मायामृग
(16)
उदय प्रकाश के बाद दिन–रात दोनों ही सूखे बादलों से आच्छादित रहने लगे, व्यर्थ हो गए थे शुभ्रा के लिए | काफ़ी कमज़ोर भी हो गई थी, बीमारी का प्रभाव जाने में अभी समय लगने वाला था| दीति बहुत दिनों तक हर रोज़ आवाजावी करती रही, बाद में शुभ्रा ने ही मना कर दिया कि बहुत हो गया था, अब उसे अपना घर भी तो देखना था | आखिर कब तक वह बेटी को परेशान करती? अब यह अलग बात है कि वह अपने घर भी रहकर माँ के बारे में परेशान ही होती रहती| बिखर गया था घर बिलकुल, जीवन के कोई चिन्ह ही नज़र नहीं आते थे| गर्वी कभी-कभी आती किन्तु उसकी बातें ऎसी होतीं कि शुभ्रा घबरा ही जाती, वो तो अच्छा था कि दीति जब भी समय मिलता माँ के पास बनी ही रहती थी | उसके अपने पास रहने से शुभ्रा का मनोबल बना रहता |
उत्सव के दिन पंख लगाकर उड़ जाते हैं, ऐसे सरपट भागते हैं जैसे कोई खरगोश पर कठिनाई के दिन सुबकते हैं मानो जीना ही नहीं चाहते हों | दिनों में भी साँस होती हैं क्या ? शुभ्रा को लगता, होती हैं | दिन भी तो हँसते हैं, रोते हैं, सुबकते हैं ---उसके मन के तंबूरे के साथ ! वह एक भीगी हुई लकड़ी बन चुकी थी जो उदय की याद की चिता की आग में जल धीमे-धीमे धूँआ छोड़ रही थी | उदय तो कबके जा चुके थे, उन्मुक्त गगन में, न जाने कहाँ ? अपने अंतिम लक्ष्य पर | उसका कुछ पता नहीं क्या होना था | यहाँ आकर उसे बड़ी शिद्दत से लगने लगा था मनुष्य का किया कुछ कहाँ होता है? वह अपने भ्रम में रहता है कि वह जो कुछ कर रहा है ठीक कर रहा है, वह ये कर लेगा, वो कर लेगा | उसका अहं उसे ऊँचे आकाश के सपने दिखाए रखता है, वह सोचता है जो कुछ कर रहा है, अति उत्तम है| भूल जाता है वह स्वयं के उत्पत्तिकर्ता को ! पत्ता तक तो हिला नहीं सकता अपने मन से !
शुभ्रा और उदित दोनों ही रह गए थे इतने बड़े घर में ! शुभ्रा रोज़ गर्वी को फ़ोन करती, वह आने के लिए मना भी नहीं करती और आती भी नहीं | शुभ्रा गर्वी के आने की राह देखती रह जाती, बाद में चुप रहकर उदास हो कभी किताबों में, कभी टी.वी के आगे बैठकर अपना मन लगाती रहती | न जाने कितनी बार शुभ्रा ने बच्चों की व गर्वी की पसंद की सब्जियाँ, दूध आदि खरीदकर रखा था फिर वह सब्जी महीने भर में न जाने कैसे-कैसे खत्म करती थी | उदित पत्नी से मिलने कभी कहीं पहुँच जाता, कभी कहीं | पहले वह बताकर तो जाता था माँ को, बाद में तो उसने बताना भी छोड़ दिया था, वह पत्नी से मिलने के लिए न जाने क्या-क्या प्रयास करता रहता था | उदय को गए लगभग साढ़े पाँच माह गुज़र गए थे और इन दिनों में बहुत कुछ अनौचित्य हो चुका था | उदित गर्वी के किसी पहचान वाले के पास भी जा पहुंचा था कि वे यदि उसे समझाएं तो शायद उसका बिखरा हुआ घर फिर से सिमट जाए | वो और भी उस्ताद निकले, दिखावे के लिए वे ‘न्यूट्रल’बने रहने का नाटक करते रहे और गर्वी को समझाते रहे कि वह आर्थिक रूप से मजबूत हो जाए, वे उसके साथ ही हैं | वे शुभ्रा के सामने इतना दिखावा करते मानो वे उनके परिवार के कितने बड़े शुभचिंतक हैं | गलतियाँ उदित की थीं किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि गलतियाँ गर्वी की भी कम नहीं थीं, ताली कभी एक हाथ से बजी है? उदित पूरे दिलोजान से अपनी गलती स्वीकार कर रहा था और कभी भी मदिरा को हाथ में न लेने की कसम पिता के सामने ले चुका था | एक मन:स्थिति होती है जिसमें या तो मनुष्य पगला जाता है अथवा सहारा मिलने पर इतना अच्छा बन जाता है कि कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि उससे इतने गलत काम भी हुए होंगे | उदय यह बात बहुत अच्छी प्रकार जानते, समझते थे इसीलिए गर्वी को बार-बार कहते कि यदि उसका कुछ और इरादा नहीं है तो अपने मित्र को फोन करना बंद करके उदित का हाथ थाम ले | सच तो यह था कि उन्हें न तो उदित की अधिक चिंता थी और न ही गर्वी की, वो तो बस बच्चियों के बारे में चिंतित थे, शुभ्रा को लगता है कि डायलेसिस पर जितने दिन उदय रहे, वे कुछ भी बोल पाने में असमर्थ रहे किन्तु इतने दिनों उनके प्राण बच्चियों में ही अटके रहे होंगे | एक आस का क्षीण सा दीपक उनकी आखों व ह्रदय में फरफरा रहा होगा, शायद ! बच्चियों के घर आने की खबर उन्हें कोई सुना दे !
होनी तो बस होनी है, उसके बारे में न कोई जानता है, न ही समझता है और वो हो जाती है, इसीके लिए उसे शायद ‘होनी’ नाम दिया गया है | शुभ्रा की कमज़ोरी व अकेलेपन ने उसे बहुत मानसिक व शारीरिक कष्ट दिया था | अपनेको बहुत साहसी व सकारात्मक समझने वाली शुभ्रा शिथिल हो गई थी | गर्वी के परिचित, जिनके पास उदित गया था, वे एक दिन शाम को अचानक ही गर्वी व बच्चों को लेकर आ गए थे | छह माह के कुछ दिन पूर्व ही गर्वी घर में आ गई, लाने वाले मित्र ने शुभ्रा पर अपना अहसान जताया, और शुभ्रा को उसके कर्तव्यों की बाग़डोर संभालने का मशविरा देने लगे | उदित घर में था नहीं और शुभ्रा की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था | न जाने क्यों उसके मन में बच्चों को एख्क्र जितनी प्रसन्नता होनी चाहिए थी, उतनी उसने महसूस नहीं की | सब बनावटी लग रहा था, जो बच्चा 23/24 वर्ष के करीब परिवार का अंग बना रहा हो, उसके प्रति इतना अजनबीपन ! शुभ्रा को समझ में नहीं आ रहा था | हाँ, उसे यह बात अब तक स्पष्ट हो चुकी थी कि यदि गर्वी को उससे स्नेह या कुछ परवाह होती तब उसका चाहे जो कुछ भी उदित से हुआ होता, वह शुभ्रा की परवाह अवश्य करती, उदित जैसा भी खराब से खराब था किन्तु गर्वी भी दूध की धुली तो नहीं थी| वह स्वयं एक डॉक्टर थी और समझती थी कि चिकनगुनिया की बीमारी के बाद कितनी परेशानी और कमज़ोरी होती है| उसके अपने पास न जाने कितने मरीज़ आ रहे थे | शुभ्रा को अपने और गर्वी के संबंधों पर बहुत विश्वास व गर्व था, वह सोच ही नहीं सकती थी कि गर्वी उसके प्रति इतनी कठोर व लापरवाह हो भी सकती थी? एक बार वर्षों पूर्व शुभ्रा की आँखों की परेशानी हो गई थी, उस समय उदय प्रकाश शहर में नहीं थे और उदित को तो कभी कोई उत्तरदायित्व सौंपा ही नहीं गया था, इसलिए वह सब-कुछ औरों पर डालकर मस्त रहता, शुभ्रा व उदय प्रकाश को भी कुछ अजीब नहीं लगता था कि शुभ्रा गर्वी पर इतना विश्वास रखती है, इसका कारण था उन दोनों के बीच के विश्वास की रेखा | तब गर्वी सदा शुभ्रा के साथ डॉक्टर के यहाँ उसे लेकर जाती रही थी | शुभ्रा स्वप्न में भी यह नहीं सोच सकती थी कि किसी भी स्थिति में गर्वी उसके साथ अपना व्यवहार खराब कर सकती है | क्लीनिक जाते समय भागकर गाड़ी तक दूध ले जाना, मनुहार करके खिलाना-पिलाना, बच्चों का ध्यान ऐसे रखना मानो उनकी माँ ही हो | यह तो बाद में पता चला था कि वह माँ क्या दादी भी नहीं थी, वह केवल एक ‘यूज़ एंड थ्रो’ वाली चीज़ थी लेकिन यह शुभ्रा ने कभी भी महसूस नहीं किया था या करते हुए भी वह आँखें बंद करके बैठी रहती थी | वह तो बस एक ही बात जानती व मानती थी कि बस प्यार के अलावा जीवन में और कुछ भी नहीं है | वह सबमें प्यार बाँटना चाहती थी और इसी विश्वास से जी रही थी कि स्नेह के सहारे वह सबको अपने करीब कर लेगी| पर मन का तंबूरा उस पर सदा हँसता ही रहा, सदा उसकी आँखों को खोलने का प्रयास करता रहा कि वह क्यों इस वास्तविकता को समझ नहीं पाती कि भौतिक जगत में भावनाओं का मोल घटता ही तो जा रहा है फिर वह क्यों भावनाओं और संवेदनाओं के चरखे में झूल रही है ?
हाँ, जब गर्वी माँ के यहाँ रही और शुभ्रा उसे वापिस आने के लिए फ़ोन करती रही तब गर्वी ने जिस प्रकार उससे बात की, शुभ्रा का दिल उदास हुआ लेकिन यह भी उसे सही लग रहा था कि आख़िर वह बच्ची कहीं तो अपना मन हल्का करेगी| यह तो तबकी बात है जब उदय प्रकाश थे, वे दोनों पति-पत्नी घर में ही बीमार चल रहे थे | बेशक शुभ्रा को बहुत बुरा लगा था किन्तु स्वाभाविक सा भी लगा था शुभ्रा को गर्वी का फोन पर चीखकर बोलना और उससे गलत तरीके से बातें करना | गर्वी कह रही थी ‘अपने बेटे से पूछो न, मुझसे क्या पूछती हो ? ’जब अपना ही सिक्का खोटा होता है तब किसीको गलत कहने का कुछ अधिकार नहीं रह जाता | उसे लग रहा था गर्वी अपने मन की कड़वाहट निकाल ले तो बहुत अच्छा है, आखिर उसके भीतर भी संवेदनाएँ थीं, वह भी अपने भविष्य के प्रति चिंतित होगी, इंसान तो वह भी थी, काँटे तो उसको भी चुभे थे, न जाने क्यों इतना हो जाने के बाद भी मूर्ख शुभ्रा को आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास था कि गर्वी हल्की होकर फिर से उसके साथ घुलमिल जाएगी | ईश्वर इस बात का साक्षी था कि शुभ्रा और उसकी बेटी दीति दोनों ही गर्वी की ओर थे और उसके बारे में चिंतित थे, गर्वी अपनी ननद दीति पर विश्वास न कर सकी और बात बिगड़ती ही चली गई | दीति ऎसी लड़की थी जो सदा सही बात के पक्ष में खड़ी रहती थी और मन से सही इंसान का साथ देती थी | हाँ, बेशक उदित उसका अपना भाई था, वह उससे भी रुष्ट थी, उसने खूब गलतियाँ भी की थीं किन्तु वह अपनी गलतियों को सुधारने के लिए तैयार भी तो था, यही तो पूरा परिवार चाहता था कि उदित अपनी गलतियों को समझ जाए और पिछली बातें भूलकर सब फिर से मिल जाएं क्योंकि गलती दोनों की थी, दोनों को इस बार में सोचना था | हाँ, कम –ज्यादा, वह बात ठीक थी और उदित अपने हिस्से की गलतियों पर शर्मिंदा भी था और स्वयं में सुधार करने का प्रयास भी कर रहा था | गर्वी व बच्चों को घर में लाने वाले सभ्य पुरुष ने जब शुभ्रा से उसके कर्तव्य के बारे में बात की, वह तुरंत बोल उठी थी;
“ मेरा क्या रोल है, इन दोनों के रिश्ते में ? इनका परिवार है, दोनों अपने बच्चों के साथ ठीक रहें बस -----” वह भीतर से बहुत अशक्त महसूस कर रही थी | कब तक कर्तव्य का चोगा ओढ़ती फिरे? जहाँ कोई कद्र न हो, वहाँ बिना बात घुसकर अपनी महत्ता दिखने की भला कुछ ज़रुरत होती है क्या? लगभग छह माह हो गए थे, बच्चों तक को अपने बाप व दादी याद नहीं आई थी, पाता तो चलता ही था---सारे में घूमते थे बच्चे! उदित को अकेला देखकर शुभ्रा की आँखों में आँसू भर आते| क्या इसीलिए परिवार बनाया जाता है ?
“आपका रोल यह है कि आप इस घर की बड़ी हैं, आपको ही इन दोनों की समस्याओं का हल निकालना पड़ेगा ----”सभ्य, समझदार बिचौलिए ने उस पर अपनी बुद्धि थोपने का भरपूर प्रयास किया था | क्या कहती, वह चुप बनी बैठी रही, इससे पहले कभी वह दोनों के रिश्ते के बीच में बोल सकी थी क्या जो अब कुछ बोलती ? पति-पत्नी के रिश्ते दीवारों के अंदर ही उलझते-सुलझते हैं | उसके मन का तंबूरा उस पर हँसा, बहुत खूब ! खुशियों में क्या कभी दोनों पति-पत्नी ने माता-पिता को अपने साथ सम्मिलित किया था ? शुभ्रा उदय के साथ चुपचाप बैठी रहती किन्तु अब वह अकेली पड़ गई थी और अकेलेपन की बौखलाहट उसके भीतर पसरने लगी थी |
गर्वी के आने से पूर्व भी दो-एक बार उन सभ्य, समझदार बुज़ुर्ग मित्र का घर पर आगमन हुआ था और उदित व शुभ्रा को ऐसा महसूस हो रहा था कि जो कुछ भी हुआ है, वह तो हो चुका है किंतु आगे का जीवन तो सुधारा जा सकता है| उदय की ज़िंदगी का अध्याय तो अब समाप्त हो ही चुका था, वो तो अब उसका साथ देने आ नहीं सकते थे | पिछली भूलों के लिए बार-बार शिकायतें करने से क्या उन्हें सुधारा जाना सबके लिए अधिक अच्छा नहीं है ? गर्वी अपने उन पारिवारिक मित्र के सामने चार-पाँच पेज पर उदित की शिकायतें लिख्रकर लाई थी जो उसने सबके सामने रखी थीं, उदित भी कुछ कहना चाहता था किन्तु न जाने क्यों वह बोलते-बोलते चुप हो गया था | शुभ्रा जानती व समझती थी कि उदित ग़ैर-ज़िम्मेदार तो था किंतु इतना बुरा भी नहीं था कि उसमें कोई भी अच्छाई न हो, कुछ तो उसमें अपने परिवार क्र संस्कार होंगे | कोई भी मनुष्य न तो पूरी तरह अच्छा होता है और न बुरा | वह तो अच्छाई व बुराई का पुतला होता है | अवसर मिलने पर जैसे उसकी बुराईयाँ बढ़ सकती हैं वैसे ही अच्छाईयाँ क्यों नहीं बढ़ सकतीं | उसे सही मार्गदर्शन व सही मित्र की आवश्यकता होती है जो उसके आगे के सही मार्ग पर चलने में उसकी मन से सहायता कर सके |
दवाईयाँ यद्धपि अब बंद हो चुकी थीं किन्तु उनके सेवन से उदित के मनोमस्तिष्क पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था | उसे अपने ऊपर कंट्रोल करने में काफ़ी ज़बरदस्ती करनी पड़ती | गर्वी और उसके परिवार के मित्र भी बार बार उदित को दवाई दुबारा खाने के लिए ज़ोर डाल रहे थे जबकि शुभ्रा स्वयं व दीति तथा उसके पति दवाईयाँ छोड़ने के बाद उसमें अद्भुत बदलाव देख रहे थे| जिस दिन वे गर्वी व बच्चों को लेकर घर छोड़ने आए थे, वे शुभ्रा के सामने अपने बड़प्पन तथा अहसान का प्रदर्शन करना नहीं भूले थे | थोड़ी देर बैठकर कुछ सलाहें देकर गर्वी व बच्चों को छोड़कर वे पारिवारिक मित्र सपत्नीक वापिस लौट गए | इतने माह शारीरिक व मानसिक पीड़ा झेलने के उपरान्त भी शुभ्रा ने सबका मन से स्वागत किया था, उसको खूब याद है उसने ही उस दिन भी रातको सबके लिए पुलाव बनाया था| एक आशा का संचार उसके मन में हिलोरें मार रहा था, परन्तु उदय प्रकाश के न रहने की टीस मन को जल बिन मछली सी तड़पा रही थी | दीति ने गर्वी को सलाह दी थी कि यदि वह उदित से घबराती है तो माँ के साथ ही रहे जिससे वह बिना किसी परेशानी के रह सके किन्तु गर्वी बच्चों को लेकर ऊपर अपने कमरे में चली गई थी| शुभ्रा तथा दीति इसी बात से ही थोड़ी सी तसल्ली थी कि अब गर्वी आ ही गई है तो शनै:शनै: सब ठीक हो ही जाएगा| आदमी के विचार मन की संकरी गलियों की भूल-भुलैया में इधर से उधर भटकते ही तो रहते हैं | शांत कहाँ रहता है मन ? एक समय में न जाने कितने विचारों को एक साथ मथता रहता है, मन और परिणाम शून्य होता जाता है |
दिन व्यतीत होने शुरू हुए, शुभ्रा अपने मन और तन को स्वस्थ्य करने के प्रयास में लगी रही | शुभ्रा व गर्वी में बोलचाल थी परन्तु एक दूरी संबंधों में फ़ैल गई थी | इस परिवार में सुबह उठकर बड़ों के चरण-स्पर्श करने तथा एक-दूसरे को प्रणाम करने का रिवाज़ था | गर्वी ने शुभ्रा की देखादेखी इस रिवाज़ को शुरू से ही अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बना लिया था किन्तु शुभ्रा ने कई बार उसे अपने चरण-स्पर्श करने के लिए मना किया था | जब गर्वी का अहं भरा रूखा स्वभाव शुभ्रा को चुभने लगता तब वह गर्वी को बहुत कोमलता से अपने पैर छूने के लिए मना करती जाता | जबकि इसी बात पर उसकी कई बार गर्वी से चर्चा हो चुकी थी कि यह प्रणाम व चरण-स्पर्श इसलिए किया जाता है कि घर में स्वाभाविक रूप से जो बर्तन खटकते हैं, उनकी टकराहट से मुठी मन की अशांति दूर हो जाए | यदि पहले दिन कुछ ऐसा खटका हो भी जाए तो सुबह उठकर एक-दूसरे को ‘विश’ करने से मन की कड़वाहट दूर हो जाती है | इस बात पर गर्वी व शुभ्रा दोनों की ही स्वीकृति थी | लेकिन अब इतना कुछ हो जाने के बाद शुभ्रा को गर्वी का पैर छूना बहुत असहज कर देता | न जाने गर्वी क्या दिखाना चाहती थी ? एक दिन तो बाहर सड़क पर जब शुभ्र फल खरीद रही थी, गर्वी ने गेट से निकलकर उसके पाँव छूए | उस समय आसपास के कई घरों के लोग या तो फल वाले के पास खड़े फल खरीद रहे थे या अपने गेट पर खड़े रहकर लारी के वहाँ तक जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे | इसी प्रकार एक दिन रसोईघर में जब घर की सहायिका सफाई कर रही थी तब गर्वी के पांव छूने पर शुभ्र ने टोका ;
“मत छूआ करो मेरे पाँव, मैं नहीं हूँ इतनी महान ----“उसे रोना आ जाता |
“मैं तो छूऊंगी, आप चाहे गाली दो, तेरा ये हो जाए, वो हो जाए -----”बेशर्म सी बनकर गर्वी बोली तो शुभ्रा मुह-आँख फाड़े उसके चेहरे की ओर देखती रह गई |
अभी कल ही तो गर्वी ने यहीं रसोईघर में खड़े रहकर अपने पेट में अपने दोनों हाथ घुसाते हुए उस पर प्रहार किया था ;
“हो गईं न उसकी तरफ़ -----बेटा है न ! इस पेट से निकाला है ! ! ” अब इसमें तो कोई शक था ही नहीं कि उसने नौ महीने और माँओं की तरह अपने बेटे को कोख में रखकर जन्म दिया था | क्या गर्वी नहीं जानती थी कि यदि बेटे और बहू की बात आती थी तो इस परिवार ने सदा बहू का ही साथ दिया था ? अब जब उदित जिस कठिन परिस्थिति से जूझ रहा था, उसमें कैसे एक माँ अपने बच्चे को अकेला छोड़ देती? कोई तो उसकी बात सुनता ? चाहे बेटियाँ ही सही ---बेटियों के लिए तो उसने सब कुछ किया ही था, चाहे गर्वी कितना भी अस्वीकार करे |
स्वाभाविक था, संबंध पहले गर्वी, उदित तथा बच्चों के सुधरने चाहिए थे | बच्चे पिता से बिलकुल बात ही नहीं करते थे या यह कहें कि बच्चों को पिता से बात करने नहीं दी जाती थी अथवा उन्हें सिखाया गया था कि वे पिता के पास अधिक समय तक न रहें | लगभग साढ़े-पाँच, छह माह बहुत होते हैं मस्तिष्क की स्लेट पर लिखे हुए को कोरा करने के लिए | बच्चों को लेकर इतने दिन गर्वी अपनी माँ के घर रही थी उस बीच में बच्चों के मन की स्लेट पर लिखी गई इबादत मिट गई थी और उस पर बहुत कुछ अलग लिखा गया था | न जाने बच्चों के मन की मधुरता कहाँ चली गई थी, ये वो ही बच्चे थे जो दसवीं कक्षा तक भी दादी की गोदी में पसरकर टी .वी देखते थे | उदित घर में तभी घुसता जब गर्वी बच्चों को लेकर कमरे में चली जाती | सबके होते हुए भी शुभ्रा के दिल में बना अँधेरा कमरा और भी अन्धकार से घिरता जा रहा था जिसमें कहीं से भी कोई रोशनी की किरण प्रवेश करने से इनकार कर रही थी, जैसे उसके मन के द्वार पर आकर प्रसन्नता की रोशनी की किरण ठिठक जाती थी, कुछ ऐसे जैसे कोई अतिथि मित्र अपने प्रिय मित्र के गले मिलने की आतुरता लिए हुए मित्र के द्वार पर पहुँचे लेकिन वहाँ पर लटके हुए ताले को देखकर निराश होकर लौट जाए | वह जितनी कोशिश करती कि अपने मन के दरवाज़े से कोई रोशनी की फाँक भीतर प्रवेश करवा सके, उतने ही घुप्प अँधेरे पसर जाते उसके दिल में | इसी प्रकार लगभग एक माह का समय बीत गया | पति-पत्नी दोनों में बोलचाल तो थी नहीं, उदित का खाना, चाय आदि शुभ्रा ही बनाती| वैसे वह घर में कम ही खाता था | शुभ्रा के लिए तो वह बेटा था न अत:स्वाभाविक था उसका मन अंदर से कुढ़ता रहता, उसके लिए कुछ भी बनाना माँ के मन की मज़बूरी थी | वह बिलकुल अकेला होकर रह गया था, अपना अधिक से अधिक समय उदित ऑफिस में या घर के बाहर बिता रहा था | बच्चों को भी जब उदित बुलाता, वे उसके पास आकर दो मिनिट के लिए खड़े हो जाते फिर या तो उन्हें आवाज़ लग जाती अथवा वे स्वयं ही चले जाते | एक अजनबी अहसास के साए में अपने ही घर में साँसें ले रहे थे माँ-बेटे !
पड़ौस में एक परिवार रहता था जिसके बड़े लड़के के विवाह-संबंध में दरार पड़ गई थी, उसकी पत्नी अमरीका रहती थी और वह लगभग पागल की स्थिति तक असमान्य हो चुका था | उदय प्रकाश को खो देने के कारण अभी शुभ्रा बहुत टूटी हुई थी, ऎसी स्थिति में, ऐसे समय के टूटे मन का जुड़ाव होना बहुत कठिन होता है और जुड़ने में बहुत समय लेता है | बहुत कठिन दिन होते हैं एकाकीपन के दिन, इन्हें स्वीकार करने में मनुष्य टूट जाता है, शुभ्रा उन्हीं कठिन दिनों में से निकल रही थी, उसके दिल का शीशा टुकड़ों में बँट गया था और वह उसके टुकड़ों को जोड़ने का निरर्थक प्रयास कर रही थी तभी गर्वी ने कहा था ;
“आपको नहीं लगता उदित ऐसा होता जा रहा है ? ”शुभ्रा मुह बाए गर्वी का वक्र चेहरा देखती रह गई| मनुष्य के भावों के अनुरूप उसके चेहरे के सौन्दर्य में बदलाव आ जाता है | सुंदर चेहरे में मन की सोच के साथ परिवर्तन बड़े ही स्वाभाविक रूप से बदलते जाते हैं | शुभ्रा प्रतीक्षा कर रही थी कि न सही उदित से, उससे तो गर्वी के उलझे हुए संबंध जल्दी ही सुलझ जाएंगे, उसके साथ थोड़े ही कुछ हुआ था | घूम-फिरकर गर्वी इसी बात पर आ जाती कि अगर उदित डॉक्टर के पास नहीं जाएगा, दवाईयाँ नहीं खाएगा तो न तो पीना छोड़ेगा और न ही सामान्य होगा | जबकि अब सबको वह बिलकुल ठीक दिखाई दे रहा था, पीना वह बिलकुल छोड़ ही चुका था, प्रतीक्षा कर रहा था कि कम से कम उसकी बेटियाँ तो घड़ी भर उसके पास आकर खड़ी हों| मनुष्य को विश्वास रखना पड़ता है, बिना विश्वास के तो वह कदम भर भी नहीं चल सकता | शुभ्रा व उदित दोनों ही सोचते थे कि रक्त का संबंध इतना पतला भी नहीं हो सकता कि इतने बड़े बच्चों को अपने पिता का अक्स ही न दिखाई दे!
जब घर में इक्कठे रहना होता है तब कुछ न कुछ बातचीत होनी स्वाभाविक ही होती है | कई कठिनाईयाँ होती हैं घर में जिनका समाधान मिलकर निकलना होता है | उदय प्रकाश ने बेटे पर कोई उत्तरदायित्व नहीं सौंपा था, सही था किन्तु वे स्वयं तो हर पल, हर परिस्थिति में सबके लिए खड़े रहे था | जब गर्वी की अन्य मित्रों को घर के सब काम पूरे करके, खाना आदि बनाकर घूमने जाने का समय मिलता था तब गर्वी बिंदास घर की चिंता किए बिना अपने मित्रों के साथ जहाँ चाहे वहाँ जा सकती थी | कभी बच्चों के साथ, कभी बच्चों को छोड़कर ! जब कभी शुभ्रा को दोपहर के समय या ऐसे समय जब उदय का खाने या चाय आदि का समय होता तब कहीं बाहर जाना होता तब वह अधिकतर सब कुछ तैयार करके खाने की मेज़ पर रख जाती थी, गर्वी यदि घर में होती तब वह कई बार डैडी के साथ खाना खाती लेकिन कभी जब उदय सोये रहते तब वे उठकर शायद ही कभी गर्वी को चाय बनाने के लिए कहते | वे स्वयं चाय बनाकर जो भी उन्हें नाश्ता चाहिए होता, अपने आप लेकर खा लेते | शुभ्रा व उदय का व्यवहार सबके लिए एकसा ही था, अब जब बार-बार शुभ्रा उसे सुनाती है ;
“दो तमाचे कसकर लगे होते तो आज जो हैं न उदित, वो न होते -----”वास्तव में पति के न रहने पर वे तमाचे शुभ्रा के गाल पर लगते थे और वह किसीको साँझा भी नहीं कर पाती थी | कितनी बार शुभ्रा ये सब सुन चुकी थी, उसका मन चाहा था कि कहे कि अगर वे लोग बेटे के तमाचे नहीं जड़ पाए तो बहू को क्या कुछ भी करने से रोक पाए हैं ? इस तरह तो उस पर भी बहुत सी चीज़ों पर रोकटोक लगनी चाहिए थी! उसकी आँखों में आँसू भर आते और वह अपना चेहरा दूसरी ओर कर लेती ;
“बस, रो लो आप तो बैठके ----” भुनभुनाती हुई गर्वी बड़बड़ करती हुई बाहर निकल जाती |
यदि गर्वी को अपना घर फिर से संभालना था तब वह ऎसी बातें मुख से कैसे निकाल सकती थी ? अपने लिए न सही बच्चों के लिए ही सही वह एक प्रयास करती कि उसके और उदित के बीच में रिश्ते सुधर जाएं | बच्चे माता-पिता के बीच रिश्ते जोड़ने में पुल का काम करते हैं किन्तु यहाँ तो बच्चे समझके भी मानो कुछ न देखते थे, न समझते थे | उस दिन शुभ्रा बहुत रोई, उसे अपने पति उदय की बातें रह रहकर याद आ रही थीं जो बार-बार शुभ्रा को संभलने के लिए कहते थे कि उनके जाने के बाद उन्हें याद करना यदि गर्वी उसका हाथ पकड़ ले तो | कितने दूरदर्शी थे उदय प्रकाश ! लेकिन शुभ्रा कहाँ उनकी बात समझ सकी थी? एक मोह में ही तो बंधी इधर से उधर लटकती रही | अपनी नासमझी से बहम को पाले इतने वर्षों तक भ्रम में डूबती-उतरती रही कि प्यार के बदले सदा प्यार ही मिलता है | वह भीतर से सोचती तथा अपने मित्रो से कहती भी थी कि आदमी में इतना विश्वास व श्रद्धा तथा मनोबल होना चाहिए कि वह अपने प्यार व स्नेह से किसीको भी अपनी ओर झुका सके | उदय एक व्यंग्यात्मक हँसी उसकी ओर उछाल देते थे जब वे कभी किसीके भी साथ अथवा शुभ्रा के साथ गर्वी का रूखा व्यवहार देखते | उन्हें बहुत पीड़ा होती किन्तु सब गुम बने रहते |
अब गर्वी के घर लौटने के बाद पहले की ही भांति ही शुभ्रा उसके आने की प्रतीक्षा करती, दोनों पहले की ही भांति फिर से साथ ही खाना खाने लगे थे | स्मृतियों की भरी हुई बाल्टी से कितना भी यादों का पानी उलीच लो, पानी कहाँ कम होता है ? जितना निकलता है, उससे कहीं अधिक यादें उसमें भरती जाती हैं और फिर से बाल्टी लबालब भर जाती है | सामान्य होने के प्रयास में शुभ्रा के मन में रिश्तों का खुदुरापन मूंज की तरह चुभता था | गर्वी को भी चुभता ही होगा, शुभ्रा सोचती ! अब खाने की मेज़ पर पहले जैसी चहल-पहल नहीं थी, चुपचाप खाना खाया जाता | गर्वी सब्ज़ी-दाल बना जाती थी, उसे भीगे हुए चावलों को आँच पर चढ़ाना भर होता था और बच्चों से पूछकर उनके लिए एक-दो रोटी बनानी होती थी | छोटी तो उसके कहने से खा भी लेती पर बड़ी माँ के आने पर ही खाती, खैर वह तो पहले से भी ऐसा ही करती थी | मन बुझा हुआ था फिर भी प्रयास था मन लगाने का, एक आशा जुगनू की भांति टिमटिमाती ---सब कुछ बिलकुल वैसा होना तो बहुत आसान नहीं था हाँ, थोड़ा सा भी सामान्य हो जाए तो थोड़ा सहज लगने लगे जीवन | एक बार किसी गर्म स्थिति में दीति को किसी बात पर गर्वी बोल ही चुकी थी;
“ये होती कौन है, हमारे घर के मामले में बोलने वाली ----” दीति इस बात पर बहुत रोई थी कि उसकी माँ और भाई गर्वी के सामने यह नहीं बोल पाए थे कि ‘यह इस घर की बेटी है---’पता नहीं इतने अशक्त क्यों रहे थे वे सब ? सच तो यह है कि यह अशक्ति नहीं थी यह वह परिवार का मूल स्वभाव था| शुभ्रा को याद नहीं आता कि इतनी उम्र में उसका कभी किसी से झगड़ा हुआ हो | हाँ, विचाराभेद होता था, यदि वह किसीको अड़ते हुए देखती तो अलग हट जाती थी | उदय होते तो अवश्य ही गर्वी को उसके प्रश्न का उत्तर मिल जाता | बड़ी मुश्किल से शुभ्रा ने बिटिया के आँसू रोके थे, अब दीति ने माँ के पास आना ही कम कर दिया था | उसका अपना घर था, उसे भी तो अपने पति को उत्तर देना होता था जब वह माँ के पास से उदास होकर जाती, तब पकड़ी जाती थी और पूछने पर उसे पति को सब सच-सच बताना पड़ता था|
उदय के रहते जब वे साथ खाने बैठते थे तब शुभ्रा सारा खाना बनाकर रख लेती और उदय व बच्चों को खिलाकर गर्वी के आने के समय ही तवा गैस पर चढ़ाती जिससे गर्वी को भी गर्म खाने को मिल जाए, छुट्टी के दिन गर्वी भी कभी सास से गर्म खाना खाने के लिए कहती, साथ तो वे हमेशा खाते ही थे | कभी कभार बड़ी मुश्किल से शुभ्रा उदित के साथ खाने के लिए बैठती थी, अन्यथा उसे यही लगा रहता कि साथ ही खाया जाए | कैसरोल में एक रोटी बच जाने पर कैसे आधी-आधी दोनों खाते और हँसते-हँसाते हुए खाना खत्म होता | अब एक लकीर सी खिंच गई थी जिसके रहते वह पुराना वाला अहसास धुंध में गुम हो गया था | शुभ्रा को लगा कुछ प्रतीक्षा करनी होगी और उसने सब्र की चुनौती को स्वीकार कर लिया और कोई चारा भी कहाँ था ? परन्तु वह यह नहीं जानती थी कि अभी उसके साथ कुछ और होना शेष है |
इस जीवन के लघु-गुरु अवशेषों को चुनते हुए शुभ्रा के हाथों में छले पड़ रहे थे | केवल एक छाया मात्र लगता जीवन, भ्रम सा, माया-जाल सा---- फिर भी चेष्टा एक चेष्टा जीवन को सजाने की सदा ज़ारी ही तो रही | इतना कुछ सुनने के बाद भी वह खोई रही मृगतृष्णा में जब तक उसके सिर पर ऐसे जूते नहीं पड़ गए जिनकी पीड़ा उसे चीत्कार से न भर दे | उदय का परिवार, जो एक मिसाल बन चुका था ममता की, करुणा की, मुहब्बत की भरभराकर तब और भी टूट गया जब किसी बात के शुरू होने पर गर्वी ने उदित को फिर से भला-बुरा कहना शुरू किया, उसी बात की रटन कि माँ-बाप किसीने थप्पड़ नहीं लगाए मुह पर !
“ अब बार-बार क्यों इस बात को दुहराती हो ---? ”यह हाल तो तब था जब हर समय गर्वी का ही पक्ष लिया जाता |
“क्योंकि बेवकूफ़ हो तुम, तुम्हारे जैसा कोई मूर्ख होगा ही नहीं दुनिया में ----अपने आपको पढ़ा-लिखा कहती हो ! ” और उसने ऐसा मुह बनाया जैसे किसी नीच की मूर्खतापूर्ण बात पर उसे लज्जित करना चाहती हो|
“ये किस भाषा में बात कर रही हो? ” शुभ्रा के लिए बहुत कठिन हो रहा था यह सब सुनना | गर्वी अपना सारा सामान समेटकर ऊपर अपने कमरे में जाते-जाते बोल रही थी, उसके कमरे के बाहर बरामदा था जहाँ खड़ी होकर वह चिल्ला रही थी |
“और मुझे क्यों सुना रही हो ये सब ? ”शुभ्रा काँपते हुए बोल उठी थी |
“सुनना पड़ेगा, आओ बाहर नहीं तो बैठी रहो चुपचाप | ” गर्वी ने अपने होठों पर ऊँगली रखकर उसे घूरकर इशारा किया था | छक्का पैदा किया है तो सुनना तो पड़ेगा ही -----”उसका मन हुआ कि चिल्लाकर पूछे कि क्या ये बच्चे उसीके हैं फिर ? लेकिन केवल मन तक ही बात आई, उसके भीतर इतना साहस नहीं था कि इतनी घिनौनी बात मुख से निकाल सके| बाहर गर्वी उसे सुनाती रही, गंजारती रही, वह गुमसुम सी उसकी ओर देखती रही, शायद अब बस हो जाए !
“”आप हो इसी लायक, जब थप्पड़ मारने का टाइम था तब तो थप्पड़ मारे नहीं गए तो अब सुनोगी भी नहीं ----सुनना तो पड़ेगा न जब नालायक बेटा पैदा किया है ? ”” शुभ्रा तो उसके माता-पिता के समक्ष हाथ जोड़कर उनसे अपने बेटे के लिए भीख मांगने गई नहीं थी, हाँ गया होगा उसका बेटा | उसे कभी पता नहीं चला कि उसकी गलती है क्या आखिर ? यही जीवन का रवैया है, एक के साथ परिवार के सब लोग लिथड़ते हैं |
शुभ्रा मृगजाल में फँसे हुए रिश्तों का चित्र देखती रह गई, वह अब भी किसी भयंकर चित्र में विचरण कर रही थी, लग रहा था कोई भयंकर स्वप्न है, ज़रा सी आँख लगी हैं, खुलते ही सबकुछ पहले जैसा ही मिलेगा उसे |
पर रिश्ते हैं कहाँ ? अलगनी पर या हवा में ? इधर से उधर झूलते हुए ! सच यहीं है स्वर्ग-नर्क ! उदय खुशनसीब थे जो यह सब देखने से पहले ही चले गए | अगर वे होते तो इस घर से या तो सबको धक्के देकर निकाल देते या दोनों के मुख पर तमाचे जड़ देते |
क्या सचमुच बेवकूफी की हद तक सीधा होना सही है ? आज उसे लग रह था, वह सचमुच ही बहुत बहुत बेवकूफ है | धूप के छत्ते से बनकर उसकी आँखों के समक्ष अड़कर खड़े हो गए | प्रकृति का सौंधा रूप सूर्य की उजली किरण उसे सदा से प्रभावित करती रही है किन्तु यह तीव्रता झुलसा देने वाली है| जैसे कोई भुना जा रहा हो या फिर मन का चौबारा तपकर लोहे को पिघलाकर उसके मन की धरती पर अंकुरित कोमल संवेदनाओं पर कोई लावा बिखेरे दे रहा हो |
अधिक भावुक होने का अंजाम ऐसा भी हो सकता है, कल्पनातीत था | मन की बहंगी इधर-उधर डोलने लगी | कभी दाएँ तो कभी बाएँ ...स्थिरता, जागृति, चेतना सब की सब न जाने कहाँ जाकर छिप गईं या फिर समाप्त हो गईं ? पता नहीं किन्तु मन–मन के भारी भरकम पत्थरों के रेले के रेले उसकी दृष्टि के समक्ष लुढ़कने लगे| उन्हें रोक पाने का कोई उपाय नज़र नहीं आया | आँखों के आँसू भी पता नहीं कहाँ छिप गए और उनके स्थान पर आश्चर्य व हैरत से उसकी आँखें फटी सी रह गईं| किसी घटना के होने अथवा न होने में कोई एक तथ्य काम नहीं करता, यह एक तारतम्यता का काफ़िला होता है जो शनै:शनै: एक पर्वत बनाकर खड़ा कर देता है जीवन में, फिर चाहे कितने हथौड़े मारो कहाँ टूटता है पर्वत ! अड़कर खड़ा ही तो हो जाता है सामने ---मानो चुनौती देता हो तोड़कर दिखाओ मुझे ! शुभ्रा के समक्ष एक राक्षसी हँसी से वातावरण को प्रताड़ित करता जैसे कोई चुनौतियों का अंबार लिए खड़ा था | नहीं था उसमें इतना साहस! वह बौखलाई ही तो रही है उम्र भर ! न जाने क्यों ? वैसे यह कुछ न कह पाने की आदत कोई कमज़ोरी नहीं होती, चाहती तो वो भी उठाकर मार देती बेहूदे शब्द किन्तु यह कोई बहादुरी होती क्या?
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