Sailaab - 25 in Hindi Moral Stories by Lata Tejeswar renuka books and stories PDF | सैलाब - 25

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सैलाब - 25

सैलाब

लता तेजेश्वर 'रेणुका'

अध्याय - 25

मुश्किल से शबनम की जिंदगी पटरी पर आने ही वाली थी किस्मत ने उसे फिर से जोरदार झटका दे दिया। दिल का दौरा पड़ने से उसके पिता का देहांत हो गया। घर की और उसके छोटे भाई बहन की जिम्मेदारी भी उसीके कंधे आन पड़ी। शतायु और पावनी से जितना हो सकता था मदद करते रहे। शतायु दिन में एक बार तो जरूर ही शबनम का हालचाल पूछने चला जाता था। उसकी सारी मुश्किलें शतायु अपने काँधे पर ले कर चलता था। शबनम को पुलिस स्टेशन और कोर्ट कचेरी ले जाने उसके साथ हर पल रहता था लेकिन शबनम किसी भी हालत में शतायु को अपने पास आने नहीं देती थी। उसके साथ हो चुके हादसे को शबनम भूल नहीं पा रही थी। इसलिए वह पुरुष को अपने आस पास बरदाश्त नहीं कर सकती थी।

१९ साल की उम्र में ही कंधे पर पड़ी इस जिम्मेदारी ने का शबनम को तोड़ कर रख दिया। उस लड़की का भाई बहनों के प्रति स्नेह और जिम्मेदारी का एहसास देख कर शतायु का मन भर आता था। वह उसके प्रति एक नजदीकी भाव महसूस करने लगा पर शबनम उसका साया तक भी पसंद नहीं करती थी। पुरुषों के प्रति एक नकारात्मक भाव उसके मन में घर कर गया था जिस की वजह से वह शतायु का उसके सामने आना भी पसंद नहीं करती थी।

बिंदु या पावनी के अलावा कोई उसके सामने भी आता तो हड़बड़ा कर अंदर चली जाती। शबनम को आईने में खुद से नज़रें मिलाना भी मुश्किल था। उसका मन उसके अस्तित्व पर हजार सवाल खड़ा कर देता। दिल और दिमाग के बीच इस कशमकश को सहन कर पाना उसके लिए कठिन था। लेकिन उसकी परिवार के प्रति जिम्मेदारी उसे डटकर खड़े होने पर मजबूर कर देती। वह जिंदा भी थी तो सिर्फ उसके भाई बहनों के लिए। उनकी जिंदगी को किसी भी तरह सँवारना था इसलिए उसे जीना ही था।

शतायु ने स्कूल में नौकरी करते हुए भी बिन्दु का साथ देता रहा। वह शबनम की जिंदगी उसका रहन सहन उसके मन में छाये हुये अंधकार को अच्छी तरह समझने लगा था। उसकी हर छोटी बात में अपनी प्रतिछाया देखने लगा। उसकी मुश्किलें, उसका दर्द, उसका अकेलापन शतायु को सहन नहीं हो रहा था। दिन का काफी समय शबनम के बारे में सोचते हुए गुजार देता। मगर वह कभी मदद करने आगे बढ़ता तो शबनम की तीक्ष्ण नज़रें उसे ही दूर ही रोक देती थी। वह शबनम का दु:ख बाँटना चाहता उसके परिवार की जिम्मेदारी उठाना चाहता पर शबनम की बेरुखी उसे घायल कर देती। वह शबनम की मनःस्थिति खूब समझ सकता था इसलिए कभी शबनम की बातों या नज़रों के तीक्ष्ण कटाक्षों का बुरा नहीं मानता था। शबनम के काले बुर्के के पीछे उसकी निस्तेज आँखों के अलावा शतायु उसे कभी देखा ही नहीं था। बुरके के पीछे से उसकी आँखें बिन बोले बहुत कुछ कह जाती थी।

शतायु शबनम को न्याय दिलाने के लिए सुबह शाम पुलिस स्टेशन और वकीलों के पीछे चक्कर काटता रहता। सिर्फ यही बात थी जो शबनम को शतायु से बात करने पर मजबूर करती थी। शतायु तो कोशिश करता था पर शबनम पर गुजरे हुए हादसों को जानते हुए वह अपनी बात कहने की हिम्मत नहीं कर पाता था। इस तरह वह अपने जीवन में जैसे रूक गया था। लेकिन समय तो कभी किसी के लिए रुकता ही नहीं। वह अपनी गति से आगे बढ़ता ही जाता है। शबनम और पहली गवाह बिन्दु की सहायता से उन चारों गुंडों को पहचान कर कैद कर लिया गया। लेकिन उनमें से एक जेल से भाग गया और शबनम पर केस वापस लेने के लिए दबाव डालने लगा। उसने शबनम को जान से मारने की धमकी भी दी।

***

शतायु समय समय पर शबनम के साथ पुलिस स्टेशन जाता रहा। जब भी शबनम को किसी भी चीज़ की जरूरत होती वह सब से पहले खड़ा हो जाता था। किसी अजनबी से मदद लेना शबनम को पसंद नहीं था लेकिन मजबूरन शतायु की सहायता लेनी पड़ती थी। धीरे धीरे उसे उसकी आदत सी पड़ गई, और उसकी निस्वार्थ सहायता से वह, उस पर भरोसा करने लगी थी।

जब शबनम को धमकी भरे पत्र आने लगे तो उसने शतायु को इस बारे में बताया। दोनों पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट लिखा कर वापस लौट ही रहे थे कि अचानक उसे चक्कर आने लगे। वह पास में एक सीमेंट के बेंच पर बैठ गयी। शबनम को इस हालत में देख शतायु घबरा गया। वह पास वाले दूकान से एक पानी की बोतल खरीद कर ले आया। शतायु ने उसकी आँखो पर पानी छिड़का कर होश में लाया और उसे पानी भी पिलाया।

"शबनम जी अब कैसा लग रहा है? आप ठीक तो है न?"

शबनम ने कुछ न कहते हुए सिर्फ सिर हिलाकर हाँ कहा।

"आप बैठिए, मैं कुछ खाने को लाता हूँ।"

"नहीं जी, मैं ठीक हूँ। मुझे कुछ नहीं चाहिए।"

"कुछ खा लीजिए नहीं तो कहीं गिर जायेंगी। मुझे पता है कई दिन से आप ठीक से कुछ खा भी नहीं रही है।"

शबनम रो पड़ी, "नहीं मुझे कुछ नहीं चाहिए। कितनी बद-नसीब हूँ मैं। माँ तो बहुत पहले ही चल बसी और अब तो हमारी देखभाल करने वाले आब्बू भी नहीं रहे। मेरे भाई बहन भूखे हैं तो मैं कैसे खा सकती हूँ?"

"पहले आप कुछ खा लीजिए, हिम्मत बनी रहेगी तो आप आपके भाई-बहनों की देखभाल कर सकेंगी। अगर आप ही हिम्मत छोड़ देंगी तो उन्हें सँभालेगा कौन?"

"पता नहीं काम तो कर रही हूँ लेकिन उससे दो वक्त के खाने का इंतजाम भी नहीं हो पाता। कैसे उन्हें भूखे मरने दूँ?"

"आप चिंता मत कीजिए कुछ हल निकालते हैं। अब आप ये कुछ पकोड़े खा लीजिए। बच्चों के लिए भी कुछ ले जाते हैं।"

"हम कब तक आप पर, बिन्दु और पावनी जी पर बोझ बन कर रहेंगे? घर जाते ही मेरे भाई बहन जब आशा से मेरा मुँह ताकते हैं तो उनके सामने कितनी बेबस हो जाती हूँ, ये मैं जानती हूँ।" उसके आँखों से आँसू बंद होने का नाम ही नहीं ले रहे थे।

"अब घर के बड़े अब्बू भी नहीं रहे। उनकी याद में एक रिक्शा ही है जिसे अपना कह सकूँ। मैं जब रिक्शा की और देखती हूँ ..."

"रिक्शा.. हाँ रिक्शा .. शबनम जी क्यों न आप कुछ दिन रिक्शा चलाने का भी काम करें?"

"रिक्शा?"

"हाँ, रिक्शा आप के अब्बू का काम आप क्यों न करें। जिससे आप को कुछ और रोजगार भी मिल जायेगा।"

"हाँ, रिक्शा .. जरूर, मुझे ये ख्याल पहले क्यों नहीं आया।"

"आप को रिक्शा चलाना आता है?"

"हाँ अब्बू ने मुझे सिखया था। मैं रिक्शा चला सकती हूँ।"

"लेकिन आप जब तक उस आदमी का पता न लग जाए जिसने धमकी भरी चिठ्ठी लिखी थी तब तक रिक्शा चलाने या कहीं अकेले आना-जाना खतरे से खाली नहीं होगा। कुछ दिन आप हिम्मत रखिए। बहुत जल्दी सब ठीक हो जाएगा।"

शबनम की आँखे चमक उठी, कोई तो रास्ता दिखाई दिया जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए। शबनम उठ कर खड़ी हुई उसे जैसे जीने की नई ऊर्जा मिल गयी हो।

***

शतायु को मुंबई आए छ:महिने हो चुके थे। पावनी शतायु की शादी को लेकर चिंतित थी। वह चाहती थी की जल्द से जल्द शतायु की शादी हो जाए। उसने दो तीन लड़कियाँ भी देख रखी थी लेकिन उससे बिंदु के मन की बात छिपी नहीं थी। पावनी के अलावा विनिता को भी इस बात का एहसास हो गया था कि शायद बिंदु शतायु को पसंद करने लगी है। इसलिए उसने बिंदु को शतायु से मिलने जुलने से मना कर दिया था। दोनों के बीच उम्र का फरक देखते हुए वह शादी के लिए सोचने को भी तैयार नहीं थी। बिंदु भी अपने मन की बात अपनी माँ को बताना तो चाहती थी लेकिन डर था कहीं विनिता इन्कार न कर दे। फिर उससे पहले शतायु की इच्छा भी जानना चाहती थी न जाने शतायु उसके बारे में क्या सोचता है।

इस दौरान शतायु और बिंदु की अच्छी दोस्ती हो गई थी। पावनी ने एक दिन शतायु को बुला कर कुछ तस्वीरें दिखा कर कहा, "शतायु देख तो कुछ तस्वीरें हैं, इसमें से कोई पसंद करले।"

शतायु ने उन तस्वीरों को टेबल के एक कोने पर रख दिया। पावनी उसके रवैये से दु,:खी हो गई ।

"किस बात के लिए मौसी?"

"जैसे कि कुछ जानता ही नहीं, अरे तेरे लिए प्रस्ताव आया है । अभी अभी पंडित जी ये तस्वीरें दे कर गये हैं।"

"प्रस्ताव?" शतायु ने प्रश्नार्थक नज़र से देखा।

"हाँ प्रस्ताव! और कब करेगा शादी? कब तक ऐसे अकेला रहेगा? कब तक तेरी जिम्मेदारी मुझे सहनी होगी। अब तो घर बसा ले। मुझे इस जिम्मेदारी से मुक्त करदे।" पावनी दु:खी हो कर बोली। पावनी ने रुँधे स्वर से कहा, "शतायु, मौसा ने तुझसे बात की थी कि नहीं? और शादी के लिए तूने हाँ भी कहा था।"

"हाँ मौसी मैंने शादी के लिए हाँ तो कहा था लेकिन लड़की देखने के लिए थोड़े ही कहा था?"

"क्या मतलब? लड़की बिना देखे शादी कैसे हो सकती है?"

***