मायामृग
(4)
बुखार भर से उनका इस प्रकार उठ जाना किसी के लिए भी पचा पाना कठिन था | जीवन को बहुत नाप-तोलकर जीने वाले उदय की दूरदृष्टि बहुत पैनी थी इसी कारण जब उन्हें पता चला था कि उनका बेटा उदित एक गुजराती लड़की के पीछे पगला गया है, वे बहुत असहज हो उठे थे | उम्र का यह दौर बहुत नाज़ुक होता है, न किसीको मना किया जा सकता है, न कोई प्रतिबन्ध ही लगाया जा सकता है और तुरंत स्वीकारने में भी अड़चन ही आ जाती है | वैसे उदय कोई बहुत संकुचित विचारों के भी नहीं थे पर जिस परिवार में उदित शादी करने की बात कर रहा था, वह परिवार कुछ विवादित था जिसके बारे में उदय अपने विवाह से पहले जानते थे और परिवार के बारे में कुछ अधिक अच्छे विचार नहीं बना पा रहे थे | उन्हें अपने बेटे उदित के मित्रों के द्वारा ही पता चला था कि उनका इकलौता लाड़ला अपने प्रेम के बारे में घर में न बता पाने के कारण रातों न जाने कहाँ-कहाँ भटकता रहता था किन्तु पिता से कहने का साहस नहीं कर पा रहा था| उदय के मन में परिवार के स्तर की बहुत महत्ता थी अत: वे अपने बेटे की करतूतों से प्रसन्न नहीं थे | हर परिवार में कुछ न कुछ कमजोरियां होती हैं पर इस प्रकार की कमज़ोरी खपा पाना उदय के लिए सरल नहीं था, वे जानते थे कि इस परिवार की बेटी सरल नहीं हो सकती अत:सुनते ही चिंतित हो उठे थे | शुभ्रा के मन में बेटे के प्रति कुछ अधिक ही ममता थी इसका कारण यह भी हो सकता है कि उसके अपने भाई नहीं थे और उसका बेटे के प्रति स्नेह व ममता एक छोटे भाई जैसी थी | उदय की माँ के ह्रदय में पोते को देखकर ही ऊपर जाने की तीव्र अभिलाषा की तरंगें उठती रहती थीं | हर पल वे उस पोते का स्वप्न देखतीं जिसके बारे में अभी किसी को कुछ गुमान तक न था | जब शुभ्रा ने अपने प्रथम शिशु को उनके पोते के रूप में जन्म दिया, वे इतनी गर्वित हो उठी थीं कि अपनी वृद्ध आयु से निकलकर कई वर्ष पीछे चली गईं, उनके मुख पर युवा मुस्कान थिरकने लगी थीं, उनके मुख पर ऎसी मुस्कराहट शुभ्रा ने कभी न देखी थी जैसे पोते के जन्म ने उन्हें उजड़े हुए दयार से पुष्पों की खिली हुई वाटिका में परिवर्तित कर दिया था | पोते को अपनी गोदी में उठाकर वे फूली न समातीं | तब तक शुभ्रा केवल यह जानती, समझती थी कि उसने एक बालक को जन्म दिया है और अब वह माँ की कोमल भावना को प्राप्त कर एक पूर्ण स्त्री बन चुकी है | माँ बनने का गौरव, एक पूर्ण स्त्री बनने की पूर्णता उसके उद्दीप्त मुखमंडल व शरीर की क्रियाओं से झाँकती रहती | बेटे-बेटी का अंतर उसे कभी न पहले समझ आता था, न ही अब | वर्ष भर बाद ही एक बिटिया भी उसकी गोदी में आ गई थी | इस प्रकार परिवार पूरा हो गया था | उत्सवों को खूब आनन्दपूर्वक जीने का सुन्दर बहाना दोनों भाई-बहन के रूप में उसके परिवार में आ गया था | उसके जैसे नहीं कि राखी और भाई-दूज के दिन वह अपना मुख लटकाए बैठी रहती | हाँ, जैसे-जैसे बड़ी हुई उसके भाई भी बनने लगे थे जिनमें से कुछ तो आज तक उसके साथ पवित्र बंधन से जुड़े हुए थे किन्तु बालपन की स्मृतियाँ कभी भी मनुष्य को झंझोड़ने लगती हैं जबकि उनका कोई औचित्य वर्तमान में नहीं होता |
ज़िंदगी बस चलती रही, दिन सूर्य और चन्द्रमा के सहारे व्यतीत होते रहे और जीवन वृत्तों में घूमता हुआ कगारों पर से फिसलता रहा और पुन: कगारों पर आकर कभी खिलखिलाता रहा, कभी बिसुरता रहा, कभी कराहता रहा | जीवन की गिरगिटी रंगत ही जीवन है, कहाँ वह कभी भी किसीका एक सा चलता है, लेकिन शुभ्रा इस तथ्य से परिचित होते हुए भी सदा इससे अनभिज्ञ ही बनी रही| मस्तमौला शुभ्रा और उससे भी अधिक मस्तमौला पर दूरदर्शी उदय प्रकाश ! जीवन उन दोनों के लिए ऐसा संगीत था जिसके गुनगुनाने से उनकी भोर होती और जिसे गुनगुनाते हुए रात में उनकी पलकें स्वप्न-लोक में विचरण करने के लिए मुंदती|
घर की लाड़ली बिटिया उदिता जिसे सब प्यार से दिती कहते उदय को जान से भी अधिक प्यारी ! नहाने गई है और अगर उसका वह साबुन खत्म हो गया है जिससे वह नहाने की आदी थी तो उसका ठुनकना शुरू | जब तक उदित उसे पड़ौस की दुकान से साबुन न ला देता, वह बाथरूम में ही तो बैठी शोर मचाती रहती | उस समय यदि पापा न होते घर में तो साबुन दिती को पकड़ाकर वह भी शोर मचाने लगता |
“”बड़ी महारानी है ! जब शंकर आया था उससे नहीं मंगवा सकती थी ? मैं दिखाई दे गया न तो बस ---और मम्मी-पापा भी तुझे ही ज्यादा लाड़ लड़ाते हैं | ””दोनों में खूब झकझक होती लेकिन एक बात बहुत महत्वपूर्ण थी कि दोनों भाई-बहन एक-दूसरे के राज़ आपस में साँझा ज़रूर करते थे और अन्दर ही अन्दर अपनी किसी भी समस्या का हल निकाल लेते थे | शुभ्रा कभी बच्चों की इन बातों को गंभीरता से नहीं लेती थी | सुबह उठकर घर के कुछ काम-काज समेट, अपने सहायकों को पूरे दिन का ब्यौरा समझाकर वह भी कॉलेज चली जाती और जब वापिस लौटती तो इतनी थक चुकी होती कि बाहर बरामदे की कुर्सी पर ही पसरने की मुद्रा में बैठ जाती, जानती थी कि कुछ ही देर में उदय भी आने वाले होते थे और चाय का सिलसिला उनके आने पर ही शुरू होता था | ’कुक’ दोनों को चाय –नाश्ता देकर अपने काम से छुट्टी पाकर चली जाती| रात का खाना वह पहले ही बना देती थी जिसे शुभ्रा खाते समय गर्म कर लेती | ऎसी थकान से सराबोर शुभ्रा की कुर्सी से लटकती टाँगों पर जब दोनों युवा बच्चे दाएँ-बाएँ लटके हुए से ज़मीन पर पसरकर अपनी झगड़े भरी रामकहानी सुनाने लगते तब उसे कुछ भी पता ही नहीं होता, कुछ भी सुनाई नहीं देता आखिर वे उससे क्या शिकायत कर रहे होते थे | वह तो दोनों के सिर पर लाड़ से हाथ फेरती अपनी ऑंखें मूंदे गर्दन ऐसे हिलाती रहती थी मानो सब कुछ समझ रही हो | इस सबका अंत बड़ा मजेदार होता, अधिकाँशत: उदय की गाड़ी तभी गेट पर आकर रुकती, ड्राईवर उनका बैग लेकर पीछे-पीछे आ रहा होता और लाकर बरामदे में रखकर मुस्कुराते हुए, हाथ को सलामी की मुद्रा में दिखा भर कर वहाँ से चला जाता | जब उदय “हूँ ---हो गया नाटक शुरू”कहते हुए अन्दर की ओर जाने लगते तब शुभ्रा अपनी आँखें खोलती और अपने दोनों लाड़लों के चेहरे पर खीज देखती व पति के चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान ! तब तक चाय-नाश्ता भी सामने रखी हुई छोटी सी मेज़ पर सज जाता और पति दो मिनट में हाथ-मुह धोकर बाहर कुर्सी पर आ बिराजते |
“”मुझे कोई प्यार नहीं करता, आप दोनों ही बस भैया को प्यार करते हैं ----”दिती कहते हुए माँ की गोद से उठ जाती तो उदित भी कहाँ कम था |
“”अच्छा ! तो हर रोज़ तुझे साबुन कौन लाकर देता है ? ”” वह लाल आँखें करके बहन की ओर देखता|
“”हाँ, मैं तो जैसे रोज़ ही एक साबुन खर्च कर देती हूँ ---”” ठुनकते हुए दीति उठ जाती और अपने कमरे में चली जाती | दोनों यह सोचने लगते शायद कि अब थके-हारे माता-पिता को कम से कम चाय तो पीने दें| हर दूसरे दिन का नाटक होता था यह, थोड़ी देर बाद देखते तो दोनों भाई-बहन बाहर चक्कर मारने जा रहे होते |
“”माँ! अभी आते हैं, थोड़ी देर में ---जरा बाज़ार तक चक्कर मार आएँ----””माँ –पापा दोनों को पता ही होता था कि अब ये दोनों अपने पुराने मित्रों को मिलकर ही आएँगे |
छोटे थोड़े ही रह गए थे दोनों, एक कॉलेज के प्रथम वर्ष में आ गया था और दूसरी बारहवीं कक्षा में | दो वर्ष पूर्व ही इस नए घर में शिफ्ट किया था, अभी यहाँ दोनों के बहुत मित्र नहीं बन पाए थे सो दोनों भाई-बहन अपनी पुरानी सोसाइटी में मित्रों से मिलने चले जाते | इस वर्ष उदित को मोटरसाइकिल व ‘ड्राइविंग-लायसेंस’ भी मिल गया था सो दोनों खा-पीकर हँसते हुए लौटते और शुभ्रा सोचती क्या ये वे ही उसके लाड़ले थे जो कुछ देर पूर्व ही उसकी जान खा रहे थे, आपस में दुश्मनों की भांति झगड़ रहे थे ? यह रोजाना का नाटक था अत: इससे किसीको कोई फ़र्क नहीं पड़ता था | सबको पता था दोनों भाई-बहनों की इतनी पटती थी कि कोई एक-दूसरे के बारे में किसी से भी कुछ गलत सुन ही नहीं सकता था | कब दिन निकल गए और कब दोनों भाई-बहन कब युवा हो गए, विवाह की दहलीज़ पर आकर खड़े हो गए, पता ही नहीं चला |
तब पता चला था जब दीति का प्रेम-विवाह परिवारों की आपसी रज़ामंदी से हुआ, कोई अधिक कठिनाई नहीं आई क्योंकि जिस परिवार के युवक से दीति का प्रेम-संबंध जुड़ा था वह परिवार उदय का पूर्व परिचित था, अपनी जात-बिरादरी का था और उत्तर-प्रदेश के सम्मानीय परिवार से संबंधित था | वैसे उदय इतने संकुचित विचारों के भी नहीं थे कि किसी दूसरी जाति से परहेज़ करते | वे बस यही चाहते थे कि जिस किसी परिवार से भी उनका संबंध जुड़े वह सुशिक्षित हो, सभ्य हो और समाज में उसकी इज्ज़त हो | मनुष्य अपने मानसिक स्तर के लोगों से जुड़ने में अधिक सहूलियत महसूस करता है | उसे भी लगता, बात तो ठीक ही है | पैसे से अधिक मानसिक संवेदनाओं का जुड़ाव अधिक महत्वपूर्ण है |
दीति के विवाह के तुरंत बाद ही उदित के प्रेम के बारे में उसके मित्रों ने कुछ कानाफूसियाँ करनी शुरू कर दी थीं | इतना ही नहीं उदित के कुछ शुभाकाँक्षी मित्र तो उदय के पास आकर बहुत सी ऎसी बातें बोल गए थे जिन्हें सोचकर उदय के कानों में कर्णकटु सीटी बजने लगती थीं, यद्धपि वे स्वयं बहुत सी बातों से बाबस्ता थे फिर भी अनजाने में कोई ऐसा भ्रम तलाशते थे और सोचते थे काश ! यह दिवा-स्वप्न एक भ्रम ही साबित हो | यह तो तय ही था कि उदय अभी तक यहाँ की स्वतन्त्रता को पचा नहीं पा रहे थे |
***