मायामृग
(5)
गांधारी ने तो पति के कारण पट्टी बांधी थी यहाँ तो माँ ने अपनी आँखों पर बेटे के मोह में पट्टी बांधी थी और पिता की आँखों पर भी भ्रम के जाले लगवा दिए थे | वैसे कोई ख़ास बात तो है नहीं यह पट्टी तो अधिकतर हरेक माँ-बाप की आँखों पर बंधी रहती है | किया भी क्या जा सकता है ? मनुष्य को परिस्थिति के अनुसार ही निर्णय लेने पड़ते हैं, उसीमें ही समझदारी होती है | आज के दौर में यह नाज़ुक स्थिति अधिकांशत: प्रत्येक माता-पिता के समक्ष आ ही जाती है जिसमें निर्णय ‘हाँ’ अथवा ‘न’ दोनों ही बहुत शीघ्र नहीं लिए जा सकते | शुभ्रा वैसे ही बच्चों को अपनी सीमा से अधिक देने की चेष्टा करती, उसे तो लगता कि प्रत्येक माता-पिता ऐसा ही तो करते हैं लेकिन यही उसकी सबसे बड़ी भूल थी | जो उदित को चाहिए, वह उसे कैसे न कैसे मिल ही जाता | बेटी दीति पिता की बेहद लाड़ली ! बेटियाँ होती भी है पिता के कलेजे का टुकड़ा ! पर उदित संभलकर चलने वालों में थे, जब कोई चीज़ दिलानी अथवा लानी हो, वे पचास बार सोचते, शुभ्रा को लगता उदय क्यों किसी बात के निर्णय में इतना लंबा समय लेते हैं ? किसी भी बात के सामने आने पर वे कहते ;
“”देखेंगे ---सोचेंगे ----”” शुभ्रा को बहुत कोफ़्त होती | सोचते रहने में ही चाहे सारी ज़िंदगी निकल जाए पर सोचने में समय ज़रूर खराब करना है | आज उसे कहीं भीतर तक यह बात मथती है कि उदय की सोच कितनी सही थी किन्तु अब कोई लाभ नहीं, फिसलने के बाद चोट खाना तो स्वाभाविक है अत: चोट खाई तो पीड़ा तो सहन करनी ही पड़ेगी ! जब चीज़ें हाथ से फिसल जाती हैं तब वे पकड़ में कहाँ आती हैं ? ? शुभ्रा के हाथ से देखते-ही देखते सारी ज़िंदगी फिसलती रही और वह मूक दर्शक की भांति ताकती रही, किसी भी बात की बारीकी उसकी समझ में आई ही नहीं |
बेटी का विवाह इसी वर्ष हुआ था, परिचित परिवार होने के कारण अधिक कुछ परेशानी सामने नहीं आई किन्तु सगाई तय होने के पश्चात ही बेटी के श्वसुर को होने वाले प्राणान्तक हृदयाघात ने उसके श्वसुर पक्ष को जख्मी कर दिया था | अब उदय के एक नहीं दो बेटे थे जिनका उन्हें एक समान ही ख्याल रखना था | अत: जब उदित के बारे में पता चला तो वे कुछ परेशान से हो उठे| उदय उस लड़की के परिवार से पूर्व परिचित थे और उस परिवार के बारे में कोई बहुत अच्छी राय नहीं रखते थे | वे ‘तलाक’ शब्द से बहुत घबराते थे इसीलिए पूरी तरह यहाँ की सीमा रहित स्वतन्त्रता के विरोध में थे | स्वतन्त्रता का जो स्वरूप वे यहाँ देखते थे, उससे उन्हें वितृष्णा होती थी | विवाह के बंधन को सात जन्मों का बंधन मानने वाले उदय के मन में इस विवाह के प्रति बहुत सी आशंकाएं उठ रही थीं | स्पष्ट रूप से तो वे कुछ नहीं कहते थे किन्तु जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उदित लड़की के पीछे लट्टू हो गया है और प्रत्येक स्थिति में उसी लड़की से विवाह करना चाहता है तब वे हताश हो उठे | उन्होंने उस परिवार की टूटन को स्वयं देखा था वे अधिक कुछ सोचना, कहना नहीं चाहते थे किन्तु असहज थे, यह तो सत्य था | समाज में जीने के लिए भी कुछ औपचारिकताएं होती हैं, नियम होते हैं, अनुशासन होता है जिनका पालन करना आवश्यक होता है| यह तो इतनी बड़ी बात थी, परिवार की बेटी को घर की रौनक बनाने की बात, विवाह की बात ! जीवन भर का रिश्ता ! कहीं न कहीं जैसे उनके मस्तिष्क में यह उथली सी लहर रह-रहकर उभरने लगती थी कि उनके पुत्र व उसकी पत्नी में सहज, सरल विवाहित जीवन की कमी बनी रहेगी | कहीं ऐसा न हो कि संतानोत्पत्ति के बाद कुछ ऐसा हो जाए जो बच्चों के भविष्य को ही निचोड़ डाले | बेटे की मुहब्बत के बारे में इस तथ्य का पता चलने के बाद शुभ्रा पति को बहुधा गुमसुम हो कुछ चिंता की मुद्रा में अपने छोटे से बगीचे में दोनों हाथों को पीछे ले जाकर, एक दूसरे में ऊँगलियाँ फँसाए इधर-से उधर घूमता हुआ देखती |
“”बताओ, मुझे क्या बात है ? ”” शुभ्रा ने कई-कई बार उदय से पूछा लेकिन वे कोई उत्तर देने की अपेक्षा उसे टुकुर-टुकुर ताकते नज़र आए |
एक दिन ज़िद में अड़ गई शुभ्रा ;
“”बताओ पहले क्या बात है ? नहीं तो उठने नहीं दूंगी| ” शुभ्रा को भली प्रकार याद है उस दिन रविवार था और उदय अपनी आदत के अनुसार कई तकियों को मोड़-तोड़कर उनके सहारे बैठे चाय के कई प्याले गटक चुके थे | शुभ्रा के कमरे में आते ही उन्होंने आदत से मजबूर अपने अँगूठे और ऊँगली के बीच इशारे में शुभ्रा को चाय बनाने के लिए कहा | यह सांकेतिक भाषा उन दोनों में वर्षों से चली आ रही थी|
“”नहीं, अभी नहीं ---पहले बताओ, मन में क्या चल रहा है? ””शुभ्रा ज़िद पर अड़ गई |
“”मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा ...”” वे बैचनी से इतना ही कह पाए थे |
““अरे ! उदित और गर्वी की बात कर रहे हैं क्या ? ””
उदय का सिर ‘हाँ’ में हिला और शुभ्रा ज़ोर से हँस पड़ी | उदय उसका मुख ताकने लगे थे|
“इतनी गंभीर बात पर उनकी पत्नी दाँत फाड़ रही थी ...” वे रुष्ट हो उठे |
“ “बात कोई इतनी गंभीर भी नहीं है कि मुह पर पौने बारह बजाकर बैठ जाओ | अरे भई ब्याह उन दोनों का होना है और आप हैं कि हलकान हुए जा रहे हैं | ””
“”क्यों ? बेटा नहीं है मेरा? और तुम जानती नहीं हो उस परिवार के बारे में ? ””
“”जानती हूँ, क्यों नहीं जानती पर अब बच्चे बड़े हो गए हैं, मैं समझती हूँ उनके निर्णय का हमें सम्मान करना चाहिए | यह बात मेरी समझ से परे है कि गलती करें माता-पिता और उसका भुगतान करें बच्चे ! ””
“”अपनी ये बड़ी-बड़ी बातें अपने पास ही रखो तुम, हर समय किताबी बातें करती हो | अरे ! कॉलेज में पढ़ाने वाली बातें अलग होती हैं और प्रैक्टिकल जीवन अलग, हर समय हल्के से बात लेना तुम्हारी आदत बन चुकी है ---”” बस यहीं शुभ्रा स्वयं को बेचारा महसूसने लगती थी, ऐसे में वह सोचती कि पति से खुलकर बात कर सके किन्तु उदय कम से कम उस क्षण तो कुछ भी सुनने के लिए तैयार न होते | शुभ्रा उदय में मित्र तलाशती ही रह जाती जिससे वह खुलकर अपने मन की बात कर सके | यही मुख्य कारण था कि घर में शुभ्रा कभी खुलकर बोल ही नहीं सकी थी |
उस समय शुभ्रा चुप हो गई थी, कितनी चुभती बात कह जाते हैं उदय भी | पढ़ाई की बातें यदि व्यवहार में न उतारी जाएं तो शिक्षा से लाभ ही क्या है ? वह सोचती उदय क्यों एक अशिक्षित की भांति सोचते हैं ! उस दिन फिर से उसी बात पर उखड़कर वह खीजकर चाय बनाने चल दी और मिनटों में चाय का प्याला उन्हें पकड़ा चुपचाप वापिस दूसरे कमरे में चली गई | यह सच था कि बेटी के विवाह के पश्चात उदित के लिए बहुत से रिश्ते आने शुरू हो गए थे और उदय का इस स्थान से भिन्न संस्कारों में जन्मा, पला, बढ़ा मन बेटे के विवाह के कुछ और ही सपने देखने बुनने लगा था | जबकि उदित अभी नौकरी के लिहाज़ से ढंग से जम नहीं सका था फिर भी रिश्तों की कतार लग गई थी | शुभ्रा को भी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर क्यों और कैसे लड़कियों के माता-पिता उनके बेटे के लिए रिश्तों की पंक्ति में खड़े हैं? केवल उदित का सुदर्शन होना तो कारण नहीं हो सकता | हाँ, उदय ने अपने परिवेश में एक इज्ज़त ज़रूर कमाई थी, शुभ्रा का भी एक काफी बड़ा मित्र-वृत्त था जो उसे बहुत समझता व स्नेह करता था | सरकारी नौकरी के ठीक-ठाक पद पर बैठे उदय के परिवार को खाते-पीते इज्ज़तदार परिवारों में सम्मान प्राप्त था | कुछ अधिक तो था नहीं शुभ्रा व उदय के पास फिर भी लोग इस परिवार को एक संभ्रांत, संस्कारी परिवार मानते थे और संबंध स्थापित करने के इच्छुक बने रहते थे | एक बार उदय व उनके एक मित्र ने जूते का ‘शो-रूम’खोला था | उदय सरकारी नौकरी में थे अत:शुभ्रा के नाम से ही काम था और उस समय तक शुभ्रा खाली होने के कारण प्रतिदिन अपने शो-रूम पर जाकर काम करवाती थी, दो सेल्स-मैन थे, एक ऊपर का काम करने वाला कर्मचारी नियुक्त कर लिया गया था | पूरा दिन शुभ्रा शो-रूम संभालती, शाम को बच्चों के स्कूल से वापिस आने के समय वह भी सेल्स के लोगों पर काम छोड़कर घर आ जाती, उसी समय उदय के भी ऑफिस से आने का समय होता था | कुछ चाय-नाश्ता करके उदय शो-रूम पर आ जाते और रात तक देखभाल करवाते | उस समय तो केवल उदय ही कमाने वाले थे, शुभ्रा सुबह के समय दो-तीन ट्यूशन्स करती थी | उदय की कमाई भी उन दिनों कोई बहुत अधिक नहीं थी उस समय, सभीको बहुत कम पैसे मिला करते थे | हाँ, पर पैसे का मूल्य ज़रूर था | उदय के अधिकांश पैसे शोरूम में सामान मंगवाने, नए डिज़ाइन के चप्पल-जूते बनवाने में खर्च होते, पार्टनर का भी वही हाल था| शुभ्र जूते-चप्पल डिज़ाइन भी करती तथा कारीगरों को ‘कलर कॉम्बिनेशन’भी समझती, उनसे चर्चा करती | लेकिन उस समय भी सामाजिक रूप से ईश्वर ने उनकी इज्ज़त को संभाल रखा था | शुभ्रा के पास खूब रेशमी साड़ियाँ थीं जिनके ब्लाउज़ काफी पुराने और कहीं से कुछ फट भी गए थे किन्तु जब शुभ्रा अपने शो-रूम में बैठती किसीको इस बात का अहसास तक न हो पाता कि इस सिल्क की साड़ी के नीचे फटे हुए ब्लाउज़ को पहना गया होगा | शुभ्रा कुछ इस तरह से साड़ी लपेटकर रखती कि देखने वाले पर उसके व्यक्तित्व का प्रभाव पड़े बिना न रहता| यह तब की बात है जब बच्चे छोटे थे, उसकी सास बीमार थीं और पति-पत्नी बच्चों के भविष्य के लिए अपना आर्थिक स्तर सुधारने का प्रयत्न कर रहे थे | बाद में कई कारणों से वह शो-रूम बंद कर देना पड़ा था और उदय के परिवार ने काफी नुकसान झेला था | सब साथ थे अत:सारी कठिनाई के दिन छूमंतर हो गए, खिलखिलाहट फिर भी बनी रही, तब सब जिंदा थे, मुस्कुराते हुए |
अब बच्चे बड़े हो गए थे, उदित की प्रेम-चर्चाएँ पींगें बढ़ाने लगी थीं और न चाहते हुए भी उदय मानसिक रूप से अधिक त्रस्त रहने लगे थे | खिलखिलाते परिवार में जैसे एक शून्य सा पसर गया था | घर में लंबे समय तक इस बात का धूआँ फैला रहा जो सबकी आँखों से पानी बनकर निकलता भी रहा | कुछ समय बाद उदय की सोच ने करवट बदली और उन्होंने बेटे उदित को आमने-सामने बात करने के लिए बुलाया था |
“”मर्द बनकर बात करो”” उदय ने अपने बेटे को ललकारा था |
“”यह क्या इधर-उधर छिपते फिरते हो .....””
शुभ्रा बाप-बेटे के बीच में आ बैठी, उदित पिता की बात चुपचाप सुनता रहा था |
“”अब छोड़ें भी ......क्या करना है अपनी ज़िंदगी तो उन दोनों को निकालनी है | हमारा क्या-- अलग कर देंगे, रहेंगे अपने आप दोनों | बेटी का विवाह हो ही चुका है फिर किस बात की झी झी .....””बेटी दीति भी भाई की ओर से वकालत कर रही थी |
“क्या फ़र्क पड़ता है अगर अच्छी लड़की है तो ! परिवार में जो कुछ भी होता है, उसका प्रभाव यदि बच्चों के भविष्य पर पड़े तो अच्छी बात नहीं है न पापा ? माता-पिता कुछ गलत करें और बच्चे उसे भुगतें .......”” दीति को भी यह बात समझ में नहीं आती थी, वह सदा सही बात का पक्ष लेती थी, इस बारे में वह माँ व भाई की ओर थी |
“”बेटा ! यह तो होता ही है, परिवार में एक के किए की सज़ा कईयों को भुगतनी पड़ती है | इसमें कोई दो राय नहीं हैं, इसीलिए तो कहा जाता है कि कोई भी काम करने से पहले गहराई से सोचो फिर उसे करो | ”” उदय बिटिया की बात का उत्तर देते और पुन: पत्नी की ओर मुखातिब हो जाते ;
“”तुम समझ नहीं रही हो शुभ्रा, हमारे यहाँ अभी तक यह कभी नहीं हुआ कि विवाह के बाद तलाक की नौबत आई हो | यहाँ तक कि बड़े भाई साहब ने परिवार के विरुद्ध ईसाई लड़की से शादी की पर उसे भी आज तक निभा रहे हैं न ? चाहे माँ जी ने उसे स्वीकार किया या नहीं पर जैसे-तैसे गाड़ी चल ही रही है न ? यहाँ तुम देखो, शादी हुई नहीं कि पहले परिवार से अलग होने की बात होती है और बाद में मियाँ-बीबी में ही अनबन शुरू हो जाती है | तलाक तो चुटकियों में हो जाता है | ””उदय ने एक चुटकी बजाई तो शुभ्रा का खून खौल उठा|
“ “सबको एक ही लकीर पर क्यों घसीटते हैं ? ब्याह हुआ नहीं, पहले तलाक की बात शुरू कर दी| ””पति के मुख से ब्याह के साथ तलाक शब्द सुनकर शुभ्रा उत्तेजित हो उठी थी किन्तु उदय की मानसिक स्थिति को समझते हुए उसने बहुत धीमे व कोमल स्वर में अपनी बात रखने का प्रयास किया था | परिवार की रचना क्या अलग होने के लिए की जाती है? परिवार वह मुट्ठी है जिसमें बंद दीवारों की सारी कथाएँ सिमटी रहती हैं जब तक वह मुट्ठी खुल ही न जाए | परिवार एक गीत है जिसके सभी सुर साधने पड़ते हैं यदि एक भी सुर इधर-उधर बहका तो लय-ताल सब बिगड़ जाते हैं और परिवार रूपी गीत का सौन्दर्य नष्ट हो जाता है |
“”आदमी किसी से नहीं हारता, अपनी औलाद से हारता है -----””उदय की खींची हुई लंबी साँस में उदित के रिश्ते को स्वीकार करने की विवशता सम्मिलित थी |
अंत में उदय को बेटे का रिश्ता स्वीकार करना ही पड़ा | एक ही बेटा था | उदय के मन की जलतरंग के सुर फीके पड़ने लगे | गर्वी के माता-पिता घर आए, यह परिवार मूल रूप से नासिक का था किन्तु चार पीढ़ियों से इनके पूर्वज गुजरात के निवासी हो गए थे | वे इस कदर गुजरात के वातावरण में घुल-मिल चुके थे कि कोई भी उन्हें मराठी परिवार के रूप में पहचानता ही नहीं था | शुभ्रा ने यहाँ आकर महसूस किया था कि यहाँ के निवासियों में उत्तर-प्रदेश तथा पंजाब के लोगों के प्रति एक विशेष आकर्षण बना रहता था, विशेषकर युवतियों के मन में | इसका कारण संभवत: इन प्रदेश के युवाओं के गोरे रंग, आकर्षक सुडौल व्यक्तित्व, रहन-सहन का, मौज-मस्ती का दिखावा यहाँ की कन्याओं को अपनी ओर आकर्षित करता | आज समय बदल चुका है, अब बहुत से बदलाव आ चुके हैं, पूरा विश्व जैसे सिकुड़ गया है किन्तु आज भी अनजान, भिन्न वातावरण में बेटी को ब्याहने की चिंता युवती के माता-पिता को होती है, ऐसा वह सोचती है, फिर यह घटना तो लगभग बीस-बाईस वर्ष पूर्व की थी | गर्वी के माता-पिता को भी एक स्वाभाविक चिंता रही होगी, वैसे गरवी की माँ बहुत ‘बोल्ड’स्त्री थीं | गर्वी के माता-पिता दहेज़ की बात करने उदय के पास आए तब उदय ने बहुत विनम्र शब्दों में उनसे कहा था कि उनका लड़का अभी पूरी तरह सैटिल नहीं है किन्तु दोनों साथ घूमते हैं अत: जब करना ही है तब विवाह जल्दी होना सबके हित में होगा और उससे पूर्व सगाई की रस्म तो शीघ्र ही हो जानी चाहिए | किसी भी माता-पिता के लिए अपनी पली-पलाई बेटी को किसी दूसरे घर में और वह भी किसी दूसरे वातावरण में भेज पाना सहज तो होता नहीं है किन्तु यह भी सत्य व स्वाभाविक है कि बिना विवाह के न तो राजा की बेटी रहती है और न ही रंक की| प्रकृति ने स्त्री और पुरुष दोनों की ज़रूरतें कुछ इस प्रकार उनके शरीरों में जज़्ब की हैं कि वे एक-दूसरे के पूरक बनकर ही जीवन को व्यतीत कर पाते हैं | विवाह का संस्कार समाज द्वारा बनाया गया और उन संस्कारों के अनुरूप चलना मनुष्य के संस्कार बन गए | अब यह बात अलग है कि आज समय बदल गया है, सोच में बदलाव आ रहे हैं, लड़के-लड़कियाँ बिना विवाह के अपनी मानसिक व शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा कर रहे हैं किन्तु उनमें स्थिरता कहाँ है? किन्तु एक बहुत गंभीर तथा पीड़ादायक प्रश्न यह है कि क्या आज के वातावरण में, आज के रिश्तों में संबंधों की स्थिरता की कोई गारंटी है ? संबंधों में संवेदनशीलता का अभाव बढ़ता ही जा रहा है | या तो धन की लालसा से रिश्ते टिके रहते हैं अथवा दोनों की आवश्यकता पूरी हुई और बस---तुम कहाँ, मैं कहाँ ? आज रिश्ते जैसे सूली की नोंक पर रखे रहते हैं | ज़रा सा हिले नहीं कि उनमें छिद्र हो गए, उनमें से रक्त प्रवाहित होने लगा| रिसता हुआ रक्त रुकता नहीं है, बहता ही रहता है जब तक पूरी तरह रिश्तों के शरीर निचुड़ न जाएं, रक्तहीन रिश्ते पीले पड़ जाते हैं | न उनमें मुस्कान रहती है, न खिलखिलाहट, न चहचहाहट और वे फट जाते हैं | खोखली संवेदना की डोरी पर लटकते हुए ये रिश्ते व्यंग्य से मुस्कुराते रहते हैं फिर अंधी कत्तरें बनकर सियाह हवाओं में इधर से उधर भटकते हैं, चिढ़ाने लगते हैं संबंधों को | हम आज परिवार नाम की संस्था का मजाक बनता हुआ देख रहे हैं | इससे तो अच्छा शायद वही समय रहा होगा जब कोई समाज-व्यवस्था नहीं रही होगी, रिश्तों को नाम नहीं दिए गए होंगे | स्त्री-पुरुष अपनी ज़रूरतों को कैसे भी पूरा कर लेते होंगे | आज सब बनकर बिगड़ रहा है, उसकी पीड़ा हर ह्रदय झेल रहा है |
““कहाँ उत्तर-प्रदेश के संस्कारों में घिरा मेरा मन और कहाँ गुजरात के खुले वातावरण को समेटे स्वतन्त्रता का पक्षधर खुलापन ! पता नहीं मैं कैसे इस वातावरण में साँस ले सकूंगा? ”” उदय उदित के विवाह के पूर्व जैसे कुंठित से रहने लगे थे |
“”कैसी बातें करते हैं ? आपको कहाँ कुछ करना है ? साँस तो मुझे लेनी हैं चारदीवारी के बीच! पुरुषों की तो दुनिया ही घर के बाहर बन जाती है जब कुछ भी उनकी पसंद के विपरीत होता है तो ----““ शुभ्रा हँस पड़ी थी | इतने बड़े परिवार को समेटना कितना कठिन था किन्तु ईश्वर की कृपा ने उसे इस परिवार को समेटे रखने का चातुर्य प्रदान किया था | वह सबके प्रति बहुत-बहुत कृतज्ञ थी, उसे सबने बहुत स्नेह भी तो दिया था | अब कुछ छोटी-मोटी खड़खड़ तो रसोईघर के बर्तनों में भी होती रहती है, उसे इस खड़खड़ का कोई मलाल नहीं रहा | यदि ऐसे जीवन व्यतीत होता है तो भला कहाँ आपत्ति है? शुभ्रा को अटूट विश्वास था कि उसके पुत्र और पुत्रवधू का जीवन भी उनके अपने वैवाहिक जीवन जैसा ही व्यतीत होगा | आखिर प्यार से क्या-कुछ नहीं किया जा सकता ? जीवन में जो कुछ भी है सब प्यार व स्नेह ही तो है, इसके बिना ज़िंदगी में कुछ भी तो नहीं| प्यार से अनेकों कठिनाईयाँ भी झेली जा सकती हैं | शुभ्रा ने स्वयं उदय के साथ मिलकर कितने कठिन समय को पार किया था | वह निश्चिन्त थी, अपने व्यवहार व स्नेहपूर्ण संवेदनशील स्वभाव पर ! उसे पूर्ण विश्वास था किन्तु उदय की बातें शुभ्रा को झंझोड़ डालती थीं, भयभीत भी कर देती थीं कभी-कभी, वह अपने सिर को झटका देकर नकारत्मकता को दूर फेंकने की चेष्टा करती | एक था सोने का मृग जिसने सीता को भरमा दिया था और एक यह था जीवन के सपने में से निकलकर भविष्य में पुकारता सोने का जाल जो उसे लुभाता रहा था एक चमचमाती जिंदगी जीने के लिए, वह कल्पना करती, किस प्रकार वह गर्वी के साथ मिलकर घर को स्वर्ग बना सकेगी ! बिटिया अपने ठिकाने चली गई थी, अब तो यही थी जो घर की रोशनी थी| पहले उसकी सोच भिन्न थी, उसने सोचा था अपने पुत्र का विवाह तब करेगी जब घर में सब सुविधाएँ बसा लेगी, दोनों पति-पत्नी अच्छा–खासा कमा लेते लेकिन उसे तो भविष्य की कभी कोई चिंता ही नहीं रही, समय बढ़िया गुज़र रहा था और उसे यह स्वप्न में भी ख्याल नहीं था कि उसके दोनों बच्चों के विवाह का समय इतनी जल्दी आ जाएगा | हर समय दांत फाड़ती दिखाई देती | उदय प्रकाश दूरदर्शी व्यक्ति ! वह खोने-खिंडाने में लगती तो वे भविष्य की सोचते | शुभ्रा ने कहाँ परवाह की थी कभी भविष्य की ? सदा मस्त ही तो रही, जिसने जीवन दिया है, वह उसे चलाने के सहारे भी देता है | किन्तु परिस्थितियाँ किसके रोके रुकी हैं, यह आयु का नशा सबको अपने ख्वाबगाह में घसीट ले जाता है और वही होता है, जो लिखा हुआ है | सब कुछ सुनिश्चित सा, जीवन में जो भी घटना है घटकर ही रहता है| शुभ्रा के पास सब कुछ बहुत व्यवस्थित नहीं था लेकिन व्यवस्था मन की होती है, बाहरी तो आवरण होता है | बहुत शिद्दत से शुभ्रा इस बात को स्वीकारती थी और यह भी सोचती व जानती थी कि रोने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता | हाँ, सकारात्मक उर्जा बहुत कुछ नकारात्मकता को उजाले में ज़रूर बदल देती है | सो, एक ख्वाबगाह सजा हुआ था उसके मन में अपनी बहू के साथ जीवन की नई डगर पर चलने का | अपने पुत्र व पुत्र-वधू का तीसरा सहारा बनकर उनके साथ चलने के लिए वह सदा तत्पर रही, उसे लगता वह बेशक लंगडी ही सही, निभा ही लेगी इस रिश्ते को प्रेम व संवेदन के सहारे, मूर्ख थी, नहीं समझती थी कि तीसरा लंगड़ा व्यक्तित्व अपंग होता है |
“”हमारे संस्कार हमें कचोटने लगते हैं | तुम जानती तो हो मैं आज तक भी इस खुले वातावरण का आदी नहीं हो पाया जबकि वर्षों हो गए यहाँ रहते, इसकी हवा में साँस लेते, इसकी मिट्टी में उगा अन्न खाते—” ”उदय बहुत-बहुत विचलित रहने लगे, शुभ्रा को कोफ़्त हुई, वह उत्साहपूर्वक डटी रही अपने बेटे के साथ | किसी के भी हाथ में कुछ था भी तो नहीं, उदित अडिग था इस विवाह के लिए! वह पति को ही समझाने का प्रयास करती, कभी कुछ कटु भी बोल जाती, जिसका दुःख उसे बाद में होता |
“ “ये तुम्हारी समस्या है, अब इतने वर्षों से यहाँ रह रहे हो तो अपनी मानसिकता में बदलाव करना होगा न ----कब तक पुराने जालों में फँसे रहोगे ? ”” शुभ्रा को अपने स्नेहिल व्यवहार पर कुछ अधिक ही विश्वास था | अभी तक तो उसका बचपन से लेकर आज तक किसी से भी झगड़ा हुआ नहीं था | उसे लगता किसी भी व्यक्ति को यदि प्यार मिले वह कैसे कठोर हो सकता है ? प्यार, स्नेह, शुभाशीषों का बड़ा सा पुलिंदा अपने दिल में समेटे शुभ्रा अपने बेटे के विवाह के लिए तैयार बैठी थी |
““तुम समझ नहीं रही हो ------यह आज का समय ----ऊपर से उदित की क्या तैयारी है शादी के लिए ? उसे भी तो अपनी आर्थिक स्थिति संभालनी होगी –“”उसे उत्साहित देखकर उदय बार-बार यही दोहराते | यहाँ तक कि शुभ्रा खीज उठती, समझ भी लेती तो कर क्या लेती ? क्या उदय कुछ कर सके थे ? फिर बिना कारण ही भुनभुन करने का कोई औचित्य भी तो नहीं था | यह सही भी था जब तक लड़का अपने पैरों पर खड़ा न हो जाए तब तक शादी की बात ही बेमानी थी किन्तु उसका क्या किया जाए जब घूम रहे हैं बिना किसी रिश्ते के ! काम पर लग गया था उदित किन्तु इतना नहीं कि अपना व अपने परिवार का भरण -पोषण कर लेता, वैसे भी तो उड़ाने वालों में ही था उदित, माँ पर ही गया था | इस परिवार के मूल्यों के अनुसार या तो उसे किसीकी लड़की को लेकर घूमना नहीं चाहिए था या फिर इसका एक ही हल था, विवाह कर देना| दीति की शादी के बाद जो रिश्ते आ रहे थे, उन्हें इसीलिए कोई हवा नहीं दी गई थी कि अभी उदित अपने पैरों से सही तरीके से पैर कहाँ जमा पाया था, अभी तो उम्र भी कुछ नहीं थी | सच तो यह है कि हम अपने ‘एथीक्स’ में मरे जाते हैं, शादी की जगह घूमता रहता तो घूमता | जिनकी लड़की थी उन्हें भी तो कोई चिंता होगी कि नहीं ? लेकिन नहीं, हम तो अपने को बड़ा महान समझते हैं न ? आज शुभ्रा तब सोच पा रही थी जब सब कुछ समाप्ति की कगार पर आकर खड़ा हो गया है, तब क्यों नहीं सोच पाई थी? क्यों नहीं रोक पाई थी सब कुछ होने देने से, उल्टा हवा ही दी थी उसने ! झूठी मृगमरीचिका के पीछे जीभ क्यों लपलपा रही थी? एक बिटिया गई है तो दूसरी आ जाएगी और बिटिया के खालीपन को भर घर फिर से स्वर्ग बन जाएगा |
“ “ठीक है, तो ब्याह के बाद दोनों को अलग कर देना ----“” शुभ्रा ने उदय के अधिक परेशान होने पर समस्या का हल दो टूक में उदय के सामने परोस दिया जैसे कटोरदान में से गरमागरम रोटी निकालकर उदय की प्लेट में रख दी हो और बड़ी खुशी-खुशी उसके चेहरे पर अपनी दृष्टि जमा दी| किन्तु शुभ्रा की खुशी उसके चेहरे पर टिकी न रह सकी, उसे फिर झटका लगा;
“”पागल हो गई हो क्या, अभी ये दोनों इस लायक हैं कि कमा-खा लेंगे ? ऐसे ही बच्चों को अलग किया जाता है क्या ? ”” शुभ्रा के उपरोक्त सुझाव से उदय गर्म हो उठे | उनके भीतर से पिता की बेचैनी झांकने लगती थी | अब दोनों में से कोई एक काम तो करना ही था या तो साथ रहो या ब्याह के बाद अलग कर दो | उदय दोनों ही तरह से असमंजस में थे | चित्त भी मेरी, पट्ट भी मेरी, ऐसा तो होता नहीं है | कहीं न कहीं तो सामंजस्य स्थापित करना ही पड़ता है |
“”ठीक है बाबा, फिर जब खाने-कमाने लायक हो जाएं तब अलग कर देना ---“” शुभ्रा चुपचाप वहाँ से खिसक गई थी |
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