Kahani aise thode n likhi jati hai - 2 in Hindi Moral Stories by प्रियंका गुप्ता books and stories PDF | कहानी ऐसे थोड़े न लिखी जाती है... - 2

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कहानी ऐसे थोड़े न लिखी जाती है... - 2

कहानी ऐसे थोड़े न लिखी जाती है...

प्रियंका गुप्ता

भाग - २

निर्मल बाहर क्या गया, मानो मेरी आत्मा ले गया...। दिन काटे नहीं कटता था...। माँ भी बहुत खालीपन महसूस करने लगी थी, पर अब मेरे ब्याह की चिन्ता उन्हें इस कदर सताने लगी थी कि उसकी माथापच्ची में उनका सारा खालीपन भर गया...। पर मैं क्या करती...? मैं तो शादी ही नहीं करना चाहती थी...। मुझे बस निर्मल का इंतज़ार था...। अपनी चिठ्ठी में उसने लिखा भी था, छः महीने की नौकरी के बाद उसे ऑफ़िस की तरफ़ से एक हफ़्ते की छुट्टी मिल जाएगी। उसे पता था कि उसकी चिठ्ठी घर में सब पढ़ेंगे, सो जो मैं पढ़ना चाहती थी, चाहते हुए भी वह वो सब नहीं लिख पाया...। पर उसका थोड़ा लिखा, मैं बहुत समझ गई...। हाँ, हर चिठ्ठी के अंत में वह इतना ज़रूर लिख देता...कोई मेरी चिन्ता न करना, अब मैं बड़ा हो गया हूँ...। माँ उसकी इस बात पर हँसती और मैं मन-ही-मन गुदगुदी महसूसती अजीब-सा आनन्द अनुभव करती...। तो बस जैसे ही निर्मल आएगा, हम अपनी शादी की बात अपने-अपने घर वालों से कर लेंगे...। तब तक का समय तो काटना ही था।

निर्मल की हर चिठ्ठी मैं बहुत सहेज कर रखती थी। एकान्त पलों में मैं उन्हें बार-बार पढ़ती, चूमती, सीने से चिपटाए घण्टों पड़ी रहती और जब माँ की गालियाँ सुनती, तो उन्हें फिर से छुपा काम-काज में जुट जाती। माँ मेरी इन हरकतों से इतनी आजिज़ आ चुकी थी कि मेरी शादी के लिए बाऊजी के पीछे हाथ धोकर पड़ गई। और देखो, वैसे तो कई बार प्रार्थना सुनने में, मानने में भगवान इतने दिन लगा देते हैं, पर माँ की यह प्रार्थना उन्होंने झट ‘तथास्तु’ कह दी। पता नहीं कहाँ से हर तरह से लायक लड़का बाऊजी को मिल गया| जब मुझे देखने-दिखाने कि बात माँ ने मुझे बताई, तब मुझे लगा, अब चुप रहने का वक्त नहीं...| सो पूरी तरह से बेहयाई पर उतर मैंने साफ शब्दों में माँ से कह दिया...शादी करूँगी तो सिर्फ निर्मल से...| माँ पल भर को तो सनाका खा गई थी...मैं इतनी मजाकिया कब से हो गई...? पर मेरी आवाज़ और चेहरे की दृढ़ता देख वे समझ गई, मैं मज़ाक नहीं कर रही...। पहले तो उन्होंने अपना माथा पीटा, फिर अपनी पूरी शक्ति मुझ पर दोहत्थड़ बरसाने में लगा दी...। बिन देखे, बिन जाने, जहाँ हाथ पड़ रहा था, वे मुझे मारे जा रही थी, "करमजली… बेहया… भाई जैसा है वो तेरा...। अरे कुलटा, उस बेचारे ने तो सपने में भी नहीं सोचा होगा कि तू उस पर ऐसी पापी नज़र रखती है...। बहन मानता है वो तुझे...।"

मेरा दिल-दिमाग़ इतना घायल था कि माँ के हाथ से मुझे चोट लग ही नहीं रही थी...। मैं बस यही बुदबुदाए जा रही थी...वो भाई नहीं है मेरा...न मैं उसकी बहन...। थक-हार कर माँ शान्त पड़ गई। मेरी आँखों में तो जैसे आँसू सूख ही गए थे। माँ बार-बार शुक्र मना रही थी कि मेरे ऐसे गन्दे विचार सुनने के लिए बाऊजी घर पर नहीं थे, वरना जिस घर से वे मेरी डोली उठाने की सोच रही थी, वहाँ से वे मेरी अर्थी ही उठाते...। मेरी बेहयाई से ज़्यादा माँ को निर्मल के भाग्य पर रोना आ रहा था। वो कितना चाहता है मुझे, अगर ग़लती से भी वो यह सब जान जाता तो शर्म के मारे आत्महत्या कर लेता...। मेरे दिमाग़ ने वैसे तो काम करना बन्द कर दिया था, पर फिर भी इतनी सजगता मुझमे अब भी थी कि मैने निर्मल की अपने प्रति भावना अपने दिल के सात तालों में बन्द कर चाभी जाने कहाँ फ़ेंक दी...| मेरा जो होगा, देखा जाएगा, पर निर्मल की बात पता चलने पर ये लोग निश्चित उसकी जान ले लेंगे, इतना मुझे पक्का यकीन था...|

माँ ने बाऊजी को क्या कहा, लड़के वालों पर कौन सी जादू की छड़ी घुमाई, मुझे नहीं मालूम, पर पन्द्रह दिन के अंदर ही मेरी शादी पक्की हो गई...| मजबूरी थी, इसलिए निर्मल को भी सूचना भेजी गई...| पता चलते ही जिस तेज़ी से निर्मल दूसरे दिन ही हाज़िर हुआ, उससे माँ का दिल और रो दिया...| बेचारा कितनी हसरत से अपनी बहन की विदाई करने आया है अपनी नई नौकरी दाँव पर लगा...और एक मैं थी...पापिन...| निर्मल स्टेशन से सीधा मेरे घर ही आया...बदहवास-सा...। मुझे ढूँढता वह दनदनाता मेरे कमरे में घुस आया...। माँ को मुझ पर तनिक भी विश्वास नहीं रह गया था...। अपने पागलपन में न जाने मैं उस बेचारे से क्या कह बैठूँ...सो वह बहाने से हमारे आसपास ही बनी रही...। मैं सिर झुकाए, पैर के नाखूनों से ज़मीन खुरचती चुपचाप बैठी थी तो निर्मल भी बेचैन था, पल भर मुझसे बात करने को...। पर माँ हमें अकेला छोड़ ही नहीं रही थी...। आखिरकार निर्मल ही मेरे पास खिसक आया...। पहली बार निर्मल को इतने क़रीब पा मुझे डर लगा था...| कहीं वो ही कोई गलती न कर बैठे...| मैंने उससे दूर खिसकना चाहा, पर उसने मेरा हाथ पकड़ मुझे हिलने ही न दिया...| मैं फिर से उसकी आँच में पिघल न जाऊँ, इस डर से मैंने दूसरे हाथ से कस कर पलंग की चादर पकड़ ली थी...| मेरा झुका चेहरा अपने हाथों से उठा उसने बस इतना ही पूछा था, “इस रिश्ते से तुम खुश हो न...?”

"खुश क्यों नहीं होगी बेटा,"मेरे कुछ कह पाने से पहले माँ ने ही मोर्चा सम्हाल लिया था,"अंमीर खानदान का एकलौता वारिस है...। सुन्दर, पढ़ा-लिखा लड़का है...जैसा ये चाहती थी...। राज करेगी वहाँ...।"

मैं बेचारगी से उसकी तरफ़ देखती रह गई थी...। बस यही डर रही थी कि उसे छेड़ने के लिए अक्सर जब मैं भी कहती थी...मैं किसी ऐरे-गैरे से शादी थोड़े न करने वाली हूँ...। अमीर घर में करूँगी, जहाँ बैठे-ठाले मुटिया भी गई तो भी राज ही करूँगी...उसे कहीं वो सच न मान ले...।

मैं नहीं जानती कि हमेशा एक्सरे रहने वाली उसकी आँखों ने उस दिन मेरी आँसू भरी आँख देख कर भी कुछ जाना-समझा था या नहीं...पर दुबारा वही सवाल पूछते समय उसकी आँखों में जो था, वो मुझे पूरी तरह बिखरा गया था| माँ की खा जाने वाली नज़रों के सामने मैं ख़ामोश ही रही...। निर्मल भी उस के बाद वहाँ रुका नहीं था...। ऊपर से तो माँ ने उसे रुकने, खाना खा कर जाने को कहा, पर मैं समझ रही थी कि उसके ‘घर पर भी सब से मिल लूँ’ कहने से माँ ने अन्दर तक राहत की साँस ली थी...।

निर्मल उस दिन मेरे घर से ही नहीं, मेरी ज़िन्दगी से ही जैसे चला गया...। रात में चाची ने ही आकर बताया था,"अजीब लड़का है...रुकने को तैयार ही नहीं हुआ...। कितना समझाया कि तेरे बचपन की साथिन की शादी है...इतना खास समय है उसके जीवन का...। कम-से-कम उसमें तो शामिल हो ले...। पर नहीं, एक ही रट...छुट्टी नहीं है...। सच कहते हैं लोग जिज्जी...लड़का जब नौकरी करने घर से बाहर पाँव निकाल ले तो समझो, पराया हो गया...। बेटी तो तब भी मौका मिलते ही पीहर भागती है, पर बेटे...उन्हें माँ-बाप का तनिक भी मोह नहीं रह जाता...।"

पर मैने चाची की यह बात ग़लत साबित कर दी थी...। मुझे मौका मिलता तब भी मैं पीहर न आती...। कभी पति का ख़्याल कौन रखेगा तो कभी बीमार सास को छोड़ कर न आ पाने का मेरा बहाना...इन बातों ने भले ही मेरी माँ का दिल दुखाया हो, पर मेरे पति और ससुरालवालों की नज़रों में मेरा दर्ज़ा बहुत बढ़ा दिया था...। मैं एक आदर्श बहू थी, एक आदर्श पत्नी और माँ थी...। राघव से मुझे सब कुछ मिला था, प्यार-सम्मान, धन-दौलत...दो प्यारे बच्चे...। हाँ, यह ज़रूर रहा कि जिस आँच में मैं निर्मल की बाँहों में पिघली थी, राघव कभी उस आँच में मुझे पिघला नहीं पाए...| पर एक कुशल अभिनेत्री की तरह मैंने कभी उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं होने दिया...| मैं वैसे तो साल के तीन सौ चौंसठ दिन उनकी समर्पित पत्नी थी, पर सच कहूँ, एक करवाचौथ का व्रत मैं कभी उनके नाम का नहीं रख पाई...। चाँद देख कर मैं मन की आँखों से हमेशा निर्मल का चेहरा ही देखती रही...। शायद यही वजह है कि मेरे व्रत का फल राघव को नहीं, निर्मल को मिला...। निर्मल के बारे में ज़्यादा जानकारी तो नहीं जुटा पाती थी, पर हाँ, इस बात का दुःख मुझे हमेशा सालता रहेगा कि इकलौते बेटे की बहू देखने का सपना पाले ही पहले चाची, फिर चाचा भी इस दुनिया से चले गए...| घरवालों, दुनिया-समाज की निगाह में मैं हर तरह से सुखी औरत थी...| मैं बहुत बोलने लगी थी...शायद डरती थी कि चुप बैठूँगी तो सामने निर्मल आकर बैठ जाएगा...अपने सवाल के साथ...इस रिश्ते से खुश तो हो न तुम...? माँ मेरे मायके कम आने का अफ़सोस तो करती थी, पर मेरी सुखी घर-गृहस्थी देख कर उन्हें संतोष भी बहुत था| मैं भी उनका भ्रम तोड़ कर क्या करती...? मेरा घाव देख भी पाती क्या वो...? जिसे मेरा घाव दिखना चाहिए था, वो तो सात समुन्दर पार एनआरआई बन मुझसे भी ज्यादा घायलावस्था में ज़िंदगी गुज़ार रहा...|

मुझे अब भी अच्छी तरह याद है, जब मेरे बेटे ने मेरी किसी चिन्ता पर खीज कर कहा था,"डोन्ट वरी मॉम, आई कैन टेक केयर ऑफ़ माइसेल्फ़...। अब मैं बड़ा हो गया हूँ..." तो न जाने कैसे मेरी आँखों से आँसू बह निकले थे। मुझे लगा था, मेरे सामने राघव का नहीं, मेरे निर्मल का बेटा खड़ा है, जिसे मैने जन्म दिया है...। बेटा मेरे यूँ अचानक रो देने से घबरा गया था...। वह मुझे चुप कराता बार-बार अपनी सफ़ाई पेश करे जा रहा था,"मॉम, आइ डिडेन्ट मीन टू बी रूड...आइ एम सॉरी...।" पर मैं पागल उसे क्या समझाती कि ये किसी की याद के आँसू थे जो अचानक सारा बाँध तोड़ कर बह निकले थे...।

अरे, मैं भी न, अब भी इस उम्र में कितना बोलती हूँ...| बैठी थी अलमारी साफ़ करने, और देखिए न, हाथ में ये बटन क्या आया...कहाँ से शुरू हुई बात कहाँ जा पहुँची...| ये बटन, इसकी क्या कहानी...? कुछ नहीं,वो जब निर्मल ने मुझे बाँहों में लिया था न, तब उसकी कमीज़ का यह बटन मेरे हाथ में आ गया था...| मेरी जान से बढ़ कर है यह, तभी तो इतने एहतियात से सम्हाल कर रखा है...|

फोन की घंटी बज रही...| ज़रूर नीलम का फोन होगा...| फिर पीछे पड़ेगी...कहानी लिखो...| पर आज साफ बात कह दूँगी...मुझसे नहीं होगा ये लिखना-विखना...| कहानी ऐसे थोड़े न लिखी जाती है...|

(प्रियंका गुप्ता)