मायामृग
(15)
झंझावत पल रहे थे ह्रदय में, हूक उठ रही थी हृदयों में, पूरे परिवार में एक भी ह्रदय ऐसा नहीं था जो सामान्य साँसें ले रहा हो | सबकी अपनी-अपनी व्यथा-कथा थी जो भीतर ही भीतर सबको सुलगा रही थी, अपने-अपने कर्मों के अनुसार परिणाम की राह सभी देख रहे थे | उदित दवाईयों के नशे में रहता था और कभी-कभी इतनी अजीब व घबरा देने वाली क्रियाएँ करता कि शुभ्रा के होश उड़ने लगते, बीमार उदय का चेहरा उदित की स्थिति देखकर और उतर जाता वे बार-बार एक ही बात की रट लगाए रखते;
“अब जब वह खुद को बदलने की कोशिश कर रहा है, तब उसका हाथ पकड़ने की ज़रुरत है | इस हालत में उदित का अकेले रहना ठीक नहीं ----मुझे नहीं लगता गर्वी आएगी ! चली गई न बच्चों को लेकर ---?? ”उदय पलंग पर पड़ी ज्वर से तपती शुभ्रा की ओर मुह घुमाकर लेट जाते और जब वहाँ शुभ्रा के अतिरिक्त कोई न होता तब बार-बार यही दोहराते रहते | उदित कई अलग-अलग ढंग से अपनी घबराहट शुभ्रा के सामने सामने परोस देते और वह आँखों में आँसू भरे अपने उस शिथिल पति को घूरती रह जाती जो जीवन भर साहसी, कर्मठ, परोपकारी, सबकी सहायता करने वाला बना रहा था | उसके पास कहाँ किसी भी बात का कोई उत्तर था, वह तो आज भी गर्वी के पक्ष में ही खड़ी थी | बेचारी की माँ बीमार है तो वह कैसे उन्हें छोड़कर आ सकती है ? गर्वी के माँ की सेवा के लिए जाने का क्षोभ उदय को नहीं था, क्षोभ इस बात का था कि जो नाज़ुक बात उदय ने अपने मुह से गर्वी से न जाने किन नाज़ुक लम्हों में पूछ ली थी, उस पर एक बड़ा सा प्रश्नचिन्ह जड़ गया था जो भीतर ही भीतर अपना उत्तर तलाशता उदय को खोखला कर रहा था | क्या वही बीते क्षण गर्वी के जीवन में आकर तो फिर से खड़े नहीं हो गए हैं ? वे इसी बात को लेकर शिथिल होते जा रहे थे | उम्र तो अपना काम करती ही है, उसे कौन रोक पाया है ?
गर्वी माँ की सेवा करने जा चुकी थी, स्वाभाविक भी था वह माँ को अस्वस्थता में कैसे अकेली छोड़ सकती थी ? हाँ, यदि चाहती या भीतर से कुछ इच्छा बलवती होती तब कुछ और भी समाधान सोचा जा सकता था, दो बहनें थीं मिलकर सब कम बाँट सकती थीं | जैसे तैसे एक सप्ताह गुज़रा और दीति परिवार सहित घूमकर वापिस आ गई, उदय प्रकाश ने जैसे चैन की साँस ली | रात में सोसाइटी के गेट बंद हो जाते थे, दीति व परिवार गेट के बाहर तक आए, शुभ्रा ने दीति को बंद गेट में से ही दूध के पैकेट्स दिए परन्तु उस समय शुभ्रा की तबियत खराब होने के बारे में कुछ नहीं बताया गया| सुबह उदय से नहीं रहा गया, डॉक्टर घर आकर विजिट तो रोज़ करते थे किन्तु पूरे दिन दोनों के पास कोई न रहता | शुभ्रा साहसी थी, बीमारी में भी काम कर ही लेती किन्तु उदय पत्नी का हाल समझ रहे थे | ऊपर से उस दिन डॉक्टर ने भी कह दिया था कि इस स्थिति में उन्हें अस्पताल में भर्ती हो जाना चाहिए | दीति को तो पहले ही दिन उसके पति इधर छोड़ गए थे, सब थके हुए थे, सामान फैला हुआ था लेकिन दोनों पति–पत्नी का मन नहीं माना और रात में ही दीति माँ की सेवा करने आ गई | अगले दिन डॉक्टर के कहने पर दीति मानी ही नहीं और ड्राईवर के साथ माँ-पापा को अस्पताल दाखिल करवाने ले गई | उदित भी वहीँ पहुँच गया था और कुछ देर बाद दीति के पति और गर्वी भी |
उदय को बहुत अधिक कमज़ोरी हो चुकी थी और शुभ्रा को बहुत तेज़ बुखार, दोनों के टैस्ट होने शुरू हो गए| उस समय चिकन गुनिया का प्रकोप फैला हुआ था, जिसका अंदेशा था वही निकला| इसी अस्पताल में डेढ़-दो वर्ष पूर्व उदय की छोटी सी सर्जरी हुई थी, तमाशा बना दिया था उन्होंने, जो कमरे में आता उसे पकड़कर कहना शुरू कर देते ;
“देखो ! मैं आज तक कभी अस्पताल में दाखिल नहीं हुआ हूँ –”वे कमरे में आने वाले किसी भी डॉक्टर, नर्स को पकड़ लेते और उससे यह बात साँझा करना न छोड़ते | फिर बड़े आराम से उससे पूछते ;
“अच्छा ! बताओ तो मेरी उम्र क्या होगी ? ”शुभ्रा उदय की इस बात पर बहुत खीज जाती |
“अब जाने भी दो न उन्हें, एक ही पेशेंट है क्या उनके पास ----? ” उसकी इस बात से उदय को गुस्सा आ जाता था कि वह उन्हें बात ही नहीं करने देती है | डॉक्टर मुस्कुराकर कमरे से बाहर निकल जाते | डॉक्टर भी इस उम्र की नजाकत समझते हैं, एक उम्र के बाद इंसान को लगता है कि वह जो कुछ बोले उसके सुनने वाला कोई तो हो और नई पीढ़ी को न समय रहता है और न ही बड़ों के साथ बैठने में कोई रूचि ! कोई कोई होता है जो बुजुर्गों के साथ से प्रसन्न रहता है, उसमें सबसे आगे दीति के पति, इस घर के दामाद थे जो किसी भी परिस्थिति में तुरंत आकर खड़े हो जाते थे| उदय प्रकाश को अपने दामाद, बेटी का बहुत सहारा था, उनकी उपस्थिति उदय व शुभ्रा का संबल था|
पति की सर्जरी होने के बाद शुभ्रा ने उनके काँपते शरीर को देखा तो वह स्वयं काँप गई थी| उदय को ऐसे देख पाना बहुत कष्टकर होता था उसके लिए, उदय कभी निरीह नहीं रहे थे | अपने आपको सदा चुस्त और युवा दिखाने वाले उदय सच में ही खूब चुस्त थे भी, खूब बने-ठने, परफ्यूम लगाकर रहते | वैसे सबको अपने लिए कुछ भी लाने से मना करते रहते पर अपने आप एक-एक रंग के कई कई कपड़े खरीदकर रखते, जब कहा जाता कि एक ही रंग की टीशर्ट क्यों ले आए? उनका उत्तर होता ;
“कहाँ, देखो, कितना फ़र्क है---” और एक ही रंग का मामूली सा शेड का फ़र्क दिखाने लगते |
गुलाबी कमीज़ भी उनके लिए लाल होती थी और मरून भी, कोई भी शेड हो लाल या गुलाबी का, उनके लिए सब लाल ही होता | इतने कपड़े कि संभालना मुश्किल हो जाता, शुभ्रा के कपड़ों के लिए तो कोई जगह ही नहीं होती थी | फिर एक-एक कपड़ा याद रहना, पिछली बार जो पैंट धुली थी, वह धोबी के यहाँ गई थी, कहाँ गई ? दिखाई ही नहीं दे रही है | जब तक उनका खोया हुआ कपड़ा मिल न जाता तब तक घर सिर पर ही तो उठाए रखते | कुर्तों-पायजामों का ढेर, जूतों, चप्पलों की लाईन, रुमालों की थप्पी ! क्या-क्या याद करे !
जब कोई उनके लिए कुछ लेकर आता और उनकी पसंद की व क्वालिटी की चीज़ होती तो उसे सबसे छिपाकर ऐसे रख लेते जैसे कोई चोरी कर लेगा | व्याख्यान देने के लिए जब कभी शुभ्रा को बुलाया जाता और उसका सम्मान शौल ओढ़ाकर किया जाता, पैन आदि उपहार स्वरूप भेंट किए जाते, उन्हें उदय ऐसे लपक लेते जैसे कोई छोटा बच्चा किसी खिलौने को लपक लेता है | शुभ्रा की आँखों में तब पति के लिए जैसे माँ की ममता सी उभरने लगती, वह जान-बूझकर थोड़ी चूं-चां करती फिर मन में प्रसन्न होते हुए उदय को पकड़ा देती और उदय अपने मुख की मुस्कान छिपाए बड़े गर्व से उस चीज़ को अपनी अलमारी में सहेज लेते|
ऑपरेशन के बाद अस्पताल से घर में ठीक-ठाक आ गए थे उदय, उम्र व कमज़ोरी के हिसाब से आराम करना ज़रूरी था | कमज़ोरी तो थी ही, बाथरूम जाने के लिए जब शुभ्रा पकड़ने लगती तब उसे हटा देते ;
“अरे! कोई इतना बीमार हूँ क्या ----? ” और अकेले चले जाते |
एक दिन उनसे बाथरूम गंदा हो गया था तो कितने निरीह से हो आए थे | आवाज़ कुछ इतनी क्षीण थी कि शुभ्रा तुरंत दौड़ी गई ;
“क्या हुआ ? ”
“ये देखो न, खराब हो गया है ----“कितना घबरा गए थे कि शुभ्रा की आँखों में आँसू घिर आए |
“तो क्या हुआ ? मैं हूँ न ---? ” वे निरीह दृष्टि से पत्नी को देखते रह गए, उनकी आँखों में न जाने कहाँ से कैसा बेचारगी का भाव भर उठा था |
शुभ्रा ने उन्हें डैटोल के पानी से नहलाकर पावडर आदि लगाकर कपड़े पहनाए, सहारा देकर लाई व पलंग पर लिटा दिया | कितने काँप रहे थे उदय ! शुभ्रा को आज भी उनकी कंपन छू जाती है, जैसे वह कंपन उसके दिल से जुड़ गई हो |
“अभी आती हूँ ----” कहकर शुभ्रा ने पहले बाथरूम साफ़ किया, फ़िनायल की गंध से बाथरूम भर उठा था | फटाफट दो लोटे अपने ऊपर डालकर उसने गाऊन लपेट लिया और दौड़कर चाय बना लाई|
“अरे ! तुम्हारा परफ्यूम तो रह ही गया -----” शुभ्रा ने मुस्कुराते हुए पति के पलंग के पास की अलमारी से उनकी पसंद का परफ्यूम निकाला और उन्हें लगा दिया, वह उनके चेहरे पर मुस्कुराहट और राहत देखना चाहती थी इसलिए बचकाने से काम कर रही थी, उन्हें अच्छी तरह लिटाने के बाद में ही चाय पिलाई उन्हें |
“देखो ! अब चाय ज़्यादा स्वाद लगेगी -----” शुभ्रा ने कहा तो एक क्षीण सी मुस्कुराहट उनके चेहरे पर पसर गई जैसे कह रहे हों ‘मैं खूब समझता हूँ---बच्चों जैसे मुझे बहला रही हो ! ‘
न जाने कितने दिनों तक उनके मुख पर अपराध-बोध पसरा रहा जैसे न जाने बाथरूम खराब करके उन्होंने कितना बड़ा गुनाह कर दिया हो|
इस बार तो दोनों पति-पत्नी ही शिथिल थे, दो पलंगों वाला कमरा लिया गया जिससे वे साथ ही रह सकें| उनका ध्यान रखने वाली तो केवल एक ही थी उनकी बिटिया, दीति | उदय प्रकाश को न तो इतना ज्वर था और न ही उनकी स्थिति कुछ अधिक खराब दिखाई दे रही थी जबकि शुभ्रा को दो दिनों से खूब तेज़ ज्वर था| दीति रात भर माँ-पापा के पलंगों के बीच की छोटी सी जगह पर सिकुड़ी हुई उनींदी सी लेटी रहती, दोनों में से कोई ज़रा सी भी करवट लेता कि वह चौंककर सीधी हो जाती | दिन में उदित चक्कर मारता रहता, गर्वी भी चक्कर मार लेती किन्तु उदित जैसे ही गर्वी को देखता, विचलित होने लगता, वह उससे बात करना चाहता और ऐसे में उसका व्यवहार और भी अधिक असमान्य लगने लगता | गर्वी को ही नहीं सबको उदित का व्यवहार असामान्य लगता, यहाँ तककि उदय की पेशानी पर पड़ी सलवटें गहरा जातीं और चेहरे पर व्याकुलता पसरने लगती | शुभ्रा बीमार थी किन्तु उसका मस्तिष्क भी इन्हीं सब उलझनों में फँसा रहता, वह बाखूबी जान, समझ रही थी उदय का बीमार दिल और कमज़ोर शरीर किस स्थिति में अटक रहा है |
उदय बेटे की चिंता, पोतियों की घर में अनुपस्थिति और घर के टूटने की आवाज़ से आहत भीतर ही भीतर टूटते जा रहे थे | सात दिन होते न होते शुभ्रा का ज्वर टूट गया और उदय का ज्वर तेज़ होता चला गया | डॉक्टर ने दीति से दवाईयाँ आदि देकर दो दिन पूर्व ही शुभ्रा को घर ले जाने को कह दिया था किन्तु कैसे छोड़कर आती शुभ्रा उदित को? उदय को अस्पताल में छोड़ने के नाम से ही शुभ्रा का दिल धड़कने लगता था, मन ही मन वह सोचती उदय को छोड़कर नहीं जाएगी | उसने उदय को विवाह के लंबे पैंतालीस वर्षों में कभी भी इतना अशक्त व शिथिल नहीं देखा था | कभी उन्हें बुखार आ जाता तो इतना शोर मचा देते कि शुभ्रा को लगता कि उन्हें कुछ न हो तभी ठीक है, इससे तो वह तबियत खराब होने पर सब काम भी कर लेगी और सबको संभाल भी लेगी | वह उनकी परिचायिका बनकर वहीं रहना चाहती थी | डॉक्टर ने एक-दो दिन तो उसे रहने दिया किन्तु बाद में उन्होंने दीति से कठोर शब्दों में माँ को घर ले जाने के लिए कह ही तो दिया | शुभ्रा बहुत कमज़ोर थी और वहाँ के माहौल से, पति की ऎसी दशा से उसके दुबारा से बीमार होने की आशंका थी | उदय पिछली रात को लगभग ढाई-तीन बजे कुछ अजीब सी हरकत करने लगे थे | अँगूठियाँ पहनने के शौकीन उदय ने चार अँगूठियाँ पहनी हुईं थीं | अचानक एक अजीब सी स्थिति में वे अपनी अँगूठियाँ उतारने लगे थे | दीति और शुभ्रा की तो एक आँख उदय पर ही जमी रहती थी, उन्हें अधिक हिलते-डुलते देखकर दोनों उदय के पास जाकर खड़ी हो गईं थीं |
“ये क्या कर रहे हैं पापा? ” दीति ने पिता को ज़बरदस्ती अँगूठियाँ उतारते हुए देखकर पूछा |
वे कुछ नहीं बोले, बस अँगूठी खींचते रहे | कुछ देर बाद उन्होंने जैसे कुश्ती करके तीन अँगूठियाँ निकाल ली थीं और चौथी से जूझने लगे थे, उनके चेहरे पर अजीब सी आतुरता, बेचैनी, घबराहट पसीना बनकर पसर रही थी|
“क्यों उतार रहे हो पापा---? ” दीति रो ही तो पड़ी |
उन्होंने तीन अँगूठियाँ दीति के हाथ में रख दीं और चौथी को अपने मुह के पास ले जाकर दाँतो से निकालने का प्रयास करने लगे |
“क्यों निकाल रहे हो पापा? ” अबकी बार दीति ने कुछ ज़ोर से पूछा |
“तू नहीं समझेगी -----” वो अँगूठी निकालने की कोशिश करते हुए बोले |
“अम्मा! क्या हो रहा है इन्हें ? ” दीति ने माँ की ओर एक संगीन सा प्रश्न परोस दिया जिसका उत्तर शुभ्रा के पास भी न था, बस एक डरा हुआ अहसास उसके भीतर पसरा हुआ था | दीति ने माँ के घबराए, सुते हुए चेहरे को देखा जिसका सारा रक्त न जाने कहाँ निचुड़ गया था फिर कमरा खोलकर डॉक्टर के पास भागी |
अब वे अँगूठी निकालने की कसरत से थक चुके थे और लंबी साँस भरते हुए शिथिल होकर गुमसुम से हो गए थे | शुभ्रा को खटका हो गया था, उदय का व्यवहार असमान्य था, उसका ह्रदय ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा और घबराहट से वह काँपने लगी| उस समय तो डॉक्टर ने आकर इंजेक्शन दे दिया था, उदय अपनी ऑक्सीजन की नली को कई बार नाक में से निकाल देते थे, इंजेक्शन के बाद वे शिथिल होकर पड़ गए | दीति और शुभ्रा मुख पर चिंता की रेखाएं चिपकाए एक अजीब से उहापोह में रात भर सुबह होने की प्रतीक्षा में उनींदी आखों से शुभ्रा के पलंग पर बैठी रहीं |
रात भर उदय कुछ ख़ास नहीं बोले थे, बस कभी कुछ हिलते तब मुह से कुछ कराह सी निकलती, हाथ से ऑक्सीजन की नली को हटाने का क्षीण सा प्रयास करते जो उनसे न निकलती, वे फिर चुप होकर उसी स्थिति में आ जाते | दीति व शुभ्रा के पास बात करने का न तो साहस था, न ही इच्छा ! एक अजीब सी मन:स्थिति से दोनों रात भर गुज़रती रहीं थीं !
सुबह होते ही उदित भी आ गया था, डॉक्टरों ने एक के बाद एक विज़िट करना शुरू कर दिया था | कई बड़ी-बड़ी मशीनें कमरे में ही लाई गईं जिन्हें देखकर शुभ्रा घबराहट से भर उठी थी| उनके कई टैस्ट किए गए और बाद में उन्हें आई.सी.यू में शिफ्ट करने का निर्णय लिया गया | डॉक्टर ने अब और भी कड़े शब्दों में दीति से कहा कि वह शुभ्रा को घर ले जाए, उसकी दवाईयाँ दी जा रही हैं और अब उसे यहाँ ठहरने की कोई आवश्यकता नहीं है, ज़रूरत पड़ने पर देखा जाएगा | वह ठीक भी थी, बुखार आना बंद हो चुका था, कमज़ोरी थी जिसे जाने में समय लगना स्वाभाविक था | भीतर से रोते हुए मन की शुभ्रा ऊपर से शांत थी, उदय के आई.सी.यू में जाने से उसके मन की झील में बेचैनी का बड़ा सा पत्थर डुबकी लगा रहा था | कभी निराशा की लहर उस पत्थर को मन की गहरी खाई में नीचे धकेल देती तो पल भर बाद जैसे आशा की कोई किरण उस पत्थर को हल्का कर देती और ऊपर उठाकर उसे रोशनी में ले आती | उदय कुछ बोल नहीं रहे थे, उनकी आँखें खुली थीं और उनमें से एक बेबस दृष्टि निकलकर शुभ्रा व दीति को नहला रही थी | एक भयाक्रांत मौन सबके बीच में पसरा हुआ था | मृत्यु की कल्पना भी रोंगटे खड़े कर देने वाली होती है न ? जबकि हम सब जानते व समझते हैं कि धरती पर आने के साथ ही जाने का भी समय व दिन सुनिश्चित है ---फिर भी ---! ! स्ट्रेचर पर लिफ्ट तक शुभ्रा व दीति उदय का हाथ पकड़कर चली, उस हाथ के स्पर्श में कहीं कोई छुअन का अहसास महसूस नहीं किया शुभ्रा ने, जैसे एक सपाट गर्म सरफ़ेस ! लिफ्ट के पास जाकर डॉक्टर और अन्य दो अस्पताल के सेवक व नर्स होने के कारण रोगियों को ले जाने वाली लिफ्ट में अधिक लोग हो जाने से शुभ्रा व दीति को उदय का साथ छोड़ देना पड़ा | कमज़ोरी के कारण शुभ्रा को भी पहिये वाली कुर्सी पर बिठाकर दूसरी लिफ्ट से नीचे उतारा गया, उसके साथ शुभ्रा की सखी मणि जो सुबह ही अपने पति के साथ अस्पताल आ गई थी, एक अस्पताल का कर्मचारी व दीति थी|
आनन-फानन में उदय को आई.सी.यू में ले जाया गया | बेचैन मन से शुभ्रा अंदर जाने की बात कर रही थी लेकिन अभी उदय के शरीर को जिस ‘सपोर्ट सिस्टम’ की ज़रुरत थी, वह लगाया जा रहा था | डॉक्टर ने कई बार बाहर आकर दीति से माँ को घर ले जाने के लिए कहा था | वे उस घड़ी की नज़ाकत समझ रहे थे जबकि शुभ्रा की संवेदना पति को अकेले न छोड़ने के लिए उसे प्रताड़ित कर रही थी | शुभ्रा की मित्र मणि दी और उनके डॉक्टर पति भी इस समय वहाँ उपस्थित थे | बाहर कितना शोर-शराबा तथा भीतर कितना घुप्प सन्नाटा ! दोनों का कोई मेल न था | डॉक्टर दीति से बार-बार द्घर ले जाने के लिए कह रहे थे | शुभ्रा ने जब अपने घर जाने की इच्छा ज़ाहिर की तब दीति ने स्पष्ट पूछा उससे कि घर पर है कौन जो उसे संभालेगा ? पिता की व परिवार की स्थिति के बीच फँसी परेशान निरीह दीति को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे इस परिस्थिति को संभाले ? आखिर शुभ्रा को वह अपने घर ही ले गई | गर्वी को यह बात पसंद नहीं आ रही थी कि शुभ्रा अपने घर न जाकर बेटी के घर जाए किन्तु वह यह कहाँ कह पाई थी कि वह शुभ्रा की देखभाल करने आ जाएगी | वह तो माँ के घर ही बनी हुई थी फिर बेटी कैसे गर्वी को अकेले छोड़ देती ?
उदय के न जाने कौन-कौनसे टैस्ट होने लगे | उन्हें होश नहीं था, किसी-किसी टैस्ट के लिए उन्हें उस अस्पताल से बाहर दूसरे अस्पताल में भी ले जाया जाता | हर समय दिल धड़कता रहता| कितने लोग यूँ ही बीमार होते हैं, दुनिया से उठ जाते हैं लेकिन अपने की तड़प बेचैन कर देती है . किसी अपने को तड़पते हुए देखना बहुत कठिन होता है | शुभ्रा की आँखें पत्थर की हो गई थीं जिनमें कोई आँसू न था | अब उदय आई.सी.यू में थे औए शुभ्रा दीति के घर पर | दीति के पाँव अस्पताल से घर, घर से अस्पताल बस यूँ ही चक्कर काटते रहते | एक चकरघन्नी लगी थी उसके पाँवों में | शुभ्रा को बहुत कमज़ोरी थी, उसके नहाने-खाने से लेकर दवाईयों तक का ध्यान दीति को रखना होता, साथ ही पति का ऑफिस का तथा बच्चों के स्कूल का समय संभालना होता |
दीति की युवा बेटी नानी को कोई न कोई मन्त्र बता जाती और कहती ;
“नानी ! आप पोज़िटिव बनी रहिए, बस इसे पढ़ती रहिए और सोचिए कि नानू आपके सामने ठीक होकर आ गए हैं –“वह चली जाती और शुभ्रा दवाई के डिब्बे में पड़े हुए कागज़ के टुकड़े को निकालकर पढ़ने लगती | उसकी आँखों में आँसुओं की बूँदें काँपने लगतीं | उदय को अब डायलेसिस पर रख दिया गया था, बड़ी मुश्किल से उसे दो-एक बार ले गए थे ये बच्चे | एक तो आई.सी.यू में जाने की आज्ञा मिलना ही बहुत कठिन था, दूसरे शुभ्रा की स्वयं की हालत बेहद क्षीण थी | गेट पर कोई भी आवाज़ आती उस लगता उदय आ गए हैं और दीति को आवाज़ लगा रहे हैं | फिर अचानक उसके शरीर में कंपन शुरू हो जाता और लगता उदय ‘क्रचेज़’के सहारे गेट पर खड़े हैं, उसके मुख पर हवाईयाँ उड़ जातीं, उसे लगता उदय अपंग हो गए हैं और उसके मन में उस दिन की तस्वीर उभर जाती जिस दिन वे ‘वॉश-रूम’ में बेचारे से बन गए थे |
इस बीच उदय की छोटी बहन भी भाई से मिलने आ गईं थीं और निराशा मन में भरकर लौटी थीं | सब एक-दूसरे को बहला रहे थे जैसे सब बच्चे हों | बहुत सी बार हम अपने सामने की सच्चाई को देखकर, महसूस करके भी देखना व स्वीकारना नहीं चाहते | हम सोचते है हमारे नज़रें छिपा लेने से कड़वी सच्चाई का कड़वा खुरदुरापन हमें नहीं काटेगा, वास्तविकता में ऐसा होता है क्या? हम सपनों की दुनिया में रहते हैं या कहें कि हम मायाजाल में गुंथे रहते हैं, वास्तविकता का खोल ओढ़े हम किसी गहरी खाई में साँसें लेते रहते हैं और साँसें हैं कि घुटती रहती हैं | दीति के घर सब प्रकार का आराम होने के उपरान्त भी शुभ्रा की साँसें हर पल उखड़ी रहतीं, हर आहट पर उसे उदय दिखाई देते और हर पल वह उस मानसिक त्रास से गुज़रते हुए मनाती कि उदय कभी भी असहाय स्थिति में न आएं, उनका बेचारगी में थरथराने का दृश्य उसकी आँखों के सामने गुज़र जाता, घबराहट बढ़ने लगती और जीवन का नंगा सत्य उसे स्वीकार करने के लिए बाध्य करता कि अपंग होने से उदय का न होना अधिक सही था, ’हम कर लेंगे’की डींगें हाँकने वाले मन ही मन सोचकर भी घबरा उठते हैं कि अपंग परिस्थितियाँ शारीरिक के साथ मानसिक अपंगता भी दे जाती हैं | जीवन ऐसा रिसता घाव बन जाता है जो न सहते बनता, न बहते बनता है | शुभ्रा ने अपनी सास को देखा था, सत्रह साल उनकी सेवा की थी, बिस्तर में पड़े रहना करने व कराने वाले के लिए कितना करुणापूर्ण व बेचारगी से भर जाता है | यह समय का आईना बिना देखे ही बता देता है, एक परछाई सी आकर सम्मुख खडी हो जाती है और मनुष्य को जीवन के सत्य से रूबरू कराती रहती है | आज उदय के न रहने का एकाकीपन और पीड़ा उसके ह्रदय में जो घाव बनकर रिसती रहती है, वह अवश्य ही उससे कम है जो उदय को अपंग अवस्था में देखकर होती | मनुष्य संवेदनाओं के बहाव में कह तो देता है कि वह अपने बीमार प्रिय का ये कर लेगा, वो कर लेगा किन्तु जब उसके सामने परिस्थिति आती है तब वह कितनी जल्दी असहाय महसूस करने लगता है, यह बात तो वही समझ सकता है जो उस परिस्थिति से निकलता है| कुछ दिनों में ही मोह का यह जाल टूटने लगता है और वह अपने प्रिय की मुक्ति की प्रार्थना करने लगता है | और बीमार---वह तो न जीवित रहता है और न ही मृत, अधर में लटके त्रिशंकू सा असहाय हो अपने पल गिनने लगता है | प्रतिदिन सब प्रार्थना करते हुए पाए जाते हैं ;’हे ईश्वर! हमें सोए हुए ही उठा लेना’ यह बहुत सही भावना है | वैसे जिसने जन्म लिया है, उसे एक दिन जाना ही है, सब कुछ जानने, समझने के उपरांत भी कौन इस खूसूरत दुनिया को छोड़कर जाना चाहता है ? किन्तु इस मायानगरी को छोड़कर जाना भी है और अपने-अपने हिस्से के कर्म भोगकर भी जाना है, कितना कठोर सत्य है !
इधर उदित लगातार डॉक्टर की दवाईयाँ खा रहा था और क्रोध एवं असमान्य व्यवहार से सबके लिए चिंता का विषय बना हुआ था | आई.सी.यू में जाने के बाद उदय बोल न पाए परन्तु उनकी आँखों में चिंता साफ़ महसूस की जा सकती थी | उदय के आई.सी.यू में एडमिट होने के बाद शुभ्रा को केवल दो बार उनसे मिलने ले जाया गया था, वह अधिक कहती भी नहीं थी जाने के लिए, उसे उदय की आँखों में प्रश्नों का अंबार लगा हुआ दिखाई देता जिनका उत्तर उसके पास कहीं नहीं था | दीति ने उससे कहा था कि वह उदय को थोड़ा हिलाए| वह धीरे से उदय के मुख पर हाथ लगाती, कभी-कभी कुछ ज़ोर से भी हिलाती, उदय आँखें खोलते परन्तु कुछ बोल न पाते, शुभ्रा को उनकी आँखों में भरे हुए प्रश्न दिखाई देते, वह सहम जाती, उसके पास कुछ भी नहीं था उदय को दिलासा देने के लिए, वह रिक्त हाथ थी, रिक्त ह्रदय थी, सपाट प्रश्नों की पगडंडी पर चल रही थी | परिवार से जुड़े हुए प्रश्न उसने सदा उनकी आँखों में भरे हुए देखे हैं और असहज होती रही है | इसी बीच उदित की दवाईयों की जाँच की गई, एक दूसरे डॉक्टर से भी सलाह ली गई और पता चला कि जिस दवाई की एक डोज़ दी जानी चाहिए थी, वह उसे तीन-तीन बार दी जा रही थी | हर डॉक्टर का इलाज़ करने का अपना तरीका होता है, कोई कम डोज़ देकर इलाज़ करता है तो कोई अधिक डोज़ देकर रोग को पहले बढ़ाता है| पहले वह बीमारी को ‘एग्रावेट’ करता है फिर धीरे-धीरे कम डोज़ देकर रोगी को सामान्य करने की कोशिश करता है | लेकिन यहाँ डॉक्टर के इलाज़ करने का प्रश्न नहीं था, यहाँ इस समय प्रश्न था परिवार की स्थिति का, सदस्यों की मन:स्थिति का | दूसरे डॉक्टर के कहने से उदित की दवाइयों पर अंकुश लगा जिससे गर्वी को बहुत ठेस पहुंची लेकिन दो-चार दिनों में ही उदित में बदलाव नज़र आने लगा | गर्वी इस बात से बहुत नाराज़ थी कि जिस डॉक्टर का इलाज़ उसने शुरू करवाया था, वही क्यों नहीं चालू रखा गया लेकिन बेशक डॉक्टर का इलाज़ ठीक हो किन्तु उस समय की नाज़ुक परिस्थिति, मन:स्थिति और उदित का अजीब व्यवहार ! कुल मिलाकर सबके लिए अत्यंत पीड़ादायक था | एक माँ और एक बहन के लिए उदित का इस प्रकार का व्यवहार बर्दाश्त से बाहर था, उसका खाना-पीना, सोना सब कुछ माँ, बहन को पीड़ा से भरे दे रहा था तो किसीके लिए मान-अपमान का मसला बना हुआ था जो रिश्तों को सुधारने के स्थान पर और गर्त में धकेल रहा था |
और एक दिन सुबह उदय के जाने की खबर आ ही गई, होनी को कोई नहीं टाल सकता| समय का पहिया सबके जीवन में घूमता ही है | उदय के परलोक सिधारने की खबर सुनते ही शुभ्रा को लेकर उसके घर आया गया | उस समय शुभ्रा का चेहरा बिलकुल सपाट था जैसे वह प्रतीक्षा ही कर रही हो इस अंतिम परिणति की | उदय प्रकाश की सब अंतिम विधियाँ की जाने लगीं | शुभ्रा स्वयं बेहद शिथिल थी, फिर भी कहीं उसके भीतर कोई बोल रहा था ‘बाय उदय, भगवान को धन्यवाद है कि तुम अपंग होकर नहीं लौटे‘ उसके भीतर का एक-एक स्नायु काँप रहा था, अगर वह भी उदय के साथ चली जाती तो ? लेकिन कैसे? अपने-अपने हिस्से की धूप-छाँव सबको ओढ़नी–बिछानी तो पड़ती ही है | वह कैसे उस धूप में तपे बिना चली जाती जिसमें उसे तपना था | उदय के जाते ही एक खोखलापन भर गया | गर्वी बार-बार इस बात का ज़िक्र करती रही कि उदय के जाने के बाद पूजा-पाठ व क्रियाओं में कितने पैसों की बर्बादी हुई है | जिस उदय प्रकाश ने परिवार के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया था, उसके अंतिम समय का हिसाब रखकर क्या बहुत बड़ी बचत हो सकती थी? शुभ्रा भीतर से खतम हो गई थी, उसे अपने भीतर के तंबूरों में टकराहट सुनाई देती और वह ऊपर से सधी हुई बनी रहकर भीतर से खोखली होती जा रही थी | शुभ्रा का मन था उदय के बाद पूरे माह यज्ञ करने का, उसने किया | गर्वी माँ के घर बीच-बीच में चली जाती थी | कई मेहमान आए हुए थे, चाची ने कहा भी कि इस तरह तेरहवीं से पहले नहीं जाते किन्तु गर्वी ने सदा अपने मन के अनुसार ही तो चली थी, उसने कहा, ’ऐसे तो बहुत से रूल टूटते हैं ‘ उसकी बात सुनकर सब चुप लगाकर बैठे रह गए, वैसे ही कब शुभ्रा उसके सामने बोली थी ? सो ---जैसे चल रहा था, सब ठीक था| उदित की इच्छा थी कि पिता की अस्थियाँ हरिद्वार ले जाए, शायद उसे कहीं न कहीं पिता के व परिवार के साथ किया गया अपना व्यवहार कचोट रहा था | शायद वह पितृ-ऋण से उबरने के लिए बहुत कुछ करना चाहता था | तेरहवीं में काफ़ी लोग एकत्रित हो गए थे, इस परिवार की तीसरी पीढ़ी और उदय के आँख के तारे सी पोतियाँ तो नानी के घर ही रहीं| बच्चों को लाने के उत्तर में परीक्षा की बात की गई, एक की परीक्षा थी तो दूसरी ? नहीं, उसके अकेलेपन की बात हुई ---शुभ्रा के मन में कोई कच्ची डोर टूटी---- क्या दादू रोज़-रोज़ मरते हैं? पर फिर भी वह चुप थी, क्यों नहीं कह सकती थी कि इस घर की बच्चियाँ हैं तो उन्हें इधर ही रहना होगा | कभी किसीसे कुछ कहा होता तो कहती न ! वह कुछ कह न सकती थी, कुछ न कह सकी | कमज़ोर शुभ्रा ! इसी बात को लेकर उदय प्रकाश सदा परेशान रहे थे, आखिर क्या पत्नी थी उसकी जिसने अपने साथ अपने पति को भी कमज़ोर बना दिया था, यूँ पत्नियाँ अपने पति की कवच होती हैं | शुभ्रा ने ऐसे अपने पति को कमज़ोर किया तो गर्वी ने दूसरी तरह से | समझदारी तो किसी की भी नहीं मानी जाएगी न !
तेरहवीं के बाद गर्वी माँ के घर चली गई, उदित उसकी लल्लो-चप्पो करता रहा, कई माह खाई जाने वाली दवाईयों का प्रभाव इतनी जल्दी कम होने वाला तो था नहीं अत: कुछ न कुछ अजीबोगरीब व्यवहार तो चलता रहा | पहले से थोड़ा संयमित हो गया था और समझाने से बातों को समझने लगा था | एक बात होती है न कि कोई भी हो जब अपने को सबसे अधिक बुद्धिमान समझने लगता है तब निश्चय ही उसका अहं उसे किसीकी बात पर भी ध्यान देने की इज़ाज़त नहीं देता | वह केवल स्वयं को ही सर्वोपरि समझता है और इस अहं में ही गुलझटें पड़ती जाती हैं व रिश्तों की चिन्दियाँ बिखर जाती हैं | कितना समय लगता है रिश्तों को सहेजने में और तोड़ने में, टुकड़े करने में पल भर भी नहीं | इतने लंबे-चौड़े परिवार को न जाने पगली शुभ्रा और उदय प्रकाश कैसे सहेजकर रख पाए थे, उदय के जाते ही वह इतनी शिथिल हो गई कि उससे अपने करीबी रिश्ते ही नहीं संभल रहे थे| उदय प्रकाश एक बंद मुट्टी थे जिसमें से रिश्तों की सुगंध धीमे-धीमे लहराती, बल खाती चलती थी जो एक रिश्ते से दूसरे रिश्ते में फैलती जाती और सदाबहार मुस्कान से वातावरण सुरभित बना रहता, उनके न रहने से यकायक क्या हुआ कि रिश्तों की सुगंध दुर्गन्ध में बदलकर पूरे वातावरण को लज्जित करने लगी| ======82
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