Mayamrug - 13 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | मायामृग - 13

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मायामृग - 13

मायामृग

(13)

जब कई वर्षों के बाद बेटी वापिस वहीं आ गई थी उदय को मानो किसीका कंधा मिल गया था सिर रखने के लिए | अब, जबकि वे रहे ही नहीं हैं शुभ्रा कई बार सोचती है कि उदय उसके कंधे पर सिर रखकर चैन की साँस क्यों नहीं ले सके? इसका उत्तर भी शुभ्रा को स्वयं में ही मिल जाता है ‘इस लायक होती शुभ्रा तब रख पाते न उदय उसके कंधे पर अपना सिर, कोई सहारा तो दिखाई देता उन्हें पत्नी में, वह तो उन्हें सदा कमज़ोर ही दिखाई दी थी, स्वयं को किसी आवरण से छिपाती हुई सी, खोखली दलीलों में साँसें लेती हुई ज़बरदस्ती की हँसी मुख पर चिपकाए’ !! उसने अपना कोई स्थान ही नहीं बनाया था परिवार में, उसके लिए जो भी थी उसकी बहू ही थी | बेटी का बंगला पास ही होने के कारण उदय का रोजाना उदय शाम को उसके घर चले जाते| दीति के पति ने अपने पिता को बहुत युवावस्था में और माँ को विवाह के कुछ वर्ष बाद ही खो दिया था सो वे अपने श्वसुर को ही अपने पिता का सम्मान देते, कोई भी ऎसी बात न होती कि वे उदय प्रकाश से बिना पूछे हुए कर लें| हर शाम ऑफ़िस से लौटने के बाद वो भी हर शाम उदय प्रकाश की चाय पर प्रतीक्षा करते, किसी दिन न जाते तो तुरंत फ़ोन आ जाता | जो अपनापन व सम्मान उदय को अपने घर में मिलना चाहिए था वह उन्हें दीति के परिवार में मिलता | अब तो बिटिया के बच्चे भी बड़े हो गए थे और उनकी यही इच्छा रहती कि नाना उनके पास ही रहें लेकिन शुभ्रा के इधर रहने के कारण वे वहाँ रह न पाते और मिलकर घर वापिस पत्नी के पास आ जाते |

उदित और गर्वी के बीच में किसी न किसी बात को लेकर झड़प होना कोई नई बात नहीं रह गई थी | कोई भी कम न था | समझाने की कोशिश करती शुभ्रा लेकिन वह जानती थी उसकी कोई सुनने वाला नहीं था| यूँ तो शुभ्रा और गर्वी के बहुत मधुर संबंध थे लेकिन जब किसी न किसी बात पर गर्वी शुभ्रा को सुना देती तब वह और भी कमज़ोर पड़ जाती जैसे किसी खूँखार सास के सामने कोई निरीह बहू चुप रह जाती है, उसका दिल धड़कने लगता, पेट में मरोड़ उठ जाती और सीधी वह ‘वाशरूम’की ओर भागती | गर्वी बड़े आराम से शुभ्रा को कुछ भी कह पाती थी, उसके स्वाभिमान पर चोट लगा सकती थी और वह मूर्खों की तरह चुप बनी सुनती रहती थी | क्यों नहीं था उसके बसका परिवार में अपना स्थान निश्चित कर पाना जबकि उसका पति उदय भी उसके साथ था | सच तो यह था कि उसने अपने पति उदय को भी कमज़ोर बना दिया था | उदित और गर्वी की हरकतें देखते हुए कई बार मन में आया कि उसे अलग कर देना चाहिए, एक बार दोनों पति-पत्नी पहाड़ी इलाके की ओर भी गाड़ी लेकर चक्कर मार आए थे | हरी-भरी छोटी-छोटी घाटियों को देखकर उदय प्रसन्न थे कि यहीं एक दो कमरों का घर बना लिया जाए किन्तु तब शुभ्रा बिदक गई थी जबकि वह पहले कितनी बार स्वयं ही उदय से अलग रहने के लिए कहती आई थी| अरे! प्रेम-विवाह किया है-- कमाएँगे, खाएँगे अगर यह हो जाता तो बहुत ठीक था|

गर्वी को उदित से सदा शिकायत रही कि वह कभी कुछ नहीं देता किन्तु शुभ्रा ने सदा बच्चों के पास और स्वयं गर्वी के पास भी अच्छे से अच्छा सामान देखती थी | उदित के ऊपर सदा ‘ब्रेंडेड’का भूत चिपका रहा सो बच्चों को भी वह जब उसके पास होता अच्छे से अच्छा सामान दिलाता | घर में कभी पैसा दिया, कभी नहीं दिया पर स्वयं तो हमेशा ही मस्ती में बना रहता था, उसके साथ गर्वी भी बच्चों को लेकर | सब लोग मिलकर घर का खर्चा करते, गर्वी भी करती, किसी तरह अच्छी तरह से खिंच रहा था| लोगों की दृष्टि में परिवार में बहुत सुख-चैन था, कुछ गलत भी नहीं था | बेशक उदित और गर्वी की झड़प चलती रहती मगर घूमना-फिरना और उदित का ‘ड्रिंक’ तो आदत बन चुका था| कभी किसी से झगड़ा हो जाने पर दोनों पति-पत्नी एक हो जाते, शुभ्रा और उदय घबराते रहते और दोनों को चुप करने की जी तोड़ कोशिश करते रहते| अंत में दुखी होकर बैठ जाते| दोनों में से कोई भी तो ऐसा नहीं था जो अपने व्यवहार पर अंकुश रख ले | शुभ्रा की कई सखियाँ थीं जो उसके बहुत करीब थीं, उन लोगों का मिलना अक्सर कहीं न कहीं होता ही रहता, वे सब यही समझती थीं कि यदि स्वर्ग है तो शुभ्रा के घर में है| सच तो यह है कि अन्दर की बात कोई नहीं जान सकता| यही तो नाटक है जो हम हर पल करते रहते हैं | अपनी गलतियाँ दूसरों के कंधे पर लादकर हम अपने आपको बचाने की, साफ़-सुथरा दिखाने की चेष्टा करते रहते हैं | पर क्या हम इतने साफ़-सुथरे होते हैं जितना दिखाते हैं | नाटक पर नाटक हमारे जिस्मों में हरकत करता रहता है, हम अपने को बहुत महान समझते हैं और सामने वाले को क्षुब्ध ! लेकिन काठ की हाँडी कब तक आग पर रह सकती है? कभी न कभी उसे आग तो पकड़ेगी ही | उदय प्रकाश की उम्र बढ़ रही थी जो उनके लिए समस्या न थी बल्कि उनकी मानसिक स्थिति उनके लिए कठिन होती जा रही थी | कभी-कभी वे बहुत शिथिल हो जाते| पुत्र और पुत्र-वधू के बीच प्रारंभ से ही जो नाटक देखते आ रहे थे उससे वे बहुत पीड़ित हो उठते थे | उनका मन बार-बार इन्हीं हिचकोलों में ऊपर-नीचे घूमता रहता ‘ये दोनों अंत तक साथ रह जाएं तो बड़ी बात है ’न चाहते हुए भी वे अपनी पत्नी शुभ्रा से यह पीड़ा सांझा करते, अब तो थोड़ा बहुत दीति से भी सांझा करने लगे थे | शुभ्रा अब पति की पीड़ा से भरे हुए प्रश्न पर गुमसुम सी बैठ जाती | पति की पहले कही गई बातें उसके मन में कुलबुलाने लगतीं और वह उनसे आँखें मिला पाने का साहस न कर पाती | कोई उत्तर न था उसके पास ! उम्र भर उसने तो अपने शरीर व मन को घिसा ही था परिवार के लिए| कोई अहसान नहीं किया था किन्तु उसका परिणाम ऐसा भी हो सकता है, उसका मन कभी स्वीकार ही नहीं करता था |

उदित और गर्वी के बीच में अब कुछेक दिनों से अधिक ही तनाव चल रहा था| उदित का स्वभाव वैसे ही किसीकी परवाह करने का नहीं था, जानता था अगर गर्वी काम पर जाती है तो माँ तो है ही घर संभालने के लिए | दो-एक सहायिकाएँ भी थीं, खाना कभी उदय को किसी के हाथ का पसंद नहीं आया | जब दोनों काम करते थे तब ‘कुक’ रखनी पड़ती थी लेकिन अवकाश प्राप्ति के बाद तो शुभ्रा थी ही कुक, इसमें उसे कोई आपत्ति भी नहीं थी | किसीके लिए कुछ बन रहा है तो किसीकी कुछ फरमाइश हो रही है | शुभ्रा खुद भी ध्यान रखती कि सबकी पसंद का भोजन तैयार कर सके | सच तो यह था कि उसे अपना शरीर घिसने में आनन्द आने लगा था जबकि अब उसके शरीर को विश्राम की आवश्यकता थी |

इन्ही दिनों में उदित को एक छोटी सी सर्जरी करवाने की ज़रुरत हुई, वह बहुत जल्दी घबराने वालों में से था | शुभ्रा नेयह महसूस किया है कि मर्द भीतर से कमज़ोर होते हैं और ऊपर से अपने आपको बहादुर दिखाने की चेष्टा करते रहते हैं | उन दिनों पति-पत्नी के बीच कुछ अधिक ही तनाव चल रहा था | गर्वी उदित के साथ अस्पताल गई तो किन्तु उसका मन अपने काम पर ही पड़ा रहा और उसने कई बार उदित के सामने अपने काम पर जाने की बेचैनी ज़ाहिर की जिससे उदित के भीतर का पति अपमानित हुआ और उनके बीच में बात और भी बिगड़ती गई | शुभ्रा व उदय ने बेटे के साथ जाने का कई बार प्रयास किया किन्तु वह तैयार ही नहीं हुआ, वह केवल गर्वी का साथ ही पर्याप्त समझता था | बाद में उसकी त्वचा को ‘टैस्ट’ करने के लिए भी भेजा गया जिससे जब तक परिणाम न आया, वह असहज ही बना रहा| पीने की आदत के कारण उदित पत्नी व बच्चों से गलत व्यवहार करने लगता लेकिन प्रश्न वही बना रहा कि ऎसी अवस्था में कौन किसको कैसे समझा सकता था ? उदित ऑफिस से आकर कमरे में बंद हो पीने लगता, कभी कुछ खाता, कभी न खाता| उदय और शुभ्रा तो मूक-दृष्टा की भांति गुमसुम सब होते हुए देखते रहते | उदय मन से दिनोंदिन क्षीण होते जा रहे थे| जीवन को इतने उल्लास से जीने वाले उदय कभी भी हारना नहीं जानते थे | जीवन में बहुत सी ऎसी घटनाएँ घटित हुई थीं जिनका सामना पति-पत्नी दोनों ने मिलकर कर लिया था | समस्याओं का समाधान निकलने में थोड़े धैर्य की ज़रुरत तो होती ही है | गर्वी तो उदित पर शक करती ही थी, उदित का शक भी गर्वी पर गहराने लगा जब उसने गर्वी को घंटों अपने मित्रों से बात करते सुना | दोनों का व्यवहार एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील नहीं था | दोनों ही जैसे एक-दूसरे में कमियाँ तलाशते रहते जबकि प्रेम और कुछ नहीं केवल एक-दूसरे के लिए स्नेह, व परवाह है | बाक़ी तो सब शरीरों के खेल हैं, परिवार की डोरी में बंधे हुए हैं, बच्चों को जन्म दिया है तो मज़बूरी होती है उनकी आवश्यकताओं को पूरा करना | अन्यथा जब तक एक-दूसरे के लिए कोई सरोकार न हो तब तक प्रेम का राग अलापना मायाजाल ही तो है |

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