवपुरी की बस पकड़ ली। ग्वालियर स्टेशन से निकलते हुए अजीत ने आदतन क्षेत्रीय पर्यटन गाइड जैसी एक किताब खरीदी और मुझे थमा दी।

बस चौंड़े-चपटे पठारों से होती हुई आगे बढ़ रही थी। जैसे-जैसे दिन पसर रहा था। सड़क के दोनों ओर जंगल घना होता जा रहा था। मैं झांसी से शिवपुरी कई बार गया था पर ग्वालियर से शिवपुरी पहली बार जा रहा था फिर भी मुझे वह इलाक़ा ज़रा भी अपरिचित नहीं लग रहा था जबकि अजीत जो उड़ीसा का रहने वाला था, के लिए यह इलाक़ा एकदम नया था इसलिए वह चाहता था कि मैं उसकी दी हुई किताब पढ़ूँ और उसे इस क्षेत्र के बारे में कुछ बताऊँ...

बड़े बेमन से किताब खोली, पढ़ना शुरु किया तो पता चला वह पयर्यटन गाइड नहीं बल्कि किसी पर्यटक की डायरी जैसी कोई चीज है। लिखा था, ‘यह एक मामूली खेती-बाड़ी वाला पठारी मैदान है। यहाँ न बड़े-बड़े पहाड़ हैं, न मनोरम घाटियाँ, न देवदार-न बुराँश। न ही यहाँ उफ़नता समुद्र है, न उसके दिलकश तट और रेतीले मैदान और न ही दूर-दूर तक पँक्तियों में खड़े नारियल के पेड़। यहाँ तक कि छोटी-मोटी पहाड़ी नदियों को छोड़कर कोई बड़ी महान और विराट नदी भी यहाँ नहीं है। दो-एक झीलें हैं पर इसे झीलों का क्षेत्र नहीं कहा जा सकता। जंगल घने पर टेड़े-मेड़े, बेढब और बेढ़ंगे हैं फिर भी इस जगह का अपना ही अलग सौन्दर्य है। इसे देखने के लिए आपको कवि वाशो की वे पँक्तियाँ याद करनी होंगी, ‘पाईन के वृक्ष को देखना हो तो पाईन की नज़र से देखो.’

खिड़की से बाहर देखा। सचमुच जो लिखा था, वो गलत न था। आगे पढ़ना शुरू किया। अगले पन्ने पर जो लिखा था, उसने मुझे अपनी पीठ सीधी करके बैठने को विवश कर दिया।

…‘यह क्षेत्र न तो देश का सिर है, न बाजू, न पैर और उसके नैन-नक्श तो बिलकुल भी नहीं। इसलिए इसे आसानी से पहचानना कठिन है पर फिर भी अपने पूरे विस्तार के साथ यह उपस्थित है। हाँ, शायद यह हमारे देश की पीठ हो। इसका सौन्दर्य भी किसी बोझा ढोती पीठ का ही सौन्दर्य है। इस पर लदकर तमाम वेश कीमती सामान यहाँ से वहाँ जाते हैं और हर बार पीठ पर कुछ हरे-नीले निशान बढ़ जाते हैं। फिर भी न पीठ हँसती है, न रोती है। बस कभी रात के अन्धेरे में चटकती है, हल्की-सी कराह के साथ। मैं जिस जगह बैठके यह डायरी लिख रहा हूँ अगर आप उसे उँगली रखके नक्शे में ढूँढ रहे हैं, तो जान लीजिए वह नहीं मिलेगी, क्योंकि वह जगह देश की बोझा ढोती पीठ का एक नामालूम-सा तिल है।’

‘बोझा ढोती पीठ का तिल…!’ इससे आगे नहीं पढ़ सका। सोचने लगा ‘सच, धरती के इस विस्तार में कितनी छोटी-छोटी नामालूम-सी जगहें हैं। अपनी गति से धड़कती, साँस लेती, किसी बड़ी देह पर एक तिल के जैसी, या उससे भी छोटी।’

किताब बन्द करके बाहर देखने लगा। दिन टीका-टीक दोपहरिया में बदल गया था पर घने पेड़ों से छन-छन कर सड़क पर पड़ती धूप तेज़ नहीं लग रही थी। मैं सीट पर सिर टिका कर झपकने लगा। पता ही नहीं चला कब आँख लग गई। जब गाड़ियों के हार्न की तेज़ आवाज़ से आँख खुली। तो शाम हो चुकी थी। बाहर झाँकने पर पता चला, हम शिवपुरी के बस अड्डे पर थे। गाड़ी से नीचे उतरे तो लगा कि इतनी भीड़-भाड़ के बाद भी यहाँ सब कुछ ठहरा हुआ-सा है। जीवन गाड़ा और धीरे-धीरे बहता हुआ। हमने समय और शहर की गति को पकड़ा और धीरे से उसके साथ बह चले।

कुछ ही देर में शिवपुरी के जिला अस्पताल के सामने थे।

रास्ते भर जो देखा था यहाँ का नज़ारा उससे कुछ अलग ही था। अस्पताल के गेट पर तीन लम्बी-लम्बी दिल्ली के नम्बर वाली गाड़ियाँ खड़ी थीं। उनके आसपास जो लोग थे, उनको देखकर ही पता चलता था कि वे स्थानीय नहीं हैं। पास पहुँचकर पता चला था कि दिल्ली से नाटकों के प्रसिद्ध निर्देशक विश्वमोहन आए हैं। हम ट्रेन और बस की कई घण्टों की यात्रा करके यहाँ पहुँचे थे। ये लोग अपनी गाड़ियों से हम लोगों से कई घण्टे बाद निकलने के बावजूद भी हमसे पहले पहुँच गए थे। हम वार्ड की तरफ़ बढ़ ही रहे थे कि विश्वमोहन बाहर आते हुए दिखाई दिए। हमें उनसे मिले हुए बहुत समय हो चुका था और सीधे उनसे कोई विशेष पहचान भी नहीं थी पर फिर भी वह हमें वहाँ देखकर पहचान गए।

अपना कार्ड देते हुए बोले, ‘हम सरकारी गेस्ट हॉउस में रुके हैं, कल निकलेंगे। दीपांश से मिल लीजिए, फिर आइएगा। उसके बारे में कुछ बात करनी है।’

वह कुछ अन्यमस्क से लग रहे थे। उनके पीछे एक खूबसूरत, सुनहले बालों वाली स्त्री भी वार्ड के गेट से बाहर आ रही थी। वह शिमोर्ग थी। ‘डॉमनिक की वापसी’ नाटक की नायिका। हम उसे मंच पर कई बार देख चुके थे इसलिए अच्छी तरह पहचानते थे। वह हमें नहीं जानती थी। कुछ ही मिनटों में गाड़ियाँ हमें पीछे छोड़ती, धूल उड़ाती, अस्पताल के गेट से दूर होती चली गईं।

हम कॉरीडोर में कुछ सहमे हुए से बढ़ रहे थे।

हमें बताया गया था कि आखिरी कमरा दीपांश का कमरा है। उसके बाहर आठ-दस युवाओं का झुंड सिर जोड़े खड़ा था। हमें देखकर उन्होंने जगह बना दी। हम कमरे में घुस ही रहे थे कि नर्स ने आकर कड़क आवाज़ में सूचित किया ‘सीनीयर डॉक्टर राउन्ड पर हैं, आपको अभी बाहर ही रुकना पड़ेगा’

हम जहाँ थे वहीं ठिठक गए। हम दीपांश का हाल जानने के लिए बेचैन थे। अजीत ने उसके बारे में जानने के लिए बाहर खड़े लड़कों से बातचीत शुरू कर दी। उनकी बातों से लगता था वे सब दीपांश के लिए बहुत चिंतित थे। वे उसे ‘डॉमनिक दादा’ कहके संबोधित कर रहे थे।

उनमें से एक गोरे रंग के, लंबे लड़के ने अपना परिचय दिया ‘मैं उत्कर्ष हूँ’ फिर बारी-बारी सबने अपना नाम बताते हुए हमसे हाथ मिलाया। उन्होंने हमें कॉरीडोर के अन्तिम छोर पर पड़ी बैन्च पर ले जाकर बिठा दिया। हमारे चेहरे पर एक प्रश्न जैसे बिना पूछे ही उन्होंने पढ़ लिया। इसलिए उत्कर्ष ने हमें दीपांश के साथ हुई घटना के बारे में बताना शुरू किया, फिर उनमें से सभी एक-एककर उसका साथ देने लगे……

***