Sadak ke kinare in Hindi Short Stories by Saadat Hasan Manto books and stories PDF | सड़क के किनारे

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सड़क के किनारे

सड़क के किनारे

“यही दिन थे..... आसमान उस की आँखों की तरह ऐसा ही नीला था जैसा कि आज है। धुला हुआ, निथरा हुआ.... और धूप भी ऐसी ही कनकनी थी... सुहाने ख़्वाबों की तरह। मिट्टी की बॉस भी ऐसी ही थी जैसी कि इस वक़्त मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में रच रही है..... और मैं ने इसी तरह लेटे लेटे अपनी फड़फड़ाती हुई रूह उस के हवाले कर दी थी।”

“उन ने मुझ से कहा था.... तुम ने मुझे जो ये लम्हात अता किए हैं यक़ीन जानो। मेरी ज़िंदगी उन से ख़ाली थी.... जो ख़ाली जगहें तुम ने आज मेरी हस्ती में पुर की हैं।, तुम्हारी शुक्र-गुज़ार हैं। तुम मेरी ज़िंदगी में न आतीं तो शायद वो हमेशा अधूरी रहती.... मेरी समझ में नहीं आता। मैं तुम से और क्या कहूं.... मेरी तकमील हो गई है। ऐसे मुकम्मल तौर पर कि महसूस होता है मुझे अब तुम्हारी ज़रूरत नहीं रही.... और वो चला गया.... हमेशा के लिए चला गया।”

“मेरी आँखें रोईं... मेरा दिल रोया... मैं ने उस की मिन्नत समाजत की। उस से लाख मर्तबा पूछा कि मेरी ज़रूरत अब तुम्हें क्यों नहीं रही... जबकि तुम्हारी ज़रूरत.... अपनी तमाम शिद्दतों के साथ अब शुरू होई है। उन लम्हात के बाद जिन्हों ने बाक़ौल तुम्हारे, तुम्हारी हस्ती की ख़ाली जगहें पुर की हैं।”

उस ने कहा। “तुम्हारे वजूद के जिस जिस ज़र्रे की मेरी हस्ती की तामीर-ओ-तकमील को ज़रूरत थी, ये लम्हात चुन चुन कर देते रहे.... अब कि तकमील हो गई है तुम्हारा मेरा रिश्ता ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म हो गया है।”

किस क़दर ज़ालिमाना लफ़्ज़ थे......... मुझ से ये पथराओ बर्दाश्त न किया गया......... मैं चीख़ चीख़ कर रोने लगी......... मगर इस पर कुछ असर न हुआ मैं ने उस से कहा। “ये ज़र्रे जिन से तुम्हारी हस्ती की तकमील हुई है, मेरे वजूद का एक हिस्सा थे......... क्या इन का मुझ से कोई रिश्ता नहीं......... क्या मेरे वजूद का बक़ाया हिस्सा उन से अपना नाता तोड़ सकता है?......... तुम मुकम्मल हो गए हो......... लेकिन मुझे अधूरा कर के......... क्या मैं ने इसी लिए तुम्हें अपना माबूद बनाया था?”

उस ने कहा। “भोंरे, फूलों और कलियों का रस चूस चूस कर शहीद कशीद करते हैं, मगर वो उस की तलछट तक भी इन फूलों और कलियों के होंटों तक नहीं लाते......... ख़ुदा अपनी परसतिश कराता है, मगर ख़ुद बंदगी नहीं करता......... अदम के साथ ख़ल्वत में चंद लम्हात बसर कर के उस ने वजूद की तकमील की......... अब अदम कहाँ है......... उस की अब वजूद को क्या ज़रूरत है। वो एक ऐसी माँ थी जो वजूद को जन्म देते ही ज़चगी के बिस्तर पर फ़ना हो गई थी।”

औरत रो सकती है......... दलीलें पेश नहीं कर सकती......... उस की सब से बड़ी दलील उस की आँख से ढलका हुआ आँसू है......... मैं ने उस से कहा। “देखो......... मैं रो रही हूँ......... मेरी आँखें आँसू बरसा रही हैं तुम जा रहे हो तो जाओ, मगर इन में से कुछ आँसूओं को तो अपने रूमाल के कफ़न में लपेट कर साथ लेते जाओ......... मैं तो सारी उम्र रोती रहूंगी......... मुझे इतना तो याद रहेगा कि चंद आँसूओं के कफ़न दफ़न का सामान तुम ने भी किया था......... मुझ ख़ुश करने के लिए!”

उस ने कहा। “मैं तुम्हें ख़ुश कर चुका हूँ.... तुम्हें उस ठोस मुसर्रत से हम-कनार कर चुका हूँ। जिस के तुम सराब ही देखा करती थीं.... क्या उस का लुत्फ़ उस का कैफ़, तुम्हारी ज़िंदगी के बक़ाया लम्हात का सहारा नहीं बन सकता। तुम कहती हो कि मेरी तकमील ने तुम्हें अधूरा कर दिया है... लेकिन ये अधूरा पन ही क्या तुम्हारी ज़िंदगी को मुतहर्रिक रखने के लिए काफ़ी नहीं.... मैं मर्द हूँ.... आज तुम ने मेरी तकमील की है.... कल कोई और करेगा.... मेरा वजूद कुछ ऐसे आब-ओ-गुल से बना है जिस की ज़िंदगी में ऐसे कई लम्हात आयेंगे जब वो ख़ुद को तिश्ना-ए-तकमील समझेगा..... वो तुम जैसी कई औरतें आयेंगी जो इन लम्हात की पैदा की हुई ख़ाली जगहें पुर करेंगी।”

मैं रोती रही। झुँझलाती रही।

मैं ने सोचा..... ये चंद लम्हात जो अभी अभी मेरी मुट्ठी में थे....नहीं..... मैं इन लम्हात की मुट्ठी में थी...... मैं ने क्यों ख़ुद को उन के हवाले कर दिया..... मैं ने क्यों अपनी फड़फड़ाती रूह उन के मुँह खोले क़फ़स में डाल दी......... इस में मज़ा था। एक लुत्फ़ था.........एक कैफ़ था......... था, ज़रूर था......... और ये उस के और मेरे तसादुम में था.........लेकिन.........ये किया कि वो साबित-ओ-सालिम रहा....... और मुझ में तरीड़े पड़ गए......... ये क्या, कि वो अब मेरी ज़रूरत महसूस नहीं करता।। लेकिन मैं और भी शिद्दत से उस की ज़रूरत महसूस करती हूँ......... वो ताक़तवर बन गया है। मैं नहीफ़ हो गई हूँ......... ये क्या कि आसमान पर दो बादल हम-आग़ोश हों......... एक रो रो कर बरसने लगा, दूसरा बिजली का कूदा बन कर इस बारिश से खेलता, कदकड़े लगाता भाग जाये......ये किस का क़ानून है?....आसमानों का?...... ज़मीनों का...... या उन के बनाने वालों का?

मैं सोचती रही और झुँझलाती रही।

दो रूहों का सिमट कर एक हो जाना और एक हो कर वालहाना वुसअत इख़्तियार कर जाना.. क्या ये सब शायरी है...... नहीं, दो रूहें सिमट कर ज़रूर उस नन्हे से नुक्ते पर पहुंचती हैं जो फैल कर कायनात बनता है..... लेकिन इस कायनात में एक रूह क्यों कभी कभी घायल छोड़ दी जाती है..... क्या इस क़सूर पर कि उस ने दूसरी रूह को इस नन्हे से नुक्ते पर पहुंचने में मदद थी।

ये कैसी कायनात है।

यही दिन थे......... आसमान की आँखों की तरह ऐसा ही नीला था जैसा कि आज है......... और धूप भी ऐसी ही कनकनी थी......... और मैं ने इसी तरह लेटे लेटे अपनी फड़फड़ाती हुई रूह उस के हवाले कर दी थी......... वो मौजूद नहीं है......... बिजली का कोंदा बन कर जाने वो किन बदलियों की गिर्या-ओ-ज़ारी से खेल रहा है......... अपनी तकमील कर के चला गया......... एक साँप था जो मुझे डस कर चला गया......... लेकिन अब उस की छोड़ी हुई लकीर क्यों मेरे पेट में करवटें ले रही है......... क्या ये मेरी तकमील हो रही है?

नहीं, नहीं......... ये कैसी तकमील हो सकती है......... ये तो तख़्रीब है.........

लेकिन ये मेरे जिस्म की ख़ाली जगहें पुर हो रही हैं......... ये जो गढ़्ढ़े थे किस मल्बे से पुर किए जा रहे हैं......... मेरी रगों में ये कैसी सरसराहटें दौड़ रही हैं......... मैं सिमट कर अपने पेट में किस नन्हे से नुक्ते पर पहुंचने के लिए पेच-ओ-ताब खा रही हूँ......... मेरी नाव डूब कर अब किन समुंद्रों में उभरने के लिए उठ रही है.........?

ये मेरे अंदर दहकते हुए चूल्हों पर किस मेहमान के लिए दूध गर्म किया जा रहा है......... ये मेरा दिल मेरे ख़ून को धुनक धुनक कर किस के लिए नर्म-ओ-नाज़ुक रज़ाईयां तैय्यार कर रहा है। ये मेरा दिमाग़ मेरे हालात के रंग बिरंग धागों से किस के लिए नन्ही मुन्नी पोशाकें बुन रहा है?

मेरा रंग किस के लिए निखर रहा है......... मेरे अंग अंग और रुम रुम में फंसी हुई हिचकियां लोरियों में क्यों तब्दील हो रही हैं.........

यही दिन थे......... आसमान उस की आँखों की तरह ऐसा ही नीला था जैसा कि आज है......... लेकिन ये आसमान अपनी बुलंदियों से उतर कर क्यों मेरे पेट में तन गया है......... उस की नीली नीली आँखें क्यों मेरी रगों में दौड़ती फिरती हैं?

मेरे सीने की गोलाइयों में मस्जिदों के मेहराबों ऐसी तक़दीस क्यों आ रही है?

नहीं, नहीं......... ये तक़दीस कुछ भी नहीं......... मैं इन मेहराबों को ढह दूंगी......... मैं अपने अंदर तमाम चूल्हे सर्द कर दूँगी जिन पर बिन बुलाए मेहमान की ख़ातिर हाढ़ियां चढ़ी हैं......... मैं अपने ख़यालात के तमाम रंग बिरंग धागे आपस में उलझा दूंगी.........

यही दिन थे......... आसमान उस की आँखों की तरह ऐसा ही नीला था जैसा कि आज है......... लेकिन मैं वो दिन क्यों याद करती हूँ जिन के सीने पर से वो अपने नक़श-ए-क़दम भी उठा कर ले गया था....

लेकिन ये......... ये नक़श-ए-क़दम किस का है..... ये जो मेरे पेट की गहराईयों में तड़प रहा है....?..... क्या यह मेरा जाना पहचाना नहीं...

मैं उसे खुरच दूंगी......... उसे मिटा दूंगी.. ये रसूली है...... फोड़ा है..... बहुत ख़ौफ़-नाक फोड़ा।

लेकिन मुझे क्यों महसूस होता है कि ये फाहा है......... फाहा है तो किस ज़ख़्म का?......... उस ज़ख़्म का जो वो मुझे लगा कर चला गया था?......... नहीं नहीं......... ये तो ऐसा लगता है किसी पैदाइशी ज़ख़्म के लिए है......... ऐसे ज़ख़्म के लिए जो मैं ने कभी देखा ही नहीं था......... जो मेरी कोख में जाने कब से सो रहा था।

ये कोख क्या?......... फ़ुज़ूल सी मिट्टी की हन्डकलया......... बच्चों का खिलौना। मैं इसे तोड़ फोड़ दूंगी।

लेकिन ये कौन मेरे कान में कहता है। ये दुनिया एक चौराहा है......... अपना भांडा क्यों इस में फोड़ती है......... याद रख तुझ पर उंगलियां उठेंगी।

उंगलियां......... उधर क्यों ना उठेंगी, जिधर वो अपनी हस्ती मुकम्मल कर के चला गया था......... क्या इन उंगलियों को वो रास्ता मालूम नहीं......... ये दुनिया एक चौराहा है......... लेकिन उस वक़्त तो वो मुझे एक दोराहे पर छोड़ कर चला गया था......... इधर भी अधूरा पन था। उधर भी अधूरा पन......... इधर भी आँसू, उधर भी आँसू।

लेकिन ये किस का आँसू, मेरे सीप में मोती बन रहा है..... ये कहाँ बंधेगा?

उंगलियां उठींगी......... जब सीप का मुँह खुले और मोती फिसल कर बाहर चौराहे में गिर पड़ेगा तो उंगलियां उठेंगी......... सीपी की तरफ़ भी और मोती की तरफ़ भी......... और ये उंगलियां संपोलियां बन बन कर उन दोनों को डसींगी और अपने ज़हर से उन को नीला कर देंगी।

आसमान उस की आँखों की तरह ऐसा ही नीला था जैसा कि आज है......... ये गिर क्यों नहीं पड़ता......... वो कौन से सुतून हैं जो उस को थामे हुए हैं......... क्या उस दिन जो ज़लज़ला आया था वो इन सुतूनों की बुनियादें हिला देने के लिए काफ़ी नहीं था......... ये क्यों अब तक मेरे सर के ऊपर इसी तरह तना हुआ है?

मेरी रूह पसीने में ग़र्क़ है......... इस का हर मसाम खुला हुआ है। चारों तरफ़ आग दहक रही है......... मेरे अंदर कठाली में सोना पिघल रहा है......... धोंकनियां चल रही हैं। शोले भड़क रहे हैं। सोना, आतिश फ़िशां पहाड़ के लावे की तरह उबल रहा है......... मेरी रगों में नीली आँखें दौड़ दौड़ कर हांप रही हैं......... घंटियां बज रही हैं......... कोई आ रहा है......... कोई आ रहा है.........

बंद कर दो......... बंद कर दो किवाड़.........

कठाली उलट गई है......... पिघला हुआ सोना बह रहा है......... घंटियां बज रही हैं......... वो आ रहा है......... मेरी आँखें मुंद रही हैं......... नीला आसमान गदला हो कर नीचे आ रहा है.........

ये किस के रोने की आवाज़ है......... उसे चुप कराओ......... उस की चीख़ें मेरे दिल पर हथौड़े मार रही हैं......... चुप कराओ......... उसे चुप कराओ......... उसे चुप कराओ......... मैं गोद बन रही हूँ......... मैं क्यों गोद बन रही हूँ.........

मेरी बांहें खुल रही हैं.... चूल्हों पर दूध उबल रहा है..... मेरे सीने की गोलाईआं प्यालियां बन रही हैं... लाओ इस गोश्त के लोथड़े को मेरे दिल के धुनके हुए ख़ून के नर्म नर्म गालों में लेटा दो....

मत छीनो..... मत छीनो उसे......... मुझ से जुदा न करो। ख़ुदा के लिए मुझ से जुदा न करो।

उंगलियां.........उंगलियां......... उठने दो उंगलियां......... मुझे कोई पर्वा नहीं......... ये दुनिया चौराहा है......... फूटने दो मेरी ज़िंदगी के तमाम भाँडे.........

मेरी ज़िंदगी तबाह हो जाएगी?......... हो जाने दो......... मुझे मेरा गोश्त वापस दे दो......... मेरी रूह का ये टुकड़ा मुझ से मत छीनो......... तुम नहीं जानते ये कितना क़ीमती है......... ये गौहर है जो मुझे उन चंद लम्हात ने अता किया है......... उन चंद लम्हात ने जिन्हों ने मेरे वजूद के कई ज़र्रे चुन चुन कर किसी की तकमील की थी और मुझे अपने ख़याल में अधूरा छोड़ के चले गए थे......... मेरी तकमील आज हुई है।

मान लो.........मान लो......... मेरे पेट के खला से पूछो......... मेरी दूध भरी हुई छातियों से पूछो......... उन लोरियों से पूछो, जो मेरे अंग अंग और रुम रुम में तमाम हिचकियां सुला कर आगे बढ़ रही हैं......... उन झूलनों से पूछो जो मेरे बाज़ूओं में डाले जा रहे हैं।

मेरे चेहरे की ज़रदियों से पूछो जो गोश्त के इस लोथड़े के गालों को अपनी तमाम सुर्खियां छुपाती रही हैं......... उन सांसों से पूछो, जो छुपे चोरी उस को उस का हिस्सा पहुंचाते रहे हैं।

उंगलियां... उठने दो उंगलियां..... मैं उन्हें काट डालूंगी......... शोर मचेगा......... मैं ये उंगलियां उठा कर अपने कानों में ठोंस लूंगी......... मैं गूंगी हो जाऊंगी, बहरी हो जाऊंगी, अंधी हो जाऊंगी..... मेरा गोश्त, मेरे इशारे समझ लिया करेगा......... मैं उसे टटोल टटोल कर पहचान लिया करूंगी....

मत छीनो......... मत छीनो उसे......... ये मेरी कोख की मांग का सिंदूर है......... ये मेरी ममता के माथे की बिंदिया है......... मेरे गुनाह का कड़वा फल है?

.....लोग इस पर थू थू करेंगे?.... मैं चाट लूंगी ये सब थूकें..... ऑनवल समझ कर साफ़ कर दूँगी.....

देखो, मैं हाथ जोड़ती हूँ......... तुम्हारे पांव पड़ती हूँ।

मेरे भरे हुए दूध के बर्तन औंधे ना करो......... मेरे दिल के धुन्के हुए ख़ून के नरम नरम गालों में आग न लगाओ......... मेरी बाँहों के झूलों की रस्सियां न तोड़ो......... मेरे कानों को उन गीतों से महरूम न करो जो उस के रोने में मुझे सुनाई देते हैं।

मत छीनो..... मत छीनो...... मुझ से जुदा न करो...... ख़ुदा के लिए मुझे उस से जुदा न करो।

लाहौर 21 जनवरी

धोबी मंडी से पुलिस ने एक नौ-ज़ाईदा बच्ची को सर्दी से ठिठुरते सड़क के किनारे पड़ी हुई पाया और अपने क़ब्ज़े में ले लिया। किसी संग-दिल ने बच्ची की गर्दन को मज़बूती से कपड़े में जकड़ रखा था और उर्यां जिस्म को पानी से गीले कपड़े में बांध रखा था ताकि वो सर्दी से मर जाये। मगर वो ज़िंदा थी। बच्ची बहुत ख़ूबसूरत है। आँखें नीली हैं। उस को हस्पताल पहुंचा दिया गया है।

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